वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में जिस व्यावहारिक दर्शन की आवश्यकता पारिलक्षित हो रही है उसके बीज डॉ 0 भीम राव अम्बेडकर के शिक्षा दर्शन में दीख पड़ते हैं ,आज हम सभी को उनके शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण से परिचित होना परम आवश्यक है प्रस्तुत है सरलतम शब्दों में उस महान व्यक्तित्व का शिक्षा दर्शन-          

     डॉ0 भीम राव अम्बेडकर का शिक्षा दर्शन [Educational Philosophy Of Dr. Bhim Rao Ambedkar]

मेधा के बीज स्वरुप को सम्यक वातावरण प्रदान करता है राष्ट्र। राष्ट्र की भावी पीढ़ी को राष्ट्रीय जीवन मूल्यों व राष्ट्रीय संस्कृति के अनुरूप संस्कारित करते हुए उसे राष्ट्रीय चेतना से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण साधन का काम करती है शिक्षा। प्रत्येक राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ताना बाना उपरोक्त पावन उद्देश्य को लेकर ही बुनता है परन्तु दुर्भाग्य है इस भारत देश का जो हजारों वर्षों की परकीय दासता से स्वतंत्र होने के छः  दशक बाद भी अपनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति तय नहीं कर पाया, व्यावहारिक धरातल देने में अम्बेडकर के दिशा निर्देश को समझ नहीं पाया।राजनैतिक वितण्डावादों की झंझाओं के झकझोरों से अपने मूल्यों से हिली हुई हमारी शिक्षा नीति मैकाले और मदरसाई कुबुद्धिजीवियों के हाथ खिलौना बन भावी पीढ़ी का आत्म गौरव शून्य , आत्म विश्वास शून्य ,राष्ट्र भाव शून्य और परमुखीपेक्षता के अंधगर्त में  धकेलती हुई दिखाई दे रही है, ऐसी स्थिति में डॉ 0 भीम राव अम्बेडकर व उनका शिक्षा दर्शन ही एक प्रकाश स्तम्भ के रूप में दीख पड़ रहा है।

ऐसी भीषण परिस्थिति में अम्बेडकर शिक्षा दर्शन वह पथ प्रदर्शक हो सकता है जो देश की अस्मिता से प्रेम करने वाले समस्त शिक्षाविदों, पत्रकारों,बुद्धिजीवियों ,इतिहासवेत्ता ,अध्यापकों व शिक्षार्थियों को उनकी व्यावहारिक मंजिल तक पहुँचा सके।

शिक्षा दर्शन (Educational Philosophy)

भीमराव अम्बेडकर को अधिकाँश लोग एक महान राजनीतिज्ञ और अछूतोद्धारक मानते हैं किन्तु उन्होंने मानव जीवन और समाज की प्राण ऊर्जा के रूप में जो महत्वपूर्ण कार्य किया वह भारतीय संविधान का सैद्धान्तिक रूपेण आधार बना, जहां राजनैतिक क्षेत्र ने उनकी बुद्धिमत्ता का लोहा माना वहीं वे सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा बने और अपने इस कार्य में उन्होंने शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया।उन्होंने वर्णाश्रम का विरोध किया शिक्षा को प्रगति का मूल आधार बताया। उनके द्वारा बुद्धिवाद के व्यावहारिक धरातल पर अनुभव की झंझाओं से गुजर कर जो मार्ग बनाया वही पथ यथार्थ में शिक्षा दर्शन का आधार बना।

शिक्षा दर्शन के मूल भूत आधार (Basic Principles Of Educational Philosophy )

(१) शिक्षा मानवता को प्रबुद्ध करने का साधन होना चाहिए जो वर्णाश्रम व अज्ञान की दीवार का भेदन कर सके।

(२) शिक्षा बौद्धिक प्रवृत्ति के विकास का मार्ग तैयार करने वाली कारक बने जो श्रेष्ठ स्वधर्म स्वयं तय करने की योग्यता पैदा करे।

(३) शिक्षा को अन्धविश्वास,रूढ़ियों को तोड़ने का सबल आधार होना चाहिए, यह ऐसा कारक हो जिससे कम से कम              अपने ही बन्धुओं के बीच मित्रता ,समानता, सहयोग और सहभागिता के सम्बन्ध बन पाएं और जाति,सम्प्रदाय, धन , जन्म स्थान आदि के बन्धन का ह्रास हो सके।

(4)- अम्बेडकर  के अनुसार शिक्षा का प्रमुख सन्देश मानव सेवा होना चाहिए इससे मानव मानव के बीच एकता और सम्यक सम्बन्धों के विकास को बल मिलना चाहिए।

(5)- इनके अनुसार शिक्षा सड़ी गली अव्यवहारिक धारणाओं को कुचलने में इतनी समर्थ होनी चाहिए जिससे दोषयुक्त व्यवहारों में परिवर्तन हो सके।

(6)- शिक्षा का स्वरुप भ्रामक न होकर सरल होना चाहिए। यह छल , प्रपञ्च का आधार न रखने वाली व मानवता के बीच प्रेम प्रसारित करने वाली होनी चाहिए।

(7)- शिक्षा वह कारक बने जो मनुष्य के स्वयं की भूमिका के महत्त्व को समझाने में समर्थ हो।

(8)- शिक्षा स्वतन्त्र बुद्धि के विकास का कारण बने व बौद्धिक प्रतिभा को निर्धन व निकृष्ट होने से बचाए।

(9)- शिक्षा पारलौकिक मूल्य स्थापन की जगह वास्तविक समाजोपयोगी मूल्यों के सृजन व स्थापन में सहयोगी बने।

(10)- शिक्षा मानव सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित हो व मानव व्यक्तित्व विकास में समर्थ बने।

(11)- शिक्षा वास्तविक जीवन पर अवलम्बित हो जिससे सामाजिक, राजनैतिक ,सौन्दर्यात्मकता और नैतिकता के सही मानदण्ड विद्यार्थी में विकसित हो सकें।

(12)- शिक्षा को नवीन चुनौती से लड़ने की योग्यता देने की क्षमता हासिल करनी चाहिए जिससे सामाजिक परिवर्तन की यात्रा सुगम हो सके।

(13)- शिक्षा के द्वारा शिक्षार्थी में सदगुण धारण करने की शक्ति का विकास होना चाहिए इससे न्याय व समानता के सिद्धान्त को भी पोषण मिलना चाहिए। डॉ 0 भीमराव अम्बेडकर (नैमिशराय ,मोहनदास ,’बाबा साहेब ने कहा था’ पृष्ठ 76 ) ने कहा –

“जोव्यक्ति न तो अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करता है और न दूसरों के लिए ,अर्थात न अपनी स्वतंत्रता एवम समानता की चिन्ता करता है और न अन्य लोगों के लिए। वह निरर्थक जीवन के अस्तित्व में जी रहा है। वह अपने लिए ही नहीं वरन समस्त संसार के लिए व्यर्थ है। “

वे शिक्षा प्रसार के हिमायती थे। उन्होने स्पष्टतः स्वीकार किया और कहा-

“आदमी केवल रोटी पर ही जीवित नहीं रह सकता,उसको मस्तिष्क भी मिला हुआ है,जिसे विचारों     की खुराक चाहिए”

(नैमिशराय ,मोहनदास ,’बाबा साहेब ने कहा था’ पृष्ठ 73 )

शिक्षा से आशय (Educational Concept)-

डॉ 0 अम्बेडकर ने  गहन अध्ययन के साथ शिक्षा के महत्त्व कोसमझा। शिक्षा के महत्त्व को  जानते हुए उनके द्वारा रुपये की समस्या पर शोध किया गया।

डॉ 0 भीमराव  अम्बेडकर एम0 ए 0 ,एम 0 एससी 0   पी-एच 0 डी 0 ,डी 0 एससी 0,बैरिस्टर एट  लॉ ,एलएल डी 0 ,डी 0 लिट 0 के ज्ञानार्जन के पश्चात व्यापक दृस्टि कोण से युक्त हो गए वे शिक्षा को नए विचार उत्पन्न करने का साधन व पुराने में सुधार का साधन मानते हैं। उनके अनुसार -:

“उसे सामान्य प्रकार की तैयारशुदा व्यावसायिक धारणाओं तक अपने को सीमित नहीं रखना है एक औसतन मॉडल तक नहीं पहुँचना है जो किसी के उपयुक्त न हो ,क्योंकि वह लगभग प्रत्येक के उपयुक्त है किन्तु उसे मापने का कार्य करना  है अपनी योजना को अविरल नया बनाना है अपने मन को निरंतर पुनर्जीवित रखना है और प्रत्येक नयी समस्या का एक नए समायोजनशील प्रयास के साथ सामना करना है  उसे धारणाओं से वस्तुओं की ओर नहीं जाना चाहिए मानो उनमें से प्रत्येक अनेक समवर्ती सामान्यताओं का मात्र एक पृथक बिंदु है दिलचस्प अमूर्त  विचारों का एक आदर्श केन्द्र है  इसके विपरीत उसे वस्तुओं से धारणाओं की ओर जाना चाहिए  निरन्तर  नए विचार उत्पन्न करते रहना और पुरानों  को निरन्तर  सुधारते रहना  चाहिए

(ई 0 ले 0 रॉय : ए न्यू फिलॉसोफी -हेनरी बर्गसां ,1913 ,पृष्ठ 46 )

इस प्रकार उनका मानना है कि शिक्षा समायोजनशीलता व नए विचार उत्पन्न करने का साधन है

शिक्षा का उद्देश्य ( Educational Objectives )-

डॉ 0 भीम राव अम्बेडकर शिक्षा को मानव कल्याण का महत्त्वपूर्ण साधन  मानते हैं वे बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित थे उन्होंने एक बार कहा भी था :

” इस प्रकार बौद्ध देशों की नव पीढ़ी को मैं सलाह देता हूँ कि वह बुद्ध की वास्तविक शिक्षाओं की ओर  अधिक ध्यान दें।  “

(टेन स्पोक अम्बेडकर ,भाग दो ,पृष्ठ 137)

अम्बेडकर शिक्षा को मानवोत्थान का करक मानते हुए निम्न लिखित उद्देश्य निर्धारित करते हैं।

(1)-नैतिक एवम चारित्रिक विकास (Moral and Character Devolopment)  –

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन कर चारित्रिक विकास करना है उन्होंने 12 फरवरी 1938 को नवयुवकों की एक सभा में कहा –

“शिक्षा एक दुधारी तलवार की तरह है जो व्यक्ति चरित्रहीन व विनय रहित है वह शिक्षित होते हुए भी एक पशु से भी भयावह है। “

(नैमिष राय,मोहन दास व ए 0 आर0 अकेला ,बाबा साहेब ने कहा था ,आनन्द साहित्य सदन ,अलीगढ ,पृष्ठ 17 )

(2)-मानसिक तथा बौद्धिक विकास (Mental and Intellectual Development) –

वे मानसिक व बौद्धिक विकास को शिक्षा का उद्देश्य स्वीकारते थे उनका मानना था की इसी से विवेक जाग्रत हो सकता है। उनके अनुसार –

“समाज में शिक्षा ही समानता ला सकती है जब मनुष्य शिक्षित हो जाता है तो उसमें विवेक -सोच की शक्ति पैदा हो जाती है जिससे अच्छे बुरे का ज्ञान और निर्णय लेने की क्षमता आ जाती है। ” (नैमिष राय,मोहन दास व ए 0 आर0 अकेला ,बाबा साहेब ने कहा था ,आनन्द साहित्य सदन ,अलीगढ ,पृष्ठ 14 )

शारीरिक विकास व एकता शक्ति का विकास – शरीर के सन्तुलित विकास में ही विकास के बीज छिपे हैं इसे जानकर ही उचित आहार विहार के प्रति सतर्क करने को शिक्षा का उद्देश्य माना ,उनका विश्वास था की इसी से ही सर्जनात्मक सोच विकसित हो सकती है इन्होनें कहा –

“एकता से साहस पैदा होता है साहस से आंदोलन छेड़े जाते हैं और उन्ही से  कुछ  प्राप्त भी होता है।….. ……. ….. .. किसी आदर्श या उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें शक्ति का प्रयोग करना चाहिए हमें इसका प्रयोग हिंसा की भाँति  नष्टकारक रूप में नहीं बल्कि तेज की तरह निर्माणात्मक ढंग से करना चाहिए ” [Dr.Baba Saheb Ambedkr:Writings & Speeches,Vol,1,Page485-486]

शारीरिक विकास व एकता शक्ति का विकास( Physical Development and Development of  Power of Unity) –

शरीर के सन्तुलित विकास में ही विकास के बीज छिपे हैं इसे जानकर ही उचित आहार विहार के प्रति सतर्क करने को शिक्षा का उद्देश्य माना इसी से ही सृजनात्मक सोच विकसित हो सकती है इन्होनें कहा –

“एकता से साहस पैदा होता हैसाहस से आन्दोलन छेड़े जाते हैं और उन्ही से कुछ प्राप्त भी होता है. . . . . . . . . किसी आदर्श या उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। हमें इसका प्रयोग हिंसा की भाँति नष्टकारक रूप में नहीं बल्कि तेज़ की  तरह निर्माणात्मक ढंग से करना चाहिए। “

[Dr. Baba Saheb Ambedkar :Writings and Speeches;Volume 1,Page 485-486]

(4)-सङ्कीर्णता से मुक्ति (Freedom from Narrowness) –

अम्बेडकर महोदय शिक्षा को सङ्कीर्णता से मुक्ति का साधन बनाना चाहते थे इस सन्दर्भ में डॉ 0 डी 0 आर 0 जाटव के विचार दृष्टव्य  हैं-

“डॉ 0  अम्बेडकर स्वयं एक ऐसे विद्रोही विद्वान थे जो आदमी को पुरोहितवाद,धर्मान्धता ,कट्टरता ,साम्प्रदायिकता ,वर्णव्यस्था ,जातिवाद ,परलोकवाद ,ईश्वरवाद ,नरक-स्वर्गवाद ,छुआछूत आदि से मुक्त करना चाहते थे। ”   (जाटव,डी 0 आर 0 ,डॉ 0  अम्बेडकर का धर्म दर्शन ,पृष्ठ 139 )

राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय एकता   (Nationalism and National Integration) –

शिक्षा को राष्ट्र प्रेम जागरण में विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करना चाहिए इस सन्दर्भ में उनके विचार दृष्टव्य हैं।  :-

“मेरी राय में ,आज की सबसे अधिक मूल आवश्यकता इस बात की है की जन समुदायों में एक सामान्य राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जाए ,यह भावना नहीं की वे प्रथम  हिन्दू ,मुस्लिम ,सिंधी या कर्नाटकी हैं ,बल्कि यह की प्रथम तथा अन्ततः भारतीय हैं। “

(इण्डियन स्टैट्यूटरी कमीशन वॉल्यूम -3 ,अपेंडिक्स -डी ,पृष्ठ 87 -156)

पाठ्यक्रम (Syllabus) –

अम्बेडकर शिक्षा का महत्त्वपूर्ण  उद्देश्य जनजागृति को मानते हैं उनके अनुसार गणित ,विज्ञान ,सामाजिक विज्ञान व आचरण की शिक्षा को  मुख्यतः पाठ्यक्रम का अंग बनाया जाना चाहिए। खेलकूद व्यायाम व जीविकोपार्जन की शिक्षा को भी पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए

अम्बेडकर चाहते थे की शिक्षा कालानुरूप होनी चाहिए व पाठ्यक्रम मानव सर्जना को दिशा देने वाला होना चाहिए जैसा की डॉ 0 डी 0 आर 0 जाटव ने कहा :-

“मानव के स्वरुप में अन्तर्निहित अनेक सामर्थ्यों में डॉ 0 अम्बेडकर की अटूट आस्था थी उनके मतानुसार आदमी और जगत का कोई पूर्व निर्धारित लक्ष्य नहीं है और चुनाव एवं स्वतन्त्रता की शक्ति  ने  हमें भावी जीवन की आशा प्रदान की है।  ……..  मनुष्य प्रकृति का विलक्षण प्रतिनिधि है जिसमें सर्जनात्मकता की भावना अपार मात्रा में अन्तर्निहित है। “

((डॉ 0 डी 0 आर 0 जाटव ,डॉ 0 अम्बेडकर का धर्म दर्शन ,पृष्ठ 138 )

शिक्षण विधि (Teaching Methods) :-

डॉ 0 अम्बेडकर अपने समय में प्रचलित शिक्षण विधियों को दोषपूर्ण समझते थे वे ऐसी शिक्षण विधियों का विकास चाहते थे जो स्वतन्त्र चिन्तन की दिशा में सहायक हो सके ,करके सीखना ,अनुभव द्वारा सीखना ,तर्क द्वारा सीखना ,प्र्श्नोत्तर द्वारा सीखना ,वाद विवाद द्वारा सीखने  को वे शिक्षण विधि के रूप में आवश्यक समझते थे तात्कालिक आवश्यकतानुरूप दृष्टान्त या उदाहरण विधि का आश्रय लेने को भी ये उचित समझते थे उनके अनुसार शिक्षण विधियाँ समतावादी दृष्टिकोण संयुक्त  व प्रेरक शक्ति से युक्त होना चाहिए। व्यावहारिक जीवन में उन्होंने व्याख्या व व्याख्यान विधि का प्रयोग किया।

शिक्षक (Teacher) :-

वे शिक्षक को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं अपने शिक्षक जीवन में उन्होंने महसूस किया कि शिक्षक व्यक्तिवादी विचार से युक्त न होकर विस्तृत व्यापक दृष्टिकोण का स्वामी होना चाहिए समाज की रूढ़ियों को तोड़ने वाला व समाज को सम्यक दिशा देने वाला यथार्थवादी  होना चाहिए  उनके इस सम्बन्ध के विचारों  को डॉ 0 डी 0 आर0  जाटव के इस कथन में देखा जा सकता है –

” आदमी को पुरोहितवाद,धर्मान्धता ,कट्टरता ,साम्प्रदायिकता ,वर्णव्यस्था ,जातिवाद ,परलोकवाद ,ईश्वरवाद ,नरक-स्वर्गवाद ,छुआछूत आदि से मुक्त करना चाहते थे।वह चाहते थे आदमी आदमी के बीच सम्यक सम्बन्ध स्थापित हों और एक समतावादी समाज की नीव दृढ हो।  “

(जाटव,डी 0 आर 0 ,डॉ 0  अम्बेडकर का धर्म दर्शन ,पृष्ठ 139 )

शिक्षार्थी (Student) :-

शिक्षार्थी अपने आप में सामंजस्य का गुण विकसित करें वे मानते हैं कि सामंजस्यता व सामजिक दृढ़ता दोनों ही महत्वपूर्ण हैं लेकिन प्रगति और न्याय के आधारों को छिन्न भिन्न नहीं किया जाना चाहिए और सामान्य मूल्यों के प्रति अटूट आस्था रखनी चाहिए जैसा कि टी 0 एच 0 ग्रीन ने भी कहा –

“वास्तविक समाज उन लोगों का है जिनमें एक सामान्य भावना है और सामान्य मूल्यों के प्रति अटूट आस्था है। “

(  T. H. Green;Lectures on the Principles Of Political Obligation 1929,page84)

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वे उचित व्यवहार ,आदर्श चरित्र ,धर्म  के प्रति जागरूक दृष्टिकोण ,मानवता ,समानता व सजगता के पक्षधर थे। शिक्षा हेतु उचित धनराशि का व्यय राष्ट्र के सम्यक पोषण की आधार शिला मानते थे। सच्चे अर्थों में उन्होंने राष्ट्र के सजग प्रहरी की भूमिका जीवन पर्यन्त निर्वाहित की।

 

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