बहुधा यह दृष्टिगत होता है कि किन्हीं दिनों अधिक समय तक पढ़ने,कार्य करने वाले लोग भी यह शिकायत करते हैं कि अब उतना कार्य या उतनी पढ़ाई नहीं हो पा रही है ऐसी स्थिति में क्या करें। पढ़ाई में मन कैसे लगाएं।
अक्सर यह देखने को मिलता है की अधिकाँश लोग इस स्थिति से गुजरते हैं
लेकिन इस स्थिति से बचाव किया जा सकता है आवश्यकता है निर्विकल्प होकर दिए गए
बिन्दुओं पर विचार कर अमल में लाने की।
पढ़ाई
में मन लगाने के उपाय (Ways to focus on studies) :-
पढ़ाई
या निर्धारित कार्य में मन लगाने हेतु आवश्यक तत्व इस पकार क्रमित किये जा सकते
हैं –
1- मानसिक साम्य (Mental equilibrium)
2 – लक्ष्य निर्धारण (Goal setting)
3 – अधिगम स्थल चयन (Learning site selection)
4 – डर हटाएँ आत्मविश्वास बढ़ाएं (Eliminate Fear Increase Confidence)
5 – दृढ़ निश्चय (Firm determination)
6 – बाधा निवारण (Obstacle avoidance)
7 – विषयवस्तु आधारित समय सारिणी (Theme Based Time Table)
8 – आरम्भ व निरन्तरता (Beginning and continuation)
आशा ही नहीं विश्वास है कि उक्त आधार पर आपके सपने अपने हो जाएंगे और
आप तन्मयता से अध्ययन या स्वकार्य कर पाएंगे।
इससे आशय आंग्ल भाषा के Creativity से है सर्जनात्मकता शब्द कुछ ऐसे शब्दों द्वारा भी लोगों द्वारा
अभिव्यक्त किया जाता है जो अर्थ में इससे अन्तर रखते हैं जैसे विधायकता, उत्पादकता, खोज
आदि जबकि विधायकता से एकत्रीकरण का,उत्पादकता(Productivity) से उत्पादन का और खोज से Search या Discovery का बोध होता है। सृजनात्मकता को इसका पर्याय या
सबसे करीबी माना जा सकता है जब कि सृजन में शून्य का भाव निहित है और सर्जन में
वर्तमान या विद्यमान में नवीनता या मौलिकता की सृष्टि करनी पड़ती है। वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में सर्जनात्मकता के समानान्तर सृजनात्मकता, रचनात्मक, सर्जक,उत्पन्न करना, बनाना आदि को आवश्यकता नुसार लिया जा सकता है।
सर्जनात्मकता की परिभाषाएं (Definitions of creativity) :-
विविध विद्वानों द्वारा इसे विविध रूप से पारिभाषित किया गया है स्टेन
महोदय का मानना है –
“When it results in a novel work that is accept
as tenable or useful or satisfying by a group at some point in time.”
“जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो जो किसी समय
में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मकता कहलाता है। ”
एक अन्य विद्वान् मेडनिक महोदय का मानना है कि –
“Creative thinking consists of forming new
combinations of associative elements. Which combinations either meet specified
requirements or are in some way useful.The more mutually remote the elements of
new combinations. The more creative is the process of solution.”
“सर्जनात्मक चिन्तन में साहचर्य के तत्वों का
मिश्रण रहता है जो विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संयोगशील होते हैं या किसी
अन्य रूप में लाभ दायक होते हैं। नवीन संयोग के विचार जितने कम होंगे,सृजनात्मकता की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी।”
क्रो एण्ड क्रो महोदय का विचार है :-
“Creativity is a mental process to express the
original outcomes.”
“सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को व्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया
है।”
एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारक सी० वी ० गुड महोदय का मानना है :-
“A quality of thought to be composed of broad
continue upon which all members of the population may be placed in different
degrees, the factors of creativity are tentatively described as associate and
ideational fluency, originality adaptive and spontaneously flexibility and
ability to make logical evaluation
“सर्जनात्मकता वह विचार है जो किसी समूह में
विस्तृत सातत्य का निर्माण करता है सर्जनात्मकता के कारक हैं -साहचर्य, आदर्शात्मक मौलिकता, अनुकूलता,सातत्यता,लोच एवम तार्किक विकास की योग्यता।”
उक्त विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि सर्जनात्मकता में
मौलिकता, नवीनता, उपयोगिता, संयोग से सृजन, आवश्यकतानुसार सृजन के गुण विद्यमान रहते हैं। जिनका आधार चिन्तन
होता है।
विद्यार्थियों में
सृजनात्मकता की वृद्धि के उपाय (Ways to increase creativity in students) –
1- विद्यार्थियों
की प्रतिक्रियाओं को उचित सम्मान (Due respect to the responses of the students)
2 – कल्पना
आधारित प्रस्तुतीकरण (Imagination Based Presentation)
3 – पाठ्यक्रम
में क्रिया आधारित अधिगम को बढ़ावा (Promotion of action based learning in
the curriculum)
4 – सूचना
संग्रहण, आकलन
विश्लेषण का उपयोग (Information collection, use of assessment analysis)
5 – पाठ्य
सहगामी क्रियाओं से सृजनशीलता का विकास (Development of creativity through
co-curricular activities)
6 – उपयुक्त
शिक्षण विधियों का प्रयोग (Use of appropriate teaching methods)
7 – तार्किकता
का उन्नयन (Upgrading
Logic)
8 – अभिव्यक्ति
के समुचित अवसर (Reasonable opportunities for expression)
विषय वस्तु को अध्ययन व अधिगम के दृष्टिकोण से निम्न भागों में बाँट
कर अध्ययन करेंगे :-
1 – सामाजिक
नियन्त्रण की अवधारणा (concept
of social control)
2 – सामाजिक
नियन्त्रण से आशय व विविध परिभाषाएं
(Meaning and definitions of social
control)
3 – शैक्षिक
विकास में सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका
(Role of
social control in educational development)
4 – निष्कर्ष
(Conclusion)
1 – सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा (concept of social control): –
भारत में सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा सर्वाधिक पुरातन व सनातन है
सर्व प्रथम ऋषि परम्पराओं व उनके निर्देशों में इनके दर्शन होते हैं और इनका
सर्वाधिक व्यवस्थित रूप कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था में द्रष्टव्य होता है विविध
राजाओं, कबीलों व समुदायों की व्यवस्था में भी इसके अंश
दिखाई देते हैं। कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था पर विविध विद्वत जनों ने कार्य किया
है।
हम स्वभावतः या उदार या गुलाम मानसिकता के चलते
हर विचार की जड़ हिन्दुस्तान से बाहर देखना चाहते हैं इस क्रम में अमेरिका के
प्रसिद्द समाज शास्त्री E.A.Ross की 1901 में लिखी गई पुस्तक सोशल कन्ट्रोल (SOCIAL
CONTROL) का
आधार लिया जाता है इन्होने अपनी पुस्तक में व्यवस्थित रूप से समाज के नियन्त्रण
कार्य, संस्थाओं
में धर्म, विश्वास
कानून नैतिकता लोकमत रीति रिवाज व शिक्षा की भूमिकाओं का वर्णन किया है।
2 – सामाजिक नियन्त्रण से आशय व विविध परिभाषाएं
(Meaning and definitions of social
control)
सामाजिक नियंत्रण से आशय उस नियंत्रण से है जिसमें समाज की उन्नति के
बीज छिपे होते हैं इस हेतु जिन मर्यादाओं परम्पराओं व नियमों का अनुपालन आवश्यक
होता है उसके सुनिश्चितीकरण का प्रयास
किया जाता है। इसके माध्यम से समूह द्वारा निर्धारित नियमों का अनुपालन कराने हेतु
बाध्यकारी शक्तियों को भी प्रयोग में लाया जाता है। वस्तुतः सामाजिक उद्देश्यों व
सामाजिक आदर्शों के स्थापन हेतु इनका प्रयोग किया जाता है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री रॉस महोदय कहते हैं –
“सामाजिक नियन्त्रण का तात्पर्य उन तमाम
व्यक्तियों से है, जिसके द्वारा समुदाय व्यक्तियों को अपने अनुसार
ढालता है। ”
“Social
control refers to all those individuals by which the community molds
individuals according to itself.”
मैकाइवर व पेज के अनुसार –
“सामाजिक नियन्त्रण से आशय उस तरीके से है
जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था अपने को संगठित बनाये रखती है।”
“Social
control refers to the manner in which the whole social system keeps itself
organized.”
बोगार्ड के अनुसार –
“सामाजिक नियन्त्रण वह पद्यति है,जिसमें एक समूह अपने सदस्य के व्यवहारों को
नियन्त्रित करता है। ”
“Social
control is the method in which a group controls the behavior of its
members.”
लेण्डिस महोदय के अनुसार –
“सामाजिक नियन्त्रण वह प्रक्रिया है जिसके
द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थापित तथा बनाये राखी जाती है।”
“Social
control is the process by which social order is established and
maintained.”
आर. जी. स्मिथ महोदय के अनुसार –
“सामाजिक नियन्त्रण उन उद्देश्यों की प्राप्ति
है जो उन उद्देश्यों के साधनों के प्रति चेतन सामूहिक अनुकूलन द्वारा होती है।”
“Social control is the attainment of those
objectives by conscious collective adaptation to the means of those
objectives.”
3 – शैक्षिक विकास में सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका
(Role of social control in educational development)
01- व्यवहार नियन्त्रण द्वारा शैक्षिक विकास(Educational Development by Behavioral
Control)
02- सामाजिक समानता को प्रश्रय (Supporting social equality)
03- स्वीकृत मूल्यों का स्थापन(Establishment of Accepted Values)
04- एकता स्थापन हेतु (To establish unity)
05- व्यावहारिक प्रतिमानों व सामाजिक बुराइयों के
प्रति सजगता(Awareness of practical norms and social evils)
06- शैक्षिक सामाजिक उद्देश्यों का गठन(Formation of Educational Social
Objectives)
07- विविध निष्पादित कार्यों में सन्तुलन(Balance in various tasks)
08- सुख, शान्ति स्थापन(Happiness, Peace Establishment)
09- समरसता को बढ़ावा (Promote harmony)
10 – रूढ़िवाद से मुक्ति(Freedom from conservatism)
4 – निष्कर्ष (Conclusion):
सारतः कहा जा सकता है कि निष्पक्ष सामाजिक नियन्त्रण मानव मात्र की प्रगति का एक सुखद उपागम है इससे अन्ततः मानवीय मूल्यों का संरक्षण होगा और मानव की क्रमिक प्रगति को बढ़ावा मिलेगा। शिक्षा को नई व्यावहारिक दिशा मिलेगी और यहां की स्थितियों के आधार पर कार्य संपन्न हो सकेंगे।
सर्व प्रथम यहाँ शब्द पाठ्यक्रम की
विवेचना कर आशय समझने का प्रयास करते हैं। शब्द पाठ्यक्रम लैटिन भाषा के
शब्द ‘Currere’ शब्द से निकला है जिसका आशय है दौड़ का मैदान (Race Course ) अर्थात पाठ्यक्रम (Curriculum) से आशय उस साधन से है जिसके द्वारा शिक्षा के मन्तव्य प्राप्त
किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है की यह वह साधन है जिसके माध्यम से
शिक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति एक तर्कपूर्ण क्रम का अनुसरण कर प्राप्त की जा सकती
है।
शिक्षा की तरह
पाठ्यक्रम के आशय के सम्बन्ध में भी दो धारणाएं प्रचलित हैं जिसे संकुचित अर्थ व
व्यापक अर्थ के नाम से जाना जाता है। संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम भी केवल विभिन्न
विषयों के पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित है लेकिन व्यापक अर्थ में वे सभी ज्ञान व अनुभव
आ जाते हैं जिसे नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से प्राप्त करती है साथ ही विद्यालय में
अध्यापकीय संरक्षण में विद्यार्थी द्वारा जो भी क्रियाएं सम्पादित होती हैं सारी
की सारी पाठ्यक्रम के तहत स्वीकार की जाती हैं इसके अतिरिक्त पाठ्य सहगामी
क्रियाएं भी पाठ्यक्रम का ही भाग होती हैं अर्थात वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाठ्यक्रम
से आशय उसके इसी व्यापक स्वरूप से ही है।
पाठ्यक्रम की
परिभाषाएं / Definition of Curriculum –
पाठ्यक्रम की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषों को इस
प्रकार क्रम दे सकते हैं। जॉनसन महोदय के अनुसार –
“A
curriculum is a structured series of intended learning outcomes.”
“पाठ्यक्रम भावी सीखने
के परिणामों की एक संरचित श्रृंखला है।”
एक अन्य विचारक मोनरो महोदय का मानना है –
“Curriculum
embodies all the experiences which are utilized by the school to atain the aims
of education.”
“पाठ्यचर्या उन सभी अनुभवों
को समाहित करती है जो स्कूल द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए
उपयोग किए जाते हैं।”
भारतीय शिक्षाविद डॉ ० एन ० एल ० शर्मा जी
कहते हैं –
“Curriculum
is the statement of cource content to be learnt and tought during the course of
a specific study within a stipulated time period.”
“पाठ्यचर्या एक निश्चित
समय अवधि के भीतर एक विशिष्ट अध्ययन के दौरान सीखी और पढ़ी जाने वाली पाठ्यक्रम
सामग्री का विवरण है।”
एक सुप्रसिद्ध चिन्तक Cunningham
ने अपने भावों को इस
प्रकार शब्दों में ढाला है –
“The curriculum
is a tool in the hands of into artist (teacher) is mauld his material (the
pupil) according to his ideals (objectives) in the studio (the school).
“पाठ्यक्रम कलाकार
(शिक्षक) के हाथों में एक उपकरण है जो स्टूडियो (स्कूल) में अपने आदर्शों
(उद्देश्यों) के अनुसार अपनी सामग्री (छात्र) को ढालता है।”
वेण्ट और क्रोनबर्ग के अनुसार
“Curriculum
is the systematic from the subject matter which is prepared to fulfil the needs
of pupils.”
“पाठ्यचर्या उस विषय
वस्तु से व्यवस्थित है जो बालकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार की जाती
है।”
इस प्रकार पाठ्यक्रम
वह साधन मात्र है जो समय की मॉंग के आधार पर कालानुरूप विविध आवश्यकताओं को ध्यान
में रखकर तैयार किया जाता है।
पाठ्यक्रम की प्रकृति
(Nature of Curriculum) –
पाठ्यक्रम की प्रकृति के सम्बन्ध में यह
नहीं कहा जा सकता कि यह स्थाई रहेगी। इसकी प्रकृति में स्थान, काल, दिशा, व्यवस्था,दर्शन आदि के अनुसार परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं।
पाठ्यक्रम हर काल की आवश्यकता के अनुसार स्वयम् को व्यवस्थित कर मानवता का कल्याण
करता है।पाठ्यक्रम की मूल प्रकृति मानव कल्याण की है डॉ० सोती शिवेन्द्र सिंह व
अन्य द्वारा इसकी विशेषता जिसमें इसकी प्रकृति के दर्शन होते हैं भली भाँति
विवेचित किया गया है। जो इसके नाम में ही छिपा है यथा –
C –
Central point of Education / शिक्षा का केन्द्रीय बिन्दु
U –
Understanding of educational demand./ शैक्षिक माँग की स्थिति की समझ
M –
Management of educational process / शैक्षिक प्रक्रिया का प्रबंधन।
पाठ्यक्रम को प्रभावित
करने वाले घटक / Curriculum
Affecting Factors –
शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन यह स्पष्ट
संकेत देता है कि शिक्षा और पाठ्यक्रम का एक दूसरे से गहन सम्बन्ध रहा है इसी आलोक
में पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
सुविधा की दृष्टि से हमने शिक्षार्थी स्वायत्तता को कुछ भागों में बाँट लिया है।
शिक्षार्थी स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective
of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
शिक्षार्थी
स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता को अधिगम कर्त्ता के मनन, चिन्तन, निर्णयन, कार्य
इच्छा और और स्वशक्ति पर विश्वास के रूप में परिकल्पित किया जा सकता है। इसे अधिगम
कर्त्ता की जिम्मेदारी लेने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है।
अधिगम करने वाले को अधिगम हेतु स्वायत्त स्थिति
प्रदान करना मानवीय दृष्टिकोण से एक वहनीय जिम्मेदारी है।
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता के बारे में Henri Holec महोदय
का विचार है –
“Autonomy
is the ability to take charge of one’s own learning.”
“स्वायत्तता अपने स्वयं के सीखने का प्रभार लेने
की क्षमता है।”
Leslie
Dickinsion महोदय
का विचार है कि
“Autonomy
is a situation in which the learner is totally responsible for all the
decisions concerned with his learning and the implementation of those
decisions.”
“स्वायत्तता एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिक्षार्थी
अपने सीखने और उन निर्णयों के कार्यान्वयन से संबंधित सभी निर्णयों के लिए पूरी
तरह जिम्मेदार है।”
उक्त
विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम कर्त्ता की स्वायत्तता से आशय अधिगम
के परिक्षेत्र में उसके
सीखने व निर्णयन हेतु स्वयं जिम्मेदारी लेने से है।
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective of learner autonomy
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में अपनी जवाबदेही हेतु खुद जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति को बल मिला
है और सभी अपने अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं शिक्षार्थी को गुण सिखाना ही शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य
है। आज की पीढ़ी निःसन्देह पूर्व पीढ़ी से अधिक जागरूक है और विभिन्न संसाधनों का
प्रयोग कर ज्ञान परिक्षेत्र बढ़ा रही है। शिक्षार्थी स्वायत्तता उसे उसके अधिकारों
के प्रति सचेष्ट करना एक उद्देश्य मानती है। Phill Bension महोदय लिखते हैं –
“Autonomy
is a recognition of the rights of learner within educational system.”
“स्वायत्तता शैक्षिक प्रणाली के भीतर शिक्षार्थी
के अधिकारों की मान्यता है।”
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य शिक्षार्थी को प्रभावी निर्णयन क्षमता की दक्षता प्रदान कर
उसके परिणामों की जिम्मेदारी स्वीकार करने योग्य बनाती है।
संक्षेप
में उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
1 – स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता का विकास/Develop the ability to make autonomous decisions
2 – सहयोग
की भावना का विकास / Develop a spirit of cooperation
3 – स्वमूल्यांकन व स्वप्रबन्धन /Self-evaluation and self-management
4 – शिक्षार्थी की सम्प्रभुता को महत्त्व /Importance of learner’s sovereignty
5 – व्यक्तिगत भिन्नता की स्वीकारोक्ति /Acknowledgment of individual
difference
6 – आत्मविश्वास वृद्धि /Confidence Increase
7 – सृजनात्मकता का विकास /Development of creativity
8 – शैक्षणिक दवाब में कमी / Reduction of academic pressure
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
परिवर्तन
प्रकृति का अटल नियम है शिक्षा जगत को क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए स्वयं को
तैयार करना होगा और शिक्षा के समस्त अंगों को बदलते परिदृश्य के अनुसार शिक्षार्थी
स्वायत्तता के अनुरूप स्वयं ढालना होगा। David Little महोदय ने कहा –
“Autonomy
is essentially a matter of the learner’s psychological relation to the process
and content of learning.”
“स्वायत्तता अनिवार्य रूप से सीखने की प्रक्रिया
और सामग्री के लिए शिक्षार्थी के मनोवैज्ञानिक संबंध का मामला है।”
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
आज
के परिप्रेक्ष्य में जब हम शिक्षार्थी स्वायत्तता की बात करते हैं समस्त शिक्षा
जगत को शिक्षार्थी स्वायत्तता के हिसाब से स्वयं को परिवर्तित करना होगा। गुरुदेव
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा –
“The
boys were encouraged to manage their own affairs, and to elect their own judge,
if any punishment was to be given. I never punished them myself.”
“लड़कों को अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए
प्रोत्साहित किया गया था, और
यदि कोई सजा दी जानी थी, तो
अपने स्वयं के न्यायाधीश का चुनाव करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। मैंने
उन्हें स्वयं कभी दंडित नहीं किया।”
निष्कर्षतः कहा सकता है कि
इस अवधारणा द्वारा शिक्षार्थी सशक्तीकरण
का नया अध्याय हेतु शिक्षा जगत को
तैयार रहना होगा। शिक्षार्थी को मानसिक सशक्त बनाने में ही शिक्षक व शिक्षा जगत की
खुशी छिपी है।
योग के सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलि से लेकर आजतक के मनीषियों का
क्रमिक योग दान रहा है निश्चित रूप से महर्षि पतञ्जलि के व्यवस्थित क्रम देने से
पूर्व यह विद्यमान रहा होगा और बहुत से अनुभवों से व लम्बी साधना से इसका प्रागट्य सम्भव हुआ होगा। यह मानव मात्र को ऋषि
मुनि परम्परा की अद्भुत भेंट है। श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञान योग ,भक्ति योग व कर्म योग के बारे में विस्तार से
समझाया गया है योग को स्पष्ट रूप से समझने हेतु इन तीन मार्गों ज्ञान योग ,भक्ति योग व कर्म योग को समझना होगा। मानव मात्र में
विविध वृत्तियों के दर्शन होते हैं अपनी वृत्ति प्रधानता के आधार पर हमें योग
मार्ग का चयन करना चाहिए। जो लोग ज्ञान की और झुकाव रखते हों उन्हें ज्ञान मार्ग
का अनुसरण करना चाहिए।जिन मानवों का झुकाव कर्म की और हो उन्हें कर्म योग के मार्ग
का अनुसरण करना चाहिए और भावना प्रधान लोगों को भक्ति मार्ग का अनुसरण करना
चाहिए।
अष्टाँग योग –
अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
का संयोग है।
यम –
इससे आशय संयम से है हमें कायिक,वाचिक
व मानसिक संयम का परिचय देना होगा। यम को पाँच भागों में विभक्त किया गया है।
a – अहिंसा – विचार को इस कोटि का बनाना है कि हमारे चिन्तन
व व्यवहार से प्राणिमात्र के प्रति किसी प्रकार का हिंसात्मक आचरण न हो।
b – सत्य – व्यवहार व सिद्धान्त में समान होना अर्थात मन
व वचन द्वारा समान व्यवहार, अनुगमन या अनुसरण किया जाना।
c – अस्तेय – किसी दूसरे के द्रव्य के प्रति अनासक्त भाव।
d – अपरिग्रह – विषयों के विभिन्न दोषों से विमुख रहना यानी
विषयों के अर्जन, रक्षण से विमुक्त भाव रहना।
e – ब्रह्मचर्य – संयम का परिचय अर्थात गुप्तेन्द्रिय उपस्थ का
संयम में रहना।
नियम –
नियम प्रवृत्तिमूलक होते हैं
और शुभ या मंगल कार्यों केप्रति हमारी प्रवृत्ति के परिचायक होते हैं।ये ही शुभ
कार्यो हेतु हमें प्रवृत्त कराते हैं
इन्हें पाँच भागों में विभक्त किया गया है –
a – शौच –
शौच से आशय आंतरिक व वाह्य शुद्धि से है आन्तरिक से आशय मानस के मलों से निवृत्ति
व वाह्य से आशय बाहरी शुद्धि जिसके लिए पहले मिट्टी व जल का प्रयोग होता था और आज
साबुन व विविध उपादानों का प्रयोग किया जाता है।
b – सन्तोष – यह शान्ति प्राप्ति का सर्वथा सशक्त उपागम है। जो है जैसा है उसी
में सन्तुष्ट रहना। यह गुण ही सन्तोष है।
c – तप –
इससे आशय है सुख दुःख को समान समझने की शक्ति का जागरण जो शरीर को तपाने, दुःख सहने योग्य बनाने, और इस हेतु गर्मी ,सर्दी,बरसात
की त्रासदई स्थिति में रहने व कठिन व्रतों के अनुपालन के अभ्यास से है।
d – स्वाध्याय – नियम, विधि विधान को ध्यान में रखकर धर्म ग्रंथों की
स्वयम द्वारा की गई अनवरत साधना।
e – ईश्वर प्राणिधान – भक्तिपूर्वक ईष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण।
आसन –
हमें साधना हेतु शरीर को एक ऐसी स्थिति में रखना होता है जिसमें
दीर्घ अवधि तक सुख पूर्वक रहा जा सके.इसी स्थिति को आसन नाम से जाना जाता है। जगत
में विविध प्रकार की जीव जातियां हैं उतने ही प्रकार के आसन हैं सिद्धासन,गरुण आसन,भुजङ्गासन, शीर्षासन आदि विविध प्रकार के आसान हैं हाथ
प्रदीपिका में इसका सुन्दर वर्णन द्रष्टव्य है आजकल बाबा रामदेव व आचार्य बालकृष्ण
की तत्सम्बन्धी पुस्तक में इसे देखा जा सकता है।
प्राणायाम –
प्राण शक्ति अर्थात श्वांस प्रश्वांस के विविध आयामों को ही
प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम वस्तुतः श्वांस प्रश्वांस का गति विच्छेद ही है।
इसमें मुख्यतः पूरक, कुम्भक व रेचक का आधार रहता है पूरक अर्थात
श्वांस को पूरा अन्दर की ओर खींचना, कुम्भक
से आशय इसके रोके जाने से एवं रेचक से आशय इसके छोड़े जाने से है। इनसे शारीरिक,मानसिक दृढ़ता व चित्त की एकाग्रता में अद्भुत
प्रगति देखी जाती है।
प्रत्याहार –
मानव में विविध इन्द्रियों का समागम रहता है जो विविध क्रियाओं का
आधार है जब इन्द्रियाँ वाह्य प्रपंचों से मुक्त होकर अर्थात वाह्य विषयों से हटकर
चित्त के समान निरुद्ध हो जाती हैं तो यह स्थिति प्रत्याहार है। जब वाह्य जगत में
मन विचरण की यात्रा अन्तर्मुखी अन्दर की
यात्रा सुनिश्चित करती है तब प्रत्याहार निष्पन्न होता है इस स्थिति में संसार में
रहते हुए सांसारिक वस्तुएं साधक को बाँध नहीं पातीं।
धारणा –
चित्त को किसी एक स्थान पर स्थिर कर देना धारणा कहलाता है जैसे हृदय
कमल में ,नाभि चक्र में या किसी भी बाहर की वस्तु
में स्थिर कर देना धारणा कहलायेगा।
ध्यान –
ध्यान की अवस्था में ध्येय का निरन्तर मनन किया जाता है और विषय का
ज्ञान स्पष्ट रूप से प्राप्त हो जाता है एवम् इस तरह से योगी के मन में ध्येय
वस्तु का यथार्थ स्वरुप प्रगट हो जाता है। अतः जब ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप
लेनेलगता है तो उसे ध्यान कहते हैं।
समाधि –
योग का अन्तिम लक्ष्य व्यक्ति को पूरी तरह से अन्तर्मुखी बनाना है
समाधि, चित्त की वह अवस्था है जिसमें प्रतीति केवल
ध्येय की ही होती है और चित्त का अपना स्वरुप शून्य सा हो जाता है।
शिक्षक अपने दायित्वबोध को समझ कर कई कार्यों को अंजाम देता है वे कार्य व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जन आकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बनते हैं। एक शिक्षक की जवाब देही को भौतिक जगत बांधने की कोशिश कर सकता है लेकिन वह प्रकृति, पशु पक्षियों और सम्पूर्ण मानवता के प्रति जवाब देह है।आज बदलती हुई परिस्थितियों में शिक्षक के प्रति समय की अवधारणाओं ने करवट ली है जिससे जनमानस की सोच और आज के शिक्षक के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है।
बदलते हुए काल ने बाजारवाद का प्रभाव हर परिक्षेत्र पर छोड़ा है और
अध्यापकीय परिवेश भी इससे अछूता नहीं है।श्रीवास्तव एवं पण्डा ने अपने 2006 के शोध में दर्शाया –
“शिक्षकों की जवाबदेही से तात्पर्य है कि शिक्षक
दिए गए उत्तरदायित्वों को किस मात्रा व् किस सीमा तक निभाता है। ऐसा न करने पर वह
कारण बताने पर बाध्य होता है। जवाबदेही अथवा प्रतिबद्धता किसी अधिकारी द्वारा सॉंप
गए कार्य को गुणात्मक एवं सर्वोत्तम रूप से अधिकारी के निर्देशन अनुरूप करने का
बंधन एवं कार्य है।”
हुमायूं कबीर के वे शब्द याद आते हैं –
“शिक्षक ही राष्ट्र के भविष्य निर्माता हैं।”
इस तरह के विचार जवाबदेही हेतु और विवश करते हैं। जिसे हम इस प्रकार
विवेचित कर सकते हैं।
शिक्षक की जवाबदेही का वर्गीकरण[Classification of teacher accountability]-
A – व्यक्तिगत जवाब देही (Personal
accountability)
(1) – स्वयं के प्रति
(2) – स्वयं के छात्र के प्रति
B – सामाजिक जवाब देही(Social accountability)
1 – सामाजिक आदर्श स्थापन हेतु
2 – भविष्य की दिशा निर्धारण हेतु
3 – सामाजिक कुरीति उन्मूलन हेतु
4 – सामाजिक सुदृढ़ीकरण हेतु जवाब देही
C - राष्ट्र के प्रति जवाबदेही (Accountability to the nation)
शिक्षक स्वायत्तता से आशय उस शक्ति से है जिससे एक अध्यापक को अपना स्वयं पर फैसला करने का अधिकार मिलता है यहाँ स्वयं पर फैसला से तात्पर्य स्वयं के दायित्वबोध के निर्वहन हेतु उपयुक्त विधि के प्रयोग से लिया जा सकता है वह अपने कार्यों के सम्पादन हेतु सम्प्रभु है। वास्तव में स्वायत्तता एक प्रकार की सम्प्रभुता ही है जिससे निर्णय लेने में उत्तमता आती है।
उक्त
विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि स्वायत्तता से आशय है किसी अन्य के हस्तक्षेप
के बिना व्यक्ति विशेष , राज्य, संस्था,का देश के अधिकार क्षेत्र में विषयों और मामलों
में स्वतन्त्र निर्णय लेना।
कॉलिन्स
(Collins) महोदय कहते हैं कि –
“स्वायत्तता का अर्थ उस योग्यता से लगाया जा
सकता है जो व्यक्ति को दूसरों के कथनों या विचारों से प्रभावित होने के बजाय स्वयं
निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है।”
शिक्षक
स्वायत्तता का कार्य क्षेत्र (Scope of teacher autonomy)
[A] – विद्यालय परिक्षेत्र में (In school premises)
[B] – विद्यालय परिक्षेत्र के बाहर (Outside school premises)
[A] – विद्यालय परिक्षेत्र में (In school premises)
1 – पाठ्य क्रम सम्प्रेषण
2 – शिक्षण विधियों के प्रयोग में
3 – विद्यालय का वातावरण
4 – पाठ्य सहगामी क्रियाओं में
5 – समाज उत्पादक कार्यों से सम्बद्धता
6 – अनुशासन
7 – शिक्षक छात्र सम्बन्ध
[B] – विद्यालय परिक्षेत्र के बाहर (Outside school premises)
गर्मी
के दिनों में लोग इस बात से परेशान रहते हैं की वे अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं
कर पाते। यदि सम्पूर्ण दिन को गर्मी के लिहाज से तीन भागों में बाँटते हैं प्रातः, दोपहर, शाम
तो इसमें बीच वाला भाग अर्थात दोपहर सबसे तपिश भरी होती है। बहुत सारे शरीर इस मौसम
से इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि उन्हें हमेशा गर्मी महसूस होती है जिससे उनके
कार्य में बाधा पड़ती है। यहाँ प्रस्तुत हैं –
गर्मी
में कूल कूल रहने के आठ उपाय
Eight
ways to stay cool in summer
01 – जल का सेवन (Water intake)
02 – तरल खाद्य पदार्थों का उचित सेवन (Suitable intake of liquid foods)
04 – फल, सब्जी और सुपाच्य भोजन (Fruits, vegetables and nutritious food)
05 – मसालेदार, अधिक तले भुने, अधिक नमक व कैफीन युक्त पदार्थों का सेवन नहीं
(Do not consume spicy, excessive fried,
high salt and caffeinated substances)
06 –मौसम के अनुसार वस्त्र (Clothing according to the season)
07 – नींद और स्नान (Sleep and bath)
08 – पैर के तलवे की देखभाल (Foot care)
01 – जल का सेवन (Water intake)-
गर्मी
के दिनों में जल का सेवन सोच समझ कर किया जाना चाहिए पानी घूँट घूँट करके पिया
जाना चाहिए केवल शौच निवृत्ति से पूर्व आप लगातार पानीपी सकते हैं। यदि गुन गुना
जल नहीं ले सकते तो फ्रिज का बहुत ठण्डा पानी भी वर्जित है सादा जल या घड़े
के जल का सेवन किया जा सकता है इसे आप अपने थर्मस में भरकर कार्य स्थल पर भी ले जा
सकते हैं। सुबह सुबह, रात्रि को ताँबे के लोटे में रखे जल का सेवन
किया जा सकता है। यह पूरे दिन में प्यास के अनुसार या तीन से चार लीटर लिया जा
सकता है।गर्मी में बाहर निकलने से पहले पर्याप्त जल का सेवन करना चाहिए। पानी
उंकड़ू बैठ कर पीना मुफीद है खड़े होकर नहीं पीना चाहिए।
02 – तरल खाद्य पदार्थों का उचित सेवन (Suitable intake of liquid foods) –
खाद्य
सामग्री के मामले में भारत सचमुच बहुत भाग्य शाली है इसमें जहां विविधता पूर्ण
व्यञ्जन उपलब्ध हैं वहीं मौसमानुकूल खाद्य सामग्री की बह भरमार है गर्मी में अधिक
जल वाले तत्वों का विकल्प चुना जाना चाहिए जैसे नीबू पानी,नारियल पानी, छाछ, आम का पना, पानी
की सेंधा नमक वाली शिकन्जी,जौ के सत्तू का शरबत,विविध दोष रहित जूस, दही की लस्सी आदि इनमें आवश्यकतानुसार पुदीना,प्याज,धनिया
सौंफ आदि का प्रयोग किया जा सकता है। कृत्रिम शीतल पेय बोतल बन्द या डिब्बे बन्द
बासी तरल पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
घाट की राबड़ी जिसमें जौ का दलिया व छाछ होता है,
लिया जा सकता है।
प्राणायाम, योग और सूक्ष्म व्यायाम किया जाना चाहिए शीतली, शीतकारी प्राणायाम अधिक उपयोगी है educationaacharya.com पर Tip to Top Exercise दो भागों में पहले दी जा चुकी हैं जो उपयोगी रहेंगी। सुविधा की दृष्टि से इसका लिंक यू ट्यूब (Education Aacharya) के डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दे दूँगा।[ https://youtu.be/-Pw39aG5-IQ, https://youtu.be/bl2uqMUk_f8] याद रखें मानसिक शान्ति भी शारीरिक शान्ति में योग देती है।
04 – फल, सब्जी और सुपाच्य भोजन (Fruits, vegetables and nutritious
food) –
शारीरिक
गर्मी पर नियन्त्रण हेतु भोजन सुपाच्य ही किया जाना चाहिए और भूख से कुछ कम लिया
जाना चाहिए रात्रि के भोजन पर सर्वाधिक नियंत्रण की आवश्यकता है और यह सोने से कम से कम दो घण्टे
पहले किया जाना चाहिए। भोजन से पहले आप पानी पी सकते हैं लेकिन भोजन के उपरान्त कम
से कम आधा घण्टे जल न पीएं।
05 – मसालेदार, अधिक तले भुने,अधिक नमक व कैफीन युक्त पदार्थों का सेवन नहीं
(Do not consume spicy, excessive fried,
high salt and caffeinated substances) –
इस प्रकार के पदार्थ शरीर में अनावश्यक
गर्मी का कारण बनाते हैं शरीर में पित्त ,एसिड
आदि की वृद्धि के साथ वात,
पित्त, कफ
में असंतुलन पैदा कर विकार का कारण बनते हैं।
06 –मौसम के अनुसार वस्त्र (Clothing according to the season) –
गर्मियों में हल्के, ढीले वाले सूती वस्त्रों का प्रयोग किया जाना
चाहिए।टाइट ,शरीर से चिपके वस्त्र नहीं पहनने से बचना
चाहिए। रंगों के चयन में सावधानी रखें हुए हलके रंग प्रयोग में लाएं जाएँ। वस्त्र
ऐसे हों जिससे शरीर को आराम मिले पूरी बाँह के वस्त्र पहनें।आवश्यकतानुसार अँगोछा
लिया जा सकता है।
07 – नींद और स्नान (Sleep
and bath) –
जहाँ
सुबह उठकर दैनिक क्रियाओं में स्नान को स्थान मिला हुआ है वहीं निद्रा पूर्व स्नान
अच्छी आरामदायक नीं दिलाता और शरीर की
गर्मी पर नियन्त्रण रखता है यदि उस समय स्नान कर सकते तो पैरों को अच्छी तरह धोना
अति आवश्यक है।
08 – पैर के तलवे की देखभाल (Foot
care) –
रात्रि
में सोने से पहले पैर धोने की बात ऊपर आ चुकी है यह क्रिया शीतल नैसर्गिक जल से हो
बर्फ के पानी या फ्रिज के पानी से नहीं। इसके पश्चात अच्छी तरह गोले के असली तेल
से तलवों की मसाज अवश्य करें और तलवे के प्रत्येक भाग को अंगुलियों के दवाब का
अहसास कराएं आनन्द आएगा। इतनी मसाज करें की तेल सूख जाए।
यद्यपि गर्मी के प्रकोप के निदान में
चिकित्सकीय परामर्श सर्वाधिक आवश्यक है लेकिन इलाज से पहले सावधानी के महत्त्व को
नकारा नहीं जा सकता।
वैदिक
कालीन शिक्षा एवम् सामाजिक व्यवस्था पर ब्राह्मणों का एक मात्र अधिकार था इसलिए
वैदिक शिक्षा को ब्राह्मणीय शिक्षा के नाम से भी जानते हैं कुछ इतिहासकार इसे
वैदिक काल,उत्तर वैदिक काल,ब्राह्मण काल,उपनिषद काल,सूत्र
काल और स्मृतिकाल में विभक्त कर वर्णित करते हैं परन्तु इन सभी कालों में वेदों की
प्रधानता रही अतः इस सम्पूर्ण काल को वैदिक काल कहते हैं।
वैदिक
शिक्षा का अर्थ – वैदिक साहित्य में ‘शिक्षा’ शब्द विद्या,ज्ञान, प्रबोध एवम् विनय आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ
है। वैदिक शिक्षा का तात्पर्य शिक्षा के उस प्रकार से था जिससे व्यक्ति का
सर्वांगीण विकास हो सके और वह धर्म के आधार पर वर्णित मार्ग पर चलकर मानव जीवन के
चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके जैसा
अल्तेकर महोदय ने लिखा –
“शिक्षा को ज्ञान, प्रकाश और शक्ति का ऐसा
स्रोत माना जाता था जो हमारीशारीरिक,मानसिक,भौतिक और आध्यात्मिक
शक्तियों तथा क्षमताओं का उत्तरोत्तर और सामन्जस्य पूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव
को परिवर्तित करती है और उत्कृष्ट बनाती है।”
“Education was regarded as a source of
illumination and power which transforms and ennobles our nature by the
progressive and harmonious development of our physical, mental, intellectual
and spiritual powers and faculties.
A.S.Altekar;
Education in Ancient India
1973, p. 8
शिक्षा के उद्देश्य एवम् आदर्श –
चूंकि जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना था इसलिए
इसके अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य एवम् आदर्श निर्धारित किये गए जैसा कि अल्तेकर
महोदय ने लिखा –
“प्राचीन
भारतीय उद्देश्यों एवम् आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है – ईश्वर भक्ति
की भावना एवम् धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण,व्यक्तित्व का विकास, सामाजिक कर्तव्यों को
समझाना,सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा संस्कृति का
संरक्षण तथा प्रसार।”
“Infusion of a spirit of piety and religiousness,
formation of character, development of personality, inculcation of civic and
social duties, promotion of social efficiency and preservation and spread of
national culture may be described as the chief aims and ideals of ancient
Indian Education.” – A. S. Altekar,pp8-9
1 – धर्म परायणता की भावना एवम् धार्मिकता का
समावेश
(Infusion
of a spirit of piety and religiousness)
2 – सामाजिक कुशलता की उन्नति (Promotion
of Social Efficiency)
3 – चरित्र निर्माण (Formation of
character)
4 – व्यक्तित्व का विकास (Development
of personality)
5 – नागरिक एवम् सामाजिक कर्त्तव्यों की समझ (Inculcation
of civic and social duties)
6 – राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसार (Preservation
and spread of National culture)