मैं अन्दर से ठोस होता जा रहा था,यानि अपनी लोच खोता जा रहा था,

मैं मज़बूर था, हँस नहीं सकता था,भारत के वो मूल्य खोता जा रहा था।

 

मैं मरा था कोई मुझे गुनगुना रहा था, मै धरा था स्वगीत मैं सुन पा रहा था,

अधर मौन थे बोल नहीं सकता था ,स्पन्दनहीन मूल्य-तौल न सकता था।

 

उन मूल्यों से  पाश्चात्य गढ़ रहा था, मैं अपंग था वो तेजी से  चल रहा था,

मैं जड़,अपने झगड़ों  में खोया था,उसका विकास देख मन मन रोया था।

 

पीछे रह गया बहुत कुछ खोया था,मेरे अहम् ने  ही विष- बीज बोया था,

जाँत-पाँत, ऊँच-नीच गढ़ डाला था,समरस उपवन को मसल डाला था।

 

एजुकेशन आचार्य मुझे जगा रहा था,झिंझोड़ कर गौरव-गीत सुना रहा था,

पुरातन कर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था वाले,  सिद्धान्तों को  समझा रहा था।

 

जोश का नया ओज मेरे मृततन में,मानो घुल- कर अविरल समा रहा था,

युवा-शक्ति की असीम ऊर्जा ले मै,उच्चता-शिखर पर चढ़ा  जा रहा था।

 

दृढ़ था मैं नव- विश्वास आ रहा था, प्रगति का नया सा  नशा छा रहा था,

श्वाशों में बवण्डर बढ़ा जा रहा था, नवीन ऊँचाइयों  में उड़ा जा रहा था।

 

कलुष  हटा, मीत पास आ रहा था,बहुत शोर था, भारत गढ़ा जा रहा था,

अतीत-गौरव फिर घर आ रहा था,’मेक-इन-इण्डिया’ उजाला ला रहा था।

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