जिन्हें
शिक्षा के उद्देश्य कहा जाता है वास्तव में वे सम्पूर्ण मानवता के उद्देश्य होते
हैं और शिक्षा वह साधन है जिससे यह उद्देश्य प्राप्त किए जाते हैं।लेकिन बलचाल में
हम शिक्षा के उद्देश्य का प्रयोग करते हैं और ये इतने आवश्यक हैं कि बी ० डी ०
भाटिया जी को कहना पड़ा कि :-
“Without
the knowledge of aims, the educator is like a sailor who does not know the goal
or his determination, and the child is like a rudderless vessel which will be
drifted along somewhere ashore.”
“उद्देश्यों के ज्ञान के अभाव में शिक्षक उस
नाविक के समान है जो अपने लक्ष्य या मन्जिल को नहीं जानता है और बालक उस पतवार
विहीन नौका के सामान है जो लहरों के थपेड़े खाकर किसी भी किनारे जा लगेगी।”’
प्रजातन्त्रीय देश भारत के उत्थान हेतु यह परम आवश्यक होगा कि वह लोकतन्त्र की मर्यादा के अनुरूप सम्पूर्ण देश की शिक्षा हेतु उद्देश्यों का निर्धारण करे और इस उद्देश्य निर्धारण में निम्न बिन्दु महती भूमिका का निर्वहन करेंगे। सुविधा की दृष्टिकोण से इन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है।
[A] – व्यक्ति सम्बन्धी उद्देश्य या वैयक्तिक उद्देश्य
[B] – समाज सम्बन्धी उद्देश्य
[C] – राष्ट्र सम्बन्धी उद्देश्य
[A] – व्यक्ति सम्बन्धी उद्देश्य या वैयक्तिक
उद्देश्य
एक ऐसा महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व जो राजनैतिक गलियारों की सुर्ख़ियों
में आने और जेल यात्राओं के बाद भी अपने आप को आध्यात्मिक चिन्तन से विलग न कर
सका। एक विशुद्ध दार्शनिक जो महान चिन्तक, विश्लेषक, योगाचार्य सभी की विशिष्ट भूमिका में जीवन
पर्यन्त दिखाई पड़ा। इसीलिए पी ० टी ० राजू कहते हैं –
“Of all Indian Philosophers Shri Aurobindo is the
only who is known both as yogi and philosopher…….. .Hi is much respected in India and regarded
as one of her greatest sons.”
“भारत के सभी दार्शनिकों मेंश्री अरविन्द ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो एक
योगी और एक दार्शनिक दोनों रूपों में प्रसिद्द हैं। वे भारत में बहुत ही सम्मानित
और उसके महानतम पुत्रों में से एक माने जाते हैं।”
श्री अरविन्द का
दार्शनिक चिन्तन
PHILOSOPHICAL
THOUGHT OF SHRI AUROBINDO
श्री अरविन्द आधुनिक युग में ऋषि परम्परा के
वे साधक हैं जो महान चिन्तक, विश्लेषक, क्रान्तिकारी, पत्रकार। शिक्षा
सुधारक सभी के गुणों को वहन करते हुए मूल रूप से गीता का विशेष आलाम्बिक बल रखते
थे ये मानव और दिव्य शक्ति के संयोग को दिव्यानुभूति कराने वाला योग मानते हैं ये
सम्पूर्ण मानव जाति सर्वांगीण सर्वोत्थान की और ले जाने का प्रयास है। इसीलिये
इनकी विचारधारा को सर्वांग योग दर्शन भी कहा जाता है इस दर्शन के अधिगमन हेतु
विभिन्न मीमांसाओं का अध्ययन समीचीन होगा।
तत्त्व मीमांसा –
ये सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर को स्वीकार करते
हैं और जगत के निर्माण हेतु विभिन्न विकास सोपानों की बात करते हैं। ये आरोहण और
अवरोहण विकास की दो दिशाएँ बताते हैं।इस प्रक्रम को अधिगमन हेतु इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –
इनके अनुसार ज्ञान और अज्ञान में परस्पर
विरोध नहीं है बल्कि अज्ञान का स्वाभाविक गन्तव्य ज्ञान है ये भौतिक और आध्यात्मिक
तत्त्वों में अभेद को जानना ही सच्चे ज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं व इसे
द्रव्य ज्ञान और तत्त्व ज्ञान नामक दो विभागों में बाँटते हैं द्रव्य ज्ञान से आशय
जगत ज्ञान अर्थात साधारण ज्ञान से है जबकि आत्म ज्ञान को ये उच्च ज्ञान के रूप में
स्वीकारते हैं आत्म ज्ञान अन्तःकरण द्वारा होता है इनका तर्क है कि इसकी प्राप्ति
का महत्त्वपूर्ण साधन योग की क्रियाएं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि हैं।
मूल्य एवम् आचार
मीमाँसा –
इनके योग दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा को
समझने के लिए महर्षि अरविन्द के आरोहण क्रम का अध्ययन परम आवश्यक है इनके आरोहण
सोपान हैं – – द्रव्य → प्राण →मानस→ अतिमानस→ आनन्द→ चित्त→ सत। इसमें द्रव्य, प्राण, मानस के स्तर को तो
मानव जन्म के समय पार कर चुका होता है जन्म के पश्चात अति मानस की स्थिति को
प्राप्त कर उसका ध्येय अर्थात अंतिम उद्देश्य आनन्द+ चित्त+ सत की प्राप्ति होता
है। सत चित्त आनन्द की प्राप्ति का साधन गीता का कर्म योग व ध्यान योग है और इसके
लिए यह परम आवश्यक है कि मन विकार रहित हो, शरीर स्वस्थ व जीवन
संयमी हो और इस उद्देश्य की प्राप्ति का साधन योग की क्रियाएं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि हैं।
जीवन दर्शन (Philosophy of
life) –
1 – मानव, सर्वोत्तम योनि
2 – ब्रह्म -सर्वशक्तिमान
और निरपेक्ष
3 – सच्चा ज्ञान भौतिक और
आध्यात्मिक तत्वों के अभेद को जानना।
4 – ज्ञान के दो रूप –
द्रव्य ज्ञान और आत्म ज्ञान
5 – कर्म योग व ध्यान योग
सत चित्त आनन्द की प्राप्ति का साधन
6 – जीवन का अन्तिम
उद्देश्य सत चित्त आनन्द की प्राप्ति।
7 – पुनर्जन्म सम्बन्धी
धारणा
वे लिखते हैं -“यदि किसी सचेतन व्यक्तित्व का विकास होता है तो
पुनर्जन्म होना आवश्यक है। पुनर्जन्म एक युक्ति संगत आवश्यकता है और एक आध्यात्मिक
तथ्य है जिसका हम अनुभव कर सकते हैं।”
शिक्षा दर्शन के
आधारभूत सिद्धान्त (fundamentals of Educational philosophy
) –
श्री अरविन्द का कहना है –
“That
alone would be true and living education which helps to bring out to full
advantage all that is in an individual man.”
“सच्ची और वास्तविक
शिक्षा वही है जो मानव की अन्तर्निहित समस्त शक्तियों को इस प्रकार विकसित करती
हैं कि वह उनसे पूर्ण रूप से लाभान्वित होता है।”
उक्त स्थिति को प्राप्त तभी किया जा सकता है
जब इनके शिक्षा दर्शन को पूर्ण आयाम मिले जिसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं –
01 – बालक शिक्षा का केन्द्र
02 – मातृ भाषा, शिक्षा का माध्यम
03 – ब्रह्मचर्य शिक्षा का आधार
04 – अन्तर्निहित समस्त शक्तियों का व्यावहारिक
विकास
05 – पूर्ण मानव बनाने का साधन शिक्षा
06 – सुरुचि पूर्णता
07 – धर्म को यथोचित स्थान
08 – चेतना का सम्यक विकास
09 – ज्ञानेन्द्रियों का यथाशक्ति प्रशिक्षण
10 – सुषुप्त शक्तियों का विकास
11 – मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों से अनुकूलन
12 – मित्र व पथ प्रदर्शक हो शिक्षा
श्री अरविंद का
शैक्षिक चिन्तन (Educational thought of Shri
Aurobindo) –
ये शिक्षा के द्वारा मानव का सच्चा उत्कर्ष
चाहते थे इन्होने कहा –
“Education
to be true must not be a machine made fabric, but a true building or living
evocation of the powers of the mind and spirit of human being.”
“सच्ची शिक्षा को मशीन
से बना सूत नहीं होना चाहिए, अपितु इसको मानव के
मस्तिष्क तथा आत्मा की शक्तियों का निर्माण अथवा जीवित उत्कर्ष करना चाहिए।”
श्री अरविन्द ने दार्शनिक के रूप में इतना
श्लाघनीय कार्य किया है कि जहाँ इतिहास के पृष्ठ उन्हें समेटने को आकुल दिखे वहीं
आने वाले युग ने उनके विचारों में अपने लिए पथ की तलाश की। ये राष्ट्र के समग्र
उत्थान हेतु नवीन शिक्षा से युक्त करना चाहते थे इसीलिये इन्होंने अपनी दो
पुस्तकों नेशनल सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन (National System Of Education)और ऑफ़ एजुकेशन (Of Education)) के माध्यम से एक राष्ट्रीय योजना प्रस्तुत
की। उक्त को आधार बनाकर
उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों को यहाँ दिया गया है :-
शिक्षा का सम्प्रत्यय
[Concept Of Education]-
महर्षि अरविन्द के अनुसार –
“सूचनाओं का संग्रह
मात्र शिक्षा नहीं है। सूचनाएं ज्ञान की नींव नहीं हो सकती। वे अधिक से अधिक वह
सामग्री हो सकती हैं जिसके द्वारा जानने वाला अपने ज्ञान की वृद्धि कर सकता है
अथवा वे वह बिन्दु हैं, जहां से ज्ञान को
आरम्भ किया जाए या नई खोजों को निकालना प्रारम्भ किया जाए। वह शिक्षा जो अपने आप
को ज्ञान देने तक सीमित रखती है शिक्षा नहीं है।”
इनका दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य द्रव्य और
प्राण की अवस्था पार कर मानस की स्थिति में होता है जन्म के बाद उसे क्रमशः अति
मानस ,आनन्द ,चित् , सत् की स्थिति को
प्राप्त करना होता है अतः शिक्षा ऐसी हो जो मानव का आध्यात्मिक, भौतिक, प्राणिक, मानसिक विकास करे इस
प्रकार की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा (Integral Education ) के रूप में इन्होने
स्वीकार किया। श्री अरविन्द के अनुसार –
“Education
is the building of the power of the human mind and spirit. It is the evoking of
knowledge, character and culture.”
“शिक्षा मानव के
मष्तिस्क और आत्मा की शक्तियों का निर्माण करती है और उसमें ज्ञान, चरित्र और संस्कृति को
जागृत करती है। ”
शिक्षा के उद्देश्य (Aim
of Education) –
1 – भौतिक या व्यावसायिक
विकास
2 – प्राणिक उत्थान
3 – मानसिक उत्कृष्टता
4 – अन्तः करण का विकास
5 – सत् चित्त आनन्द की
प्राप्ति
पाठ्यक्रम (Syllabus)–
यदि ध्यान से देखा जाए तो पाठ्यक्रम शिक्षा
के उद्देश्यों पर आलम्बित होता है यहां भी शिक्षा उन उद्देश्यों की प्राप्ति का
साधन भर है और इसी वजह से इनके पाठ्यक्रम को इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है।
भौतिक उत्थान हेतु
विषय – मातृ भाषा, राष्ट्र भाषा व उत्थान
हेतु आवश्यक अन्य अन्तर्राष्ट्रीय भाषाएँ। भूगोल,इतिहास,अर्थशास्त्र,समाज शास्त्र विज्ञान, गणित,स्वास्थय विज्ञान,भूगर्भ विज्ञान,कृषि,वाणिज्य,कला और मनोविज्ञान
आदि।
शारीरिक क्रियाएं – व्यायाम, खेलकूद, योगासन, शिल्प व अन्य
श्रमसाध्य कार्य।
आध्यात्मिक विषय – वेद, उपनिषद,नीति शास्त्र, गीता, धर्म शास्त्र ,विभिन्न देशों का धर्म
व दर्शन।
आध्यात्मिक क्रियाएं – भजन, कीर्तन, प्राणायाम आदि।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)–
ये प्राचीन विधियों को नवीन रूप देना चाहते
थे और चाहते थे कि रटाने की प्रवृत्ति से बचा जाए। इनकी क्रियाओं व शिक्षण विधियों
को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।
1 – रूचि आधारित
2 – प्रेम, सहानुभूति आधारित
3 – स्वातंत्रय अनुभूति
आधारित
4 – स्वप्रयत्न विधि,स्व अनुभव विधि
5 – स्वनिरीक्षण विधि
6 – क्रिया आधारित शिक्षण
विधि
7 – मौखिक विधि
इसके अतिरिक्त ये उपदेश,प्रवचन,तर्क ,तुलना,अभिव्यक्ति,विवेचना,व्याख्यान,व स्वाध्याय विधियों
को भी उचित सम्मान देते हैं।
शिक्षक (Teacher) –
ये शिक्षक को रटाने वाली मशीन नहीं बनाना चाहते बल्कि
उसे निर्देशक,पथ प्रदर्शक,सहायक,के रूप में देखना
चाहते हैं और चाहते हैं कि वह अभिरुचि आधारित संकलन के प्रस्तुतीकरण कर्ता के रूप
में कार्य सम्पादित करे। वह प्रकृति के अनुरूप चलाने हेतु अभिप्रेरक की भूमिका का
निर्वहन करे। उन्होंने कहाकि –
“The
teacher is not an instructor or task master, he is helper and guide this
business is to suggest and not to impose. He does not actually train the pupils
mind, he only shows him how to perfect his instruments of knowledge and helps
him and encourages him in the process.”
“अध्यापक निर्देशक या
स्वामी नहीं है। वह सहायक और पथ प्रदर्शक है। उसका कार्य सुझाव देना है, न कि ज्ञान को लादना।
वह वास्तव में छात्र के मष्तिस्क को प्रशिक्षित नहीं करता है। वह छात्र को केवल यह
बताता है कि वह अपने ज्ञान के साधनों को किस प्रकार समृद्ध बनाए। वह छात्र को सीखने
की प्रक्रिया में सहायता और प्रेरणा देता है।”
विद्यार्थी (Student)
–
इनकी शिक्षा बाल केन्द्रित शिक्षा है और
इसीलिये ये चाहते हैं की बालक की विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर उसके विकास के
सोपान बहुत सोच समझ कर विकसित किये जाने चाहिए। इन्होने कहा :-
“The
idea of hammering the child into shape desired by the parent or teacher is a
barbarous and ignorant supersituation, there can be no great error than for the
parent to arrenge before hand that his son shall develop particular qualities
and capacities.”
“बालक को मातापिता अथवा
शिक्षक की इच्छानुकूल ढालना अंधविश्वास और जंगलीपन है। मातापिता इससे बड़ी भूल और कोइ नहीं कर सकते कि
वे पहले से ही इस बात की व्यवस्था करें कि उनके पुत्र में विशिष्ट गुणों, क्षमताओं तथा विचारों
का विकास होगा।”
विद्यालय (The
School) –
ये प्राचीन ऋषियों द्वारा संचालित आश्रम
पद्धतियों के साथ आधुनिक परिस्थतियों का भी पूर्ण ध्यान रखना चाहते हैं और
विद्यालयों में मनसा,वाचा,कर्मणा,पर अधिक ध्यान देना
चाहते हैं और नहीं चाहते कि रंग, रूप, देश, जाति, धर्म के आधार पर कोइ
भेद भाव हो। ये विश्व बन्धुत्व के
विकास का वातावरण विद्यालयों में चाहते हैं।
अनुशासन (Discipline
) –
इनके अनुसार शिक्षा और अनुशासन में अनुलोम
सम्बन्ध है ये चाहते हैं की विद्यालय ब्रह्मचर्य का अनुपालन सुनिश्चित करने साथ
मुक्तिवादी अनुपालन सिद्धान्त का अनुकरण करें और बच्चों में स्वतंत्र रूप सर आदर्श
स्वीकारोक्ति का गुण विकसित करेंऔर स्व अनुशासन की भावना बलवती करें।
शिक्षा के अन्य पक्षों
के सम्बद्ध में विचार (Views of other Aspects of Education)-
1 – राष्ट्रीय शिक्षा
सम्बन्धी विचार (Views about National Education)
2 – धार्मिक व नैतिक
शिक्षा (Religious and Moral Education)
3 – अन्तर्राष्ट्रीयता की
शिक्षा (Education of internationalism)
4 – नारी शिक्षा (Women
Education)
5 – धर्म सम्बन्धी विचार (Views
about religion)-
श्री अरविन्द के अनुसार :-
“हम भारतवासी आर्य जाति
के वंशधर हैं, आर्य शिक्षा और आर्य
नीति के अधिकारी हैं। यह आर्य भाव ही हमारा कुलधर्म और ज्योति धर्म है। ज्ञान, भक्तिऔर निष्काम कर्म आर्य
शिक्षा के मूल तत्व हैं तथा ज्ञान, उदारता, प्रेम, साहस, शक्ति, विनय आर्य चरित्र के
लक्षण हैं।”
शिक्षा दर्शन का मूल्याङ्कन
(Evaluation of Philosophy of Education) –
इनकी विदेशी शिक्षा पद्धति से मुक्ति की
छटपटाहट और भारतीय समाज के कल्याण की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है। ऐसा लगता है
गुरु शिष्य परम्परा से कालान्तर में इस पर प्रभावी कार्य नहीं हो सका और शिक्षा पर
जो इनका प्रभाव परिलक्षित होना चाहिए था नहीं हो सका जबकि इन्होने शिक्षा के विविध
पहलुओं को समयानुकूल बनाने का प्रयास किया।
श्री कंगाली चरणपति के भाव द्रष्टव्य हैं :-
“श्री अरविन्द का
शिक्षा दर्शन मूलतः उनके आध्यात्मिक योग दर्शन पर आधारित है। श्री अरविन्द ने अपनी
दिव्य दृष्टि की शक्ति से मानव जीवन के जिन गंभीर तत्वों का उदघाटन किया है, वे ही उनके शिक्षा
दर्शन की आधारशिला हैं। इसमें हमें समग्र मानव जीवन व समग्र संसारके सर्वांगीण रूप
का आभास मिल जाता है। श्री अरविन्द ने जीवन और संसार के किसी पहलू को त्यागा नहीं
है।”
शिक्षक स्वायत्तता का सीधा सादा अर्थ है शिक्षक को उसके निमित्त
कार्यों में स्वतन्त्रता। शिक्षक के दायित्व बदलते समय के साथ सामाजिक मांगों के
अनुरूप परिवर्तित होते रहते हैं और सारी समस्याओं के निदानीकरण हेतु शिक्षा की और
देखा जाता है जिसका निर्वहन शिक्षक को करना होता है शिक्षक को स्वतंत्र चिंतन के
साथ स्वायत्त रूप से कार्य करने की आवश्यकता यहीं से पारिलक्षित होने लगती है।
शिक्षक स्वायत्तता वस्तुतः अधिगम को प्रभावी व व्यावहारिक बनाने के लिए
विषयवस्तु की आवश्यकतानुरूप शिक्षक द्वारा बिना किसी बाहरी दवाब से प्रभावित
हुए कार्य को परिणति तक पहुँचाने से है।
यह कोई ऐसी निश्चित सत्ता नहीं है जो कुछ लोगों
के पास होती है और कुछ के पास नहीं यह संस्थान,पाठ्यक्रम
,राज्य तन्त्र से सीधे प्रभावित होती है वैतनिक
अध्यापक निर्धारित पाठ्यवस्तु को अपनी क्षमता के अनुसार अधिगम कराने हेतु शिक्षण
विधियों व सम्प्रेषण के लिए स्वायत्त है। . संजीव बिजल्वाण महोदय ने प्रवाह मई
-अगस्त 2015 में ‘अध्यापक
स्वायत्तता ‘ नमक लेख में लिखा –
“बदलते सन्दर्भों, मायनों,व भूमिकाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण बात हे
शिक्षक और शिक्षार्थी की स्वायत्तता। सीखने और सिखाने की प्रक्रिया तभी लचीली और
सन्दर्भ व परिवेश आधारित होगी जब शिक्षक इसके लिए स्वायत्त होगा। ”
अध्यापक स्वायत्तता से आशय विविध परिसीमाओं के अन्तर्गत शैक्षिक
उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षक द्वारा स्वायत्त रूप से कार्य करने से है।
शिक्षक स्वायत्तता और विविध काल –
a – वैदिक
काल
b – बौद्ध
काल
c – मुस्लिम
काल
d – ब्रिटिश
शासन काल
e – आजाद
भारतीय कालावधि
आज का अध्यापक एक व्यवस्था (System ) का एक हिस्सा है जो राज्य द्वारा संचालित होता है और यह राजनीति से
इतना अधिक प्रभावित है की गलत तथ्यों ,गलत
इतिहास व अनावश्यक परोसने से भी नहीं चूकता। व्यवस्था है किसी हाथ में और दिखती
दूसरे हाथों में है।
शिक्षक स्वायत्तता का यथार्थ –
जब समाज व राष्ट्र के उत्थान हेतु पाठ्यक्रम निर्माण से लेकर अधिगम
तक के सम्पूर्ण कालन्तराल पर विविध विज्ञ अध्यापकों के स्वतन्त्र मौलिक विचारों की
छाप दिखाई देने लगेगी कुछ लोगों के निहित स्वार्थों से ऊपर उठ शिक्षा की सम्पूर्ण
व्यवस्था एक स्वायत्त पक्षपात पूर्ण दृष्टिकोण से ऊपर उठ राष्ट्रवाद के आलोक में
निर्णय लेने में सक्षम होगी। जब वास्तविक अध्यापक शिक्षा की विविध नीतियों के
निर्माण से लेकर परिणाम की प्राप्ति तक प्रभावी भूमिका बिना किसी बाहरी दवाब के
निभाएगा। वास्तविक अर्थों में शिक्षक स्वायत्तता होगी।
शिक्षक स्वायत्तता व जवाबदेही –
आजाद भारत की सारी व्यवस्थाएं न तो शिक्षा के साथ न्याय कर पाईं और न
सम्पूर्ण अध्यापकों के साथ,
सभी राजनैतिक पार्टियां शिक्षा के दायित्व से
अपना हाथ खींचने में लगीं रहीं। परिणाम यह हुआ कि लगभग 80 %शिक्षा व्यवस्था व्यक्तिगत हाथों में पहुँचकर
व्यक्तिगत लाभ का साधन मात्र बनकर रह गयीं। अध्यापक बेचारा बन गया उसके अस्तित्व
पर संकट के बादल मंडराने लगे और सारी स्वायत्तता अपने सच्चे अर्थ खो बैठी। वर्तमान
भारत में सम्पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था की जिम्मेदारी का निर्वहन निम्न माध्यम से
सम्पन्न होता है और इनमें स्वायत्तता व जवाबदेही की स्थिति में अन्तर स्पष्ट
द्रष्टव्य है –
1 – सरकारी
संस्थाएं
2 – गैर
सरकारी संस्थाएं
1 – सरकारी संस्थाएं –
इसमें सरकारी व अर्धसरकारी संस्थान आते हैं। माध्यमिक स्तर तक अलग
अलग राज्यों के बोर्ड व्यवस्थाओं को संभालते हैं सीधे शासन की नीतियों के अनुरूप
कार्य सम्पादित होते हैं बहुत बड़े तंत्र के रूप में इनका विकास हुआ है केन्द्रीय व
राज्य स्तर पर विभिन्न नियमों विनियमों के आधार पर कार्य सम्पादित होता है।
और अध्यापक स्वायत्तता अलग अलग नियामक सत्ताओं द्वारा कार्य करने के
कारण बाधित होती है चूंकि स्वायत्तता व सामञ्जस्य का स्तर निम्न है अतः जवाबदेही
का स्तर भी बहुत प्रभावी नहीं बन पड़ा है। इन शिक्षण संस्थाओं में बहुत अधिक
परिवर्तन की आवश्यकता है मर्यादित स्वायत्तता व प्रभावी जवाबदेही की उचित व्यवस्था
न होने के कारण ,मोटा वेतन देने के बाद भी इनके विश्व स्तरीय
बनाने में संदेह है।
उच्च शिक्षा के स्तर पर
स्थिति अत्यन्त दयनीय है इसमें प्रश्नपत्र निर्माण से लेकर उनके मूल्याँकन तक में
अध्यापक भागीदारी दिखाई देती है जितने भी अतिरिक्त लाभ के कार्य हैं बखूबी निभाए
जाते हैं सिर्फ कक्षा शिक्षण के, अधिकाँश विद्यार्थी अधिकाँश जगह अनुपस्थित रहते
हैं नाम मात्र की कक्षागत क्रियाएं होती हैं। शासन के साधनों का उपयोग कम दुरूपयोग
अधिक देखने को मिलता है महाविद्यालय से लेकर विश्विविद्यालय तक आमूलचूल परिवर्तन
की दरकार है कोई ऐसा विश्वविद्यालय खोजना मुश्किल होगा जहाँ दलाल न हों। अध्यापक
स्वायत्तता, शिक्षण
वातावरण के अभाव में कुप्रभावित है जवाबदेही के अभाव का प्रभाव कार्यों पर देखा जा
सकता है नाम मात्र के लोग जिम्मेदारी से कार्य निर्वहन करते हैं व्यवस्था भ्रष्ट
आचरण से प्रभावित दिखती है।
2 – गैर सरकारी संस्थाएं –
शासन की नीतियों के कारण ये संस्थाएं सरकारी संस्थाओं की तुलना में
तीन से चार गुने विद्यार्थियों के अधिगम की व्यवस्था कर रही हैं कुछ समितियों
द्वारा भी इनका संचालन किया जा रहा है लेकिन इन पर शासन द्वारा निर्धारित संस्थाओं
का अप्रत्यक्ष नियंत्रण रहता है ये स्ववित्त पोषित संस्थान,
विविध कार्यों हेतु शासन के संस्थानों के
अनुरूप कार्य करने को बाध्य होते है जिनके प्रतिनिधि हर कार्य के बदले भौतिक लाभ
लेते हैं प्रायोगिक परीक्षाओं में
शतप्रतिशत प्रथम श्रेणी इन्हीं की कृपा दृष्टि का परिणाम है।
अध्यापकों के साथ भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण के कारण न तो इन संस्थाओं
को शासन से उचित लाभ मिल पाता है और न इनके अध्यापकों को। समान कार्य के लिए असमान
वेतन प्राप्त करने के साथ अल्प वेतन भोगी अध्यापक आयाराम गयाराम की भूमिका में
अधिक देखा जाता है। इनकी पूर्ण स्वायत्तता की तो कल्पना ही व्यर्थ है हाँ अधिगम को प्रभावी बनाने के लिए ये स्वायत्त
रूप निर्णय लेते हैं और यह तुलनात्मक रूप से अधिक जवाब देह होते हैं। प्रबन्धन के
सीधे सम्पर्क में रहने के कारण ये कार्य दायित्व निर्वहन के प्रति अधिक सजग रहते
हैं।
यदि समग्र रूप से विवेचना की जाए तो यह मानना
ही होगा कि कुछ अच्छे लोगों ने ही सम्पूर्ण व्यवस्था को सही दिशा दे रखी है और ये
सब जगह हैं इनकी संख्या सीमित है और ये अपने कार्य के प्रति उत्तरदायित्व पूर्ण
दृष्टिकोण रखते हैं और जवाबदेही स्वीकार करते हैं। राष्ट्रोत्थान हेतु सीमित
शिक्षक स्वायत्तता व जवाबदेही शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित करना परम
आवश्यक है।
आज का मानव जानता बहुत कुछ है पर मानता बहुत कम है। सफलता हर कोइ चाहता है पर प्रयास ओछे रह जाते हैं कभी आत्म विश्वास नहीं जग पाता और कभी अति आत्मविश्वास असफलता का पर्याय बन जाता है। आखिर मानव अपने सपने, अपने मन्तव्य, अपने गन्तव्य तक क्यों नहीं पाते। कभी सारा जीवन किस एक तत्व की कमी के कारण अभिशप्त सा दीख पड़ता है। भाग्य का ताला आखिर खुलता किस चाभी से है जब आप अपने कर्म बोध को जगाकर विश्लेषण करते हैं तब पाएंगे की सफलता की कुञ्जी है आत्मविश्वास । आइए जानते हैं कि किन आठ तत्वों से आत्मविश्वास का शीर्ष स्तर छूकर जीवन को सफल बनाया जा सकता है।
सक्रियजीवन
चर्या (Active Life Style) –
मानव का शरीर गुब्बारे की तरह फूलने के लिए नहीं बना है वह पसीना
बहाकर शुचिता कर्मठता का अनुगमन कर लक्ष्य प्राप्ति का साधन है हमेशा ऋगवेद पर
आधारित ऐतरेय ब्राह्मण के शब्द ‘चरैवेति
चरैवेति’ चलते रहो चलते रहो का उद्घोष कर हमेशा हमें
प्रेरणा देते हैं की तन को ,मन
को,मस्तिष्क को हमेशा सक्रिय रखना है। हमारे और
लक्ष्य के बीच का अन्तराल कम होता चला जाएगा वह महिला पुरुष का अन्तर नहीं देखता
पुरुषार्थ की सक्रियता देखता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कठोपनिषद से
दिशाबोधक उद्घोष किया –
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।” अर्थात् उठो, जागो, और
ध्येय की प्राप्ति तक मत रूको।
अतः अवश्य मानें – जीवन है, चलने
का नाम …
सद सङ्गति (Good Fellowship) -आत्म विश्वास का सूर्य तब जाग्रत स्थिति में
होता है जब उच्च ऊर्जाओं का समन्वयन होता है इसीलिये उन लोगों का साथ करें,उन लोगों को मॉडल या आदर्श के रूप में
स्वीकारें जिनके विचार आपके आत्मिक उत्थान में योग दे सकें यह मुहावरा तो आपने
अवश्य सुना होगा कि -खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। आप जैसा बनना चाहते हैं
वैसे लोगों का साथ करें।
संयमित जिद –
जी हाँ जिद जरूरी है, उत्थान के लिए, उत्कर्ष के लिए, प्रगति
के लिए इतना जिद्दी तो अपने आप को बनाना होगा कि जो ठान लिया, जो उद्देश्य बना लिया, जो लक्ष्य तय कर लिया उस उद्देश्य को उचित
साध्यों से प्राप्त करके रहूँगा और अपने कम्फर्ट जॉन का परित्याग तत्परता से
करूंगा।
याद रखें सफलता का पथ
दुरूह होता है कण्टकाकीर्ण होता है ,भयावह
दीख पड़ता है पर आत्म विश्वासी उसी पथ का पथिक होता है और अन्ततः विजिट होता है।
हमें अपनी जिद की पूर्णता हेतु सैद्धान्तिक
धरातल की जगह यथार्थ के कठोर धरातल पर संयमित होकर चलना पड़ेगा। किताबी सैद्धान्तिक
धरातल पर तैरना सीखें, सुन्दर नृत्य करें,
व्यापार में शिखर छुएं आदि सम्भव नहीं है अतः
व्यावहारिक कठोर धरातल पर पूर्ण अनुशासन से अपनी मर्यादित जिद पूर्ण करने हेतु
उतरना ही होगा। फल के परिपक्व होने में उसमें तीन परिवर्तन परिलक्षित होते हैं वह
नम्र हो जाता है , उसमें मिठास आ जाती है,
तीसरे उसका रंग बदल जाता है। आत्म विश्वास की
परिपक्वता में मानव में इसी परिवर्तन के लक्षण दीखते हैं।
आस्था –
विश्वास रखें आप सफल होंगे,जीवन की छोटी छोटी सफलताओं,
उपलब्धियों, प्रशंसा की स्मृतियों को कुरेदकर स्वस्थ धरातल
तैयार करें। यदि बचपन के डगमगाने वाले कदम दौड़ने में समर्थ हो सकते हैं तो हमारा
आस्था का अवलम्ब, विजय पथ का निर्माण अवश्यम्भावी कर सकता है
शङ्कर के उपासक हर हर महादेव, देवी के उपासक जय भवानी के उद्घोष से अन्य
मतावलम्बी अपने अपने इष्टों को याद कर जाग्रत स्थिति में आ जाते हैं। सीधे चेतना
के अनंत सागर से अविरल परवाह को निरंतरता मिलाती है ऊर्जा के अजस्र स्रोत से आस्था
हमको जोड़ती है।
संघर्षशील प्रवृत्ति –
विश्वास रखें। आप ईश्वर की अमूल्य कृति हैं। हम सभी का अस्तित्व किसी
न किसी उद्देश्य से जुड़ा है सपनों को साकार करने के लिए मानस में विचारों के अन्धड़ चलते हैं संघर्ष के विभिन्न
उपादान तय करते समय याद रखें समुद्र मन्थन से विभिन्न रत्नों की प्राप्ति हो सकती
है तो हमारा चिन्तन, मंथन,द्वन्द
संघर्षशील जुझारू प्रवृत्ति अन्ततः हमें सफल बना आत्म विश्वास में वृद्धि
सुनिश्चित करेगी। इसी दिशा में मेरी कुछ पंक्तियाँ आपको समर्पित हैं –
जीवन की धूप छाँह, नया
मार्ग देती है,
पत्थर, कण्टक,अग्नि
संताप हरलेती है,
मार्ग खोज देते हैं, उन्नति, उत्कर्ष का
संघर्षशील प्रवृत्ति अन्ततः तार देती है।
उत्तम स्वास्थय –
स्वस्थ शरीर स्वस्थ मस्तिष्क का आधार है और आत्म विश्वास का वृक्ष
उत्तम स्वास्थय रूपी जड़ों पर विकास के सोपान तय करता है जितने भी प्रभावशाली
व्यक्तित्व हैं सभी ने तमाम व्यस्तताओं के बीच स्वास्थय को संभाले रखने के क्षमता
भर प्रयास अवश्य किये हैं। भारतेन्दु हरिश चन्द्र, स्वामी विवेका नन्द,
राहुल सांकृत्यायन अपने अल्प स्वस्थ जीवन में
जो ज्योति बिखेर गए हैं वह युगों तक हमारा मार्ग दर्शन करेगी।
व्यक्तित्व सुधार –
आज गुणवत्ता प्रबन्धन के युग में व्यक्ति का व्यक्तित्व कार्य की
सफलता सशक्त पृष्ठभूमि तैयार करता है कार्य की निरन्तर सफलताएं जो तेज जो ओज पैदा
करती हैं वह सञ्चित कर्मों का योग होता है। रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है –
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के
हीन मूल की ओर देख जग गलत करे या ठीक
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
खुश रहें खुश रहने दें –
यह सर्व विदित है कि जो जैसा करता है उसे वैसा फल मिलता है तो हम
सबके लिए खुशियों का आधार बनाएं इससे हम पर भी खुशियां बरसेंगी और उससे आलोकित पथ
ही तो आत्मविश्वास हेतु सर्वोत्कृष्ट पथ होगा। चेहरे पर हमेशा विजेता वाली मुस्कान
रखें आनन्द में मगन हो सकारात्मक निर्णय लें क्रोध को तिरोहित करें।हमारी खुश रहो
और रहने दो की मूल भावना आत्मविश्वास का ऐसा प्रासाद खड़ा करेगी जो चिर स्थाई
होगा।
आत्म
अभिव्यक्ति से आशय (MEANING OF SELF EXPRESSION )-
आत्म
अभिव्यक्ति एक महत्त्वपूर्ण व कम व्याख्यायित शब्द है हिन्दी भाषा में आत्म शब्द
स्व का परिचायक है और अभिव्यक्ति का आशय सरल शब्दों में प्रगटन से है। विकीपीडिया
के अनुसार : –
“अभिव्यक्ति का अर्थ विचारों के प्रकाशन से है व्यक्तित्व के समायोजन
के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अभिव्यक्ति को मुख्य साधन माना है
। इसके द्वारा मनुष्य अपने मनोभावों को प्रकाशित
करता तथा अपनी भावनाओं को रूप देता है।”
साधारण
शब्दों में कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति से आशय प्रगटन से है और स्वयम का प्रगटन
चाहे वह किसी भी माध्यम से हो,आत्म
अभिव्यक्ति कहलाता है।
आत्म
अभिव्यक्ति के प्रकार (TYPES OF SELF EXPRESSION)-
विविध
विद्वानों ने इसे विविध प्रकार से विवेचित किया है जिससे इसका स्वरुप जटिल हो गया
है लेकिन मुख्य रूप से इसके प्रकारों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है। –
1 –
शाब्दिक
(a )- लिखित
(b) – मौखिक
2 –
अशाब्दिक -समस्त कलाएं
3 –
चेतन शारीरिक भाषा
आत्म
अभिव्यक्ति को सुधारने के उपाय (Ways to improve self expression) –
आत्म
अभिव्यक्ति को सुधारने के उपायों को समझने हेतु यह आवश्यक है कि आत्म अभिव्यक्ति
को प्रभावित करने वाले कारक (TYPES OF SELF EXPRESSION) की समझ विकसित करने के साथ निम्न बिंदुओं पर
गहनता से सम्पूर्ण क्षमता भर ध्यान दिया जाए।
शारीरिक
भाषा (Body Language) में सुधार हेतु वे सभी प्रयास सम्मिलित किये
जाने चाहिए जो कौशल विकास से सम्बंधित हैं।
अशाब्दिक
अभिव्यक्ति हेतु निरन्तरता ,जिज्ञासा, धैर्य, क्षमता
सम्वर्धन की अनवरत साधना परमावश्यक है।
आत्म अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने हेतु डॉ ०
सतीश बत्रा जी का मानना है कि सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति में निम्न का विशेष संज्ञान
लिया जाए –
1 – अधिक
2 – अनावश्यक
3 – अप्रिय
4 – अप्रासंगिक
5 – असमय
6 – असम्बन्धित
7 – अपात्र
साथ
ही बत्राजी प्रभावी अभिव्यक्ति हेतु KISSSSS पर विशेष जोर देते हैं जिसका आशय है –
K – keep
I – it
S – Simple
S – Short
S – Straight
S – Sense
full
S – Strength
of evidence
यानि
कि तथ्यों को सम्प्रेषित करने में बात को सरल संक्षिप्त सीधा सार्थक व प्रभावी
तरीके से रखा जाए।
अन्त
में अध्यापकों से मैं विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि वे यदि निम्न पर ध्यान देंगे
तो अच्छी आत्म अभिव्यक्ति कर पाएंगे –
T – Talent
E –
Evaluation before communication
A –
Apologize for mistakes
C –
Confusion Removal
H – Harmony
E –
Effectiveness
R – Realistic
Approach
वस्तुतः यह तथ्य सर्व विदित है कि जहां चाह वहाँ
राह ,यदि आप पूरे आत्म विश्वास से आत्म अभिव्यक्ति
प्रभावी बनाने का प्रयास करेंगे तो लक्ष्य की निकटता महसूस करेंगे और जल्दी आपका
सपना साकार होगा।
शिक्षा
की त्रिमुखी प्रक्रिया का और अध्यापक व विद्यार्थी के बीच सम्वाद का प्रमुख साधन
पाठ्यक्रम ही है। यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि इसके बिना शैक्षिक प्रगति और उसकी
क्रमबद्धता की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्यक पाठ्यक्रम मानव जाति की
प्रगतिशीलता का आधार है इसलिए पाठ्यक्रम का कुछ मानदण्डों पर खरा उतरना परमावश्यक
है।
पाठ्यक्रम
मूल्याँकन के मानदण्ड (CRITERIA OF CURRICULUM
EVALUATION) –
चूँकि
पाठ्यक्रम विद्यार्थी के अधिगम का आधार होने के साथ उसके व्यवहार परिवर्तन का भी
प्रमुख आलम्ब है अतः यह परम आवश्यक है की उसे निम्न मानदण्डों को अवश्यमेव अपने
में समाहित करना चाहिए। पाठ्यक्रम मानदंडों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।
1 – विश्वसनीयता (Reliability)
2 – वैधता (Validity)
3 – क्रमबद्ध सम्बद्धता (Serial affiliation)
4 – सामन्जस्यता (Harmony)
5 – व्यावहारिकता (Practicality)
6 – लोचशीलता (Elasticity)
पाठ्यक्रम
मूल्याँकन की प्रक्रिया (PROCESS OF CURRICULUM EVALUATION) –
पाठ्यक्रम
का निर्माण शिक्षा के उद्देश्यों तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इससे अधिगम की
सुगमता व व्यवहार में परिवर्तन के गुण की भी अपेक्षा की जाती है ऐसी स्थिति में
जाहिर सी बात है कि पाठ्यक्रम के मूल्यांकन की प्रक्रिया शिक्षा व मानव व्यवहार के
व्यापक परिदृश्य से सम्बन्ध रखती है। पाठ्यक्रम के मूल्यांकन के माध्यम से ही यह
ज्ञात होता है कि कोई अपने निर्माण का उद्देश्य कहाँ तक पूर्ण करने में सक्षम है।
अतः पाठ्यक्रम मूल्यांकन की प्रक्रिया निम्न सोपानों से होकर गुजरती है।
1 – शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति
2 – शैक्षिक स्तर से समन्वयन
3 – प्राप्त अधिगम अनुभव का विवेचन
4 – व्यावहारिक सक्रियता में परिवर्तन
5 – विद्यार्थियों हेतु सार्थकता
6 – अधिगम स्थानान्तरण से अनुकूलता
7 – व्यावहारिक जीवन में उपादेयता
8 – ज्ञानात्मक व भावात्मक पक्ष की प्रबलता
वस्तुतः पाठ्य क्रम मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया
है जो एक चक्र पाठ्यक्रम नियोजन -पाठ्यक्रम प्रस्तुतीकरण -विकास प्रक्रिया
-मूल्यांकन तक पहुँचती है तत्पश्चात पुनः शुरू हो जाता है पुनः पाठ्यक्रम नियोजन -पुनः पाठ्यक्रम
प्रस्तुतीकरण -पुनः विकास प्रक्रिया -पुनः मूल्यांकन।
क्योंकि
मानव की प्रगति काल के सापेक्ष होती है अतः एक बार का मूल्यांकन हर काल का
प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
आज जहाँ कुछ बच्चे जान बूझ कर पढ़ने से जी चुराते हैं वहीं कुछ बच्चे
ऐसे भी हैं जो सचमुच पढ़ना चाहते हैं और परिस्थितियाँ विपरीत हैं। कुछ बच्चे
परिवर्तित स्थिति से साम्य बनाकर अपने अभीप्सित प्राप्त करना चाहते हैं।चाहे कारण
कोई रहा हो कुछ बच्चों का समय रेत की तरह
हाथ से फिसल गया है और मात्र एक माह शेष
है और उनकी बलवती इच्छा।
सबसे पहले इन सभी की सकारात्मक ऊर्जाओं का वन्दन ,उक्त सारी परिस्थितियाँ अपने विद्यार्थियों, चाहे वो कहीं भी हैं से मुझे मिली हैं उन सभी
विद्यार्थियों में से चुने हुए 10 प्रश्न
और क्षमता भर उनके उत्तर देने का प्रयास करता हूँ आशा है सभी को जवाब मिल जाएगा।
सामान परिस्थिति वाले देश के अन्य अधिगमार्थियों को भी लाभ मिलेगा। वादे के अनुसार
किसी भी नाम का उच्चारण नहीं करूंगा ?
प्रश्न – मेरे परिवार का गुजारा एक दूकान से चलता है पिताजी की
अस्वस्थता के कारण मैं दूकान पर बैठता हूँ प्रातः 10 बजे सुबह से रात्रि 8
बजे तक का समय दूकान के कार्यों में लग जाता है। परीक्षा की तैयारी कैसे हो ?
उत्तर – ये सही है कि बारह घण्टे कार्य के बाद थकान होती है आप दूकान
से आकर अपने आप को तारो ताजा करें स्नान अनुकूल लगे तो किया जा सकता है खाइये
पीजिए थोड़ा बहुत समय अपने मनोरञ्जन को दीजिये और सो जाइए कम से कम 6 घण्टे की नींद भी लीजिए तनाव रहित रहिए सब आराम
से प्रबंधन हो जाएगा 10 बजे रात्रि से सुबह 4 बजे तक की आराम दायक नींद लीजिये उठिए प्रभु का
कृतज्ञता ज्ञापन कीजिये दैनिक कार्यों यथा शौच, दन्त
धावन, शेविंग,स्नान
आदि से निवृत्त होकर सुबह 5
बजे से 10 बजे
तक में से केवल 3 घण्टे अध्ययन को प्रति दिन दीजिए और इसमें चुने
हुए कम से कम 4 प्रश्न याद कीजिए। विश्वास रखिये इन प्रश्नों की संख्या कब बढ़ गयी
आपको पता ही नहीं चलेगा। 10
दिनों में आपका आत्म विश्वास लौट आएगा।
सप्ताहान्त का समुचित प्रयोग करें। आप निश्चित सफल होंगे।
प्रश्न – मेरे पति सहयोगी प्रवृत्ति के हैं मेरा बच्चा छोटा है मेरे
से चिपका रहता है कब और कैसे पढ़ूँ ?
उत्तर – ऐसी स्थिति में आपको समय प्रबन्धन की आवश्यकता है जल्दी सोना
और जल्दी उठना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है यह
सोचकर आप दोनों समय का ऐसा विभाजन करें कि आप दोनों बच्चे की देखभाल के साथ पूरी
नींद ले सकें। पूरी नींद लेने से अधिगम सशक्त होता है यदि आप रात्रि 8 बजे से दो बजे तक सोने का क्रम रखें ,हॉस्टल वाले बच्चों की तरह तो सुबह 2 बजे से पाँच, छः बजे तक अच्छी पढ़ाई हो सकती है बशर्ते की आप यह दिन में नोट कर लें
कि रात्रि में क्या क्या याद करना है। सुबह उठने पर आप 30 मिनट प्राणायाम हेतु निकाल कर अपनेआप को
रीचार्ज कर सकती हैं। पाँच छः दिन में
स्थिति अनुकूल हो जाएगी स्वास्थय का पूरा ध्यान रखना है।
प्रश्न – मैं एम० एड ० प्रथम वर्ष का छात्र हूँ आठ घण्टे की प्राइवेट फर्म में सेवा व दो घण्टे
आने जाने के व्यय करके जीवनयापन कर रहा हूँ मेरा अवकाश सोमवार को पड़ता है इसलिए
केवल सोमवार को व कभी छुट्टी लेकर महाविद्यालय जा पाता हूँ।कब व कैसे तैयारी करूँ ?
उत्तर – जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते
हैं। … ये पंक्तियाँ आपको दिशा देंगीं। आप दो दो हफ़्तों में पूरे होने वाले लेक्चर्स
यू ट्यूब – Education
Aacharya पर
देख सुन सकते हैं और वो भी एक घण्टे से भी कम समय में,यानी जब आप बस यात्रा कर रहे होते हैं। यदि
लिखा हुआ मैटर चाहिए तो educationaacharya.com
से ले सकते हैं। शेष आप जो भी समय निकाल सकते
हैं उसे 40 मिनट के कालांश में तोड़ लें व सलेक्टेड स्टडी
करें। कुछ भी असम्भव नहीं है।
प्रश्न – मेरा प्रायोगिक कार्य पूर्ण है लघु शोध भी हो चुका है लेकिन
अब परीक्षा में लगभग एक माह शेष है प्रश्नों की तैयारी एम० एड ० परीक्षा हेतु कैसे
करूँ ?
उत्तर – घबराने की बिल्कुल
आवश्यकता नहीं है इतना प्रायोगिक कार्य पूर्ण होने पर अब समस्त ध्यान पढ़ने पर ही
लगाने की आवश्यकता है ,आप यूनिट के हिसाब से 10 -10 उद्धरण (Quotation) लिख लिखकर याद करें। प्रश्न
के शीर्षक उपशीर्षक बार बार लिखकर याद करें। अलग अलग तरह के प्रश्नों में
अपने याद किये उद्धरण प्रयुक्त करने की कला
सीखें। निश्चित रूप से आप अच्छा कर पाएंगे। स्वयं योजना बनाकर विगत वर्षों के
प्रश्नपत्रों के आधार पर अपने उत्तरों को व्यवस्थित करें।अवश्यमेव कल्याण होगा।
प्रश्न – मैं बी० एड ० द्वित्तीय वर्ष की विद्यार्थी हूँ मेरा लेख
बहुत खराब है ब्लैक बोर्ड स्किल से डर लगता है वैसे मैं याद सब कर लेती हूँ सुना
भी सकती हूँ पर लेख कैसे सुधारूँ ?
उत्तर – महाकवि वृन्द ने कहा –
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात तें, सिल
पर परत निशान।
इसी में आपके प्रश्नका उत्तर छिपा है आपको निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है यह ध्यान
रखना है अक्षर सीधे लिखे जाएँ अक्षर और अक्षर के बीच की दूरी व शब्द और शब्द की
दूरी बराबर रखी जाए। पंक्तियाँ एक दूसरे के समानान्तर रहें। शीघ्र ही वाँछित लाभ
मिलेगा। अभ्यास में निरंतरता रखें।
प्रश्न – मैं सॉफ्ट बॉल और मेरी बहिन कबड्डी की खिलाड़ी हैं अभी हम
दोनों अन्तर्विश्वविद्यालयी प्रतियोगिता से लौटे हैं क्रीड़ा की तैयारी में पढ़ाई
कहीं पीछे छूट गई अब 30 –
35 दिनों में
परीक्षा की तैयारी कैसे करें ?
उत्तर – आपसे बस यह कहना है –
करे कोशिश अगर
इंसान तो क्या क्या नहीं मिलता
वो सिर उठा कर तो
देखे, जिसे रास्ता नहीं मिलता,
भले ही धूप हो काँटे
हों राहों में मगर चलना तो पड़ता है,
क्योंकि किसी प्यासे
को घर बैठे कभी दरिया नहीं मिलता।
स्वस्थ शरीर में
स्वस्थ मष्तिष्क निवास करता है उचित रणनीति, सही
समय विभाजन, लिख लिखकर अभ्यास, विगत वर्षों के प्रश्न पत्र सभी आपकी मदद को
तैयार बैठे हैं। विश्वास रखें और एक भी दिन खराब न जाने दें ,गुरुओं से निर्देशन लें। पूर्ण विश्वास है मैदान की तरह परीक्षा में में भी आपका प्रदर्शन
लाजवाब रहेगा।
प्रश्न – मैं MSW का
छात्र हूँ मेरी समस्या यह है कि मैं याद
किया हुआ परीक्षा कक्ष में भूल जाता हूँ, क्या
करूँ ?
उत्तर – कई विद्यार्थी इस
समस्या से ग्रस्त हैं सबसे पहले अपने खान पान की आदत में सुधार करना है अधिक
गरिष्ठ भोजन से बचना है और तजा सुपाच्य भोजन करना है जब कुण्डलिनी की सारी शक्ति
भोजन पचाने में लगी रहती है तब भी ऐसा देखने को मिलता है। दूसरे आत्मविश्वास
विकसित करना है प्रश्नो को निश्चित समय
में खुद लिखकर अभ्यास करना है। पर्याप्त पानी का सेवन करना है। प्राणायाम, व्यायाम, ध्यान
को दिनचर्या का हिस्सा बनाना है। निश्चित रूप से आशातीत सफलता मिलेगी।
प्रश्न – मैंने PCM ग्रुप से B.Sc. की है बी० एड ० के बाद ईश्वर कृपा से नौकरी भी मिल गई है हाई स्कूल
को पढ़ाता हूँ अब की M.A राजनीति शास्त्र का प्राइवेट फार्म भरा है,इसमें तो फार्मूले भी नहीं होते,
इतना
सारा कैसे लिखा जाएगा ?
उत्तर – आप अध्यापक हैं कई विद्यार्थियों के प्रेरणा स्रोत,निश्चित रूप से आपने कहावत सुनी होगी –
जहाँ चाह वहाँ राह
आप यकीन मानिए विचार संसार की सबसे ताकतवर शक्ति है और जब आप दृढ़
इच्छा शक्ति से इस दिशा में कार्य करेंगे तो कई पथ प्रकाशित होते चले जाएंगे रही
बात फार्मूले की तो वो आप यहां भी बना सकते हैं प्रत्येक शीर्षक का पहले अक्षर को
लेकर मिला लीजिये फार्मूला तैयार है। मानलीजिए आपको अपने प्रश्न के उत्तर में 10
उप शीर्षक देने हैं तो आप हेड्स याद करने के साथ 10 अक्षर का फार्मूला बना लीजिये
वह दसों शीर्षक क्रम से याद आते जाएंगे।
यहाँ मैंने अपनी क्षमता भर आपके प्रश्नों का समाधान देने का प्रयास
किया है लेकिन याद रखें एक ही समस्या के कई समाधान होते हैं इसलिए हिम्मत न हारते
हुए हम सबको तब तक प्रयास करना चाहिए जब तक समस्या समाधान न हो जाए अन्त में आपसे
यही कहूँगा –
आज जो परिचर्चा आपके समक्ष प्रस्तुत है उसका मूल उद्देश्य
विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में अच्छे अंकों की प्राप्ति से है। ध्यान रहे यह
परिचर्चा स्नातक, परास्नातक और प्रशिक्षण कार्यक्रम को ध्यान में
रखकर की जा रही है। कोरोना काल में प्रश्नों की संख्याऔर समय में जो कमी की गयी थी
वह सामान्य स्थिति में पुनः पहले जैसी रहेगी अर्थात वही तीन घण्टे वाला
प्रश्नपत्र। यहाँ पूछे गए प्रश्नों के आधार पर प्रभावी उत्तर लेखन (प्रस्तुतीकरण)
सम्बन्धी मत दिए जा रहे हैं जिससे निश्चित रूप से अच्छे अंक प्राप्त होंगे।
A -दीर्घ उत्तरीय प्रश्न [Long Answer Type Question]
B – लघु उत्तरीय प्रश्न [Short Answer Type Question]
C – शब्द संख्या वाले प्रश्न [word count question]
D – अति लघु उत्तरीय प्रश्न [Very Short Answer Type Question]
A –दीर्घ उत्तरीय प्रश्न [Long Answer Type Question] –
1 – प्रश्न
सावधानी से पढ़ें और केवल पूछी गई बात का ही उत्तर दें अनावश्यक नहीं।
2 – प्रश्न
में ध्यान से देखें क्या अंक विभाजन दिया गया है ?यदि हाँ ,तो उत्तर उसी आधार पर लिखा जाना चाहिए। यदि 16 अंक के प्रश्न में 4 +6 +6 लिखा है तो उत्तर में इस अनुपात का ध्यान रखकर प्रभावोत्पादकता सृजित
करनी है।
3 – बड़ा
बड़ा लिखकर पृष्ठ भरने का अनर्गल प्रयास कदापि न करें। सम्यक लिखें।
4 – परीक्षक
को धोखा देने का कोई प्रयास न करें अपने ऊपर और अपने लेखन कौशल पर नियन्त्रण रखें।
रटे हुए शीर्षक की जगह प्रश्न में पूछे गए तथ्यों को शीर्षक के रूप में प्रयोग
करें।
5 – अपनी
बात के समर्थन में विद्वानों के उद्धरण ( Quotes ) या तथ्यात्मक तर्क(Logic) दें। इन्हें अलग रंग की स्याही से लिख सकते हैं
(वर्जित रंग को छोड़कर), रेखांकित(Under Line ) भी किया जा सकता है।
6 – स्वयम् बनाकर उद्धरण (Quotation)
न लिखें यह विद्वान् परीक्षकों द्वारा सहज ही
पकड़ लिए जाएंगे और आपके सम्पूर्ण मूल्यांकन पर विपरीत प्रभाव डालेंगे।
7 – उद्धरण को इस तरह लिखें कि वह स्पष्ट नज़र आये
यद्यपि आज डॉट पेन या बाल पेन से लिखने का चलन है लेकिन यदि आप इंक पेन या निब
वाले पेन से लिखने के अभ्यस्त हैं तो इससे लिखें यदि प्रतिबन्ध नहीं है।
8 – कोई ऐसा अवसर नहीं छोड़ना है जिससे प्रभाव पैदा
किया जा सके।
9 – वास्तव में आपके नोट्स ही वह अवलम्ब हैं जो
आपको संतुलन या सकारात्मकता प्रदान करते हैं।
10 – योजना, प्रदर्शन, परिमार्जन का चक्र आपके प्रश्नोत्तर लिखने के
कौशल में निरन्तर सुधार करेगा।
B – लघु उत्तरीय प्रश्न [Short
Answer Type Question] –
1 – लघु उत्तरीय प्रश्न हल करने में ध्यान रखना है
कि अति अल्प में प्रभाव पैदा करना है।
2 – केवल उतना ही लिखें जो प्रश्न की मांग हो।
3 – उत्तर बिन्दुवार लिखने का प्रयास करें।
4 – यदि प्रश्न में चार कारण या पाँच उपाय जो व
जितना पुछा है उतना ही लिखें।
5 – समय के साथ यथायोग्य साम्य रखें।
6 – गागर में सागर भरने का प्रयास करें लेकिन जितने
अंक का प्रश्न है उसी के अनुसार लिखना है।
C – शब्द संख्या वाले प्रश्न [word
count question]-
कभी कभी प्रश्न अपने उत्तर हेतु शब्द संख्या का निर्देश साथ लेकर आता
है और इसी से उसके आकार का पता चलता है पुछा जा सकता है कि 2000 शब्दों में उत्तर दें या 100 शब्दों में लिखें।
उक्त स्थिति में आपके द्वारा लिखे एक पंक्ति के शब्दों को गईं लीजिये
और उसके आधार पर तय कीजिये की उत्तर कितने स्थान में देना है।
उदाहरण स्वरुप यदि मैं एक पंक्ति में औसतन 10 शब्द लिखता हूँ तो 100 शब्दों हेतु 10 पंक्तियाँ पर्याप्त हैं इससे थोड़ा बहुत ज्यादा
हो सकता है पर कई पृष्ठ लिखना असंगत होगा।
पूरे उत्तर के शब्द गिनने
में समय बरबाद न करें पहले ही अन्दाज विकसित करें घर पर लिखकर भी ठीक विचार कर
सकते हैं। प्रश्न पात्र बांटने से पहले पृष्ठ की पंक्तियाँ गिन सकते हैं।
शब्द सीमा देने का सीधा आशय यह होता है कि प्रश्न के अनुसार उत्तर की
चाह स्पष्ट की गयी है।
D – अति लघु उत्तरीय प्रश्न [Very
Short Answer Type Question]-
कतिपय विश्व विद्यालय सभी तरह के प्रश्न ,प्रश्नपत्र में शामिल करते हैं जिससे अधिक से
अधिक पाठ्य क्रम का प्रतिनिधित्व प्रश्न पात्र कर सके। इसमें अति लघु उत्तरीय
प्रश्न विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करते हैं। यह संक्षेप में उत्तर की माँग,
एक शब्द में उत्तर की माँग या बहु विकल्पीय
प्रकार के हो सकते हैं।
इनका उत्तर लिखने में स्पष्टता एक विशेष गुण है जिस खण्ड या भाग का
यह प्रतिनिधित्व करते हैं वह लिखें ,और प्रश्नपत्र में इनके लिए निर्धारित प्रश्न
नम्बर का उल्लेख करें व प्रश्न की प्रकृति के अनुसार उत्तर लिखें।
अन्त में यह अवश्य कहूँगा की प्रश्न पात्र प्रारम्भ होने से ठीक पहले
ित्तरों को लेकर कोइ बहस न करें शांत चित्त से आत्म विश्वास से युक्त होकर परीक्षा
कक्ष में जाए प्रसन्न रहें और प्रसन्न रहने दें अनायास किसी से न उलझें क्षमा करें, क्योंकि समय केवल आपका जाया होगा।
परीक्षा हेतु समस्त राष्ट्रीय ऊर्जाओं को हार्दिक शुभ कामना।
मूल्य शब्द अंग्रेजी के value शब्द का समानार्थी है
यह लैटिन भाषा के Valare शब्द से बना है और इसका अर्थ है योग्यता या
महत्त्व। इसे संस्कृत में इष्ट कहा जाता है इष्ट का अर्थ है “वह जो इच्छित
है।” वास्तव में मूल्य वह
मानदण्ड हैं जिसके द्वारा लक्ष्यों का चुनाव किया जाता है मूल्य एक व्यवस्था है
मूल्य यथार्थ तथा आदर्श के विभेद के मध्य संयोजक की भूमिका का निर्वहन करते हैं
मूल्यों का बोध विवेक शक्ति उत्पन्न होने पर ही सम्भव होता है। मूल्य चाहे
व्यावहारिक हों या आदर्शवादी, पारमार्थिक हों या
नैतिक। यह सभी मानव को नैतिक जीवन जीने में सहायक होते हैं।
मूल्य सम्बन्धी भारतीय
दृष्टिकोण –
भारतीय मनीषियों ने मानवीय मूल्यों की विवेचना के कल्याण की कामना करते हुए की है हमारा आदर्श
है गरुण पुराण के यह शब्द –
सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥
भारतीय मनीषियों ने मूल्य के लिए पुरुषार्थ शब्द का
प्रयोग किया है इनके आधार पर मूल्य इस प्रकार हैं –
अर्थात्:— धर्म के ये दस लक्षण होते हैं:- धृति
(धैर्य), क्षमा, दम (मन को अधर्म से
हटा कर धर्म में लगाना) अस्तेय (चोरी न करना), शौच (सफाई), इन्द्रियनिग्रह, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध (क्रोध न
करना)।
इन दस गुणों से युक्त व्यक्ति धार्मिक है शिक्षोपरान्त
आचार्य शिष्य को उपदेश देता था –
सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः
अर्थात सामाजिक गृहस्थ जीवन में सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य
मत करो।और इस प्रकार मूल्यों को दिशा दी गयी है।
यद्यपि चार्वाक दर्शन सुखवादी है। वह साधन और साध्य में
अन्तर नहीं मानता। वह साध्य को सदैव सुख मानता है चार्वाक अर्थ और काम दो ही मूल्य
मानता है। खाओ पीओ और मौज करो यही उसके मूल्य हैं जब कि अन्य दार्शनिक काम को
निम्न कोटि का मूल्य मानते हैं।
पाश्चात्य दृष्टिकोण –
प्लेटो के अनुसार
1 – मूल्य बुद्धि ग्राह्य है न कि इन्द्रिय
ग्राह्य पदार्थ
2 – मूल्य और सात का मौलिक अभेद है
3 – मूल्य निरपेक्ष, नित्य स्वरुप सत विषय
है
4 – ज्ञान का परायण क्षेय और क्षय में श्रेष्ठता
का सम्पर्क अथवा प्रमाण
5 – भौतिक और सामाजिक स्तर पर वस्तु का द्योतक
वस्तु की नियत रूपता एवम् उसके घटकों का परस्पर अवरोध मूल्य है।
ह्यूम और सिजविक ने “मनुष्य के नैतिक जीवन को
द्वन्दात्मक प्रवृत्तियों का विकास निरूपित कर स्वार्थ और परमार्थ के सहज बोध को
मूल्य की संज्ञा दी है।”
अर्बन के अनुसार – “मूल्य वह है जो मानव इच्छाओं की
तुष्टि करे। ”
जेम्सवार्ड ने मूल्य को इच्छाओं की सन्तुष्टि करने वाली
वस्तु बताया है इच्छा की पूर्ति से सुख का अनुभव होता है इस प्रकार सुखानुभूति में
मूल्य की अनुभूति होती है।
हॉफ डिंग के अनुसार -“मूल्य वस्तु या विचार में
निहित वह गुण है जिससे हमें तात्कालिक सन्तुष्टि मिलती है या उस संतुष्टि के लिए
साधन मिलता है। ”
मूल्यों का सङ्कट (VALUE CRISIS
)
आज मूल्य परक अवधारणा में बदलाव आ रहा है पुराने भारतीय
मूल्य लुप्त हो रहे हैं हमारी मान्यताएं परम्पराएं और प्राथमिकताएं बदल रही हैं हम
आध्यात्मिकता को नकार कर पाश्चात्य जगत के जीवन मूल्यों और उनकी भौतिकवादी सभ्यता
को अपनाते जा रहे हैं हमारे जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है प्रसिद्द
अर्थशास्त्री ग्रेशम का नियम है कि
“खोटा
सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है। ”
हमारे मूल्यों पर ग्रेशम का नियम पूरी तरह
लागू हो रहा है इन मूल्यों के क्षरण के पीछे निम्न कारण उत्तरदाई हैं। –
1 – आधुनिकता का प्रभाव
2 – पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण
3 – भौतिकता वादी सभ्यता के प्रति अप्रत्याशित मोह
4 – अनीश्वरवादी प्रवृत्ति
5 – तर्क प्रधान चिन्तन
6 – वैज्ञानिक प्रवृत्ति का अधकचरा विकास
क्षरण की इस प्रवृत्ति के बावजूद मानवीय मूल्यों का
ह्रास हुआ है नाश नहीं। अवश्य ही वे दब गए हैं परन्तु नष्ट नहीं हुए। भारतीय
संस्कृति आज भी जीवित है जबकि यूनान मिश्र और रोम की संस्कृतियां विलुप्त हो गईं।
भारतीय संस्कृति अपनी प्राचीन धरोहर के रूप में मूल्यों को आज भी संचित किये हुए
है।
उभरते सामाजिक सन्दर्भ में मूल्य (Values
in Emerging Social Context) –
आज देश को अपने सामाजिक ढाँचे को मजबूत करने की सर्वाधिक
आवश्यकता महसूस हो रही है देश द्रोही शक्तियां येन केन प्रकारेण इसमें सेंध लगाकर
मूल्यों को छिन्न भिन्न करने का हर सम्भव प्रयास कर रही हैं। उभरते सामाजिक
सन्दर्भ में निम्न आधारित मूल्यों का सृजन व संरक्षण करना होगा।
परिवारों,व्यक्तियों,और अन्य स्तर के लोग जब समाज के एक वर्ग से दूसरे वर्ग में गति करते हैं तो इसे सामाजिक गतिशीलता कहते हैं इससे उसकी सामाजिक स्थिति में बदलाव हो जाता है। अर्थात एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति को प्राप्त करना सामाजिक गतिशीलता कही जाती है।
मिलर और वूक के शब्दों में –
“व्यक्तियों अथवा समूह का एक सामाजिक दूसरे
संचलन होना ही सामाजिक गतिशीलता है।”
“Social mobility is a movement of individuals or
group from one social class stratum to another.”
पी ०सोरोकिन महोदय के अनुसार –
“समाजिक गतिशीलता का अर्थ समाजिक समूहों
एवं सामाजिक स्तरों में किसी व्यक्ति का एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक
स्थिति में पहुँच जाना है। ”
By social mobility is meant any transition of an
individual from one social position to another in constellation of social group
and strata.”
कार्टर वी गुड के अनुसार –
“सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है -व्यक्ति या मूल्य
का एक समाजीक स्थिति से दूसरी समाजिक स्थिति में परिवर्तन।”
“Social mobility is the change of person or value from
one social position to another.”
समाजिक गतिशीलता, शैक्षिक विकास के सम्बन्ध में Social mobility in reference to educational development-
सामाजिक गतिशीलता और शैक्षिक विकास आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए
पहलू हैं जहां शिक्षा सामाजिक गतिशीलता में प्रभावी वृद्धि करती है वहीं सामाजिक
गतिशीलता के फलस्वरूप यह ज्ञात होता है की शिक्षा में इस हेतु कौन से सुधार आवश्यक
हैं यह अन्योनाश्रित गुण इनकी वर्तमान में उपादेयता परिलक्षित करता है। शैक्षिक
विकास द्वारा सामाजिक गतिशीलता की वृद्धि इन बिंदुओं द्वारा दर्शाई जा सकती है। –
1 – विद्यालय की प्रभावी भूमिका –
वस्तुतः जिस शिक्षा के आधार पर सामाजिक स्थिति में परिवर्तन होता है
वह विद्यालयों की देन है कार्ल वीनवर्ग के शब्दों में –
“विद्यालय का प्रमुख कार्य, नवीन मार्ग प्रशस्त करना तथा इनमें सभी को स्थान देना है जिससे वह
सामाजिक गतिशीलता के बदलते हुए ढाँचे के साथ कदम मिला सके। विद्यालय इस कार्य को
तभी पूरा कर सकता है जब वह सभी प्रकार के आर्थिक स्तरों के बालकों को अपनी उन्नति
के लिए व्यापक अवसर प्रदान करेगा।”
“The function of the school in keeping pace with the
changing structure of social mobility has been to open channels and keep them
open. This is accomplished by providing widespread opportunities to children of
all economic statutes to advance their position.”
2 – औपचारिक शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता का अधिक प्रभावी साधन –
यह निर्विवाद सत्य है की बहुत से शैक्षिक संवर्धन के साधन अस्तित्व
में हैं लेकिन औपचारिक शिक्षा इस गतिशीलता का सशक्त साधन है मिलर और वूक लिखते हैं –
“औपचारिक शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता से प्रत्यक्ष रूप में तथा कारणतः सम्बन्धित है। इस
सम्बन्ध को सामान्यतः इस रूप में समझा जाता है की शिक्षा स्वयं शीर्षात्मक सामाजिक
गतिशीलता का एक प्रमुख कारण है। ”
“Formal education is directly and causally related to
social mobility. Than relationship is generally understood to be one in which
formal education itself is a cause or one of the causes of vertical social
mobility.”
3 – सार्वभौम अनिवार्य शिक्षा दृष्टिकोण –
शासन का यह दृष्टिकोण भी गतिशीलता की वृद्धि में सहायक है क्योंकि एक
स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिक्षा के सम्बन्ध में परिपक़्व दृष्टिकोण
विकसित हो जाता है। भारत जैसे देश में जहां बेटे और बेटियों के प्रति दृष्टिकोण
में भिन्नता देखने को मिल जाती है वहां इस व्यवस्था से बेटे और बेटियां दोनों
लाभान्वित हो रहे हैं और पारिवारिक प्रगति का आधार बन रहे हैं।
4 – विविध पाठ्यक्रम
5 – प्रशिक्षण व व्यावसायिक पाठ्यक्रम
6 – वैज्ञानिक,
तकनीकी
व शोधपरक शिक्षा
7 – शैक्षिक अवसरों की यथार्थ समानता
8 – शिक्षक और सामाजिक गतिशीलता
अन्ततः यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश की
प्रगति उसके यहाँ होने वाले सामाजिक उन्नयन या सामाजिक गतिशीलता पर निर्भर है और
निः सन्देह शिक्षा का इस क्षेत्र में महत्त्व पूर्ण योगदान है और रहेगा लेकिन इसका
अभाव पतन की कहानी लिखेगा नयी शिक्षा नीति भी अध्यापकों के साथ यदि न्याय हेतु
अपने को तैयार नहीं कर पाई तो वांछित परिणाम नहीं मिलेंगे।