क्रान्ति का सिपाही, शान्ति दूत होता जा रहा हूँ,

अर्थात अपनी पहचान मर्यादा खोता जा रहा हूँ,

क्रान्ति के आवाहन की ताक़त चुक गई मुझमें,

तभी तो शोणित का, वो ज्वार खोता जा रहा हूँ।

पद पर हूँ, दायित्व बोध बल डुबोता जा रहा हूँ,

कर्त्तव्यनिर्वाह न कर अधिकार खोता जारहा हूँ,

जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत ही चुकगई मुझमें,

नकली फुँकार के साथ, अधूरा होता जा रहा हूँ।

जल्दबाज़ी के फेर में  गुणवत्ता खोता जा रहा हूँ,

चेहरे पर चेहरा चढ़ाकर अब तो रोता जा रहा हूँ,

अवसादों से बचने की,हिक़मत नहीं बची मुझमें,

अब तो बस मृतसम्बन्धों का भार ढोता जारहा हूँ।

कालिमा और गुबार का हिस्सा होता जा रहा हूँ,

ऐसा लगता है अत्याधिक गम्भीर होता जारहा हूँ,

सम्बन्ध निभाने की सभ्य ताक़त नहींबची मुझमें,

इसी कारण कहीँ जिन्दा-दिली खोता जा रहा हूँ।

अवसाद में डूबते व्यक्तित्व का आत्म विश्वास लौटने पर पँक्तियों ने करवट यूँ ली –

कौन कहता है कि जिन्दादिली खोता जा रहा हूँ,

कौन कहता है थपेड़ों में पतवार ढोता जारहा हूँ,

यह ग़लतफ़हमी है कि हिम्मत नहीं बची मुझमें,

शक्ति के अतलस्रोत से अब जुड़ता जारहा हूँ मैं।   

युवा हौसले संग इक जलजला लेकर आ रहा हूँ,

क्रान्ति की दिशा बोधक मशाल साथ ला रहा हूँ,

शक्ति का अद्भुत, नव प्रवाह जुड़ गया मुझ में,

होशो हवास का स्तर सौम्य सम्यक बना रहा हूँ।

शौर्य कलशों हित नवीन ओज भरता जा रहा हूँ,

अकेला था हौसलों की, फौज लेकर आ रहा हूँ,

भवानी कृपा, महाकाल झंकार जुड़ गया मुझमें,

गद्दार भ्रष्टाचारियों का काल बनकर आ रहा हूँ।

प्राचीन को शोध नवइतिहास लिखता जा रहा हूँ,

सच क्या व गलत क्या पहचान करता जा रहा हूँ,

अँगार अनल ताप का विकराल जुड़ गया मुझमें,

नवनिर्माण हित विध्वंश के बीज खोता जा रहा हूँ।

नव ऊर्जा, युवा ऊर्जा,आह्वान करता जा रहा हूँ,

गढ़ने को आर्या वृत्त, नवोन्माद भरता जा रहा हूँ,

कुटिलता छल फरेब आतंक वाद नहीं है मुझमें,

‘नाथ’ अक्षय शक्ति का भण्डार बनता जा रहा हूँ।


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