नक्कार खाने में वो, तूती बजाते रह गए,

झूठ इतना बोले थे सोच के बेसुध हो गए,

मौसमी साथी  खा पी कर, ऐेसे चल दिए,

मानो अन्तिम ठौर  के वो अकेले रह गए।


वो कसैले स्वाद का गस्सा चबाते रह गए,

नादाँ थे अनजान थे बस ये बताते रह गए,

मज़हबी रस्सी ने बाँधा था कुछ इस तरह,

ज्ञानियों के सामने, कसमसा कर रह गए।


हम इनको हरा,उनको जिताते रह गए,

कुछ लोग तो बस,पढ़ते-पढ़ाते रह गए,

वोट की खातिर जो गुजरे, वो  इधर  से,

हम तो केवल खिल-खिला कर रह गए।


असत्य गरजा लहककर, कुछ इस तरह,

कि बामुश्किल चन्द सच्चे रहबर रह गए,

लोग झूठ का अम्बार, रख कर चल दिए,

‘नाथ’  सब  को सच्चाई   बताते  रह गए।

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