मानव उत्थान के क्रम में ज्ञान का प्रस्फुटन विविध स्वरूपों में हुआ ,ज्ञान ने अध्यात्म से युक्त होकर तीव्र प्रवाह धारण कर विश्व को आप्लावित किया। चरमोत्कर्ष के इस काल को आदि गुरु शंकराचार्य का वरद हस्त मिला और ज्ञान की निर्झरिणी वेदान्त दर्शन के रूप में बह निकली,वेदान्त दर्शन के सिद्धान्तों को गेय रूप में देने का अदना सा प्रयास ही है इस प्रस्तुति के माध्यम से :–
हिंदुस्तान परिक्षेत्र के जनमानस की अवधारणा पुनर्जन्म व प्रारब्ध से जुड़ी रही है जो विभिन्न विषादयुक्त क्षणों में मानसिक आलम्बन का कार्य करती है और उसे कुछ भी आश्चर्ययुक्त नहीं लगता बल्कि प्रारब्धवश घटित घटना लगती है व तब शब्द इस प्रकार गीत में ढलते हैं।
लेखन का परिक्षेत्र पुराना लगता है ,
लेकिन वह जाना- पहिचाना लगता है.
इतने सारे दिन गुजरे तब भान हुआ,
अब दर्शन का उनवान पुराना लगता है.
इनका, उनका ,अपना ,सबका ,
हाँ, युगों- युगों का नाता है.
यह तेरा है ,वह मेरा है ,
ओछे नारे सा लगता है।
जब से मेरा मनवा भारत आया है,
वसुधा से नाता है पुराना लगता है।
हम तो केवल क्षेत्र बदलते रहते हैं ,
आत्मा के परिवेश बदलते रहते हैं।
हम सब जब रोने चिल्लाने लगते हैं ,
ईश्वर पर आरोप लगाने लगते हैं।
कभी कभी जो अनपेक्षित सा घटता है,
प्रारब्धों का खेल पुराना लगता है।