यथार्थ वाद का आशय व परिभाषा (Meaning and Definition of Realism)-
वास्तव वाद या यथार्थ वाद का आंग्ल रूपान्तर है ‘Realism’ . शब्द Real की
उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘realis’ से हुई है यह शब्द res से बना है जिसका आशय है ‘वस्तु’ इसलिए
Realism का शाब्दिक अर्थ हुआ वस्तु के अस्तित्व
सम्बन्धी विचार धारा। कहने का आशय है कि मात्र इन्द्रिय जन्य ज्ञान सत्य है इसी
लिए ये वाह्य जगत को सत्य मानते हैं मिथ्या नहीं।
यथार्थवाद को विभिन्न विद्वानों ने जिस प्रकार पारिभाषित किया उनमें
से कुछ को यहाँ दिया गया है।
स्वामी रामतीर्थ(Ramtheerth) महोदय के अनुसार –
“Realism means a belief or theory which works upon the
world as it seems to us.”
“यथार्थवाद का अर्थ वह विश्वास या सिद्धान्त है, जो जगत को वैसा ही स्वीकार करता है, जैसा कि हमें दिखाई देता है।”
जे एस रॉस( J. S. Ross) के अनुसार
“The doctrine of realism asserts that there is a
real-world of things behind and corresponding to the objects of our
perception.”
“यथार्थवाद यह स्वीकार करता है कि जो कुछ हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते
हैं, उनके पीछे तथा मिलता जुलता वस्तुओं का एक
यथार्थ जगत है।”
बटलर( Buttler ) महोदय के अनुसार –
“Realism is the reinforcement of our common acceptance
of the world as it appears to us.”
“यथार्थवाद या वास्तववाद इस संसार को उसी रूप में स्वीकार करता है जिस
रूप में उसे दिखाई देता है।”
मीमांसाएं –
किसी भी दर्शन के वास्तविक स्वरुप को समझने के लिए यह परम आवश्यक है
कि उसकी तत्त्व मीमांसा(Meta
Physics), ज्ञान
व तर्कमीमांसा(Epistemology
and Logic) एवम्
मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology
and Ethics) को
समझा जाए। यहाँ इन्ही को इसी क्रम में वर्णित करेंगे।
तत्त्व मीमांसा (Meta Physics )-
यथार्थवादी तात्त्विक विश्लेषण के क्रम में तत्त्व मीमांसक विश्लेषण
के आधार पर सरल वास्तव वाद (Naïve Realism), नववास्तव
वाद(Neo Realism), आलोचनात्मक वाद (Critical Realism),मानवतावादी यथार्थवाद (
Humanistic Realism), सामाजिकता वादी यथार्थवाद (Socialistic
Realism), ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद ( Sense Realism ),अवयव दर्शन (Philosophy of
Organism )आदि
का अभ्युदय हुआ। इस दर्शन के अनुसार पदार्थ का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और यह
ब्रह्माण्ड पदार्थजन्य है अर्थात इस जगत की उत्पत्ति का मूल कारण भौतिक यानी कि
स्थूल तत्त्व हैं। वास्तु के सम्बन्ध में ये अपने ज्ञान को प्रयोग सिद्ध(
Empirical ) मानते हैं। आत्मा को भी पदार्थजन्य चेतन तत्त्व मानते हैं।
ज्ञान व तर्कमीमांसा (Epistemology and Logic) –
यथार्थवादी वस्तु व चेतना दोनों के महत्त्व को स्वीकार करते हैं और
ज्ञान प्रक्रिया में ज्ञाता व ज्ञेय दोनों को महत्त्व देते हैं। ज्ञान के स्रोत
कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जब आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं तो ये तर्क
देते हैं कि वस्तु के ज्ञान का आधार यही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं इसलिए इनसे परे ज्ञान
नहीं होता ये शाब्दिक ज्ञान को भी प्रत्यक्षीकरण के बाद ही स्वीकारते हैं।
मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology
and Ethics) –
ये भौतिक संसार को सत्य मानते हुए कहते हैं कि जीवन रक्षा और सुख
पूर्वक जीना ही मानव का उद्देश्य है इसके लिए क्रियाशीलता हो और उत्पादकता को
बढ़ाया जाए। अगले क्रमिक चरण के रूप में ये उन मूल्यों पर बल देते हैं जिससे मानव
को सुखानुभूति हो। मानव में संवेदनशीलता का गुण ये मूल्यों की अनुभूति हेतु आवश्यक
मानते हैं साथ ही स्वीकार करते हैं मूल्य सबके लिए सामान नहीं हो सकते अतः आचार
संहिता बनाना सम्भव नहीं है।
यथार्थवाद के मूल सिद्धान्त (Basic
Principles of Realism) –
– प्रत्यक्ष जगत ही सत्य है (Phenomenal
world is true)-
वह जगत जिसे हम प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं वही सत्य है अर्थात यह
भौतिक जगत ही सत्य है जे0 एस0 रॉस महोदय कहते हैं-
“Realism
simply affirms the existence of an external world and is therefore the
antithesis of subjective Idealism. ”
“यथार्थवाद केवल वाह्य जगत की सत्ता को ही
स्वीकार करता है। अतः यह आत्मगत आदर्श वाद के विपरीत है।”
– ब्रह्माण्ड
पदार्थ पर आधारित है (Universe is based on substance) –
ये पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारते
हैं और संसार को विविध तत्त्वों का योग मानते हैं संसार के सारे परिवर्तन पदार्थों
का रूप परिवर्तन ही है।
इन्द्रियाँ ज्ञान के द्वार हैं (Senses are the Gateways of knowledge)
–
ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन इन्द्रियाँ हैं
इन्द्रियाँ ही संवेदना के आधार पर अनुभूति करतीं हैं रसेल महोदय कहते हैं –
“I content that ultimate
constituent of matter are not atoms … but sensation. I believe that the stuff
of our mental life …….. consists wholly of sensations and images.”
“पदार्थ के अन्तिम निर्णायक तत्त्व अणु नहीं हैं, वरन संवेदन हैं। मेरा विश्वास है कि हमारे
मानसिक जीवन के रचनात्मक तत्त्व पूर्णतः संवेदनाओं और प्रतिभाओं में निहित होते
हैं।”
– मनुष्य
संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ (Man is world’s best substance)-
यथार्थवादी मानव को पदार्थ रूप में स्वीकार
करते हैं लेकिन उसे अन्य पदार्थों से भिन्न मानते हैं क्यों कि मानव मन रखता है और
मन के आधार पर जगत का सुव्यवस्थित ज्ञान प्राप्त कर सुख पूर्वक जीवन यापन के उपागम
प्रयुक्त करता है आँख,कान,जिह्वा,नाक,त्वचा
के सम्यक प्रयोग से मानव प्रगति करता है अतः यह सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है।
– आंगिक सिद्धान्त (Theory of Organism)-
प्रसिद्द यथार्थवादी व्हॉइटहैड संसार की
प्रत्येक वस्तु को समष्टि का एक अंग मानते हैं और कहते हैं की समस्त अवयवों में
सम्मिलित रूप से तरंगित प्रक्रिया हो रही है इसी वजह से परिवर्तन हो रहे हैं ये
नियमों को शाश्वत न मानकर परिवर्तनशील मानते हैं। ए एन व्हॉइटहैड(A. N. Whitehead) महोदय कहते हैं –
“Realism is a system, which is
always organic. Every part of it is itself an active system, a coordinated
process. It is not only the result but also the cause itself the world is a
wavering element in the process of development. Change is this wavering process
is the fundamental quality of the universe. Truth is an essential process of
reality. Mind must be accepted as the function of the organ.’’
“यथार्थवाद एक व्यवस्था है,जो सदैव आंगिक है। इसका प्रत्येक भाग स्वयम् एक
सक्रिय व्यवस्था है,एक समन्वित प्रक्रिया है। यह केवल परिणाम नहीं
है,वरन स्वयं कारण भी है, संसार विकास की प्रक्रिया में एक तरंगित अवयव
है। परिवर्तन इस तरंगित विश्व का आधारभूत गुण है। सत्य वास्तविकता की एक सारभूत
प्रक्रिया है। मन को अवयवी के कार्य रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।”
– आत्मा
पदार्थजन्य चेतन तत्व (Soul material born, conscious element)-
मानव में चेतना आत्मिक विकास का प्रतिफल है और
चेतना की विलुप्ति ही मरण है अर्थात यथार्थवादियों के अनुसार आत्मा पदार्थजन्य
चेतन तत्त्व है।
– मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना (The aim of human life is to live
happily) –
ये कहते हैं कि जीवन का कोई अंतिम उद्देश्य
नहीं होता,शरीर जैवकीय पदार्थ है जो क्षीण होकर ख़तम हो
जाता है इसलिए इसको स्वस्थ रखने का प्रयास हो और मष्तिस्क व अन्य इन्द्रियों के
प्रशिक्षण की आवश्यकता है जिससे ये सुचारु रूप से कार्य कर सकें।
रस्क (Rusk) महोदय
के अनुसार
“The aim of new realism is to expound
a philosophy which is not inconsistent with the fact of common life and with
the development of physical science.”
“नवयथार्थवाद का उद्देश्य एक ऐसे दर्शन का
प्रतिपादन करना है,जो सामान्य जीवन के तथ्यों तथा भौतिक विज्ञान
के विकास के अनुकूल हो।”
– वस्तु जगत की नियमितता स्वीकार करना (To accept regularity of materialistic
world) –
ये मन को यांत्रिक ढंग से क्रियाशील मानते हैं
इसीलिए इनका दृष्टिकोण भी यांत्रिक हो गया है प्रो 0 एम एल मित्तल के अनुसार यथार्थवादी स्वीकार करते हैं कि –
“Experience and knowledge
require regularity.”
“अनुभव और ज्ञान के लिए नियमितता का होना आवश्यक
है। ”
– प्रयोग पर बल (Emphasis on
experiment) –
चूंकि ये तथ्य निरीक्षण ,अवलोकन तथा प्रयोग पर इतना ध्यान देते हैं कि
किसी भी तथ्य को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक कि वह निरीक्षण व प्रयोग की कसौटी
पर खरा सिद्ध न हो गया हो।
यथार्थ वाद के रूप (Forms of Realism) –
Forms of Realism in Education-
यथार्थवादी दृष्टिकोण का अध्ययन करने में इसके कई रूपों के दर्शन
होते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है।
[A] – मानवतावादी यथार्थवाद (Humanistic Realism) –
मानवतावादी यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में इरेसमस,रैबले और मिल्टन का नाम आता है इनके अनुसार
शिक्षा यथार्थवादी होनी चाहिए जिससे मानव वास्तव में सुख से जी सके पॉल मुनरो के
शब्दों में –
“मानवता वादी यथार्थवाद का उद्देश्य – अपने जीवन की प्राकृतिक एवम्
सामाजिक परिस्थितियों का पूर्ण अध्ययन प्राचीन व्यक्तियों के जीवन की व्यापक
परिस्थितियों के माध्यम से करना था लेकिन यह कार्य केवल ग्रीक एवम् रोमन साहित्य के विस्तृत ज्ञान से पूर्ण किया
जा सकता था।”
[B] – ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद (Sense Realism) –
ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों
में रिचार्ड मूल कास्टर, फ्रांसिस बेकन, वूल्फगैंग रटके, जॉन
एमोस कमेनियस का नाम आता है। ये विचारक ज्ञानेन्द्रियों को ही ज्ञान का आधार मानते
हैं। पॉल मुनरो के अनुसार –
“The term (sense Realism) itself is drived from the
fundamental belief that knowledge comes through senses.”
“ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद उस मौलिक विश्वास से
विकसित हुआ है, जो यह मानता है कि ज्ञान प्राथमिक रूप से
ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। ”
[C] – सामाजिक यथार्थवाद (Social Realism) –
सामाजिक यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में माइकेल डी माण्टेन, जॉन
लॉक का नाम आता है, सामाजिक यथार्थवादी पुस्तकीय शिक्षा के अत्याधिक विरोधी थे इनका
उद्देश्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के
माध्यम से जीवन को सुखी बनाना था। जे
एस रॉस के विचारों में इसकी झलक मिलती है –
“The social
realists looking askance at bookish studies, stressed the value of direct
studies of man and things, having in mind chiefly the upper class, they
advocated a period of travel, a grand tour, which would give real experience of
the varied aspects of life.”
“सामाजिक यथार्थवादी पुस्तकीय अध्ययन को व्यर्थ समझते हैं तथा
मनुष्यों एवं वस्तुओं के प्रत्यक्ष अध्ययन पर बल देते हैं, यद्यपि वे अपने मस्तिष्क में उच्च वर्ग का ही
ध्यान रखते हैं। इसी कारण वे लम्बी यात्रा करने के लिए कहते हैं, जिससे वास्तविक जीवन के विभिन्न पहलुओं का
यथार्थ अनुभव हो जाए।”
[D] – नव यथार्थवाद (Neo- Realism) –
नव यथार्थवाद दृष्टिकोण के समर्थकों में व्हॉइट हैड व
बर्टेन्ड रसेल का नाम आता है, इस
विचारधारा के अनुसार अन्य विभिन्न नियमों की तरह भौतिक विज्ञान के नियम भी
परिवर्तनशील हैं ये कुछ विशेष परिस्थितियों में ही सही साबित होते हैं। रस्क
महोदय कहते हैं –
“The positive contribution of neo-realism is its
acceptance of the methods and results of modern development in physics.”
“नव यथार्थवाद का महत्त्वपूर्ण योगदान उन पद्धतियों तथा निष्कर्षों को
मान लेने में है जो भौतिक शास्त्र के आधुनिक विकास से प्राप्त हुए हैं। ”
शिक्षा का सम्प्रत्यय (Concept of Education) –
यथार्थवादियों के अनुसार निरन्तर विकास की प्रक्रिया ही शिक्षा है ये
ज्ञान ज्ञान के लिए और ज्ञान मुक्ति के लिए जैसे सिद्धांतों का मुखर विरोध करते
हैं इनका कहना है की ज्ञान केवल जीवन के लिए ही होता है। आदर्श वादी अरस्तु के विचारों को यथार्थवादियों के निकट माना गया
जैसे अरस्तु का विचार है कि –
“Education is the creation of healthy mind in a healthy
body.”
“स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है। ”
जॉन मिल्टन (JohnMilton) महोदय के अनुसार
“मैं पूर्ण तथा उदार शिक्षा उसको कहता हूँ जो व्यक्ति को शान्ति तथा
युद्ध, दोनों समय में व्यक्तिगत और सार्वजनिक कार्यों
को न्यायोचित ढंग से दक्षता और उदारता के साथ करना सिखाती है। ”
“I call complete and generous education that which fits
a man to perform justly, skillfully and magnanimously all the offices both
private and public at peace and war.”
कमेनियस Comenius महोदयने व्यक्ति और समाज के उत्थान में शिक्षा की
भूमिका को स्वीकारते थेउन्होंने कहा –
“Education is the process of social and individual
rejenerating force.”
सामाजिक एवं वैयष्टिक शक्तियों को पुनर्जीवित
करने की प्रक्रिया ही शिक्षा है। ”
यथार्थवादी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएं
Main Characteristics of Realistic Education-
1 – ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल (Emphasis on training of senses)-
यथार्थवादी ज्ञान को इन्द्रिय से ज्ञात स्वीकारते हैं अतः इन्द्रियों
के प्रशिक्षण पर बल देते हैं इससे शिक्षा के परिक्षेत्र में सहायक सामग्री व दृश्य
श्रव्य सामग्री के महत्त्व को प्रश्रय मिला।
2 – प्रत्ययवाद का विरोध (Opposing of Idealism) –
इन्होने शिक्षा के माध्यम से जीवन को सुखी बनाने पर बल दिया और
आदर्शवाद का विरोध किया और कहा कि कोरा आध्यात्मिक सिद्धान्त आज बालक के लिए कोई
मायने नहीं रखता।
3 – वैज्ञानिकता को प्रश्रय (support of science) –
ये बालकों के लिए उपयोगी आधुनिक ज्ञान विज्ञान को आवश्यक समझते हैं
और कृत्रिम शिक्षा के स्थान पर प्रकृति की शिक्षा पर बल देते हैं ये चाहते हैं की
वैज्ञानिक विषयों को महत्ता प्रदान की जाए।
4 – पुस्तकीय ज्ञान का विरोध (Opposing bookish knowledge)-
ये पुस्तकीय ज्ञान का विरोध करते हैं और कहते हैं कि इससे वस्तु का
बोध नहीं होता वे शब्द के स्थान पर वस्तु और वातावरण के ज्ञान को आवश्यक समझते
हैं। रॉस महोदय कहते हैं कि –
“Just as naturalism has appeared in the field of
education as a protest against artificial teaching methods, so realism has come
against the curriculum, which has become bookish, unrealistic and
complex.”
“जिस प्रकार प्रकृतिवाद शिक्षा के क्षेत्र में
बनावटी शिक्षण पद्धतियों के विरोध स्वरुप उपस्थित हुआ है, उसी प्रकार यथार्थवाद उस पाठ्यक्रम के विरोध
में आया है,जो पुस्तकीय, अवास्तविक एवम् जटिल हो गया है। ”
5 – व्यावहारिकता पर बल (Emphasis on practicality)-
ये बालक को ऐसा ज्ञान देना चाहते हैं जिससे वह अपने जीवन में आने
वाली समयाओं को समाधान तक ले जा सकें। ये ‘ज्ञान
के लिए ज्ञान’ जैसे सिद्धान्तों का खंडन करते हैं और
व्यावहारिक प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं। कमेनियस Comenius ने कहा –
“The ultimate end of man is eternal happiness of God.”
“मनुष्य का अंतिम लक्ष्य ईश्वर के साथ शाश्वत प्रसन्नता को पाना है। ”
6 – नवीन शिक्षण विधियाँ व शिक्षा सूत्र (New Teaching Methods and Education
Formulas) –
इन्हें महत्त्वपूर्ण शिक्षण सहायकों के रूप में स्वीकार किया जाता है
क्योकि बेकन द्वारा प्रदत्त आगमन विधि आज भी स्वीकार्य है,ये निरीक्षण, परीक्षण,और सामयिक नियमीकरण के आधार पर ज्ञान से
सम्बद्ध करना चाहते हैं रटके और कमेनियस
ने प्रभावी शिक्षण सूत्र दिए। वास्तव में यथार्थवादियों ने शिक्षण विधियों के
क्षेत्र को दिशा दी।
7 – विस्तृत पाठ्यक्रम (Detailed Curriculum) –
यह इनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता में गिना जा सकता है क्योंकि इन्होने
विविध व्यवहारिक विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान देकर इसे व्यावहारिक व विस्तृत
बनाया जैसा कि कार्टर वी गुड ने कहा –
“The detailed curriculum was a key feature of
realism.”
“विस्तृत पाठ्यक्रम, यथार्थवाद की एक प्रमुख विशेषता थी। ”
8 – वैयक्तिकता व सामाजिकता दोनों को समान महत्त्व(Equal importance to both
individuality and sociality) –
ये शिक्षा द्वारा मनुष्य को समाज के लिए
उपयोगी बनाना चाहते हैं और वैयक्तिकता और सामाजिकता को समान महत्त्व प्रदान करते
हैं। जायसवाल महोदय ने कमेनियस के बारे में लिखा –
“कमेनियस की शिक्षा का
उद्देश्य व्यक्ति को जीवन में सफल बनाना और ज्ञान द्वारा नैतिक तथा धार्मिक भावना
का विकास करना है। ”
यथार्थवादी शिक्षा के
उद्देश्य (Realistic Education Objectives) –
1 – जीवन को व्यावहारिक व
सुखमय बनाना (To
make life practical and happy)
2 – मानसिक शक्तियों का सम्वर्धन
(Enhancement of Mental powers)
3 – प्रकृति का ज्ञान
कराना (To
make knowledge of nature)
4 – सामाजिक पर्यावरण का
ज्ञान (Knowledge of the social environment)
5 – वैज्ञानिक दृष्टिकोण
का विकास (Development
of scientific attitude)
6 – सुखी जीवन हेतु तैयार
करना (Preparing for a happy life)
7 – व्यावसायिक शिक्षा
प्रदान करना (Providing vocational education)
डेविनपोर्ट महोदय के अनुसार –
“No
individual shall be obliged to chose between an education without a vocation
and vocation without an education.”
“कोई भी व्यक्ति किसी
व्यवसाय के बिना शिक्षा का चयन न करे, और न बिना शिक्षा के
व्यवसाय का चयन करे।”
यथार्थवाद और
पाठ्यक्रम (Realism and curriculum)-
ये आधुनिक ज्ञान
विज्ञान को प्रश्रय प्रदान कर साहित्यिक, काल्पनिक, कलात्मक, दार्शनिक विषयों को
द्वित्तीयक स्थान प्रदान करते हैं यथार्थवादी दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम को दो भागों
में विभक्त कर सकते हैं –
प्रधान विषय – भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, उद्योग,व्यवसाय, कृषि, शिल्पकार्य, मातृ भाषा व अन्य
जीवनोपयोगी विषय
गौड़ विषय – साहित्य,कला,संगीत,दर्शन,इतिहास,भूगोल,नीतिशास्त्र,समाजशास्त्र,कानून आदि।
यथार्थ वाद और शिक्षण
विधि (Realism and Teaching Method) –
वस्तु व इन्द्रिय प्रशिक्षण पर ध्यान देने
वाले यथार्थवाद में मुख्यतः निम्न शिक्षण विधियों को प्रश्रय मिला है –
भ्रमण विधि, प्रयोग विधि,निरीक्षण विधि, अनुभव आधारित विधि,आगमन विधि,दृश्य श्रव्य सामग्री
युक्त विधि व अन्य क्रियात्मक विधियाँ।
यथार्थ वाद और
अनुशासन (Realism and Discipline ) –
ये विद्यालय का वातावरण घर की तरह बनाना
चाहते हैं और प्रेम, सुरक्षा,सहानुभूति के आधार पर न्याय, संयम, स्वतन्त्रता आदि का विकास करना चाहते हैं। ये वाह्य अनुशासन का विरोध व
वस्तुनिष्ठ अनुशासन का समर्थन करते हैं। ये प्रकृतिवादियों के विपरीत नैतिक व
धार्मिक विकास को जीवन नियंत्रित करने का साधन मानते हैं।
यथार्थवाद और शिक्षक (Realism
and Teacher) –
ये आदर्शवाद की तरह प्रमुख स्थान तो नहीं
देते लेकिन उसके महत्त्वपूर्ण स्थान को पूरी तरह नकारते भी नहीं। अध्यापक वातावरण
को नियन्त्रित करने के साथ अनुभव द्वारा सीखने का माहौल बनाएं। आचरण की शिक्षा
हेतु ये अध्यापकीय प्रशिक्षण पर बल देते हैं।
यथार्थवाद और
बालक (Realism and
Child) –
इन्होने बालक केन्द्रित शिक्षा प्रक्रिया को
प्रमुख स्थान प्रदान किया है और उनका सर्वांगीण विकास भी करना चाहता है ये प्रकृतिवादियों की भाँति बालक
को स्वतन्त्र छोड़ने की जगह सजग प्रहरी की तरह प्रत्येक गतिविधि व उनकी रुचियों पर
ध्यान देते हैं। ये विभिन्न परिस्थितियों व समस्याओं से जूझने हेतु बालक को तैयार
करना चाहते हैं।
शैक्षिक समाजशास्त्र का अर्थ एवम् परिभाषा( Meaning and Definition of Educational
Sociology)-
समाजशास्त्र में मानव और समाज को प्रमुखता दी जाती है जबकि मानव,शिक्षा,समाज
और इनके तत्सम्बन्धी अंग शैक्षिक समाजशास्त्र की विषय वस्तु हैं। वस्तुतः शैक्षिक
समाज शास्त्र, समाजशास्त्र की ही एक शाखा है जिसमें समाज का शिक्षा
पर प्रभाव, सामाजिक सम्बन्धों और इसके विभिन्न पहलुओं का
वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। प्रसिद्द समाजशास्त्री जार्ज पैनी
महोदय का विचार है –
” By Educational Sociology we mean the science which
describes and explains the institution, social groups and social process, that
is the social relationships in which on through which the individual gains and
organised his experiences.”
”शैक्षिक समाज विज्ञान से हमारा अभिप्राय उस विज्ञान से है, जो संस्थाओं, सामाजिक समूहों और सामाजिक प्रक्रियाओं का, अर्थात उन सामाजिक सम्बन्धों का वर्णन और
व्याख्या करता है,
जिनमें
या जिनके द्वारा व्यक्ति अपने अनुभवों को प्राप्त और संगठित करता है।”
ब्राउन महोदय के अनुसार –
“Educational Sociology is the study of the interaction
of individual and his cultural environment.”
“शैक्षिक समाजशास्त्र व्यक्ति तथा उसके सांस्कृतिक वातावरण के बीच
होने वाली अन्तः क्रिया का अध्ययन है।”
गुड महोदय के अनुसार –
”Educational Sociology is the scientific study of how people
live in social groups, especially including the study of education that in
obtained by the living in the social groups and education that is headed by the
members to live efficiently in social groups.”
”शैक्षिक समाजशास्त्र इस बात का वैज्ञानिक अध्ययन करता है की व्यक्ति
सामाजिक समूहों में किस प्रकार रहते हैं, वे कैसी शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा इन सामाजिक समूहों में कुशलता
पूर्वक रहने के लिए उनको किस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती है।”
कार्टर महोदय के अनुसार –
”Educational Sociology is the study of these phases of
Sociology that are of significance for educative process, especially the study
of those that point to valuable programme to learning and control of learning
process.”
”शैक्षिक समाजशास्त्र, समाज शास्त्र के उन तत्वों का अध्ययन करता हैं जिनका शैक्षिक
प्रक्रिया में महत्त्व है और विशेष रूप से उनका अध्ययन करता है जो सीखने की
महत्त्वपूर्ण योजना और सीखने की क्रिया के नियन्त्रण की ओर संकेत करते हैं।”
शिक्षा का समाजशास्त्र (Sociology of Education)-
विकीपीडिया(Wikipedia) के
अनुसार
”The Sociology of Education is the study of how public
institutions and individual experiences affect education and its outcomes. It
is mostly concerned with the public schooling systems of modern industrial
societies, including the expansion of higher further, adult and higher
education.”
“शिक्षा का समाजशास्त्र इस बात का अध्ययन है कि सार्वजनिक संस्थान और
व्यक्तिगत अनुभव शिक्षा और उसके परिणामों को कैसे प्रभावित करते हैं। यह ज्यादातर आधुनिक
औद्योगिक समाजों की सार्वजनिक स्कूली शिक्षा प्रणाली से सम्बन्धित हैं जिसमें आगे
उच्च, वयस्क और सतत शिक्षा का विस्तार शामिल
है।”
शेनेका एम विलियम्स (Sheneka M
Williams) के
अनुसार
The Sociology of Education refers to how individuals’
experiences shape the way they interact with schooling. More specifically, the
sociology of education examines the ways in which individuals’ experiences
affect their educational achievement and outcomes.”
”शिक्षा का समाजशास्त्र यह बताता है की कैसे व्यक्तियों के अनुभव स्कूली
शिक्षा के साथ बातचीत करने के तरीके को आकार देते हैं। अधिक विशेष रूप से, शिक्षा का समाजशास्त्र उन तरीकों की जाँच करता
है जिसमें व्यक्तियों के अनुभव उनकी शैक्षिक उपलब्धि और परिणामों को प्रभावित करते
हैं।”
ओटावे महोदय के अनुसार –
”The sociology of education may be defined briefly as a
study of the relation bitween education and society.”
”शिक्षा के समाज विज्ञान की परिभाषा संक्षिप्त रूप में शिक्षा और समाज
के सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में की जा सकती है।”
अर्थात शिक्षा का समाज शास्त्र ,समाज
शास्त्रीय समस्याओं के निर्वहन में शिक्षा के योगदान पर ध्यान केन्द्रित करता है।
शिक्षा के समाजशास्त्र और शैक्षिक समाजशास्त्र
में अन्तर {Difference between Sociology of Education and
Educational Sociology} –
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर
पहुँचने से पूर्व यह विवेचन करना परमावश्यक है की शिक्षा की समाजशास्त्रीय
समस्याओं के निवारण में क्या भूमिका है समाज के धर्म,
समाज की संस्कृति और स्वरुप से संयुक्त
समस्याओं के निदान में शिक्षा का कहाँ तक प्रयोग हो सकता है शिक्षा की इस भूमिका
का अध्ययन शिक्षा का समाजशास्त्र(Sociology of
Education)
कहा जाता है।
शैक्षिक समाज शास्त्र, शिक्षा को समाजशास्त्रीय धरातल पर विवेचित कर
यह देखने का प्रयास करता है की शिक्षा के क्षेत्र में उठने वाली समस्याओं के
समाजशास्त्रीय समाधान क्या हैं अर्थात समाज शास्त्र के शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव
का अध्ययन ज्ञान की जिस शाखा में किया जाता है उसे शैक्षिक समाजशास्त्र(Educational Sociology) कहते हैं।
शिक्षा के समाज शास्त्र की आवश्यकता,
उपयोगिता
व महत्त्व (Need, Utility and Importance of
Sociology of Education) –
1 – सामाजिक उदग्र व क्षैतिज गतिशीलता में शिक्षा
के प्रभाव का अध्ययन
2 – सामाजिक सम्प्रत्यय स्पष्टीकरण में शिक्षा की
भूमिका
3 – शिक्षा की प्रकृति और स्वरुप का समाज पर प्रभाव
का अध्ययन
4 – सामाजिक मन्तव्यों के निर्धारण में सहायक
5- विभिन्न सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन
6 – समाज की सामंजस्य शीलता की वृद्धि में सहायक
7 – सामाजिक अनुशासन स्थापन में सहयोग
8 – जातिभेद, छुआ छूत आदि भावना से निजात में सहायक
9 – सामाज में वाद प्रतिवाद और सम्वाद,
भाव बोध जगाने में सहायक
वास्तव में शिक्षा का समाज शास्त्र और शैक्षिक
समाज शास्त्र आपस में इतने गुत्थमगुत्था हैं की इन्हे एक सिक्के के दो पहलू कहा जा
सकता है ये अन्योन्याश्रित हैं। इसीलिए इतने समय बाद यह नया प्रत्यय आपके
पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता को समझा गया। यद्यपि इन सूक्ष्मताओं को
शिक्षा शास्त्र के शिक्षार्थी नाते जानना
आवश्यक है। ध्यान यह रखना है की शिक्षा का समाज शास्त्र,
समाज की समस्यायों के निदान में शिक्षा की
भूमिका का अध्ययन सुनिश्चित करता है।
जब
हमारी आवश्यकताओं की अधिकता हो और साधन ओछे पड़ जाएँ तो जन्म होता है समस्या का।
ऐसा
कोई नहीं, जिसे समस्याओं का सामना न करना पड़ा हो। हर एक
की समस्या का स्तर उसकी आवश्यकता के अनुसार भिन्न भिन्न होता है लेकिन हम सबको
समस्या से जूझना चाहिए और पलायनवादिता से बचना चाहिए।
यहाँ
समस्या को धराशाई करने के आठ उपाय आपकी नज़र हैं –
1 – जिन्दादिली – जिन्दादिली का यह गुण समस्या के प्रभाव में
आश्चर्यजनक कमी लाता है वास्तव में हमें हमारी समस्या हमारे डर के कारण बड़ी दिखती
है उतनी बड़ी होती नहीं। लाखों लोग उससे विषम परिस्थिति में आनन्द से जी रहे हैं।
कारण है उनकी जिन्दादिली,
किसी ने ठीक ही कहा है –
जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं।
2 – मौन – मौन एक अद्भुत जादुई शब्द है और इसका प्रयोग
हमें असीमित ऊर्जा से भर देता है। याद रखें हम स्वयम् ऊर्जा के अजस्र स्रोत हैं, जब हम शान्त चित्त होकर समस्या समाधान का
प्रयास, चिन्तन मनन और आत्मिक शक्ति के आधार पर करते
हैं तो समस्या छू मन्तर हो जाती है। मौन से हम सारी शक्ति अन्तः केन्द्रित कर लेते
हैं और समस्या का निदान हो जाता है।
3 – मानसिक शक्ति – मानस की शक्ति ही आत्म विश्वास का आधार हुआ करती है याद रखें समस्या है तो समाधान है। मानस की शक्ति ने पहाड़ में से रास्ते बनाये हैं, दुर्गम क्षेत्र विजित किए हैं आपकी मानसिक शक्ति आपके मानस का वह उत्थान कर सकती है की समस्या का पूर्ण विलोपन हो जाए। मानस की शक्ति स्वयम् पर ऐसा विश्वास जगाती है की हम मौत के मुँह से जिन्दगी छीन लेते हैं।
4 – आध्यात्मिक अवलम्बन – हमारे सबके अपने अपने ईष्ट हैं जो हमारी परम
शक्ति के द्योतक हैं। इन पर दृढ़ विश्वास अद्भुत उल्लासमई जीवन शक्ति प्रदान करता
है और असम्भव को सम्भव कर देता है, आवश्यकता
है अपने ईष्ट पर दृढ़ विश्वास की। वे करुणा निधान हैं और अहैतुकी कृपा करने वाले
हैं। सङ्कल्प लीजिए विकल्प मत छोड़िए। समस्या भाग जाएगी।
5 – लगन – लगन या धुन का पक्का व्यक्ति वह कर गुजरता है
जिसे तमाम साधन सम्पन्न व्यक्ति भी नहीं कर पाते। आज के तमाम आविष्कार, चाहे आकाश में उड़ने की बात हो या समुद्र के
अन्दर यात्रा की, लगन ने ही रास्ता बनाया है। ध्येय निर्धारित कर
उसे पाने की लगन व्यक्ति के व्यक्तित्व में वह निखार लाती है जिसे कोई कृत्रिम
साधन नहीं दे सकता। लगन की इस शक्ति के आगे समस्या दम तोड़ देती है।
6 – संयम – संयम या धैर्य वह महत्व पूर्ण गुण है जो हमें
हारने नहीं देता और चीख चीख कर कहता है एक प्रयास और। विवेकानन्द जी ने धैर्य की
ताक़त को महसूस करते हुए कहा – “उठो …… जागो ….. और तब तक मत रुको ; जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।”
7 – निरन्तर संघर्ष शीलता – हमेशा संघर्ष को तैयार रहें। ईश्वर को धन्यवाद
कहें और निरन्तर प्रयास को अपना स्वभाव बना लें। मन्थन की निरन्तरता दूध से घी और
समन्दर से अमृत निकाल सकती है। छोटी छोटी समस्या तिनके के मानिन्द कब उड़ गईं पता
तब चलेगा जब लोग कहेंगे कि जीवट हो तो उस निरन्तर संघर्ष शील व्यक्ति जैसा।
8 – समस्या समाधान का विश्वास – समस्या के समाधान का हमें पूर्ण विश्वास होना
चाहिए। याद रखें समस्या समाधान का कोई न
कोई रास्ता होता अवश्य है। सम्यक योजना बनाएं। ठीक ही कहा गया है कि –
रास्ता
किस जगह नहीं होता
सिर्फ
हमको पता नहीं होता।
छोड़
दें डरकर रास्ता ही हम
यह कोई रास्ता नहीं होता।
अन्त में समस्त मानवता का आवाहन है कि पूर्ण
क्षमता से समस्या का सामना करें आप अवश्यमेव विजित होंगे। शोणित के ज्वार को दिशा
देतीं अनाम पंक्तियाँ –
प्रयोजनवाद को फलक वाद,नैमेत्तिक वाद, व्यवहार वाद आदि नामों से जाना जाता है पाश्चात्य दर्शन की उस विचार धारा को प्रयोजनवाद के नाम से जानते हैं जो मानव के मात्र व्यावहारिक पक्ष पर विचार करती है इसे आँग्ल भाषा में प्रैग्मेटिज्म (Pragmatism) कहा जाता है। यह ग्रीक भाषा के प्रेग्मा (Pragma) अथवा प्रेग्मेटिकोस (Pragmaticos) शब्द से बना है। इसका अर्थ व्यावहारिकता से होता है इसलिए इसे प्रैग्मेटिज्म (Pragmatism) कहते हैं।
प्रयोजन वाद की मीमांसाएँ –
प्रयोजनवादियों का मानव और सृष्टि के सम्बन्ध में जो चिन्तन है उसे
समझने हेतु उसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान व तर्क मीमांसा ( Episteomology and Logic) तथा मूल्य आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) को जानना परम आवश्यक है इसलिए पहले हम उक्त
मीमांसाओं को विवेचित करेंगे।
(a) – तत्त्व मीमांसा (Meta
Physics)- प्रयोजनवाद का तात्विक विवेचन यह तथ्य स्पष्ट
करता है की सत्य निर्धारण की स्थिति में रहता है कोइ पूर्व निर्धारित सत्य नहीं हो
सकता,यह
परिवर्तनशील होता है। इसे मानवतावादी प्रयोजनवाद (Humanistic
Pragmatism) कहते
हैं कुछ प्रयोजनवादी उसे ही सत्य स्वीकारते हैं जो प्रयोग की कसौटी पर खरा उतरे
इसे प्रयोगवादी प्रयोजन वाद(Experimental Pragmatism) कहा जाता है कुछ प्रयोजनवादी ऐसे भी हैं जो
अनुभव को प्रमाण मानते हैं अनुभव सिद्ध ज्ञान का आधार ले ये कहते हैं कि तथ्य
आधारित सत्यता भाषा भिन्न होने पर भी सामान परिणाम देती है इसलिए अलग अलग भाषा
होने पर भाषा पर नहीं बल्कि परिणाम पर ध्यान दिया जाना चाहिए इसे नाम रूपी
प्रयोजनवाद ( Nominalistic
Pragmatism) कहा
जाता है।
प्रयोजनवादियों का एक समूह केवल उसी को सत्य
स्वीकारता है जो मानव की जीव वैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं इन्हें जीव
विज्ञानी प्रयोजनवाद (Biological Pragmatism) का समर्थक कहा जाता है। कार्य साधन सम्बन्ध के
आधार पर तात्विक विवेचना इसे साधनवाद, नैमित्तिकवाद कहने में नहीं हिचकिचाती। डीवी का
उपकरण वाद (Instrumentalism) प्राणी को उपकरण मानने के कारण चर्चा में रहा।
(b) – ज्ञान व तर्क मीमांसा (Episteomology
and Logic) – इनके अनुसार ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं है बल्कि
यह सुख पूर्वक जीवन जीने का आधार है जीवन को सुखमय बनाने वाले साधन के रूप में ये
ज्ञान को स्वीकारते हैं सामाजिक गतिविधियों में क्रिया कर ज्ञान प्राप्त किया जा
सकता है ज्ञान और कर्म की इन्द्रियाँ ही वह माध्यम हैं जो ज्ञान,
मस्तिष्क, बुद्धि का आधार हैं।
(c) –मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology
and Ethics) – चूँकि ये सत्य को शाश्वत मानते ही नहीं इसलिए
कोई पूर्व निर्धारित मूल्य या आचरण सार्व कालिक हो ही नहीं सकता। यह मानते हैं कि
बच्चों में सामजिक कुशलता का गुण विकसित कर हर परिस्थिति में उसकी जीविकोपार्जन
क्षमता, समायोजन
क्षमता, समाधान
क्षमता को निरन्तर परिमार्जनशीलता से जोड़े रखना चाहते हैं जिससे परिस्थिति अनुसार
मूल्य व आचरण नया रूप धारण कर सके।
प्रयोजनवाद की परिभाषाएं (Defenitions of Pragmatism) – प्रयोजनवाद के विविध रूप हैं इसी कारण
परिभाषाओं में भी इसी विविधता के दर्शन होते हैं कुछ परिभाषाएं दृष्टव्य हैं जेम्स
बी. प्रेट (James B
Prett) के
शब्दों में –
”Pragmatism offer
as a theory of meaning, a theory of truth of knowledge and theory of
reality.”
”प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धान्त, सत्यता का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त एवं वास्तविकता का
सिद्धान्त प्रदान करता है।”
रॉस (Ross) महोदय कहते हैं। –
”Pragmatism is essentially a humanistic philosophy maintaining
that man creates his own values in course of activity, that reality is still in
making and awaits its part of the completion from the future. -Ross
”प्रयोजनवाद निश्चित रूप से एक मानवतावादी दार्शनिक विचारधारा है इसकी
यह मान्यता है की मनुष्य कार्य करने के दौरान अपने मूल्यों का स्वयं निर्माण करता
है, सत्य अभी निर्माण की अवस्था में है जिसके शेष
भागों की पूर्ति भविष्य में होगी।”
प्रयोजनवाद के बारे में विलियम जेम्स (William James) महोदय कहते हैं। –
”Pragmatism is a temper of mind, an attitude, it is also a
theory of the nature of ideas and truth and finally, it is a theory about
reality.”
फलकवाद मस्तिष्क का एक स्वभाव है, एक अभिवृत्ति है यह विचार और सत्य की प्रकृति
का सिद्धान्त है और अन्ततः यह वास्तविकता के बारे में सत्यता का सिद्धान्त
है।”
रमन बिहारी लाल ने प्रयोजन वाद की कई विचार धाराओं को समाहित करते
हुए इस प्रकार पारिभाषित किया –
” प्रयोजन वाद पाश्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को
विभिन्न तत्वों और क्रियाओं का परिणाम मानती है और यह मानती है कि भौतिक संसार ही
सत्य है और इसके अतिरिक्त कोई आध्यात्मिक संसार नहीं है।”
प्रयोजनवाद और
शिक्षा(Pragmatism
and Education ) –
प्रयोजनवाद का शिक्षा पर व्यापक प्रभाव पड़ा इस वाद के प्रमुख
दार्शनिकों में विलियम जेम्स, जॉन
डीवी, किल पैट्रिक, मिलर आदि का नाम आता है इसके प्रभाव ने शिक्षा के उद्देश्यों व इसके
अंगों पर परिवर्तनकारी छाप छोड़ी है। जिन्हें इस प्रकार अधिगमित किया जा सकता है।
प्रयोजनवाद के मूल सिद्धान्त (Fundamental Principles of Pragmatism)
–
1- ब्रह्माण्ड
अनेक तत्त्वों व क्रियाओं का फल
2 – भौतिक
जगत मात्र का अस्तित्व
3 – पदार्थजन्य
क्रियाशील तत्त्व आत्मा
4 – सहज
सामाजिक प्रक्रिया का सोपान मानव विकास
5 – सांसारिक सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव
6 – सुखपूर्वक जीवन यापन मानव उद्देश्य
7
– सुखपूर्वक जीवन
यापन व सामाजिक विकास परस्पर निर्भर
8 – सामाजिक विकास का आधार सामाजिक कुशलता
9 – राज्य एक सामाजिक संस्था
प्रयोजनवाद और
शिक्षा के उद्देश्य (Pragmatism and Aims of Education ) –
प्रयोजनवादी शिक्षा के निश्चित उद्देश्यों
को ही स्वीकार नहीं करते पर्यावरण व मूल्य निरन्तर परिवर्तित हो रहे हैं इस आधार
पर डीवी महोदय कहते हैं –
”शिक्षा के अपने में
कोई उद्देश्य नहीं होते, उद्देश्य तो
व्यक्तियों के होते हैं और व्यक्तियों के उद्देश्यों में बड़ी भिन्नता होती है, जैसे जैसे व्यक्तियों
का विकास होता जाता है उनके उद्देश्य भी बदलते जाते हैं।”
यह शिक्षा के उद्देश्यों की जगह शिक्षा से
बालकों की योग्यताओं में निम्न अभिवृद्धि की आशा करते हैं। –
1 – सामाजिक वातावरण व
पर्यावरण से अनुकूलन
2 – गतिशीलता
3 – सामाजिक कुशलता
4 – लोकतान्त्रिक
अभिवृत्ति
प्रयोजनवाद और पाठ्यक्रम (Pragmatism and Curriculum)- ये उद्देश्यों की तरह स्पष्ट विषय विभाजन की
जगह पाठ्यक्रम हेतु उन सिद्धांतों को बढ़ावा देना चाहते हैं जो इनके अनुसार बालक
हेतु आवश्यक हैं ये कहते हैं समयानुसार सिद्धांतों के अनुसार विषयों की आवश्यकता
होगी। इनके अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण हेतु निम्न सिद्धांतों का अवलम्बन लेना होगा।
1 – उपयोगिता
का सिद्धान्त (Principle
of Utility)
जेम्स महोदय ने कहा है –
”It is true because it is useful.”–William James
”किसी
वस्तु की सत्यता उसकी उपयोगिता के आधार पर निर्धारित की जा सकती है।”
2 – रूचि
का सिद्धान्त (Principle
of Interest)
3 – अनुभव
का सिद्धान्त (Principle
of Experience)
”विद्यालय
समुदाय का अंग है। इसलिए यदि ये क्रियाएं समुदाय की क्रियायों का रूप ग्रहण कर
लेंगी तो ये बालक में नैतिक गुणों और पहल कदमी तथा स्वतन्त्रता के दृष्टिकोणों का
विकास करेंगी। साथ ही ये उसे नागरिकता का प्रक्षिशण देंगी और उसके आत्मानुशासन को
ऊँचा उठाएंगी।”
4 – एकीकरण
का सिद्धान्त (Principle
of Integration)
5 – सत्य की परिवर्तनशील प्रकृति (Nature
of truth is changeable)
”The truth of an idea is not a stagnant property inherent in
it, truth happens to an idea.”-William James
जेम्स महोदय के अनुसार –
”सत्य कोई पूर्ण निश्चित एवम् अनन्त सिद्धान्त नहीं, प्रत्युत वह सदा निर्माण की अवस्था में रहता
है।”
जेम्स महोदय पुनः कहते हैं –
”सत्य किसी विचार का स्थाई गुण धर्म नहीं है। वह तो अकस्मात् विचार
में निर्वासित होता है।”
6 – क्रिया प्रमुख, ज्ञान द्वित्तीयक (Action main, Knowledge Secondary)
प्रयोजनवाद और शिक्षण विधियां (Pragmatism and Methods of Teaching) –
ये सीखने हेतु किसी शिक्षण विधि का समर्थन करने की जगह व्यावहारिक
विधियों के चयन हेतु प्रेरित करते हैं।
रॉस महोदय कहते हैं –
”यह (प्रयोजनवाद) हमें चेतावनी देता है की हम प्राचीन और घिसीपिटी
विचार क्रियाओं को अपने शैक्षिक व्यवहार में प्रमुख स्थान न दें और नई दिशाओं में
कदम बढ़ाते हुए अपनी विधियों में नए प्रयोग करें।”
– उद्देश्य
पूर्ण शिक्षण विधि(Purposive Process of Learning) –
ये चाहते हैं कि अध्यापक ऐसी विधि का अनुसरण करे जिससे बालक अपनी इच्छा रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार अपने आप ज्ञान लब्ध करे।
रॉस के शब्दों में – ”सीखने की प्रक्रिया उद्देश्य पूर्ण होनी
चाहिए।”
– क्रिया विधि से सीखना (Learning by Doing ) –
प्रयोजनवादी बालक को रटाने की जगह क्रिया
द्वारा सीखने पर बल देते हैं ‘करके सीखना’ से आशय मात्र ‘व्यावहारिक कार्य’
को तरजीह देना नहीं है बल्कि उसे ऐसा बनाना है
जो हर परिस्थिति से तारतम्य बना सके।
–
प्रोजेक्ट
विधि (Project
Method) –
प्रोजेक्ट पद्धति, समस्या
समाधान पद्धति, स्वक्रिया पद्धति, स्व अनुभव पद्धति,सह सम्बन्ध पद्धति, परीक्षण पद्धति ,प्रयोग पद्धति पर इन्होंने विशेष ध्यान केन्द्रित किया। इन्हें
प्रोजेक्ट पद्धति का जनक कहा जाता है जिसमें उक्त सभी विधि तो सम्मिलित हैं ही साथ
में निम्न तथ्य समाहित करने पर जोर दिया।
1 – बालक
की रूचि के अनुसार शिक्षा प्रदान की जाए।
2 – ज्ञान
प्राप्ति हेतु स्वतन्त्रता प्रदान की जाए।
3 – वैयक्तिक
भिन्नता का ध्यान रखा जाए।
4 – सामाजिक
भावना का विकास किया जाए।
5 – बालकों
के शब्दों से अधिक कार्यों पर ध्यान दिया जाए।
प्रयोजनवाद औरअध्यापक
(Pragmatism and Teacher) –
प्रयोजनवादियों का मानना है कि शिक्षक बालक को समाजोन्मुख करने वाला
प्रमुख व्यक्ति है समाज के प्रतिनिधि के रूप में उसे निरीक्षण करने सहयोग देने व
बालक को उत्साहित मात्र कराने का अधिकार है उस पर अपने विचार लादने का नहीं।
शिक्षक को अपनी परिष्कृत बुद्धि परिमार्जित व्यक्तित्व द्वारा बालकों के ज्ञान तथा
समाज हेतु तैयारी के आधार पर बालकों की सहायता करनी चाहिए।
प्रयोजनवाद और अनुशासन (Pragmatism
and Discipline) –
डीवी व अन्य प्रयोजनवादी अनुशासन को प्रजातान्त्रिक ढंग से स्व
अनुशासन, रूचि व सहयोग पर आधारित करना चाहते हैं।
हैरोल्ड जी 0 शैन ने डीवी से प्रभावित होकर कहा –
”जहाँ तक अनुशासन का सवाल है, डीवी के मानदण्ड उच्च श्रेणी के थे आवश्यकता हो तो अध्यापकों पर कठोर
नियन्त्रण रखने से लेकर, छात्रों
की परिपक़्वता के साथ आत्मानुशासन के महत्त्व को स्वीकारने तक।”
प्रयोजनवाद और विद्यालय (Pragmatism and School) –
प्रयोजनवादी विद्यालय को समाज के लघु रूप में स्वीकारते हैं और विद्यालयों
में शिल्पों पर बल देकर शिक्षा को जीविकोपार्जन हेतु उपयोगी बनाना चाहते हैं।
डीवी ने कहा – ” विद्यालय अपनी चहारदीवारी के बाहर से बहुत कुछ
समाज की प्रतिच्छाया है।”
ये जीवन के सर्वोत्तम ढंग को सिखाना चाहते हैं।
डीवी ने कहा –” विद्यालय सामाजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला होनी
चाहिए, जिससे बालक एक दूसरे के साथ रहकर जीवन यापन के
सर्वोत्तम ढंगों को सीख सकें।”
प्रयोजनवाद का मूल्यांकन (Estimate of Pragmatism) – मूल्याङ्कन हेतु आवश्यक हे कि इसके गुण दोषों
का अध्ययन किया जाए।
प्रयोजनवाद के गुण (Merits of Pragmatism) –
1 – बाल
केन्द्रित शिक्षा
2 – क्रिया
आधारित शिक्षा
3 – लोकतन्त्रीय
शिक्षा
4 – सामाजिक
व्यवहारिक शिक्षा
5 – प्रोजेक्ट
पद्धति का प्रयोग
6 – शिक्षा
में सकारात्मक परिवर्तन
7 – विचारों
को व्यवहार के अधीन लाना –
रस्क महोदय ने कहा –
”प्रयोजनवाद का वह रूप जिसने अपना सर्वाधिक प्रभाव डाला है, यह है की उसने शिक्षा के क्षेत्र में विचारों
को व्यवहारों के अधीन कर दिया है।”
प्रयोजनवाद के दोष (Demerits of
Pragmatism) –
1 – सत्य सम्बन्धी धारणा अनुचित
2 – आध्यात्मिकता को तिलाञ्जलि
3 – उपयोगिता निर्णयन दुष्कर
4 – निश्चित उद्देश्य का अभाव
5 – पाठ योजना बनाना कठिन
6 – बुद्धि के महत्त्व में कमी
7 – सांस्कृतिक अवमूल्यन
8 – अतीत की उपेक्षा
9 – एकत्व वाद के सापेक्ष बहुवाद पर अधिक बल
उपरोक्त विवेचन में भले ही दोष, गुण
की तुलना में अधिक दिखते हों लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किय जा सकता कि इसने
शिक्षा जगत में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये हैं। रस्क (Rusk) महोदय ने कहा –
”It is merely a stage in the development of a new Idealism
that will do full justice of reality, reconcile the practical and the spiritual
values, and result in a culture which is the flower of efficiency.”
”प्रयोजनवाद,
नवीन
आदर्श वाद के विकास में एक चरण मात्र है। यह नवीन आदर्शवाद ऐसा होगा,
जो
सदैव जीवन की वास्तविकता का ध्यान रखेगा और व्यावहारिक और आध्यात्मिक मूल्यों का
समन्वय करेगा। इसके साथ ही, यह ऐसी संस्कृति का निर्माण करेगा,
जो
कुशलता का पुष्प होती है।”