मानव उत्थान के क्रम में ज्ञान का प्रस्फुटन विविध स्वरूपों में हुआ ,ज्ञान ने अध्यात्म से युक्त होकर तीव्र प्रवाह धारण कर विश्व को आप्लावित किया। चरमोत्कर्ष के इस काल को आदि गुरु शंकराचार्य का वरद हस्त मिला और ज्ञान की निर्झरिणी वेदान्त दर्शन के रूप में बह निकली,वेदान्त दर्शन के सिद्धान्तों को गेय रूप में देने का अदना सा प्रयास ही है इस प्रस्तुति के माध्यम से :–
काल सत्य है मिथ्या है जग बस इतना बतलाता हूँ,
जीवन की पावस सन्ध्या पर गीत मैं सच्चा गाता हूँ,
जो जाना है जो माना है वह ही तुमको समझाता हूँ,
माया ने है जगत पसारा मैं यह बात बता जाता हूँ.
सच्चे मन से सुनो आज वेदान्त परिचय करवाता हूँ,
ब्रह्म है ब्रह्माण्ड का कारण सत्य पुरातन मैं गाता हूँ,
झूठे फेरे छोड़ दे बन्दे, सत् से परिचय करवाता हूँ,
ब्रह्म सत्य,जगत है मिथ्या सच्ची बात बता जाता हूँ.
शक्ति पुंज तो मानव भी है, माया पर्दा हटवाता है,
आत्मा होती ब्रह्म अंश, ये मूल भाव ही मन गाता है,
महाठगिनी स्वरुप माया का सत्पथ से भटकाता है,
मानव के विकास में भी प्रारब्ध योग हिस्सा पाता है.
संचीयमान संचित कर्मों में, ज्ञानभाग वृद्धि पाता है,
चञ्चलवृत्ति शान्त होती है मुक्ति मार्ग दिख जाता है,
निजस्वरुप सर्वत्र दीखता, भेद न कोई रह जाता है,
ब्रह्म आत्मा इक हो जाते,भव से बन्धन कट जाता है.
अविद्या से बचने हेतु हाँ, दिव्य मार्ग मैं बतलाता हूँ,
श्रवण,मनन,निदिध्यासन से युक्त तुम्हें कर जाता हूँ,
मुक्ति मार्ग बाधाओं हित साधन चतुष्टय दे जाता हूँ,
शंकराचार्य ज्ञान है ये सब मैं तो बस गाना गाता हूँ .
———-डॉ 0 शिव भोले नाथ श्रीवास्तव