आज आप हों चाहे मैं, इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि जिन्दगी में भाग दौड़ बढ़ी है इस भाग दौड़ और प्रतिस्पर्धा में हम कब बीमारी की गिरफ्त जाते हैं पता ही नहीं चलता। नए नए रोग मानव को डरा रहे हैं इसी तरह की एक व्याधि है कैन्सर यानि कर्क रोग।
इसका डर इतना है कि कुछ लोग इसे सञ्चारी व्याधि मानने लगे हैं जब कि
ऐसा है नहीं। यह रोगी के साथ खाना खाने, पानी
पीने या सोने से नहीं फैलता।
इससे लड़ने के लिए शारीरिक के साथ मानसिक आत्मबल
विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करता है इसीलिये डरें नहीं लड़ें। एस 0 डी 0
शर्मा ‘सन्दल’ कहते
हैं –
यारब उसी को मंजिले मक़सूद हो नसीब
गिर गिर के राहगीर जो दौरे सफर में है।
निरन्तर जिन्दादिली से सफर में रहने के लिए
आत्म प्रेरित होकर ये उपाय अपनाए जा सकते हैं। याद रखें प्रारम्भिक स्तर पर सचेष्ट
हो जाने से 60 % कैन्सर की रोकथाम सम्भव है।
कैंसर
की रोकथाम के उपाय –
मानव
को जीत के आत्मविश्वास के साथ परिस्थिति से भिड़ने को तैयार रहना चाहिए। गजलकार एस
डी शर्मा ने कहा –
दुश्मन
नहीं है मौत ही इन्सान की फ़क़त
खुद
जिन्दगी के हाथ भी इन्सां भँवर में है।
इस
भँवर से बचाने हेतु एक दर्जन उपाय कैंसर
से बचने के यहाँ प्रस्तुत हैं –
1- शराब, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, सिगार, सुपारी, पान
मसाला, गुटका आदि किसी भी नशे का सेवन कदापि न
करें।
2- हरी सब्जी, फल, दालें, रेशे
वाला व विटामिनयुक्त भोजन ग्रहण करें।
3- फलों, सब्जियों
और ऐसे पदार्थों जो कीटनाशक व खाद्य संरक्षण रसायनों के प्रभाव में हैं अच्छी तरह
से धोकर खाने चाहिए।
4- तलने हेतु उसी तेल का बारम्बार प्रयोग या
रिफाइंड का प्रयोग तत्काल प्रभाव से बन्द कर दें।
5- नियमित प्राणायाम, व्यायाम व भ्रमण को दिनचर्या में स्थान दें।
आत्म विश्वास से युक्त प्रेरणादायक मुस्कान से खुद को सजाएं।
6- तले, भुने,अधिक चटपटे भोज्य पदार्थों की जगह उबले सादे
भोजन को तरजीह दें।
7- प्रदूषण मुक्त वातावरण में प्रकृति के सानिध्य
में रहने का प्रयास करें।
8- त्वचा, जिह्वा, होंठ, पित्ताशय, गुर्दा, मूत्राशय, मुख में किसी तरह का दाग, धब्बा और बार बार होने वाला घाव असामान्य है
तुरन्त चिकित्स्कीय परामर्श लें।
9- शरीर में होने वाली गाँठों की जाँच आवश्यक है
नज़र अंदाज न करें। सभी गाँठ कैंसर की नहीं होतीं।
10- लगातार किसी भी तरह का रक्त स्राव घातक है
तत्सम्बन्धी टैस्ट हेतु तुरन्त कुशल चिकित्सक से सम्पर्क कर समाधान करें।
11- शरीर में होने वाला असामान्य परिवर्तन खतरे का
संकेत है चाहे तेजी से वजन का गिरना ही क्यों न हो, निरीक्षित कराया जाना चाहिए।
12- गेहूँ का जवारा, होम्यो पैथी,
आयुर्वैदिक उपचार प्रारम्भिक स्तर पर ही
चिकित्सक की देख रेख में लिया जाना चाहिए।
उक्त उपायों के साथ स्वयं सकारात्मक रूप से
प्रेरित रहें। युवराज, सोनाली बेन्द्रे, आयुष्मान खुराना की पत्नी और डाइरेक्टर ताहिरा
कश्यप ,संजय
दत्त, मनीषा
कोइराला, नफीसा
अली, लीसा
रे आदि ऐसे व्यक्तित्व हैं जो कैंसर को मात देकर जिन्दादिली के हमराह बने। इनके
अलावा बहुत से ऐसे आम नाम हैं जिनसे सभी परिचित तो नहीं लेकिन वे आपके आस पास के
परिक्षेत्र में हैं और यथार्थ प्रेरणा
स्रोत हैं। आज कैंसर से जीता जा सकता है अन्त में शीश महल की पंक्तियाँ जेहन में उकरती हैं –
जीवन
में सक्रियता में कमी व निष्क्रियता की अधिकता आलस्य के नाम से जानी जाती है आलस्य
वह ढंग है जिसके कारण अनमने मन से धीमी गति से या दूसरों के माध्यम से कार्य कराने
की प्रवृत्ति प्रभावी हो जाती है ऐसे लोग कामचोरी के बहाने ढूँढते हैं और अपना
कार्य दूसरों पर टालते हैं।
आलस्य
और प्रमाद में अन्तर –
आलस्य
की स्थिति में शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्रियाओं में मन्दता या ढीलापन
देखा जाता है जबकि प्रमाद की स्थिति तन की अपेक्षा मन की दुर्बलता की द्योतक है।
आलस्य
से नुकसान –
आलस्य ने विश्व का बहुत बड़ा नुकसान किया है रिचर्ड
स्टील महोदय ने इसी लिए कहा है कि –
“…… sloth has ruined more nations than
the sword.”
अर्थात तलवार की तुलना में आलस ने अधिक राष्ट्र तबाह
किये हैं।
दुःख का कारण
आलस्य हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
ना सत्युद्यम समो बन्धु कृत्वा यं न अवसीदते।।
मानव के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे शत्रु है परिश्रम के समान कोई दूसरा बन्धु नहीं
है कार्य करने वाला कभी दुःखी नहीं होता।
यजुर्वेद में भी कहा गया कि “आलस्य दरिद्रता का मूल है।”
निर्णय में विलम्ब
आलस्य का सताया कोई कार्य समय पर नहीं कर
पाता क्यों कि उसके निर्णय विलम्ब से हो पाते हैं। पूरा जीवन अव्यवस्था का शिकार
हो जाता है कबीर दास जी ने भी यही समझाने की कोशिश की है –
पाछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत।
अब पछतावै होत का जब चिड़िया चुग गई खेत।
नकारात्मकता को बढ़ावा
आलसी व्यक्ति का चिन्तन तो नकारात्मक होता ही है सारी उपलब्धियाँ
उससे दूरी बनाने लगती हैं विद्या उससे दामन बचाती है कोई उसे मित्र भी नहीं बनाना
चाहता इसी भाव को दर्शाता श्लोक –
अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम्।
अर्थात आलसी को विद्या कहाँ, विद्याहीन
को धन कहाँ। धनहीन को मित्र कहाँ और मित्रहीन को सुख कहाँ।
रक्त प्रवाह असन्तुलन
दिवास्वप्न को बढ़ावा
आलस्य का मारा व्यक्ति कल्पना लोक में विचरण
करता रहता है यथार्थ से कतराता है। दिवा स्वप्न देखना उसका मुकद्दर बन जाता है कोई
कोई पूरी जिन्दगी इस भ्रम का शिकार बना रहता है। सुकरात महोदय ने कहा भी है
–
“आलस्य में जीवन बिताना आत्म
ह्त्या के समान है।”
संकल्प शक्ति का ह्रास
आत्मविश्वास क्षय
आत्म विश्वास जैसे सम्बल को आलस्य छीन लेता है और व्यक्ति भाग्यवादी
बनने लगता है दैव योग पर भरोसा करने लगता है जबकि तुलसी दासजी ने स्वयं
रामचरित मानस में लक्ष्मण से कहलाया –
नाथ दैव
कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर
मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥
(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन
भरोसा! मन में क्रोध ले आइए और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक
आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥
महत्त्वाकाँक्षा अवरोधक
आलस्य प्रगति मार्ग और महत्त्वाकांक्षा पूर्ति का सबसे बड़ा अवरोधक है
और जब हम कोई महत्वांकाक्षा नहीं पालते तो कबीर के शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध
होने लगते हैं –
रात गँवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय
हीरा जनम अनमोल सा, कौड़ी बदले जाए।
अवसर दुरूपयोग-
मौके पर चौका लगाना तो दूर की बात है आलसी
हाथ आये मौके को भी सहज ही छोड़ देता है और अन्त में पछताता है कि काश उस समय जागा
होता। जो समय का उपयोग नहीं कर सकता उससे सदुपयोग की तो आशा ही नहीं की जा सकती
तो अन्ततः दुरूपयोग ही उसका मुकद्दर बन जाता है।
निर्णयन शक्ति क्षय
आलस्य के कारण–
1 – नकारात्मक
चिन्तन
आज
व्यक्ति का चिन्तन कुप्रभावित हो गया है उसकी निर्भरता दूसरों पर बढ़ रही है इससे
सफलता संदिग्ध हो जाती है किसी ने ठीक ही कहा है –
वो
सफलता क्या पायेगा,
जो
निर्भर रहता गैरों पर।
मञ्जिल
उनको मिलती है,
जो
चलता अपने पैरों पर।
2
– नींद पूरी न होना
3
– असन्तुलित भोजन
4
– समय कुप्रबन्धन
समय पर सोना, समय पर जागना न होने से नियत समय पर नियत कार्य सम्पन्न नहीं हो
पाते पहले से गन्तव्य का आरक्षण करवाने के बाद भी अन्त समय तक सामान नहीं लगाया
जाता कुछ हड़बड़ी में होता है।
समय का उचित प्रबन्धन न करना आलस्य का बहुत
बड़ा कारण बनता है यह तथ्य सत्य है कि
‘वक़्त बरबाद
करने वालों को वक़्त बरबाद करके छोड़ेगा।‘
और बर्बादी का प्रवेश द्वार बन जाता है
आलस्य। आलसी का रोम रोम कह उठता है –
यूँ भी
तो आराम बहुत है आलसियों में नाम बहुत है।
दिन भर
खाली बैठे रहते कहते सबसे काम बहुत है।
5
– नशे की प्रवृत्ति
6
– मोबाइल की लत
7
– स्वास्थय जागरूकता में कमी
8
– अन्तिम क्षण पर कार्य सम्पादन
आज करै
सो काल्ह कर
काल
करै सो परसों।
क्यों
इतनी जल्दी करै
अभी
पड़े हैं बरसों।
उक्त चिन्तन का अवलम्ब लेने वाले असफलता को
अंगीकार करते हैं और कार्य को समय पर सम्पादित नहीं कर पाते।
9
– ब्रह्म मुहूर्त का दुरूपयोग
बेंजामिन
फ्रैंकलिन महोदय ने कहा –
“Early to bed and
early to rise
makes a man healthy,
wealthy and wise.
10
– स्पष्ट लक्ष्याभाव
आलस्य
भगाने के उपाय –
ऐसा
भी नहीं है कि आलस से छुटकारा नहीं मिल सकता बस सही दिशा बोध की आवश्यकता है किसी
विचारक ने ठीक ही कहा है –
रास्ता
किस जगह नहीं होता,
सिर्फ
हमको पता नहीं होता।
छोड़
दें डरकर रास्ता ही हम, यह कोई रास्ता नहीं होता।
आलस्य
मुक्ति के उपायों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।-
1 – सकारात्मक चिन्तन
2 – आत्म विश्वास में वृद्धि
3 – प्राणायाम, व्यायाम
4 – कर्म पर विश्वास
रामधारी
सिंह दिनकर जी हमें सचेत करते हुए कहते हैं –
ब्रह्मा
से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है
अपना
सुख उसने अपने भुज बल से ही पाया है ….
5 – आत्मानुशासन
दीन
दयाल शर्माजी
कहते हैं –
“आलस
है हम सबका दुश्मन
नहीं
काम करने देता।
जो
भी होता पास हमारे,
उसको
भी यह हर लेता।
6 – महत्त्वाकांक्षा
7 – लक्ष्य प्राप्ति ललक
काल्ह
करै सो आजकर
आज
करै सो अब
पल
में परलै हो गई
तो
बहुरि करैगो कब।
8 – प्रतिमान स्थापन
ऐसा आदर्श मौलिक प्रतिमान कायम करने की जिद हो
जिसका लोग अनुसरण करें और मानवता का उत्थान सम्भव हो किसी विचारक ने ठीक ही कहा है
–
सीढ़ियाँ उनको मुबारक
जिनको छत तक जाना है।
जिन्हें अम्बर को छूना है
उन्हें रस्ता खुद बनाना है।
9 – प्रगतिशील सोच
10 – आरामदायक परिधियों का त्याग
कभी
तो अपने आलस्य का हिसाब करो,
सफल
क्यों नहीं हुए ?खुद
से सवाल करो।
11 – ब्रह्म मुहूर्त जागरण
सफलता पाना है, तो आलस्य को मिटाना है
इस कमजोरी को हर सुबह उठकर हराना है।
12 – यथोचित आहार विहार
हमें
समय पर हल्का सुपाच्य भोजन ग्रहण करना चाहिए गरिष्ठ भोजन से बचना चाहिए यह आलस्य
को बढ़ाता है कुण्डलिनी की शक्तियाँ पचाने में व्यस्त हो जाएंगी तो अन्य महत्वपूर्ण
कार्य कैसे सम्पादित होंगे। इसीलिये श्रीमद्भगवदगीता में छठे अध्याय में जगद्गुरु
कृष्ण कहते हैं। –
युक्ता
हार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य
योगो भवति दुःखहा।।6.17।।
अर्थात
दुःखोंका
नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा
यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।
उक्त समस्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि निर्विकल्प होकर दृढ़ इच्छा
शक्ति से जब ऊपर दिए गए बिंदुओं का अनुपालन सुनिश्चित करेंगे तो आलस्य से अवश्यमेव
छुटकारा मिलेगा ।
प्रकृतिवाद की उत्पत्ति के उत्तरदाई कारण(Causes responsible for
arising Naturalism)
पाश्चात्य
चिन्तनधारा की दार्शनिकता अठारहवीं शताब्दी के मध्य में वह ज्वार लाई जिससे
प्रकृतिवाद उद्भवित हुआ वस्तुतः उक्त तथ्य के स्पष्टीकरण हेतु उस काल की सामाजिक
स्थिति का अवलोकन अपरिहार्य प्रतीत होता है, उस काल में जर्मनी में अति धार्मिकता या पूण्य
शीलता (Pietism), फ्रांस में जैनसेनिज्म(Jansenism), इंग्लैण्ड में अतिनैतिकतावाद (Puritanism)
के आन्दोलन से धर्म में नियम निष्ठता व नियमित
विनय (Formalism) बढ़ रहा था, धर्म की कठोरता आडम्बर की उत्पत्ति का कारण बन
रही थी।
लुई चतुर्दश का यह शासनकाल योरोप में फ्रान्स
की श्रेष्ठता का काल था, साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, प्रायः सभी क्षेत्रों में फ्रांस दूसरों हेतु
आदर्श स्वरुप हो रहा था चर्च सर्वेसर्वा था।
विचार और कार्य के क्षेत्र में उसकी ध्वनि अन्तिम थी। इस निरंकुशता ने धनिक
वर्ग को मदमस्त किया व साधारण जन वर्ग इस मस्ती का शिकार बना यथा साधारण लोगों को
आलू की तरह भून देना, 164 अपराध होने पर मृत्यु दण्ड (इंग्लैण्ड),
कल्पित नास्तिकों पर अत्याचार आदि के परिणाम
स्वरुप विरोध की ध्वनि का गुञ्जन हुआ।
यह मुख्यतः दो तरीकों से हुआ –
(a) – बुद्धि द्वारा विचारों के प्रसार की परिणति
प्रकृति वाद में हुई, जिसे बुद्धि द्वारा विरोध या प्रबोध (Enlightenment) कहते हैं। प्रबोध की लहर प्रकृतिवाद के उद्भव
का कारण बनी, इस लहर को फैलाने का श्रेय फ्रांस व जर्मनी के
दार्शनिकों, स्वतन्त्र विचारकों व आध्यात्मिक लेखकों को है
इंग्लैण्ड में लॉक को प्रबोध का प्रतिनिधि कहा जाता है कई विद्वान बौद्धिक शक्ति
की प्रथम लहर का प्रतिनिधि वाल्टेयर व उत्तर काल की लहर का प्रतिनिधि रूसो को स्वीकारते हैं।रूसो के
व्यापक प्रभाव को स्वीकारते हुए ही कहा गया कि जो दूसरे सोच रहे थे उसे वाल्टेयर
ने कहा परन्तु जो दूसरे अनुभव कर रहे थे उसे रूसो ने कहा।
(b) – जनवर्ग द्वारा अधिकार प्राप्ति के संघर्ष की
परिणति फ्रांस की राज्य क्रान्ति के रूप में हुई और प्रकृतिवाद को आधार मिला।
इस प्रकार राजनीति,
धर्म व विचार के क्षेत्र की निरंकुशता का
परिणाम प्रकृति वाद के रूप में अस्तित्व में आया अब धर्म का आधार चर्च नहीं बल्कि
मानव स्वभाव नया आदर्श बना।
प्रकृति
वाद की परिभाषा –
प्रकृति वाद की परिभाषा देते हुए W.E. Hocking ने कहा –
“Naturalism
is the type of metaphysics which takes nature as the whole of reality. That is
it excludes whatever is supernatural or otherworldly.”
“प्रकृतिवाद तत्त्वमीमांसा का वह रूप है जो
प्रकृति को पूर्ण वास्तविकता मानता है अर्थात यह परा प्राकृतिक या दूसरे जगत को
अपने क्षेत्र के बाहर रखता है।”
जबकि
James Ward महोदय का मानना है कि –
“Naturalism
is the doctrine which separates nature from God, subordinates spirit to the
matter, and sets up unchangeable laws as supreme.”
“प्रकृतिवाद वह सिद्धान्त है जो प्रकृति को
ईश्वर से अलग करता है आत्मा को पदार्थ के अधीन करता है तथा अपरिवर्तनीय नियमों को
सर्वोच्च मानता है।”
Thomas
and Lang महोदय कहते हैं –
“Naturalism
as opposed to Idealism subordinates mind to matter and holds that ultimate
reality is material not spiritual.”
प्रकृतिवाद
आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है और विश्वास करता है कि अन्तिम
वास्तविकता भौतिक है आध्यात्मिक नहीं।”
Joyse महोदय का मानना है
“Naturalism
is a system whose silent characteristics is the exclusion of whatever is
spiritual or indeed whatever is transcendental of experience from our
philosophy of nature and man.”
“प्रकृतिवाद वह तन्त्र है जिसकी प्रमुख विशेषता
आध्यात्मिकता को अस्वीकार करना है अथवा प्रकृति एवम् मनुष्य के दार्शनिक चिन्तन
में उन बातों को स्थान देना है जो हमारे अनुभवों से परे नहीं हैं।’’
प्रकृतिवाद
के प्रकार–
तत्त्व ज्ञान की दृष्टि प्रकृतिवाद को इस प्रकार विभाजित
किया जा सकता है –
(A) – वैज्ञानिक प्रकृतिवाद
–
इसमें भौतिक विज्ञान आधारित प्रकृतिवाद(आकस्मिकता
सिद्धान्त ) व जीव विज्ञान आधारित प्रकृतिवाद (डार्विन का विकास वाद )आते हैं।
(B) – यन्त्र वाद
प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएं (Characteristics
of Naturalistic Education) –
(1) – पूर्ण स्वतन्त्रता (Full
Freedom)
(2) – बालक केन्द्रित शिक्षा (Child Centered Education)
(3) – प्रगतिशीलता (Progressiveness)
(4) – किताबी ज्ञान का विरोध (Abolition
of Bookish Knowledge)
(5) – निषेधात्मक शिक्षा (Negative
Education)
Rousseau महोदय इसके समर्थन में कहते हैं –
“The first education ought to be purely negative.
It consists not all in teaching virtue or truth but in shielding the heart from
vice and the mind from the error.”
“बालक की प्रथम शिक्षा विशुद्ध रूप से निषेधात्मक
होनी चाहिए इसमें सत्य और सद्गुण की शिक्षा बिलकुल सम्मिलित न होकर बालक के हृदय
को अवगुण से तथा मन को त्रुटि से बचाना निहित है।”
(6) – प्राकृतिक पद्धतियों का अनुसरण (Follow
of Natural Process)
प्रकृतिवाद के मूल सिद्धान्त
Fundamental Principles of Naturalism –
(1) – ब्रह्माण्ड एक प्राकृतिक रचना
(2) – भौतिक संसार सत्य, इससे परे कोई
आध्यात्मिक संसार नहीं
(3) – आत्मा पदार्थजन्य चेतन तत्व
(4) – सर्वश्रेष्ठ सांसारिक कृति मानव
(5) – मानव विकास एक प्राकृतिक क्रिया
(6) – मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना
(7) – सुखपूर्वक जीने हेतु प्राकृतिक जीवन
उत्तम
(8) – प्राकृतिक जीवन में सामर्थ्य, समायोजन और परिस्थिति
पर नियन्त्रण आवश्यक
(9) – राज्य केवल व्यावहारिक सत्ता
प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (The
Aims of Education According to Naturalism)-
(1) – प्रकृति का अनुसरण – रूसो की प्रसिद्ध कृति
‘एमील’ के अंग्रेजी अनुवाद
में विलियम पैने अपने अनुवादकीय प्राक्कथन में लिखते हैं –
“Simplify your methods as much as possible,
distrust the artificial aids that complicate the process of learning, bring
your people face to face with reality connect symbol with substance, make
learning as for as possible process of personal discovery, depend as little as
possible on mere authority. This is my interpretation of Rousseau’s follow
nature.”
“अपनी पद्धतियों को यथा
सम्भव सरल बनाओ, शिक्षण प्रक्रिया को
जटिल बनाने वाले कृत्रिम साधनों में विश्वास न करो। अपने शिष्य को यथार्थ का सामना
करने दो। प्रतीक को पदार्थ से संयुक्त करो यथा सम्भव सीखने की क्रिया को
स्वानुसन्धान की प्रक्रिया बनाओ। केवल शब्द प्रमाण पर बहुत कम निर्भर रहो, मैं रूसो की उक्ति –
प्रकृति का अनुसरण करो – का यही तात्पर्य समझता हूँ।”
(2 – मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण एवम् शोधन
(3) – जीवन संघर्ष की सामर्थ्य का विकास
(4)- पर्यावरण से अनुकूलन
(5) – प्राकृतिक जीवन जीने योग्य बनाना
(6)- पूर्ण सामाजिक जीवन की तैयारी
(7)- व्यक्ति की वैयक्तिकता का विकास
(8)- जातीय गुणों का विकास व संरक्षण
(9)- अवकाश का सदुपयोग
(10) – आत्म रक्षा
प्रकृतिवाद
और बालक (Naturalism
And Child)-
बालक
जन्म के समय विकार रहित, निश्छल, निष्कपट, वर्ग, समुदाय, रीति रिवाज, रूढ़ियों
व सामाजिक विकृतियों से मुक्त होता है जबकि मनुष्य इसके विपरीत स्वभाव का होने के
कारण सुन्दर की जगह असुन्दर अच्छाई के स्थान पर बुराई प्रत्यारोपित करता है ऐसे
दूषित समाज के सम्पर्क में आकर बालक भी स्वाभाविक रूप से विकृत हो जाएगा।
प्रकृतिवादी बालकों की शिक्षा व्यवस्था उनकी रूचि, क्षमता और स्वाभाविक विकास को ध्यान में रखकर देना चाहते हैं।
प्रकृतिवाद
और अध्यापक (Naturalism and Teacher)-
प्रकृतिवादी
बाल केन्द्रित शिक्षा व स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं और इस हेतु अध्यापक को
वातावरण सृजित करने वाला मानते हैं वे अध्यापक में वैयक्तिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, मानवीय व प्रकृति प्रेम के गुणों को आवश्यक
मानते हैं। जिससे वे बालकों की योग्यताओं और अभिरुचियों को जान सकें उनके प्रति
समता स्नेह और सहानुभूति के भावों को प्रदर्शित कर सकेंऔर बच्चे उनसे भयभीत न हों।
बच्चों को प्रकृति के सानिध्य में लाकर ऐन्द्रिक विकास करने हेतु रूसो ने
अध्यापकों का आवाहन करते हुए कहा –
“All
wickedness comes from weakness, A child is bad because he is weak make him
strong and he will be good.”
“सारे
दोष कमजोरी से आते हैं बालक कमजोर है इसलिए बुरा है उसे बलिष्ठ बनाओ और वह अच्छा
हो जाएगा।”
प्रकृतिवाद
और शिक्षण विधि (Naturalism and Methods of Teaching )-
ये
बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षण विधि को समर्थन देते हुए निम्न शिक्षण विधियों का
समर्थन करते हैं –
बाल
केन्द्रित शिक्षण विधि
क्रिया
प्रधान शिक्षण विधि
रूचि
आधारित शिक्षण विधि
भावना
आधारित शिक्षण विधि
भ्रमण
द्वारा शिक्षण
मुक्तयात्मक
शिक्षण विधि
प्रकृतिवाद
और अनुशासन (Naturalism and Discipline )-
प्रकृतिवादी
अध्यापक द्वारा किसी भी प्रकार दण्ड देने के खिलाफ थे उनका मानना था की प्रकृति
स्वयं दण्ड देगी। ये मुक्तयात्मक अनुशासन चाहते थे और प्राकृतिक दण्ड व्यवस्था के
कायल थे।
प्रकृतिवाद
और पाठ्यक्रम (Naturalism and Curriculum) –
इन्होंने
शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भौतिक विज्ञान पर अधिक व साहित्य, कला, सङ्गीत
पर उससे कम, धर्म शास्त्र
व नीति शास्त्र पर कोई ध्यान नहीं दिया।
रूसो
ने सैद्धान्तिक ज्ञान का विरोध किया, खेल
कूद, तैराकी, घुड़सवारी
व हस्त कार्यों को महत्त्व प्रदान किया व नारियों हेतु गृह कार्य को उचित
बताया।
हर्बर्ट
स्पेंसर महोदय ने क्रिया आधारित पाठ्यक्रम का सुझाव दिया। जो इस प्रकार है –
प्रकृतिवाद का मूल्यांकन(Estimate of Naturalism) –
मूल्यांकन
हेतु गुण दोषों का विवेचन आवश्यक है इसलिए पहले गुण उसके बाद कमियों पर विचार
करेंगे।
गुण
(Merits) –
प्रकृतिवाद
ने शिक्षा के क्षेत्र को दिशा दी जिससे प्रभावित होकर पॉल मुनरो महोदय कहते हैं –
“Naturalism
has given impetus to the clear formation of the psychological, Sociological and
Scientific conception of Education.”
“प्रकृतिवाद ने शिक्षा की मनोवैज्ञानिक
समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक धारणा के स्पष्ट निर्माण में प्रत्यक्ष प्रेरणा दी
है।”
प्रेरणा
के इस प्रभाव को निम्न गुणों में समावेशित देखा जा सकता है –
1 – बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्भव
2 – पूर्ण स्वतन्त्रता
3 – दमन का विरोध
4 – बालक अनेक शक्तियों का केन्द्र
5 – प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों को समर्थन
6 – पाठ्यचर्या निर्माण में रूचि, स्वतन्त्रता, स्वक्रिया व विकास पर बल
7 – डॉल्टन, माण्टेसरी, किण्डर गार्टन व प्रोजेक्ट पद्धति का
विकास
8 – व्यवहार वाद की उत्पत्ति का कारक
9 – समाज शास्त्र के वैज्ञानिक अध्ययन को बढ़ावा
10 – बाल मनोविज्ञान का शिक्षा में प्रयोग
11 – प्राकृतिक वातावरण में विद्यालय
दोष
(Demerits)-
1 – स्वतन्त्रता पर आवश्यकता से अधिक बल
2 – प्राकृतिक अनुशासन न्याय आधारित नहीं
3 – भविष्य की उपेक्षा (वर्तमान पर बल)
4 – आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा
5 – पाठ्य क्रम के महत्त्व में कमी ( बालक पाठ्य
क्रम का आधार )
6 – अध्यापक को गौण स्थान
7 – आदर्श विहीनता की स्थिति का जन्म (स्वमूल्यांकन
भ्रामक)
8 – उपयोगितावाद को अधिक प्रश्रय (कार्य-परिणाम
आकलन)
9 – उच्च शैक्षिक उद्देश्यों का अभाव (लक्ष्य
आधारित योजना का अभाव )
10 – पुस्तकों की अवहेलना उचित नहीं (सभ्यता
संस्कृति संरक्षित )
11 – वैयक्तिकता को बढ़ावा (समाज विरोधी)
12 – प्रकृतिवादी शिक्षा की अभावात्मक परिकल्पना
भ्रामक
ममानवतावाद का उद्भव एक विशेष प्रकार की मानव स्थिति की अनुभूति पर
निर्भर है तथा वह अनुभूति इस मानवीय संवेदना की है जिससे आधुनिक काल का मानव घिरा
है, विज्ञान एवम् टैक्नोलॉजी की प्रगति से युक्त मानसिकता, विज्ञान
की मानकीकरण की विकृति, विश्व युद्ध की विभीषिकाओं की स्पष्ट अनुभूति, मानव के संत्रास,
कुण्ठा,
निराशा,
चिंता,
अकेलापन
व नीरसता की स्पष्ट अनुभूति – इसकी पृष्ठभूमि में मानवतावादी दृष्टि सर्जित होती
है प्रोटागोरस (Protagoras) ने 480 से 490 ईसा पूर्व कहा-
“मानव सभी बातों का माप दण्ड है जो है वह वास्तविक है और जो नहीं है
वह वास्तविक नहीं है।”
“Man is the measure of all things; of what is, that it is,
of what is not, that it is not.”
मानवतावाद का आशय उस वाद से है जिसमें मनुष्य के अस्तित्व को स्वीकार
किया गया है इसमें मानव ही सबकुछ है वह किसी का प्रतीक मात्र नहीं है उसकी
वैयक्तिकता पहचानी जा सकती है।
डॉ 0 राधाकृष्णन ने ऑक्सफ़ोर्ड में अपने एक भाषण में कहा था –
“Man has become the philosopher of man. A new humanism
is on the horizon. But this time it embraces the whole of mankind.”
– Dr. Radha Krishanan
“मनुष्य मनुष्य का दार्शनिक हो गया है। एक नया मानवतावाद क्षितिज पर
उदीयमान है किन्तु इस बार वह सम्पूर्ण मानवता को अपने में समेटे हुए है।”
मानवतावाद सम्बन्धी विचारधारा अनेक पाश्चात्य व भारतीय दार्शनिकों के
चिन्तन का विषय रही है डॉ राधा कृष्णन, जाकिर हुसैन, जवाहर लाल नेहरू,
विवेकानन्द,
रबीन्द्र
नाथ टैगोर सभी इसका समर्थन करते दीखते हैं यह दर्शन मानवता को दर्शाता है।
मानवतावादी दर्शन वह दर्शन है जो मनुष्य को सर्वोपरि मानता है उनके
अनुसार मनुष्य ही इस संसार का केन्द्र बिंदु है वह अपने भाग्य का निर्माण खुद करता
है।
ब्रह्मवादियों तथा निरपेक्ष वादियों के अनुसार –
“ब्रह्म कोई अतिरिक्त या पारलौकिक सत्ता नहीं है यह मनुष्य के स्वरुप
का ही एक आयाम है।”
वर्तमान में मानव पहचान की जो बेचैनी है उसके बीज इतिहास के अकुलाहट
युक्त पृष्ठों के बीच छिपे हैं इतिहास भी समस्त सृजन में मानव की भूमिका को नज़र
अन्दाज करने के पक्ष में नहीं है मैस्लो(Maslow) महोदय कहते हैं
–
“Humanism is a word which is used by writers in many
different senses, One of these implies that man makes up the entire framework
of human thought, that there is no God, no super human reality to which he can
be related or can relate himself.”
“मानवतावाद एक ऐसा शब्द है जो विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न अर्थों
में प्रयुक्त किया गया है इनमें से एक में यह अर्थ निहित है कि मनुष्य मानव विचार
की समस्त पृष्ठ भूमि है, ईश्वर नहीं है, कोई अति मानवीय
वास्तविकता नहीं है जिससे मनुष्य को जोड़ा जा सके।”
वैज्ञानिक
मानवतावाद (Scientific
Humanism )-
वैज्ञानिक मानवता वाद जीवन के प्रति मानव केन्द्रित दृष्टिकोण है,
वैज्ञानिक
मानवतावाद सृष्टि के प्रति उसके दृष्टिकोण एवम् जीवन के लक्षण तथा मान्यताओं,
सत्य
के स्वरुप आदि के सम्बन्ध में विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है नेहरू जी ने
मानवतावाद एवम् वैज्ञानिक प्रवृत्ति के बीच के संश्लेषण को वैज्ञानिक मानवतावाद का
दर्जा दिया था।
वैज्ञानिक मानवतावादी सृष्टि को भ्रम न मानकर सत्य व विभिन्न
सम्भावनाओं से युक्त मानते हैं वैज्ञानिक मानवतावाद एक ऐसा दृष्टिकोण है जो केवल
वैज्ञानिक या केवल मानवीय नहीं है वैज्ञानिक मानवतावाद जीवन के प्रति मानव
केन्द्रित दृष्टिकोण है इस सम्बन्ध में साबिरा जैदी कहती हैं-
“It affirms in a resounding voice the dignity and
value of man and asserts unequivocaly that human happiness is the highest goal
of all social reforms.”
“यह मनुष्य की गरिमा व मूल्य की ध्वनि को पुनः
गुंजरित करता है और मानता है कि सभी समाज सुधारकों के लिए मनुष्य का सुख ही
सर्वोच्च भद्र या शिव है।”
वैज्ञानिक
मानवतावाद की शैक्षिक मान्यताएं (Educational premises of Scientific Humanism)-
1 – शिक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
2 – सर्जनात्मकता
3 – उत्तर दायित्व निर्वहन व स्वतन्त्रता के उचित प्रयोग हेतु शिक्षा
महत्त्वपूर्ण
4 – व्यावहारिकता व व्यवसाय प्रयोजन आवश्यक
मीमांसा
आधारित संक्षिप्त विवेचन-
किसी भी दर्शन को अधिगमित करने हेतु मीमांसाओं की महती भूमिका है
मानवतावाद के वास्तविक अर्थ को समझने हेतु उसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics),
ज्ञान
व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic),एवं आचार व मूल्य मीमांसा (Ethics and
Axiology) संक्षेप में
प्रस्तुत हैं –
तत्त्व
मीमांसा – ये प्रकृति को मूल तत्त्व मानते हैं और किसी अलौकिक सत्ता पर
विश्वास नहीं करते। भौतिक जगत को सत्य मानते हुए मनुष्य को प्रकृति की श्रेष्ठतम
रचना स्वीकार करते हैं।
ज्ञान
व तर्क मीमांसा – इनके अनुसार सच्चे ज्ञान श्रेणी में पदार्थजन्य जगत व उसकी समस्त
क्रियाएं आती हैं विवेक आधारित ज्ञान व
तर्क की कसौटी पर खरा सत्य ही ज्ञान की श्रेणी में आएगा।
आचार व मूल्य मीमांसा –
मानवतावादियों की बड़ी संख्या प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सुन्दरता,सामाजिक
समानता, न्याय आदि को आचरण में उतारने व मूल्य के रूप में स्वीकारने की बात करते हैं इनके अनुसार
सम्पूर्ण मानवता की भलाई सबसे बड़ा मूल्य है।
मानवतावाद
की प्रमुख विशेषताएं (Chief Characteristics Of Humanism)-
1 – यह संसार सत्य है भ्रम नहीं। यह निरन्तर विकास की असीम सम्भावनाओं से
युक्त है।
2 – मानव सेवा हेतु मानवता वाद का अभ्युदय हुआ है।
3 – मानव शक्तिशाली है व अपनी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है।
4 – मानव एक सृजनात्मक जीव है।
5 – मानव असीम प्रगति उन्मुख सम्भावनाओं से युक्त है और अपने भाग्य का
निर्माता है।
6 – मानवतावाद का मानव शिवम् व सुन्दरम की धारणा से युक्त है।
7 – मानवतावाद मानव को सबसे गुणयुक्त स्वीकार करता है।
8 – यह संस्कृति का पुनः जागरण करना चाहता है तथा यह मानवीय संस्कृति के
पुनरुद्धार हेतु विश्व रंगमञ्च पर अवतरित हुआ है।
9 – यह वाद विकासोन्मुखता पर विश्वास करता है और मानव को इस हेतु
विवेकयुक्त प्राणी स्वीकार करता है।
10 – मानवतावाद मानवीय प्रकृति को लचीला, परिवर्तनशील व
सहयोगी मानता है।
मानवतावादी
शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Humanistic Education)-
1 – आत्म विश्वास जाग्रत करना
2 – समस्त अन्तर्निहित शक्तियों का विकास
3 – मानवता का अधिकतम कल्याण
4 – मानव को सुखी बनाना
5 – समालोचनात्मक रचनात्मकता का विकास
“The cultivation of constructive criticism and a
critical constructiveness should be one of the foremost aims of education,
according to scientific humanism.” –
Sabira K Zaidi : Education and Humanism
(Indian Institute of Advanced Studies, Shimla 1971 p.110)
6 – सशक्त चेतना का विकास
7 – समाज
का विशिष्ट अंग बनाने हेतु आत्मबोध जाग्रत करना
8 – मानसिक
स्वास्थ्य
9 – मानवीय
मूल्य व सद् विवेक जागरण
10 – आत्म
अनुशासन की भावना का विकास
“Education to be complete must be human, it must
include not only the training of intellect but the refinement of the heart and
discipline of the spirit.” – Dr. Radha Krishanan
“शिक्षा पूर्ण होने के लिए मानवीय होना चाहिए,
इसमें न केवल बुद्धि का प्रशिक्षण शामिल करना चाहिए वरन ह्रदय का
परिष्करण तथा आत्मा का अनुशासन भी।”
मानवतावाद
व पाठ्यक्रम (Humanism and Curriculum)-
मानवतावादी पाठ्यक्रम में हृदय, आत्मिक विकास और
मानवता पर विशेष ध्यान देना चाहते हैं इस सम्बन्ध में डॉ 0 राधा कृष्णन के
शब्द भी यही इशारा करते हैं। – “No education can be regarded as
complete if it neglects the heart and the spirit.”
“कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं समझी जा सकती यदि वह हृदय तथा आत्मा की
उपेक्षा करती है।”
मानवतावादी भाषा के विकास के साथ मानवोपयोगी विषयों से मानव को जोड़ना
चाहते हैं इसीलिये मानवतावादी उद्देश्यानुरूप निम्न विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल
करना चाहते हैं –
शिक्षा के उद्देश्य
—————————-
विषय
मानसिक विकास
—————————- कला,
तर्क
शास्त्र, विज्ञान, गणित
शारीरिक विकास
—————————- व्यायाम, योग, शिल्प, क्रियात्मक शिक्षा
आध्यात्मिक विकास —————————- दर्शन, मूल्य शिक्षा, नीतिशास्त्र,
धर्म
शास्त्र
सामाजिक विकास
————————– इतिहास, साहित्य,
संस्कृति,
समाज
विज्ञान, दार्शनिक व शिक्षा शास्त्रियों की जीवनी
उक्त के अतिरिक्त मानवतावादी हर उस विषयवस्तु का समर्थन करते हैं जो
मानवतावादी विचार के प्रसार में आवश्यक हो।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –
ये जीवन से सम्बन्धित व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर
सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हुए अधिगम कराना चाहते हैं इसीलिये तर्क विधि, प्रश्नोत्तर
विधि, समस्या
समाधान विधि, वाद
विवाद विधि पर विशेष जोर देते हैं ये उच्च मानवीय संवेदना को समेटे हुए इन्द्रिय
अनुभूत ज्ञान को भी विवेक और तर्क की कसौटी पर परखने के बाद आत्मसाती करण की
प्रेरणा देते हैं।
मानवतावाद
व शिक्षक (Humanism
and Teacher)-
मानवतावादी चाहते हैं की शिक्षण कार्य उन लोगों को मिले जो मानवीय
दृष्टिकोण पर बल देने वाले हों जैसा कि ब्रुबेकर (Brubacher) महोदय
कहते हैं –
“Humanism emphasises human nature and the human point
of view.”
“मानवतावाद मानव स्वभाव एवम् मानवीय दृष्टिकोण पर बल देता है।”
मानवतावादी शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अध्यापक
क्रान्तिकारी मानवतावादी हो एवम् निम्न गुणों से युक्त हो –
1 – शिक्षक, शिक्षण जैसे महान दायित्व बोध में सक्षम हो।
2 – अपने क्षेत्र का विद्वान् हो।
3 – मानसिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, आन्तरिक आदि
विविध शक्तियों के सम्यक विकास हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन के योग्य
हो।
4 – मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझ कर विकास का पथ प्रशस्त करने वाला
हो।
5 – सकारात्मक विकास व प्रेरणा देने में सक्षम हो।
मानवतावाद
व शिक्षार्थी (Humanism and Student)-
ये शिक्षार्थियों की स्वतन्त्रता व व्यक्तित्व का आदर करते हैं तथा शिक्षक व शिक्षार्थी के बीच शासक व शासित
जैसे सम्बन्धों के घोर विरोधी हैं। मानवतावादी प्रेम व सहयोग आधारित सम्बन्धों की
उम्मीद रखकर अध्यापकों से मानवतावादी दृष्टिकोण की अपेक्षा करते हैं और चाहते हैं
कि वे अपने बालकों को भय द्वन्द व तनाव से दूर रखें। इससे विद्यार्थियों में
मानवीय गुणों का विकास किया जा सकेगा।
शिक्षा
के अन्य विविध पक्ष –
1 – जन शिक्षा
2 – स्त्री शिक्षा
3 – व्यावसायिक शिक्षा
4 – धार्मिक शिक्षा
5 – यथार्थ शिक्षा
मूल्यांकन
(Evaluation)-
मानवतावाद
शिक्षा द्वारा मानव को मानवता का पाठ पढ़ाकर श्रेष्ठ नागरिक बनाना चाहता है यह
सम्पूर्ण मानवता को एक मानकर मनुष्य को विश्व का मूलभूत बिन्दु व केन्द्र मानता है यह धर्म,
जाति, राज्य, समाज किसी का भी विरोधी नहीं है यह मात्र मानव
मानव को अलग करने वाली संकीर्णताओं का विरोध करता है यह विध्वंसक आयुधों को उचित
नहीं समझता जिसने मानव मात्र के समक्ष अस्तित्व का खतरा पैदा कर दिया है।
ये
तर्क को ज्ञान का आधार मानते हैं इनके पाठ्यक्रम,शिक्षक, शिक्षार्थी,शिक्षण विधि विद्यालय आदि के विचारों का मूल
मन्तव्य मूल्य आधारित मानवीय गन्तव्य निर्धारित करना है। व्यक्तिगत भिन्नता,
जन शिक्षा, सामान शिक्षा,मूल्य आधारित शिक्षा,तर्क शक्ति उन्नयन,सृजनात्मकता उन्नयन सम्बन्धी विचार स्वागत
योग्य हैं लेकिन धर्म की जगह धार्मिक संकीर्णताओं से दूर रहने की प्रेरणा दी जानी
चाहिए।
Encyclopidia Britannica में मानवतावाद को सही पारिभाषित किया गया –
“Humanism is the attitude of mind which attaches
primary importance to mean and to his faculties, affairs, temporal aspirations
and well being,
“मानवता वाद मनुष्य के मस्तिष्क की वह अभिवृत्ति है जो मनुष्य को और
उसके विभिन्न पक्षों, कार्यों, इच्छाओ और
उसके हित को सर्वाधिक महत्त्व देती है।”
इन्होने
स्वार्थी और संकीर्ण मानसिकता को दिशा देने का भरपूर प्रयास किया लेकिन सार्थक
परिणाम आज भी दूर की कौड़ी जान पड़ते हैं मानवीय विकास के विभिन्न आयामों को समेटने
के बावजूद इनकी शिक्षा दर्शन को देन अप्रभावी
है इसे सच्चे धार्मिक दर्शन के आधारिक अवलम्ब की आवश्यकता है।
बोलचाल
की भाषा में सामान्यतः मनोवैज्ञानिक परीक्षण व्यक्ति के व्यावहारिक अध्ययन का वह
साधन है जो उसके प्रति निर्णय लेने एवम् उसे समझने में सहायक होता है इसके द्वारा
व्यक्ति की विभिन्न योग्यताओं का मापन तथा उसके व्यक्तित्व व चरित्र का अध्ययन भी
सम्भव होता है। मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आशय को स्पष्ट
करते
हुए फ्रीमैन (Freeman) ने कहा →
“A
psychological test is a standardized instrument designed to measure objectively
one or more aspects of a total personality by means of other behavior.”
“मनोवैज्ञानिक
परीक्षण वह मानकीकृत यंत्र है जो समस्त व्यक्तित्व के एक पक्ष या अधिक पहलुओं का
मापन शाब्दिक या अशाब्दिक अनुक्रियाओं या अन्य किसी प्रकार के व्यवहार के माध्यम
से करता है।”
मनोवैज्ञानिक
शब्दकोष (Dictionary of
Psychological terms) के
अनुसार →
“मनोवैज्ञानिक
परीक्षण मानकीकृत एवम् नियन्त्रित स्थितियों का वह विन्यास(set) है जो व्यक्ति से अनुक्रिया प्राप्त करने हेतु
उसके सम्मुख पेश किया जाता है। जिससे वह पर्यावरण की माँगों के अनुकूल
प्रतिनिधित्व व्यवहार का चयन कर सके।”
एनस्तेसी
(Anastasi) महोदय कहते हैं →
“A psychological test is essentially an objective and
standardized measure of sample behavior.”
“मनोवैज्ञानिक परीक्षण आवश्यक रूप से व्यवहार के
प्रतिदर्श का एक वस्तुनिष्ठ एवम् मानकीकृत मापन है।”
मन (munn)
महोदय का विचार है →
“Test is an examination to reveal the relative
standing of an individual in the group with respect to intelligence,
personality, attitude or achievement.”
“परीक्षण वह परीक्षा है जो किसी समूह से सम्बन्धित व्यक्ति की बुद्धि,
व्यक्तित्व, अभिक्षमता एवम उपलब्धि को व्यक्त करती है।”
टाइलर
(Tyler) महोदय के अनुसार →
“A test can be defined as a standardized situation
designed to elicit a sample of an individual behavior.”
“परीक्षण वह मानकीकृत परिस्थिति है जिससे
व्यक्ति का प्रतिदर्श व्यवहार निर्धारित होता है।”
उक्त
परिभाषाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह वस्तुनिष्ठ एवम्
मानकीकृत साधन है जिसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवहार के विभिन्न मनोवैज्ञानिक पहलुओं
जैसे योग्यताओं, क्षमताओं, उपलब्धियों, रुचियों एवम् व्यक्तित्व विशेषताओं
का परिमाणात्मक एवम् गुणात्मक अध्ययन होता है। यह
व्यक्ति को समझने एवम समूह में उसकी तुलना करने में भी सहायक होता है।
मनोवैज्ञानिक
परीक्षण की आवश्यकता क्यों ? →
कालचक्र
अविरल गति से चलता हुआ जहाँ मानव विकास के विविध सोपान रच रहा था वहीं वैयक्तिक भिन्नताओं
के जटिल स्वरुप का महत्त्व भी स्थापित होने लगा उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में
जैसे जैसे गाल्टन, कैटिल, आदि
प्रवृत्ति मनोवैज्ञानिकों का ध्यान वैयक्तिक भिन्नताओं के स्वरुप इनकी उत्पत्ति
एवं विभिन्न समस्याओं के अध्ययन की और अग्रसर हुआ। वैयक्तिक विभिन्नताओं के उद्गम
से ही मनोवैज्ञानिक परीक्षण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। व्यक्तियों के मानसिक
स्तर व्यक्तित्व के गुणों,
योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों, उपलब्धियों, एवं जीवन के विविध पहलुओं में असमानताएं झलकने
लगीं फलस्वरूप समायोजन की समस्या का स्वरुप विकृत होने लगा.इन विभिन्नताओं के जटिल
स्वरुप को समझने व नैदानिक उपाय पर विचार करने हेतु मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की
आवश्यकता की महत्ता स्थापित हो गयी।
परीक्षण
व प्रयोग में अन्तर →
1 -मनोवैज्ञानिक परीक्षण में व्यक्ति के सम्बन्ध
में जानकारी प्राप्त कर व्यावहारिक पक्ष का अध्ययन किया जाता है जबकि प्रयोग में प्रतिक्रियाओं का अध्ययन ही
सम्भव होता है।
2 – बुद्धि, रूचि, अभिक्षमता, उपलब्धि, आदि मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन मनोवैज्ञानिक
परीक्षण के द्वारा होता है जबकि प्रयोग में स्वतंत्र चर के घटाने एवम् बढ़ाने के प्रभाव
का अध्ययन करते हैं।
3 – वैधता, विश्वसनीयता
आदि मानकों का स्थापन मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण करते समय किया जाता है
जबकि प्रयोगों में योजना का स्वरुप ही बदल जाता है इसमें उद्दीपकों व जीव
परिवर्तियों को ही नियन्त्रित किया जाता है।
4 – परीक्षणों की तुलना में प्रयोगों का क्षेत्र
व्यापक होता है परीक्षण उन्हीं लोगों के लिए उपयुक्त होता है जिनपर उनका मानकीकरण
होता है।
5 – मनोवैज्ञानिक परीक्षणों में भाषा का प्रयोग
होने से यह केवल भाषा का ज्ञान रखने वालों के लिए ही उपयुक्त है जबकि मनोवैज्ञानिक
प्रयोग प्रत्येक परिस्थिति में क्रियान्वित किये जाने योग्य हैं।
परीक्षण
एवम् मापन में अन्तर →
1 – परीक्षण का क्षेत्र संकुचित होता है जबकि मापन का प्रयोग व्यापक रूप
से किया जाता है।
2 – परीक्षण का प्रयोग स्वयं उपकरण के रूप में किया जाता है जबकि मापन
में मानसिक एवम् भौतिक दोनों प्रकार के उपकरणों की आवश्यकता होती है।
3 – परीक्षण का सम्बन्ध अधिकतर मानसिक एवम् मनोवैज्ञानिक गुणों से होता
है जबकि मापन में मुख्यतः भौतिक गुणों का अध्ययन करते हैं।
4 – परीक्षण में विभिन्न प्रकार के पद सम्मिलित होते हैं जिन्हें
मानकीकृत करके उपयोग में लाते हैं। मापन में वस्तुओं की संख्यात्मक विवेचना एक निश्चित
नियमानुसार होती है।
मनोवैज्ञानिक
परीक्षण के उद्देश्य →
(1) – वर्गीकरण एवं चयन
(2) – पूर्व कथन
(3) – मार्ग निर्देशन
(4) – तुलना करना
(5) – निदान
(6) – शोध
मनोवैज्ञानिक
परीक्षणों का उपयोग
(a) ↦ वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन
(b) ↦ समूहों का अध्ययन
(c) ↦ शैक्षिक उपयोग
(d) ↦ उद्योग एवं व्यवसाय में उपयोग
(e) ↦ सेना में उपयोग
(f) ↦ नैदानिक उपयोग
(g) ↦ शोध कार्यों में उपयोग
(h) ↦ व्यावहारिक जीवन में उपयोग
परीक्षण
लिखने की विधि (संकेत)
परीक्षण
क्रमाङ्क
परीक्षण
का नाम
प्रस्तावना
परीक्षण
का विवरण
परीक्षण
का उद्देश्य
सामग्री
परीक्षण
के समय ध्यान रखने योग्य सावधानियाँ
प्रयोज्य
विवरण
परीक्षण
का प्रशासन
अन्तः
दर्शन विवरण
निरीक्षण
कार्य
फलांकन
(प्राप्तांक विश्लेषण व परिणाम)
परिणाम
की व्याख्या व सुझाव
➤विस्तार से विवेचना संलग्न वीडियो में कर दी गई
है।