क्रोध एक मानसिक भाव है शरीर का सॉफ्टवेयर बिगड़ने का संकेत है इसमें आवाज ऊँची होने लगती है मुखाकृति बिगड़ने लगती है बुराइयों का ज्वार उठने लगता है एक एक पुरानी भटकी हुई बातें याद आने लगती हैं एक दूसरे में कमी के सिवाय कुछ नहीं दीखता, मति भ्रम कब पैदा हुआ, कब नासूर बना। सम्बन्ध कब तिरोहित हुए। सब कुछ अनहोनी शीघ्रता से घाटित हो जाती है थोड़े से सजग रहकर इस अनहोने घटना क्रम से बचा जा सकता है। सम्बन्धों के रिक्ताकाश को लबालब प्रेम से भरा जा सकता है। क्रोध से निपटना दुष्कर अवश्य लगता है पर यह असम्भव कदापि नहीं है।
आइए जानने का प्रयास करते हैं कि समस्त विवाद
का मूल क्रोध का कैसे नाश किया जा सकता है ?
क्रोध शान्त करने के उपाय (Ways to calm anger) –
मानव की मूल प्रकृति शान्ति है लेकिन यह भी अटल सत्य है कि कुछ
परिस्थितियां मानव को क्रोध दिलाने में सक्षम हैं हालाँकि कोई क्रोध को जानबूझ कर
अपना स्वभाव बनाना नहीं चाहेगा। अपनी मूल प्रकृति शान्ति की और लौटने तथा वाणी के
घाव से खुद और दूसरे को बचाने के लिए कुछ उपाय प्रयोग में लाए जा सकते हैं आइए
ध्यानपूर्वक संज्ञान में लेने का प्रयास करते हैं। –
स्वभाव में परिवर्तन –
परदोष देखने
के मानवीय स्वभाव ने समाज में क्रोध के स्तर का उन्नयन किया है अपनी आदतों की और
ध्यान देना चाहिए स्वयम् का विश्लेषण करने का प्रयास होना चाहिए। कुछ भी अनायास
नहीं होता और प्रयास अन्ततः सफल होता है मिलनसार स्वभाव बनाना है यह हमेशा ध्यान
रखना चाहिए। व्यवहार परिवर्तन की शुरुआत स्वभाव परिवर्तन की अनुगामी होती है। हमें
गिले शिकवे की आदत नहीं बनानी है। अपने व्यवहार का रिमोट अपने पास ही रखना है भूल
कर भी नियन्त्रण नहीं खोना है। याद रखें हम स्वयम् में परिवर्तन शीघ्र ला सकते हैं
दूसरे में नहीं। इसीलिए कहना चाहूँगा –
स्वभाव
में सु परिवर्तन का आगाज़ हो जाए,
स्वयम्
की गलतियों का हमें दीदार हो जाए,
फिर
क्रोध को न मिल पाएगा कोई ठिकाना,
यदि
स्वभूलों के सुधार का व्यवहार हो जाए।
वाणी सदुपयोग –
कबीर दास जी ने कहा –
“ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन
को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।
इन
शब्दों में क्रोध विनाश का मूल मन्त्र छिपा हुआ है याद रखें सम्राट के क्रोध भरे
वचनों से भिखारी के मधुर शब्द ज्यादा अच्छे लगते हैं। वाणी से लगे घावों का आज तक
कोई मरहम नहीं बना इसीलिये मधुर गरिमामयी वाणी का सोच समझ कर प्रयोग करना चाहिए। अयोध्या
सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘ ने कितने सरल शब्दों समझाया –
लड़कों
जब अपना मुँह खोलो
तुम
भी मीठी बोली बोलो
इससे
कितना सुख पाओगे
सबके
प्यारे बन जाओगे ।
क्षमा –
जब हमसे गलती हो तो क्षमा मांग लेना चाहिए और यदि गलती
अन्य की हो तो उदारता से क्षमा कर देना चाहिए ध्यान रखना है कि क्षमा माँगने का
अधिकार क्षमा देने की बुनियाद पर खड़ा है क्षमा से आनन्द का वह प्रवाह जीवन से
जुड़ता है जो क्रोध तिरोहित कर जीवन को आनन्दमयी बना देता है रहीम दास जी ने कितना
सुन्दर कहा –
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात,
का रहीम हरी को घट्यो, जो भृगु मारी लात।
याद रखें क्षमा के प्रभाव से जवानी में गुस्सा मन्द और
बुढ़ापे में बन्द हो जाता है।
सत्संग –
सत्संग का मानव पर व्यापक प्रभाव पड़ता है सकारात्मक
परिवर्तन की चाह का प्रादुर्भाव सत्संग के प्रभाव से आता है और मानव मन पर फिर ऐसी
अमिट छाप पड़ती है कि बुरी मनोवृत्ति की छाया सत्संगी पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाती
रहीम जी ने कितना अच्छा समझाया है –
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग,
चंदन विष व्यापत
नहीं लिपटे रहत भुजंग
गहरी श्वाँस –
गहरी गहरी श्वाँस और इनकी निरन्तरता किसी भी
क्रोध आवेग का क्षरण करने का अचूक उपाय है इससे जहाँ ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा
का हम सेवन करते हैं वहीं समस्या पर विचार मन्थन का पर्याप्त समय मिल जाता है।
स्थान परिवर्तन व पूर्ण श्वाँस प्रश्वाँस क्रोध शमन में वह कार्य कर जाता है जो कई
बार वह पूर्वाग्रह युक्त मष्तिष्क नहीं कर पाता। इसी लिए कहता हूँ –
पूर्ण श्वांस प्रश्वांस का क्रम
वह जादू सा कर जाता है।
क्रोध आवेग और मतिभ्रम
सब का हरण कर जाता है।
06- कामना नियन्त्रण –
कामना
नियन्त्रण एक दुष्कर कार्य है असम्भव नहीं। कामना में बाधा पड़ने पर क्रोध उत्पन्न
हो जाता है इसीलिये यह जानना परमावश्यक है की आखिर कामना का जन्म कैसे हो जाता है
यह जन्म पाती है रूप, रस, गन्ध
आदि प्रधान कारणों से, इसका आधार होती हैं इन्द्रियाँ। इन्द्रियों पर
नियन्त्रण का सबल आधार है सच्चा अध्यात्म, कामना
अर्थात इच्छा भोग प्रवृत्ति से जन्म लेती है और योग इस पर अंकुश में सहायक है।
07- क्षमता सदुपयोग –
ज्यों
ज्यों हमारी क्षमता में वृद्धि होती है सामान्यजन विवेक खोने लगता है और क्रोध मद
में वृद्धि होने लगती है,
जोकि क्षमता का दुरूपयोग कराती है इसके उदाहरण
हमें यत्र तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं। इसे साधने की क्षमता विवेक युक्त ज्ञान के
पास है। हमारी आत्मिक शक्ति ही दिशा बोध पैदा कर
सकती है। क्षमता के साथ विवेक जन्य संयम आवश्यक है। educationaacharya.com पर ‘हमें
क्रोध क्यों आ जाता है’ रचना में यह प्रश्न उठा है जिसका लिंक मैं
डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दे दूँगा।
08- सम्यकविवेचन –
आज
होने वाले विवादों से उत्पन्न क्रोध सम्यक विवेचन के अभाव के कारण होता है जब दिशा
देने वाली शक्तियाँ और धर्म के तथा कथित मसीहा दिशाबोध स्वयं के स्वार्थ से युक्त
होकर देने लगते हैं तो सामान्य भोलाभाला जनमानस किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है और
क्रोध प्रादुर्भावित हो जाता है। इसीलिये कहा है –
क्रोध
को सिरे से दरकिनार करना चाहिए।
जीवन
छोटा है, बहुत
प्यार करना चाहिए।
किसी
विवाद से पूर्व विचार करना चाहिए।
प्रेम
व सम रसता का प्रसार करना चाहिए।।
09-क्रोध उपवास–
जिस प्रकार अन्न उपवास शरीर में भू तत्व नहीं
बढ़ने देता। अलग अलग उपवास अलग तरह के फल प्रदान करते हैं। ठीक उसी तरह क्रोध उपवास
आपको आनन्द से भर देगा पहले कोई एक दिन चुनें और अपने सेदृ दृढ़ प्रतिज्ञा करें आज
क्रोध उपवास करूंगा कुछ भी हो जाए आज विवाद नहीं करूंगा। हर हाल में उसे टालने का
मन बनाना है। आप देखेंगे वह दिन खुशनुमा होगा। धीरे धीरे इन उपवासों की संख्या बढ़ा
सकते हैं।
10 – एकान्त वास –
यदि
सम्भव हो तो पूर्व निर्धारित समय पर मौन का सहारा ले मोबाइल और तमाम संचार साधनों
से दूर रहकर देखें। अंग प्रत्यंग का चेतना स्तर उच्च हो जाएगा एक विलक्षण शक्ति की
अनुभूति करेंगे लोक कल्याण की भावना आपको और सबल करेगी व्यक्तित्व प्रखर होगा
प्रतिक्रियाओं में जान आएगी। क्रोध पर प्रभावी अंकुश लगेगा। याद रखें, करेंगे तो इसका महत्त्व समझ पाएंगे।
वस्तुतः आत्म साक्षात्कार हेतु साधक को इस गुण का अभ्यास करना ही चाहिए। मन प्रसन्न रहेगा और क्रोध छु मंतर
हो जाएगा।
11 – शान्ति की साधना-
श्री
मद्भगवद्गीता में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण स्वयम् कहते हैं –
नास्ति
बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न
चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
जिसके
मनइन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं ऐसे मनुष्यकी व्यवसाय आत्मिका बुद्धि नहीं होती।
व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी
भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल
सकता है।
वस्तुतः
जहां शान्ति नहीं है वहाँ अशान्ति है ,क्रोध
है, असन्तुलन है, तम है इसीलिए क्रोध मुक्ति हेतु शान्ति परमावश्यक है। इसीलिये शान्ति
के साधक ध्यान, धारणा, समाधि
आदि अन्तरङ्ग साधनों से इसे वरण करने में निरन्तर लगे रहते हैं।
ॐ
शान्ति शान्ति शान्ति।
परमपिता
परमेश्वर से यही प्रार्थना कि हम सब क्रोध पर नियन्त्रण रखना सीख सकें। उक्त
बिन्दु सभी के लिए मददगार साबित होंगे ऐसा विश्वास है। धन्यवाद
पुस्तक समीक्षा एक अत्याधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है क्यों कि पुस्तक का लेखक जहाँ अपने मानस से निकाल कर विषय वस्तु सम्पूर्ण जनमानस को परोसता है वहीं समीक्षक के शब्द, जो की गरिमा पूर्ण विश्लेषण पर आधारित होते हैं विचारक को दिशा भी देते हैं और यह भी बताते हैं कि तत्सम्बन्धी साहित्य का कितनी गहराई से अध्ययन किया गया है और समीक्षक का मानसिक स्तर क्या है।
चूँकि यह एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है इसीलिये इसे
शिक्षा के उच्च स्तरीय पाठ्य क्रम या एम० एड० के पाठ्य क्रम से जोड़ा गया है।
पुस्तक समाज को समर्पित होती है इसलिए लेखन और समीक्षा दोनों ही सामाजिक उत्थान
में योग देते हैं और अत्याधिक सावधानी पूर्वक किये जाने की अपेक्षा रखते हैं।
महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्व
विद्यालय, बरैली
के एम ० एड ० पाठ्यक्रम में Practicum में दिया है – Study of any one thinkers’
original literature (one book) and write review on it. इसी तरह विभिन्न विश्व विद्यालयों ने उच्च
शिक्षा स्तर पर पुस्तक समीक्षा सिखाने का प्रयास किया है। आज कल व्यावसायिक रूप से
यह धनार्जन के क्षेत्र के रूप में भी उभर कर सामने आया है। इसीलिये वर्तमान समय
उच्चकोटि के पुस्तक समीक्षकों की आवश्यकता महसूस कर रहा है।
बदलते परिवेश में पुस्तक समीक्षा,
समीक्षा के साथ कुछ अन्य तथ्यों की आवश्यकताओं
को महसूस करती है इसीलिए पहले की तुलना में कुछ नए बिंदुओं का समावेशन आवश्यक है।
इस सम्बन्ध में अलग अलग विद्वानों की राय अलग हो सकती है। यहाँ आज के दृष्टिकोण से
पुस्तक समीक्षा हेतु बिंदुओं का निर्धारण किया गया है।
पुस्तक समीक्षा (Book Review) लिखने की विधि –
Or
पुस्तक समीक्षा कैसे लिखें ?(How to write a book review?)
किसी भी पुस्तक की समीक्षा
लिखने में सबसे पहले निम्न जानकारी साझा की जनि चाहिए और उसके बाअद मुख्य रूप से
केवल समीक्षा सरल सुबोध भाषा में प्रस्तुत की जानी चाहिए। समस्त बिन्दुओं को इस
प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
⇨ पुस्तक का नाम
⇨ लेखक का नाम
⇨ प्रकाशक
⇨ संस्करण
⇨ मूल्य
⇨ मुद्रक
⇨ समीक्षा –
पुस्तक को समीक्षा हेतु सम्यक भागों में विभक्त
कर लेना चाहिए और उन खण्डों को विषय वस्तु, चरित्रों, सम्वादों, भावनाओं, प्रस्तुति, प्रभाव उत्पादकता,
तुलना, प्रासंगिकता, भाषा शैली, गुणधर्मों आदि सम्यक मानदण्डों की कसौटी व
विश्लेषण के आधार पर समीक्षा की जानी चाहिए।
⇨ समीक्षक
का नाम, हस्ताक्षर
व दिनाँक सहित
पुस्तक समीक्षा में ध्यान रखने योग्य तथ्य [Facts
to keep in mind in book reviews]-
01 – विषय वस्तु को गम्भीरता पूर्वक कई बार देखा, सुना, पढ़ा और समझा जाना
चाहिए।
02 – सभी आवश्यक सूचनाओं का संग्रहण किया जाना
चाहिए।
03 – सम्यक दृष्टिकोण रखा जाना चाहिए।
04 – यह समीक्षा जिन लोगों के बीच जानी है उनके
स्तर को संज्ञान में रखा जाना चाहिए।
05 – आप किसी अन्तिम निर्णय पर किस आधार पर
पहुँचे? स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए।
0 6 – अपने प्रस्तुत विचार
को तर्काधार भी दिया जाना चाहिए।
07 – जिस भाषा में समीक्षा
लिखी जा रही है उसकी भाषा शैली पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।
08 – तुलना (Compare) और व्यतिरेक (Contrast) की सूक्ष्मताओं को जटिलता से बचाकर सहज, सरल, बोधगम्य और सम्प्रेषणीय बनाया जाना चाहिए।
09 – सम्पूर्ण का सारांश
देने से बचाव रखते हुए आवश्यक विषय वस्तु, तथ्य, समीक्षा के घेरे में मर्यादित ढंग से लिए
जाने चाहिए।
10 – याद रखें, यह प्राक्कथन नहीं है हमारी भाषा शैली, प्रस्तुति, तुलना आदि सभी में समीक्षात्मक दृष्टिकोण
दीख पड़ना चाहिए।
11 – पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ वाक्य, पसन्दगी या नापसन्दगी
का कारण, आकर्षित होने का कारण समाहित किया जाना
चाहिए।
12 – अन्त में बिना कोई भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण
रखे हुए मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
शैक्षिक समाजशास्त्र का अर्थ एवम् परिभाषा( Meaning and Definition of Educational
Sociology)-
समाजशास्त्र में मानव और समाज को प्रमुखता दी जाती है जबकि मानव,शिक्षा,समाज
और इनके तत्सम्बन्धी अंग शैक्षिक समाजशास्त्र की विषय वस्तु हैं। वस्तुतः शैक्षिक
समाज शास्त्र, समाजशास्त्र की ही एक शाखा है जिसमें समाज का शिक्षा
पर प्रभाव, सामाजिक सम्बन्धों और इसके विभिन्न पहलुओं का
वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। प्रसिद्द समाजशास्त्री जार्ज पैनी
महोदय का विचार है –
” By Educational Sociology we mean the science which
describes and explains the institution, social groups and social process, that
is the social relationships in which on through which the individual gains and
organised his experiences.”
”शैक्षिक समाज विज्ञान से हमारा अभिप्राय उस विज्ञान से है, जो संस्थाओं, सामाजिक समूहों और सामाजिक प्रक्रियाओं का, अर्थात उन सामाजिक सम्बन्धों का वर्णन और
व्याख्या करता है,
जिनमें
या जिनके द्वारा व्यक्ति अपने अनुभवों को प्राप्त और संगठित करता है।”
ब्राउन महोदय के अनुसार –
“Educational Sociology is the study of the interaction
of individual and his cultural environment.”
“शैक्षिक समाजशास्त्र व्यक्ति तथा उसके सांस्कृतिक वातावरण के बीच
होने वाली अन्तः क्रिया का अध्ययन है।”
गुड महोदय के अनुसार –
”Educational Sociology is the scientific study of how people
live in social groups, especially including the study of education that in
obtained by the living in the social groups and education that is headed by the
members to live efficiently in social groups.”
”शैक्षिक समाजशास्त्र इस बात का वैज्ञानिक अध्ययन करता है की व्यक्ति
सामाजिक समूहों में किस प्रकार रहते हैं, वे कैसी शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा इन सामाजिक समूहों में कुशलता
पूर्वक रहने के लिए उनको किस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती है।”
कार्टर महोदय के अनुसार –
”Educational Sociology is the study of these phases of
Sociology that are of significance for educative process, especially the study
of those that point to valuable programme to learning and control of learning
process.”
”शैक्षिक समाजशास्त्र, समाज शास्त्र के उन तत्वों का अध्ययन करता हैं जिनका शैक्षिक
प्रक्रिया में महत्त्व है और विशेष रूप से उनका अध्ययन करता है जो सीखने की
महत्त्वपूर्ण योजना और सीखने की क्रिया के नियन्त्रण की ओर संकेत करते हैं।”
शिक्षा का समाजशास्त्र (Sociology of Education)-
विकीपीडिया(Wikipedia) के
अनुसार
”The Sociology of Education is the study of how public
institutions and individual experiences affect education and its outcomes. It
is mostly concerned with the public schooling systems of modern industrial
societies, including the expansion of higher further, adult and higher
education.”
“शिक्षा का समाजशास्त्र इस बात का अध्ययन है कि सार्वजनिक संस्थान और
व्यक्तिगत अनुभव शिक्षा और उसके परिणामों को कैसे प्रभावित करते हैं। यह ज्यादातर आधुनिक
औद्योगिक समाजों की सार्वजनिक स्कूली शिक्षा प्रणाली से सम्बन्धित हैं जिसमें आगे
उच्च, वयस्क और सतत शिक्षा का विस्तार शामिल
है।”
शेनेका एम विलियम्स (Sheneka M
Williams) के
अनुसार
The Sociology of Education refers to how individuals’
experiences shape the way they interact with schooling. More specifically, the
sociology of education examines the ways in which individuals’ experiences
affect their educational achievement and outcomes.”
”शिक्षा का समाजशास्त्र यह बताता है की कैसे व्यक्तियों के अनुभव स्कूली
शिक्षा के साथ बातचीत करने के तरीके को आकार देते हैं। अधिक विशेष रूप से, शिक्षा का समाजशास्त्र उन तरीकों की जाँच करता
है जिसमें व्यक्तियों के अनुभव उनकी शैक्षिक उपलब्धि और परिणामों को प्रभावित करते
हैं।”
ओटावे महोदय के अनुसार –
”The sociology of education may be defined briefly as a
study of the relation bitween education and society.”
”शिक्षा के समाज विज्ञान की परिभाषा संक्षिप्त रूप में शिक्षा और समाज
के सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में की जा सकती है।”
अर्थात शिक्षा का समाज शास्त्र ,समाज
शास्त्रीय समस्याओं के निर्वहन में शिक्षा के योगदान पर ध्यान केन्द्रित करता है।
शिक्षा के समाजशास्त्र और शैक्षिक समाजशास्त्र
में अन्तर {Difference between Sociology of Education and
Educational Sociology} –
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर
पहुँचने से पूर्व यह विवेचन करना परमावश्यक है की शिक्षा की समाजशास्त्रीय
समस्याओं के निवारण में क्या भूमिका है समाज के धर्म,
समाज की संस्कृति और स्वरुप से संयुक्त
समस्याओं के निदान में शिक्षा का कहाँ तक प्रयोग हो सकता है शिक्षा की इस भूमिका
का अध्ययन शिक्षा का समाजशास्त्र(Sociology of
Education)
कहा जाता है।
शैक्षिक समाज शास्त्र, शिक्षा को समाजशास्त्रीय धरातल पर विवेचित कर
यह देखने का प्रयास करता है की शिक्षा के क्षेत्र में उठने वाली समस्याओं के
समाजशास्त्रीय समाधान क्या हैं अर्थात समाज शास्त्र के शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव
का अध्ययन ज्ञान की जिस शाखा में किया जाता है उसे शैक्षिक समाजशास्त्र(Educational Sociology) कहते हैं।
शिक्षा के समाज शास्त्र की आवश्यकता,
उपयोगिता
व महत्त्व (Need, Utility and Importance of
Sociology of Education) –
1 – सामाजिक उदग्र व क्षैतिज गतिशीलता में शिक्षा
के प्रभाव का अध्ययन
2 – सामाजिक सम्प्रत्यय स्पष्टीकरण में शिक्षा की
भूमिका
3 – शिक्षा की प्रकृति और स्वरुप का समाज पर प्रभाव
का अध्ययन
4 – सामाजिक मन्तव्यों के निर्धारण में सहायक
5- विभिन्न सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन
6 – समाज की सामंजस्य शीलता की वृद्धि में सहायक
7 – सामाजिक अनुशासन स्थापन में सहयोग
8 – जातिभेद, छुआ छूत आदि भावना से निजात में सहायक
9 – सामाज में वाद प्रतिवाद और सम्वाद,
भाव बोध जगाने में सहायक
वास्तव में शिक्षा का समाज शास्त्र और शैक्षिक
समाज शास्त्र आपस में इतने गुत्थमगुत्था हैं की इन्हे एक सिक्के के दो पहलू कहा जा
सकता है ये अन्योन्याश्रित हैं। इसीलिए इतने समय बाद यह नया प्रत्यय आपके
पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता को समझा गया। यद्यपि इन सूक्ष्मताओं को
शिक्षा शास्त्र के शिक्षार्थी नाते जानना
आवश्यक है। ध्यान यह रखना है की शिक्षा का समाज शास्त्र,
समाज की समस्यायों के निदान में शिक्षा की
भूमिका का अध्ययन सुनिश्चित करता है।
आज आप हों चाहे मैं, इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि जिन्दगी में भाग दौड़ बढ़ी है इस भाग दौड़ और प्रतिस्पर्धा में हम कब बीमारी की गिरफ्त जाते हैं पता ही नहीं चलता। नए नए रोग मानव को डरा रहे हैं इसी तरह की एक व्याधि है कैन्सर यानि कर्क रोग।
इसका डर इतना है कि कुछ लोग इसे सञ्चारी व्याधि मानने लगे हैं जब कि
ऐसा है नहीं। यह रोगी के साथ खाना खाने, पानी
पीने या सोने से नहीं फैलता।
इससे लड़ने के लिए शारीरिक के साथ मानसिक आत्मबल
विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करता है इसीलिये डरें नहीं लड़ें। एस 0 डी 0
शर्मा ‘सन्दल’ कहते
हैं –
यारब उसी को मंजिले मक़सूद हो नसीब
गिर गिर के राहगीर जो दौरे सफर में है।
निरन्तर जिन्दादिली से सफर में रहने के लिए
आत्म प्रेरित होकर ये उपाय अपनाए जा सकते हैं। याद रखें प्रारम्भिक स्तर पर सचेष्ट
हो जाने से 60 % कैन्सर की रोकथाम सम्भव है।
कैंसर
की रोकथाम के उपाय –
मानव
को जीत के आत्मविश्वास के साथ परिस्थिति से भिड़ने को तैयार रहना चाहिए। गजलकार एस
डी शर्मा ने कहा –
दुश्मन
नहीं है मौत ही इन्सान की फ़क़त
खुद
जिन्दगी के हाथ भी इन्सां भँवर में है।
इस
भँवर से बचाने हेतु एक दर्जन उपाय कैंसर
से बचने के यहाँ प्रस्तुत हैं –
1- शराब, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, सिगार, सुपारी, पान
मसाला, गुटका आदि किसी भी नशे का सेवन कदापि न
करें।
2- हरी सब्जी, फल, दालें, रेशे
वाला व विटामिनयुक्त भोजन ग्रहण करें।
3- फलों, सब्जियों
और ऐसे पदार्थों जो कीटनाशक व खाद्य संरक्षण रसायनों के प्रभाव में हैं अच्छी तरह
से धोकर खाने चाहिए।
4- तलने हेतु उसी तेल का बारम्बार प्रयोग या
रिफाइंड का प्रयोग तत्काल प्रभाव से बन्द कर दें।
5- नियमित प्राणायाम, व्यायाम व भ्रमण को दिनचर्या में स्थान दें।
आत्म विश्वास से युक्त प्रेरणादायक मुस्कान से खुद को सजाएं।
6- तले, भुने,अधिक चटपटे भोज्य पदार्थों की जगह उबले सादे
भोजन को तरजीह दें।
7- प्रदूषण मुक्त वातावरण में प्रकृति के सानिध्य
में रहने का प्रयास करें।
8- त्वचा, जिह्वा, होंठ, पित्ताशय, गुर्दा, मूत्राशय, मुख में किसी तरह का दाग, धब्बा और बार बार होने वाला घाव असामान्य है
तुरन्त चिकित्स्कीय परामर्श लें।
9- शरीर में होने वाली गाँठों की जाँच आवश्यक है
नज़र अंदाज न करें। सभी गाँठ कैंसर की नहीं होतीं।
10- लगातार किसी भी तरह का रक्त स्राव घातक है
तत्सम्बन्धी टैस्ट हेतु तुरन्त कुशल चिकित्सक से सम्पर्क कर समाधान करें।
11- शरीर में होने वाला असामान्य परिवर्तन खतरे का
संकेत है चाहे तेजी से वजन का गिरना ही क्यों न हो, निरीक्षित कराया जाना चाहिए।
12- गेहूँ का जवारा, होम्यो पैथी,
आयुर्वैदिक उपचार प्रारम्भिक स्तर पर ही
चिकित्सक की देख रेख में लिया जाना चाहिए।
उक्त उपायों के साथ स्वयं सकारात्मक रूप से
प्रेरित रहें। युवराज, सोनाली बेन्द्रे, आयुष्मान खुराना की पत्नी और डाइरेक्टर ताहिरा
कश्यप ,संजय
दत्त, मनीषा
कोइराला, नफीसा
अली, लीसा
रे आदि ऐसे व्यक्तित्व हैं जो कैंसर को मात देकर जिन्दादिली के हमराह बने। इनके
अलावा बहुत से ऐसे आम नाम हैं जिनसे सभी परिचित तो नहीं लेकिन वे आपके आस पास के
परिक्षेत्र में हैं और यथार्थ प्रेरणा
स्रोत हैं। आज कैंसर से जीता जा सकता है अन्त में शीश महल की पंक्तियाँ जेहन में उकरती हैं –
बोलचाल
की भाषा में सामान्यतः मनोवैज्ञानिक परीक्षण व्यक्ति के व्यावहारिक अध्ययन का वह
साधन है जो उसके प्रति निर्णय लेने एवम् उसे समझने में सहायक होता है इसके द्वारा
व्यक्ति की विभिन्न योग्यताओं का मापन तथा उसके व्यक्तित्व व चरित्र का अध्ययन भी
सम्भव होता है। मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आशय को स्पष्ट
करते
हुए फ्रीमैन (Freeman) ने कहा →
“A
psychological test is a standardized instrument designed to measure objectively
one or more aspects of a total personality by means of other behavior.”
“मनोवैज्ञानिक
परीक्षण वह मानकीकृत यंत्र है जो समस्त व्यक्तित्व के एक पक्ष या अधिक पहलुओं का
मापन शाब्दिक या अशाब्दिक अनुक्रियाओं या अन्य किसी प्रकार के व्यवहार के माध्यम
से करता है।”
मनोवैज्ञानिक
शब्दकोष (Dictionary of
Psychological terms) के
अनुसार →
“मनोवैज्ञानिक
परीक्षण मानकीकृत एवम् नियन्त्रित स्थितियों का वह विन्यास(set) है जो व्यक्ति से अनुक्रिया प्राप्त करने हेतु
उसके सम्मुख पेश किया जाता है। जिससे वह पर्यावरण की माँगों के अनुकूल
प्रतिनिधित्व व्यवहार का चयन कर सके।”
एनस्तेसी
(Anastasi) महोदय कहते हैं →
“A psychological test is essentially an objective and
standardized measure of sample behavior.”
“मनोवैज्ञानिक परीक्षण आवश्यक रूप से व्यवहार के
प्रतिदर्श का एक वस्तुनिष्ठ एवम् मानकीकृत मापन है।”
मन (munn)
महोदय का विचार है →
“Test is an examination to reveal the relative
standing of an individual in the group with respect to intelligence,
personality, attitude or achievement.”
“परीक्षण वह परीक्षा है जो किसी समूह से सम्बन्धित व्यक्ति की बुद्धि,
व्यक्तित्व, अभिक्षमता एवम उपलब्धि को व्यक्त करती है।”
टाइलर
(Tyler) महोदय के अनुसार →
“A test can be defined as a standardized situation
designed to elicit a sample of an individual behavior.”
“परीक्षण वह मानकीकृत परिस्थिति है जिससे
व्यक्ति का प्रतिदर्श व्यवहार निर्धारित होता है।”
उक्त
परिभाषाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह वस्तुनिष्ठ एवम्
मानकीकृत साधन है जिसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवहार के विभिन्न मनोवैज्ञानिक पहलुओं
जैसे योग्यताओं, क्षमताओं, उपलब्धियों, रुचियों एवम् व्यक्तित्व विशेषताओं
का परिमाणात्मक एवम् गुणात्मक अध्ययन होता है। यह
व्यक्ति को समझने एवम समूह में उसकी तुलना करने में भी सहायक होता है।
मनोवैज्ञानिक
परीक्षण की आवश्यकता क्यों ? →
कालचक्र
अविरल गति से चलता हुआ जहाँ मानव विकास के विविध सोपान रच रहा था वहीं वैयक्तिक भिन्नताओं
के जटिल स्वरुप का महत्त्व भी स्थापित होने लगा उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में
जैसे जैसे गाल्टन, कैटिल, आदि
प्रवृत्ति मनोवैज्ञानिकों का ध्यान वैयक्तिक भिन्नताओं के स्वरुप इनकी उत्पत्ति
एवं विभिन्न समस्याओं के अध्ययन की और अग्रसर हुआ। वैयक्तिक विभिन्नताओं के उद्गम
से ही मनोवैज्ञानिक परीक्षण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। व्यक्तियों के मानसिक
स्तर व्यक्तित्व के गुणों,
योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों, उपलब्धियों, एवं जीवन के विविध पहलुओं में असमानताएं झलकने
लगीं फलस्वरूप समायोजन की समस्या का स्वरुप विकृत होने लगा.इन विभिन्नताओं के जटिल
स्वरुप को समझने व नैदानिक उपाय पर विचार करने हेतु मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की
आवश्यकता की महत्ता स्थापित हो गयी।
परीक्षण
व प्रयोग में अन्तर →
1 -मनोवैज्ञानिक परीक्षण में व्यक्ति के सम्बन्ध
में जानकारी प्राप्त कर व्यावहारिक पक्ष का अध्ययन किया जाता है जबकि प्रयोग में प्रतिक्रियाओं का अध्ययन ही
सम्भव होता है।
2 – बुद्धि, रूचि, अभिक्षमता, उपलब्धि, आदि मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन मनोवैज्ञानिक
परीक्षण के द्वारा होता है जबकि प्रयोग में स्वतंत्र चर के घटाने एवम् बढ़ाने के प्रभाव
का अध्ययन करते हैं।
3 – वैधता, विश्वसनीयता
आदि मानकों का स्थापन मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण करते समय किया जाता है
जबकि प्रयोगों में योजना का स्वरुप ही बदल जाता है इसमें उद्दीपकों व जीव
परिवर्तियों को ही नियन्त्रित किया जाता है।
4 – परीक्षणों की तुलना में प्रयोगों का क्षेत्र
व्यापक होता है परीक्षण उन्हीं लोगों के लिए उपयुक्त होता है जिनपर उनका मानकीकरण
होता है।
5 – मनोवैज्ञानिक परीक्षणों में भाषा का प्रयोग
होने से यह केवल भाषा का ज्ञान रखने वालों के लिए ही उपयुक्त है जबकि मनोवैज्ञानिक
प्रयोग प्रत्येक परिस्थिति में क्रियान्वित किये जाने योग्य हैं।
परीक्षण
एवम् मापन में अन्तर →
1 – परीक्षण का क्षेत्र संकुचित होता है जबकि मापन का प्रयोग व्यापक रूप
से किया जाता है।
2 – परीक्षण का प्रयोग स्वयं उपकरण के रूप में किया जाता है जबकि मापन
में मानसिक एवम् भौतिक दोनों प्रकार के उपकरणों की आवश्यकता होती है।
3 – परीक्षण का सम्बन्ध अधिकतर मानसिक एवम् मनोवैज्ञानिक गुणों से होता
है जबकि मापन में मुख्यतः भौतिक गुणों का अध्ययन करते हैं।
4 – परीक्षण में विभिन्न प्रकार के पद सम्मिलित होते हैं जिन्हें
मानकीकृत करके उपयोग में लाते हैं। मापन में वस्तुओं की संख्यात्मक विवेचना एक निश्चित
नियमानुसार होती है।
मनोवैज्ञानिक
परीक्षण के उद्देश्य →
(1) – वर्गीकरण एवं चयन
(2) – पूर्व कथन
(3) – मार्ग निर्देशन
(4) – तुलना करना
(5) – निदान
(6) – शोध
मनोवैज्ञानिक
परीक्षणों का उपयोग
(a) ↦ वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन
(b) ↦ समूहों का अध्ययन
(c) ↦ शैक्षिक उपयोग
(d) ↦ उद्योग एवं व्यवसाय में उपयोग
(e) ↦ सेना में उपयोग
(f) ↦ नैदानिक उपयोग
(g) ↦ शोध कार्यों में उपयोग
(h) ↦ व्यावहारिक जीवन में उपयोग
परीक्षण
लिखने की विधि (संकेत)
परीक्षण
क्रमाङ्क
परीक्षण
का नाम
प्रस्तावना
परीक्षण
का विवरण
परीक्षण
का उद्देश्य
सामग्री
परीक्षण
के समय ध्यान रखने योग्य सावधानियाँ
प्रयोज्य
विवरण
परीक्षण
का प्रशासन
अन्तः
दर्शन विवरण
निरीक्षण
कार्य
फलांकन
(प्राप्तांक विश्लेषण व परिणाम)
परिणाम
की व्याख्या व सुझाव
➤विस्तार से विवेचना संलग्न वीडियो में कर दी गई
है।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ता के बंगाली कायस्थ परिवार में 12
जनवरी
1863 को हुआ ये कलकत्ता के उच्चन्यायालय में वकील पिता श्री विश्वनाथ दत्त व माता श्रीमति
भुवनेश्वर देवी की सन्तान थे। इनके बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था धार्मिक
प्रवृत्ति इन्हें विरासत में मिली थी। इनके प्रधानाचार्य मिस्टर हैस्टी ने इनके
बारे में कहा –
”नरेन्द्र नाथ दत्त वस्तुतः प्रतिभाशाली है।
मैंने विश्व के अनेक देशों की यात्राएं की हैं, किन्तु
किशोरावस्था में ही इसके सामान योग्य एवम् महान क्षमताओं वाला युवक मुझे जर्मन
विश्व विद्यालयों में भी नहीं मिला।”
इस बालक ने 7 वर्ष की आयु में पूरा व्याकरण रट डाला,
16 वर्ष
की आयु में इन्होने मेट्रोपोलिटन कॉलेज से मेट्रिकुलेशन (हाई स्कूल ) की परीक्षा
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की अपने भाई भूपेन्द्र नाथ दत्त की तुलना में इन्होंने
पाठ्य सहगामी क्रियाओं खेलकूद,व्यायाम, संगीत, नाटक
आदि में बढ़ चढ़ कर भाग लिया बाद में ये
प्रेसीडेन्सी कॉलेज व जनरल असेम्बली कॉलेज में पढ़े। कॉलेज के विषयों के साथ धर्म,
दर्शन,
साहित्य
का भी अध्ययन किया 1884 में स्नातक होने से पहले स्वामी राम कृष्ण परमहंस से मुलाकात हुई और
इनका जीवन बदल गया। दिव्य शक्तियों की अनुभूति इन्हें गुरुकृपा से हुई। गुरु परमहँस
जी के दिवंगत होने पर इन्होंने उनकी शिक्षाओं का प्रसार किया।
31 मई 1893 को वे विश्व धर्म सम्मलेन में भाग लेने अमेरिका गए। जाने से पूर्व ही
आप विवेकानन्द नाम से पहचाने जाने लगे थे।
अमेरिका में हुए इनके अत्यन्त प्रभावशाली सारगर्भित वक्तव्य का सम्पूर्ण विश्व के
लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वेदान्त के प्रसार हेतु इन्होने इंग्लैण्ड की यात्रा की
भारत आने पर सम्पूर्ण जीवन भारत को जाग्रत करने, संगठन व प्रचार
कार्य में लगा दिया। 39 वर्ष की अलप आयु में 4 जुलाई 1902 को वेल्लूर मठ
में मेधा के धनी इस विलक्षण व्यक्तित्व ने अन्तिम श्वांस ली।
जीवन दर्शन [Philosophy of Life]-
स्वामी विवेका नन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के ज्ञान दिव्यालोक
से स्वयं को संयुक्त कर किसी भी सङ्कीर्णता को वरण नहीं किया उनका जीवन दर्शन
वेदान्त से अनुप्राणित है वे ईश्वर से मानव को युक्त समझते थे उन्होंने एक
व्याख्यान में कहा –
”जब हम दर्शन का अध्ययन हैं, तब
हमें यह ज्ञात होता है की सम्पूर्ण विश्व एक है आध्यात्मिक, भौतिक,
मानसिक तथा प्राणजगत ये
भिन्न भिन्न नहीं है। समस्त यहां से वहां तक एक है, इतनी ही है की अलग अलग दृष्टिकोण से देखे जाने
के कारण वह विभिन्न प्रतीत होता है।”
वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में इनका जीवन दर्शन दुरूह पथ पर चलने व समसामयिक झंझावातों से निवृत्त होने के
लिए गौरवपूर्ण व प्रेरणास्पद मार्ग है इनके जीवन दर्शन को संक्षेप में इस प्रकार
वर्णित किया जा सकता है। –
01 – वे सृष्टि का कर्त्ता
ब्रह्मा को मानते थे और विश्व को परमात्मा का व्यक्त रूप स्वीकारते थे।
02 – उनहोंने माया और जगत
को भी सत्य माना और कहा कि भला सत्य से असत्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।
03 – विवेकानन्द जी सबसे
बड़ा धर्म मानव मात्र की सेवा को मानते थे।
04 – योग,भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग को आत्मसात करते हुए उनकी स्वीकारोक्ति रही योग ज्ञान हेतु
सर्वोपरि है।
05 – ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म इन चारों से आत्मानुभूति होती है जो मुक्ति हेतु परमावश्यक है।
06 – इन्द्रिय निग्रह तथा
संयम, नैतिक विकास व ध्यान
हेतु आवश्यक कारक हैं।
07 – वे ज्ञान के दो रूप, वस्तु जगत व आत्म तत्व को स्वीकारते हैं
मानव को दोनों प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
08 – वे मानव मात्र को वीर
व निर्भय बनाना चाहते हैं उन्होंने कहा –
”वीर बनो, हमेशा कहो, मैं निर्भय हूँ, सबसे कहो – डरो मत, भय मृत्यु है, भय पाप
है, भय नर्क है, भय अधार्मिकता
है, तथा भय का जीवन में कोइ स्थान नहीं है।”
”Be a
hero, always say ‘I have no fear.’ Tell this to everybody -‘have no fear.’ To
him fear is death, fear is sin, fear is hell, fear is unrighteousness and fear
is wrong life.”
09 – इन्होंने प्रगति हेतु
निरंतर संघर्ष का आवाहन किया ।
10 – इनके अनुसार इस जीवन
का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति अथवा मुक्ति है।
शिक्षा दर्शन [Educational Philosophy]-
[1]- शिक्षा मात्र सूचना नहीं – ये मात्र सूचनाओं के संग्रहण को शिक्षा नहीं स्वीकारते, रटने की शक्ति को अनुचित ज्ञान स्वीकारते हुए ये कहते हैं –
”यदि तुम केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके
अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा
अधिक शिक्षित हो। यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी होता, तब तो पुस्तकालय संसार के सबसे बड़े सन्त हो जाते और
विश्वकोष महान ऋषि बन जाते।”
[2] – तत्कालीन शिक्षा
व्यवस्था से असहमति-
ये तत्कालीन मैकाले शिक्षा पद्धति के विरोधी
थे जिसका उद्देश्य मात्र बाबुओं की संख्या वृद्धि था।
[3] – जीवन संघर्ष व
चारित्रिक शिक्षा पर बल –
इन्होंने इन तत्वों की महत्ता स्वीकारते हुए
और शिक्षा पर प्रश्न चिन्ह टाँगते हुए कहा –
”………..It prepares a man for social service,
develops his character and finally imbues him with the spirit and courage of a
lion. Any other education is worse than useless.”
” …… जो शिक्षा जन साधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती, जो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं कर सकती
तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ है।”
[4] –आत्म निर्भरता –
ये चाहते थे की पढ़लिखकर अन्य गुण सीखने के साथ लोग आत्म निर्भर बनें, इसीलिये इन्होने कहा –
” हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने
पैरों पर खड़ा हो सकता है।”
[5]- व्यावहारिकता पर बल –
विवेकानन्द जी सैद्धांतिक की जगह व्यावहारिक
बनाने को शिक्षा का दायित्व मानते थे उन्होंने कहा –
” तुमको कार्य के हर क्षेत्र में व्यावहारिक बनाना पड़ेगा। सिद्धान्तों के
ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।”
”You will have to be practical in all spheres of
work. The whole country has been ruined by maas of theories.”
[6] – ज्ञान बालक में निहित –
ये कहते हैं की बालक के मार्ग की बाधाओं के
हटाने से ज्ञान का सामान्यतः प्रगटीकरण हो जाएगा वे कहते हैं –
”हमें बालकों के लिए
इतना ही करना है की वे अपने हाथ, पैर, कान और आँखों के उचित उपयोग के लिए अपनी बुद्धि का
प्रयोग करना सीखें।”
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Principles of Educational Philosophy)-
माँ भारती का अमर पुत्र अपने पूर्वजों की
थाती सँभाल, अतीत के ज्ञान का
ज्योति कलश ले साधना के दुरूह पथ पर बढ़ा तो अनायास ही शिक्षा जगत को महान शिक्षा शास्त्री विवेकानन्द मिल गया उनके
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्तों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
[1]- शिक्षा को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास का महत्त्वपूर्ण कारक बनना
चाहिए।
[2] – शिक्षा से मन का बल और
चरित्र का सौम्य सुगठन होना चाहिए।
[3] – शिक्षा द्वारा बौद्धिक
विकास और आत्मनिर्भर बनाने में योग दिया जाना चाहिए।
[4] – व्यवहार, आचरण व संस्कारों से धार्मिक शिक्षा दी जाए
पुस्तकों से नहीं।
[5] – बिना भेदभाव के सामान
शिक्षा बालक व बालिकाओं को दी जाए।
[6] – लौकिक व आध्यात्मिक
विषयों के सम्मिलन से पाठ्यक्रम सृजित किया जाए।
[7] – मन, वचन, कर्म की शुद्धि से आत्म नियन्त्रण शिक्षा द्वारा सिखाया
जाना चाहिए।
[8] – शिक्षक व शिक्षार्थी
में गरिमायुक्त श्रद्धा आधारित सम्बन्ध होने चाहिए।
[9] – नारी शिक्षा धर्म
केन्द्रित हो।
[10] – तकनीकी व औद्योगिक शिक्षा के आधार से देश का समुचित विकास किया
जाए।
[11] – जन साधारण की
शिक्षा व्यवस्था का सार्थक प्रयास होना चाहिए।
[12] – पुस्तक अध्ययन मात्र, शिक्षा नहीं कहा
जा सकता।
[13] – ज्ञान अन्तर में निहित है शिक्षा द्वारा
वातावरण सृजित होना चाहिए।
[14] – शिक्षक द्वारा
बालक के मस्तिष्क में स्थित ज्ञान का पथ प्रदर्शन, मित्र व
दार्शनिक के रूप में किया जाना चाहिए।
[15] – परिवार द्वारा
राष्ट्रीय व मानवीय शिक्षा दी जानी चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द का शैक्षिक चिन्तन (Educational Thought of
Swami Vivekanand )-
शिक्षा से आशय –
भारतवर्ष का मेरुदण्ड धर्म है इस आधार पर मानवजाति का प्रासाद खड़ा है
इसके उत्तरोत्तर उन्नयन हेतु मनुष्य में निहित शक्तियों के पूर्ण विकास की
आवश्यकता है जिसे शिक्षा पूर्ण कर सकती है इसी लिए इन्होंने कहा –
”शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है जो
मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है। “
”Education is the manifestation of the perfection,
already present in man.”
शिक्षा के उद्देश्य (Aims
of Education) –
स्वामीजी भौतिक एवम् आध्यात्मिक सत्ता पर विश्वास करते थे ये भारत
में ऐसा धर्म चाहते थे जो कमजोरी न पैदा करे उनका मानना था की इस विश्व में ‘नायमात्मा
बलहीनेन लक्ष्यः’ ( The weak does not get anything in this world) अर्थात
कमजोर को कुछ प्राप्त नहीं होता। उन्होंने शिक्षा के जिन उद्देश्यों पर बल दिया
उसे इस प्रकार क्रमबद्ध कर सकते हैं –
(1) – शारीरिक विकास [Physical Development]
(2) – पूर्णत्व प्राप्ति [Reaching Perfection]
(3) – मानसिक व बौद्धिक विकास [Mental and Intellectual
Development]
(4) – नैतिक व चारित्रिक विकास [Moral and Character Development]
(5) – व्यावसायिक विकास [Vocational
Development]
(6) – धार्मिक विकास [Religious Development]
(7) – विभिन्नता में एकता [Unity with in Diversity]
(8) – आत्म विश्वास की भावना का विकास [Development of feeling Self
Confidence]
”उठो
जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तककि चरम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाए। ”
”Arise,
awake and stop not till the goal is achieved”
(9) – राष्ट्रीयता का विकास [Development of Nationalism]
”जो
शिक्षा देशभक्ति की प्रेरणा नहीं देती वह राष्ट्रीय शिक्षा नहीं कही जा
सकती।”
”No
education can be called national unless it inspires love for the country.”
पाठ्यक्रम(Curriculum)-
स्वामी विवेकानन्द ने सांसारिक समृद्धि हेतु विज्ञान, मनोविज्ञान,गृहविज्ञान,
भाषा,
प्राविधिक विषय, व्यावसायिक विषय, इतिहास, भूगोल,
कला,
गणित,
राजनीति
शास्त्र, अर्थशास्त्र, खेलकूद, व्यायाम,
समाज
सेवा, राष्ट्रसेवा और आध्यात्मिक प्रगति हेतु दर्शन, पुराण, धर्म,
उपदेश,
भजन,
कीर्तन,
श्रवण
तथा साधू सङ्गति को शामिल किया। उनके शब्दों में –
”हमें अपने ज्ञान के विभिन्न अंगों के साथ
अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमें
प्राविधिक शिक्षा और उन सब विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है, जिनसे
हमारे देश के उद्योगों का विकास हो और मनुष्य नौकरियां खोजने के बजाय अपने स्वयं
के लिए पर्याप्त धन का अर्जन कर सकें और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सकें।”
शिक्षण विधि (Methods of Teaching) –
उनकी शिक्षण विधियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1-आध्यात्मिक
उन्नयन हेतु
⧫स्वाध्याय विधि
⧫ध्यान विधि
⧫योग विधि
⧫मनन विधि
2-भौतिक
प्रगति हेतु
⧫व्याख्यान विधि
⧫अनुकरण विधि
⧫निर्देशन व परामर्श विधि
⧫तर्क व विचार विमर्श विधि
⧫प्रदर्शन व प्रयोग विधि
शिक्षण विधियों
के सम्बन्ध में प्रो 0 लक्ष्मीनारायण गुप्त कहते हैं –
”शिक्षा की विधि में स्वामी विवेकानन्द का अपना
एक विशिष्ट स्थान है। उनकी शिक्षा विधि एक मात्र आध्यात्मिक कही जा सकती है,
जिसका आधार धर्म है। इस विचार से उन्होंने धर्म की विशेष पद्धति को
अपनाकर शिक्षा देने के लिए कहा।”
अनुशासन (Discipline)-
स्वामीजी के विचार अनुशासन के सम्बन्ध में प्रकृतिवादियों से मेल
खाते हैं ये भी बालक को आत्म अनुशासन सिखाना चाहते हैं और उन्हें दिए जाने वाले
किसी भी शारीरिक दण्ड का विरोध करते हैं। ये चाहते हैं कि बालक को पर्याप्त
स्वतन्त्रता देने के साथ स्व अनुशासन की शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें सीखने हेतु
सहानुभूति पूर्वक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अध्यापक (Teacher)-
स्वामीजी प्रेरक के रूप में अध्यापक को स्थान देते हैं उन्होंने कहा
–
”वास्तव में, किसी को,
किसी के द्वारा कभी शिक्षा नहीं दी गई है। हममें से प्रत्येक को
अपने-आपको शिक्षा देनी पड़ती है। वाह्य शिक्षक केवल ऐसे सुझाव देता है जिससे आत्मा
कार्य करने और समझने के लिए चैतन्य हो जाती है।”
वे अध्यापक से अपेक्षा करते हैं कि –
1 – अध्यापक परिश्रमी, संयमी, आत्मज्ञानी तथा आदर्श चारित्रिक गुणों से युक्त
होना चाहिए जिससे बालक अनुकरण द्वारा आदर्श व्यक्ति बन सकें।
2 – ये बालक को आध्यात्मिक व लौकिक जीवन हेतु तैयार करना चाहते हैं इसी
लिए अध्यापक को दोनों ज्ञान से युक्त होना चाहिए।
3 – ज्ञान प्राप्ति को अवरुद्ध करने वाली हर बाधा को दूर कर पाने में
समर्थ ही अध्यापक बनना चाहिए।
4 – अध्यापक को संसार के प्रति सम्यक दृष्टिकोण स्थापित करने में समर्थ
होना चाहिए।
5 – अधिगम कराने में व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
6 – अधिगम प्रभावशीलता में वृद्धि हेतु बालक से घनिष्ठ, व्यक्तिगत,
स्नेह
युक्त सम्बन्ध बनाना चाहिए।
7 – अध्यापक बालक को इस प्रकार के अवसर प्रदान करे जिससे अधिगम हेतु अधिक
से अधिक इन्द्रिय का प्रयोग करना पड़े।
8 – बालक को ज्ञान युक्त करने की क्रिया में अध्यापक अपने को साधन समझे
और दायित्व निर्वहन करे।
शिक्षार्थी (Student) –
शिक्षक और शिक्षार्थी का सम्बन्ध केवल लौकिक नहीं होना चाहिए बल्कि
उन्हें एक दूसरे के दिव्य स्वरुप को देखना चाहिए।सीखने की प्रबल इच्छा व जिज्ञासा
हेतु ब्रह्मचर्य एक विशिष्ट कारक है
बालकों को ब्रह्मचर्य व ऐसी श्रद्धा से युक्त होना चाहिए अतीत और वर्तमान के संयोजन से सुफल प्राप्ति
संयोग बन सके।इस गुण का सफल प्रतिनिधि मानते हुए जवाहर लाल नेहरू ने स्वामीजी के
लिए कहा –
”Rooted in the past and full of pride in India’s
prestige, Vivekanand was yet modern in his approach to life’s problems and was
a kind of bridge between the past of India and her present.”
”मानव के अतीत में अडिग आस्था रखते हुए और भारत
की विरासत पर गर्व करते हुए भी, विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति
आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक
थे।”
इसीलिए वे बालक को आधुनिक
दृष्टिकोण वाला संस्कृति का वाहक बनाना चाहते थे।
शिक्षालय (School)
स्वामीजी विद्यालय हेतु सर्वथा उपयुक्त स्थल गुरु गृह को मानते थे वे
इस तथ्य को स्वीकार करते वर्तमान परिस्थिति में प्रकृति की गोद या कोलाहल से दूर
का वातावरण मिलना दूभर है इसीलिए विद्यालय में अध्ययन, अध्यापन,
व्यायाम,
खेलकूद,
भजन,
कीर्तन,
ध्यान
आदि की सुविधा होनी चाहिए।
जन शिक्षा (Mass Education)
वे जनसाधारण की शिक्षा परमावश्यक मानते थे उनके भाव उनके इस विचार
में दृष्टिगत होते हैं –
”मेरे विचार से जनसाधारण की अवहेलना करना महान
राष्ट्रीय पाप और हमारे पतन का कारण है। जबतक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर
अच्छी शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जाएगी, तब
तक अधिक से अधिक राजनीति भी व्यर्थ होगी। वे हमारी शिक्षा के लिए धन देते हैं,
वे हमारे मन्दिरों का निर्माण करते हैं, पर
इनके बदले में उन्हें मिलता क्या है मात्र ठोकरें। वे हमारे दासों के समान हैं।
यदि हम भारत का पुनरुत्थान करना चाहते हैं, तो हमें उनको
शिक्षित करना होगा।”
महिला शिक्षा (Women’s Education)
वे समाज में स्त्रियों की दीन हीन दशा से बहुत खिन्न थे वे उन्हें
परम आदर का पात्र बनाना चाहते थे और मानते थे कि नारी की प्रगति उचित शिक्षा के
बिना सम्भव नहीं और देश की प्रगति नारी उत्थान के बिना सम्भव नहीं। इसीलिये
उन्होंने कहा –
”पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब
वे आपको बताएंगी की उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं ? उनके
मामलों में बोलने वाले तुम कौन हो ?”
शिक्षा दर्शन का मूल्याङ्कन (Estimate of Educational
Philosophy)-
स्वामी विवेकानन्द के अद्भुत विलक्षण व्यक्तित्व की क्रान्तिकारी
उदात्त प्रवृत्ति में प्राचीन और आधुनिक भारतीयता के समन्वय का प्रगटन है दूसरी और
ज्ञान, कर्म,भक्ति का अद्भुत समन्वय है इनके शिक्षा दर्शन में हमें अद्भुत
सामन्जस्य दृष्टिगत होता है कर्म की श्रेष्ठता व संयम के आधार युक्त स्पष्टीकरण
उन्हें सहज भारतीय उत्कृष्ट चिन्तक के रूप में स्थापित करता है उन्होंने कहा –
”आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो
परम शान्ति और निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का, तथा प्रबल
कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शान्ति एवम् निस्तब्धता का अनुभव करते हैं।
उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है -अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं।”
इनका जन्म एक समृद्ध, सुसंस्कृत तथा प्रतिष्ठित परिवार में 6 मई 1861
को
कलकत्ता में हुआ इनके पिताश्री देवेन्द्र नाथ टैगोर विद्वान, धर्मनिष्ठ,
कलाप्रेमी,
समाज
सेवक, राष्ट्रभक्त व सज्जन प्रकृति के थे। सादा जीवन और उच्च विचार परिवार
की पहचान थी। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘ओरिएन्टल सेमेनरी स्कूल’ में हुई। यहाँ
पढ़ाई में मन न लगने के कारण इन्हें हटा लिया गया और नार्मल स्कूल में प्रवेश
दिलाया गया जिसमें ये ब्रिटिश कालीन शिक्षा व्यवस्था के सम्पर्क में आये और इन्हें
कई कटु अनुभव हुए जिससे शिक्षा में सुधार का भाव इनके मानस में जाग्रत हुआ।
विद्यालय ये नाम
मात्र को गए समृद्ध पिता ने अध्ययन की सम्पूर्ण व्यवस्था घर पर ही कर दी, इन्हें घर पर
बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत व
चित्रकला आदि की अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई पृथक विषय के अध्ययनार्थ पृथक अध्यापक
की व्यवस्था की गयी। 1878
में उच्च शिक्षार्थ ये इंग्लैण्ड गए रूचि अनुसार व्यवस्था न हो पाने
के कारण 1880 में
वापस स्वदेश लौट आये। 1881
में कानून की शिक्षा प्राप्त करने हेतु ये पुनः इंग्लैण्ड गए लेकिन
विचार परिवर्तन के कारण पुनः भारत लौट आये। सन 1901 में इन्होने शान्ति निकेतन की स्थापना बोलपुर
के निकट की, जो
आज विश्व भारती विश्वविद्यालय के नाम से विश्व विख्यात है।
1910 में इनका
महत्त्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ ‘गीताञ्जलि’ प्रकाशित हुआ
जिसके द्वारा किसी भारतीय को प्रथम बार नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसकी सम्पूर्ण
राशि इन्होने शान्ति निकेतन को भेंट कर दी। 1915 में इन्हे डी० लिट्० की मानक उपाधि कलकत्ता विश्व विद्यालय ने
प्रदान की। तत्कालीन भारत सरकार ने इन्हे ‘नाइट हुड’
(सर) की उपाधि सम्मानार्थ दी।
इस उपाधि को इन्होने अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के विरोध में त्याग दिया और इन्हे
गाँधीजी द्वारा ‘गुरुदेव’ की उपाधि से
नवाजा गया। गुरुदेव ने देश को गौरवान्वित करते हुए जीवन पर्यन्त कार्य किया। 7 अगस्त 1941 को गुरुदेव ने
महाप्रयाण किया
और इस प्रकार परम यशस्वी साहित्य कार, संगीतकार,कला
और शिक्षा का सूर्य अस्ताचल गामी हो गया।
जीवन दर्शन(PHILOSOPHY
OF LIFE)-
रबीन्द्र नाथ टैगोर के जीवन दर्शन पर इनके सुसंस्कृत परिवार की
धार्मिकता का गहन प्रभाव पारिलक्षित होता है सादा जीवन और उच्च विचार की पृष्ठभूमि
में गठित इनके जीवन दर्शन को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं। –
1 – ईश्वर की निराकार और साकार दोनों सत्ताओं में विश्वास।
2 – अद्वैत वादी।
3 – सर्वोच्च मानव (Supreme Man ) के रूप में
ईश्वर की स्वीकारोक्ति।
4 – सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् जैसे आध्यात्मिक मूल्यों को समर्थन।
5 – ईश्वर की अभिव्यक्ति ही है सृष्टि।
6 – मानव मानव में समानता के पोषक।
7 – उच्चकोटि के दार्शनिक व समाज सुधारक।
8 – प्रखर राष्ट्रवादी।
9 – आत्मिकबल के उत्कर्ष हेतु सम्मान व स्वतन्त्रता के पोषक।
10 – छुआ छूत व निर्धनता पर कुठाराघात।
11 – प्रकृति और मानव की एकता पर बल।
12 – उच्च कोटि के मानवतावादी।
शिक्षा दर्शन और इसके आधारभूत सिद्धान्त (Educational
Philosophy and its Basic Principles)-
टैगोर ने शिक्षा को एक ऐसे साधन के रूप में
स्वीकार किया जो मानव मात्र को उत्थित करके उसमें परस्पर प्रेम, मेल,
सद्भावना,
विश्व
बन्धुत्व की भावना का विकास कर सके। वे बालकों को राष्ट्रीयता, अन्तर्राष्ट्रीयता,
वास्तविक
जीवन से परिचय कराते हुए विस्तृत दृष्टिकोण से युक्त करना चाहते थे। प्रकृति और
मानव के अटूट प्रेम पूर्ण रिश्ते बनें व सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना मजबूत हो।
सुनील चन्द सरकार ने ठीक ही लिखा है –
”He discovered for himself
all the theories and principles of education which he was later to formulate
for himself and use in his Shantiniketan experiment.”
”उन्होंने शिक्षा
के उन सभी सिद्धान्तों की खोज स्वयं ही की, जिनका प्रतिपादन
उन्हें आगे चलकर अपने लिए ही करना था तथा जिन्हें शांतिनिकेतन व्यावहारिक रूप देना
था।”
इनके
दर्शन, शिक्षा सम्बन्धी विचारों, व्यवहारों व पाश्चात्य ज्ञान के घालमेल में
इनके शिक्षा दर्शन के निम्न आधारभूत सिद्धान्त सहज दृष्टिगत होते हैं-
01 – भारत की आत्मा को आधुनिक भारत की आत्मा में
प्रतिस्थापित करने का हर सम्भव प्रयास होना चाहिए।
02 – सजीव व गतिशील होना शिक्षा की प्रमुख विशेषता
होनी चाहिए।
03 – शिक्षा का सामुदायिक जीवन से अटूट सम्बन्ध होना
चाहिए उन्होंने लिखा भी है –
”Next to
nature the child should be brought into touch with the stream of social
behaviour.”
”प्रकृति
के पश्चात बालक को सामाजिक व्यवहार की धारा के सम्पर्क में लाना चाहिए।”
04 – मातृ भाषा ही बालक की शिक्षा का माध्यम होना
चाहिए।
05 – रहस्यवाद को यथार्थ पर अवलम्बित होना चाहिए।
06 – प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा की व्यवस्था की
जानी चाहिए।
07 – स्वशासन व सामाजिक साहचर्य की भावना विकसित की
जानी चाहिए।
08 – सङ्गीत, चित्रकला,
अभिनय,
स्वाभाविक स्वछन्दता का विकास किया जाना चाहिए।
09 – मानवता वाद का पोषण जीवन के हर स्तर पर होना
चाहिए।
10 – भारतीय सांस्कृतिक विरासत आधारित सामाजिक
व्यवहार सिखाया जाना चाहिए।
11 – भारत के मौलिक चिन्तन व विशुद्ध भारतीयता से
परिचय अवश्य कराया जाना चाहिए।
12 – व्यक्तित्व का सामन्जस्य पूर्ण सर्वांगीण विकास
बालक की जन्मजात शक्तियों के आधार पर किया जाना चाहिए।
13 – सामाजिक मूल्यों व भारतीय दर्शन को शैक्षिक
पाठ्य क्रम में लिया जाना चाहिए।
14 – पाठ्यक्रम अवलम्बित ज्ञान हेतु बालक को बाध्य न
किया जाए बल्कि प्रत्यक्ष स्रोतों ज्ञान प्राप्ति के अवसर प्रदान किये जाएँ।
15 – सृजनात्मक शक्तियों के विकास हेतु आत्म
अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किये जाएँ।
16 – प्राथमिक पाठशालाओं को आवश्यकतानुसार विकसित
किया जाए।
17- विश्व नागरिकता के भाव का पोषण किया जाए।
शिक्षा के
उद्देश्य (Aim of Education )-
रबीन्द्र नाथ टैगोर शिक्षा का सर्वोच्च
उद्देश्य समरसता के भाव के उन्नयन को मानते हैं उन्होंने कहा भी है –
”The highest education is
that which makes our life in harmony with all existence.”
”सर्वोच्च शिक्षा
वह है जो हमारे जीवन और समस्त सृष्टि के बीच समरसता स्थापित करती है।”
गुरुदेव के मनोभावों को इनके द्वारा प्रदत्त
शैक्षिक उद्देश्यों से समझ सकते हैं जिन्हे बिन्दुवार इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।–
[1]- शारीरिक विकास [Physical
Development]
[2]- आध्यात्मिक एवम् नैतिक विकास [Spiritual and Moral Development]
[3]- बौद्धिक विकास [Intellectual
Development]
[4]- सामाजिक विकास [Social
Development]
[5]- व्यावसायिक विकास [Vocational
Development]
[6]- सांस्कृतिक विकास [Cultural
Development]
[7]- राष्ट्रीयता का विकास [Development
of Nationalism]
[8]- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास [Development of International Attitude]
उक्त उद्देश्यों की
प्राप्ति में यह बताना प्रासंगिक होगा कि उक्त का आधार केवल पुस्तकें नहीं हो
सकतीं बल्कि जानने की इच्छा अधिक महत्त्व पूर्ण है इसीलिये उन्होंने कहा –
”In comparison with book learning, knowing the
real living directly is true education. It not only promotes the acquiring of
some knowledge but develops the curiosity and faculty of knowing and learning
so powerfully that no class room teaching can match it.”
”पुस्तकों की अपेक्षा
प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना ही सच्ची शिक्षा है। इससे
कुछ ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता अपितु जानने की शक्ति का इतना विकास हो जाता है।
जितना कक्षा में दिए जाने वाले व्याख्यानों द्वारा होना असम्भव है।”
पाठ्यक्रम [Curriculum]-
इन्होने प्राकृतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास को महत्ता प्रदान की है अपनी भाषा के साथ
विश्वबन्धुत्व हेतु क्रिया प्रधान पाठ्यचर्या पर जोर दिया पूर्ण मानव बनाने के लिए
बालक के विकास हेतु व्यापक पाठ्यक्रम को समर्थन प्रदान किया हालांकि कोई
निश्चित योजना प्रदान नहीं की। इनके द्वारा
समर्थित विषय व तत्सम्बन्धी क्रियाऐं इस प्रकार हैं –
विषय – मातृ भाषा, इतिहास, भूगोल, संस्कृत, अंग्रेजी, साहित्य, विज्ञान, प्रकृति अध्ययन आदि।
आवश्यक क्रियाएं – कृषि, बागवानी, भ्रमण, नाटक, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रायोगिक कार्य, कला, विविध वस्तु संग्रह, मौलिक रचना आदि।
शिक्षण विधियाँ [Methods of Teaching ]-टैगोर महोदय ने कृत्रिमता के आगोश से उद्भवित नीरस तथा बालकों को निष्क्रिय करने वाली शिक्षण पद्धतियों का विरोध किया एवम् शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु निम्न विधियों का समर्थन किया –
[1]- भ्रमण के समय पढ़ाना। (Teaching while Walking)
[2]- प्रश्नोत्तर विधि। (Question
Answer Method)
[3]- वादविवाद विधि। (Discussion
Method)
[4]- मातृ भाषा द्वारा शिक्षण। (Teaching
by Mother Tongue)
[5]- क्रिया द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Activity)
[6]- खेल द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Play)
[7]- प्रयोग विधि द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Experiment)
[8]- विश्लेषण व संश्लेषण विधि। (Analytic
and Synthesis Method)
[9]- तर्क विधि। (Logical Method)
[10]- स्व अनुभव द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Experience)
शिक्षक (Teacher)-
टैगोर को परम्परावादी कहा जाता है वे अध्यापक
को महत्त्व पूर्ण स्थान प्रदान करते हैं और कहते हैं कि –
”मनुष्य
केवल मनुष्य से ही सीख सकता है।“
इससे
यह तथ्य स्पष्ट है कि अधिगम के स्थान्तरण में अध्यापक की महत्ता को नकारा नहीं जा
सकता। वे अध्यापक के कार्य निर्धारण इस प्रकार करते हैं।
1 – बालक
को स्वानुभव से सीखने हेतु उचित वातावरण का निर्माण करना।
2 – सृजनात्मक
शक्ति का विकास करना।
3 – राष्ट्रीय
व अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध विकसित करना।
4 – शिक्षक
प्रशिक्षण की महत्ता समझ मानस में गरिमा पूर्ण स्थान देना।
5 – व्यक्तिगत
भिन्नता के आधार पर शिक्षण।
6 – स्वयं
के आचरण व नैतिक बोध द्वारा आदर्श स्थापित करना।
7 – सहानुभूति
व प्रेम पूर्ण व्यवहार।
8 – प्रकृति
और मानव के सह अस्तित्व का प्रकाशन।
अधिगमार्थी (Learner)
गुरुवर
बालक के व्यक्तित्व का आदर करते थे और उनसे ब्रह्मचर्य के नियमों का अनुपालन करने
की आशा करते थे ब्रह्मचर्य हेतु मन, वचन, कर्म शुद्धि व इन्द्रिय निग्रह पर विशेष बल देते थे। बालक को शुचिता, आज्ञा पालक, प्रकृति प्रेमी, सांसारिक व आध्यात्मिक ज्ञान पिपासु तथा जिज्ञासु होना चाहिए।
श्रद्धालुता , विनम्रता, दयालुता
व्यवहार में पारिलक्षित होनी चाहिए।
अनुशासन (Discipline)
प्रकृति
प्रेमी होने के साथ ये बालक की मूल प्रकृति से विशेष प्रेम करते थे और किसी भी
प्रकार की दण्ड व्यवस्था के विरोधी थे ये चाहते थे कि बालक पर अनुशासन थोपा न जाए
बल्कि स्वानुशासन की भावना का विकास किया जाए। अनुशासन व्यवस्थापन हेतु साहित्यिक,सांस्कृतिक व सामूहिक खेलों को प्रोत्हासित किया जाए।
टैगोर के शिक्षा
सम्बन्धी अन्य विचार (Other
Educational Views of Tagore)
1 – जन शिक्षा। (Mass Education)
2 – स्त्री शिक्षा। (women Education)
3 – धार्मिक शिक्षा। (Religious Education)
4 – व्यावसायिक शिक्षा। (Vocational Education)
5 – राष्ट्रीयता व अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास हेतु शिक्षा। (Education for National and International Development)
6 – शिक्षा में स्वतन्त्रता। (Freedom in Education)
उक्त आधार पर निर्विवाद रूप से यह माना जा सकता है कि शिक्षा शास्त्री के रूप में शिक्षा को यथोचित स्थान तक पहुँचने का मार्ग गुरुवर ने प्रशस्त किया।
शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षणविधि, शिक्षक, शिक्षार्थी, अनुशासन के सम्बन्ध में अमूल्य विचार देने के साथ व्यावसायिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा,जन शिक्षा व विश्व बन्धुत्व हेतु जो निर्देश दिए वे उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाते हैं.
इसीलिये एच० बी० मुखर्जी (H. B. Mukherjee) ने कहा –
”Tagore was the greatest prophet of educational renaissance in modern India. He waged a ceaseless battle to uphold the highest educational idea before the country, and conducted educational experiments at his own institutions, which made them living symbols of what an ideal should be.“
”टैगोर वर्तमान भारत के शैक्षिक पुनुरुत्थान के सबसे बड़े पैगम्बर थे। उन्होंने देश के सम्मुख शिक्षा के सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित करने के लिए आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने अपनी शैक्षिक संस्थाओं में ऐसे शैक्षिक प्रयोग किए जिन्होंने उन्हें आदर्श का सजीव प्रतीक बना दिया।”
महात्मा गाँधी का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं है इनका पूरा नाम
मोहन दास करम चन्द्र गाँधी था और वास्तव में इनके कार्यों ने व्यवहार में परिणति
पाकर शैक्षिक जगत के कई विषयों में स्थान पाया अर्थ शास्त्र, राजनीति
शास्त्र, इतिहास, समाज शास्त्र, हिन्दी, दर्शन शास्त्र,
शिक्षाशास्त्र आदि विभिन्न विषयों में हम सब इनका अध्ययन करते
हैं।
गाँधीजी के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित होकर एम0 एस0
पटेल महोदय ने कहा –
” Gandhiji has
secured a unique place in the galaxy of the great teachers who have brought
fresh light in the field of education.”
”गाँधीजी ने उन महान शिक्षकों और उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में
स्थान प्राप्त किया है जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में नवज्योति दी
है।”
PHILOSOPHY OF
LIFE
जीवन दर्शन
आजाद भारत के प्रणेता महात्मा गाँधी का जीवन दर्शन जिन आधारों पर
अवलम्बित है उन्हें इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है। –
→ सृष्टि के सभी मानवों में आध्यात्मिक समानता है क्योंकि सृष्टि के
सभी मानव आत्माधारी हैं।
→ परमात्मा का अंश आत्मा है और परमात्मा सत्य है अतः आत्मा भी सत्य है।
→ मानव को ज्ञान प्राप्ति में भौतिकता व आध्यात्मिकता का यथायोग्य
सामन्जस्य करना चाहिए।
→ आत्मानुभूति मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है।
→ भक्ति आत्मानुभूति का पवित्र साधन है।
→ गाँधीजी के दर्शन का मूल आधार सत्य और अहिंसा हैं।
सत्य के बारे में इनका
मानना है की साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र समझा जाता है पर मैंने विशाल
अर्थ में सत्य का प्रयोग किया है। विचार में वाणी में और आचार में सत्य का होना ही
सत्य है।
गाँधीजी अपने दूसरे अमोघ शस्त्र अहिंसा के बारे में कहते हैं -”अहिंसा
बिना सत्य की खोज असम्भव है अहिंसा और सत्य ऐसे ओतप्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों
रूप ,उसमें किसे उल्टा कहें और किसे सीधा, फिर भी अहिंसा
को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए। साधन
हाथ की बात है सत्य परमेश्वर है।”
→जीवन दर्शन के व्यावहारिक पक्ष में सत्याग्रह और निर्भयता दीख पड़ता
है।
गाँधीजी सत्याग्रह को सामाजिक व राजनीतिक बुराई से लड़ने की अचूक
प्राविधि मानते थे इसीलिए उन्होंने 8 अक्टूबर 1952 के यंग इंडिया
में लिखा –
”मैं अत्याचारी की तलवार की धार को पूरी तरह कुण्ठित करना चाहता हूँ
इसके विरोध में एक से अधिक तेज शस्त्र को रखकर नहीं,किन्तु उसकी इस
आशा को कि मैं उसका शारीरिक प्रतिरोध करूँगा,निराशा में
बदलकर। “
वे मानते थे कि जो निडर नहीं होगा वह सत्य और अहिंसा का अनुयायी हो
ही नहीं सकता भय कई प्रकार का हो सकता है शारीरिक आघात का भय, बीमारी
का भय,अधिकार या पद छिनने का भय। हमें सभी प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय
होना चाहिए।
→ गाँधीजी
के जीवन दर्शन में उनके सर्वोदय सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
EDUCATIONAL THOUGHT OF GANDHIJI
गाँधीजी के
शैक्षिक विचार
Or
GANDHIJI’S PHILOSOPHY OF
EDUCATION
गाँधीजी का शिक्षा
दर्शन
गाँधीजी कोई शिक्षाविद नहीं थे ये राजनैतिक पटल से उभरे व्यावहारिक
पक्ष का मूर्तिमान स्वरुप थे इन्होने स्वीकार किया –
”जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करे, निर्वाह
का साधन न बनाये तथा स्वतंत्र रहने का हौसला और सामर्थ्य न उपजाए,उस
शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना, तार्किक कुशलता
और भाषा पाण्डित्य मौजूद हो वह सच्ची शिक्षा नहीं। “
CONCEPT OF EDUCATION
शिक्षा का सम्प्रत्यय
गाँधीजी शिक्षा का दायरा विकसित कर इसमें
पढ़ने लिखने के साथ हाथ, मस्तिष्क और हृदय के
विकास को भी शामिल करना चाहते हैं। इसीलिये इन्होने कहा है कि –
”By education I mean an all round drawing out of the
best, in child and man-body,mind and spirit.”
”शिक्षा से मेरा
अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के उच्चतम विकास से है। “
ये केवल पढ़ना लिखना या साक्षरता को शिक्षा
की श्रेणी में नहीं रखते बल्कि स्पष्ट कहते हैं कि –
”Literacy
is not the end of education nor even the biginning. It is only one of the means
whereby men and women can be educated.”
”साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न प्रारम्भ। यह केवल
एक साधन है जिसके द्वारा पुरुष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।”
Aims
of Education
शिक्षा के उद्देश्य
गाँधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों के आधार पर उद्देश्यों को दो
भागों में बाँटकर अभिव्यक्त किया जा सकता है। यथा –
→Immediate
Aim of Education
शिक्षा के तात्कालिक
उद्देश्य
A –
शारीरिक विकास (Physical Development)-
गाँधीजी ने अपने जीवन के अनुभव के आधार पर आत्मिक विकास हेतु शारीरिक विकास को अवलम्ब के रूप में स्वीकार
किया।
B
— Intellectual and Mental Development
बौद्धिक व मानसिक विकास
गाँधीजी शारीरिक विकास के साथ बुद्धि एवं मानसिक विकास को आवश्यक
मानते थे सत्य व अहिंसा का आचरण सशक्त बौद्धिक व मानसिक स्थिति वाला व्यक्तित्व ही
कर सकता है।
C –
Individual and Social Development
वैयक्तिक तथा सामाजिक विकास
गाँधीजी समाज को पुष्ट करने हेतु उसकी प्रत्येक इकाई को सशक्त करने
के पक्षधर थे ये शासन द्वारा प्रदत्त साधनों को समाज केअन्तिम व्यक्ति तक पहुँचाना
व्यवस्था का धर्म समझते थे।मानव मानव में प्रेम के बढ़ने से सामाजिक समरसता का
विकास होगा जो अन्ततः विश्व बन्धुत्व की भावना को बलवती करेगा।
D –
Character Development
चारित्रिक विकास
गाँधीजी शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को चारित्रिक उत्कृष्टता प्रदान
करना चाहते थे इन्होने अपनी आत्म कथा में लिखा –
”मैंने सदैव हृदय की
संस्कृति अथवा चरित्रनिर्माण को प्रथम स्थान दिया है तथा चरित्र निर्माण को शिक्षा
का उचित आधार माना है
।
“
उत्तम चरित्र में ये सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य,
अस्तेय,
अपरिग्रह,
निर्भयता
आदि को शामिल करना चाहते थे इन्होने विद्यालय को चरित्र निर्माण की उद्योगशाला
मानते हुए लिखा। –
”The end of all knowledge must be the building up of character,
personal purity.”
”सभी ज्ञान का उद्देश्य उत्तम चरित्र का निर्माण व्यक्तिगत पवित्रता
होना चाहिए।”
E –
Spiritual and Cultural Development
आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक
विकास
वे गीता से बहुत प्रभावित थे इसलिए ज्ञान कर्म भक्ति तथा योग आदि
सद्गुणों का समर्थन करते थे और बालक के आध्यात्मिक पक्ष को प्रबल करना चाहते थे। सांस्कृतिक विकास के बारे में गाँधीजी का विचार था –
”मैं शिक्षा के
साहित्यिक पक्ष के स्थान पर सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति
शिक्षा का आधार तथा विशेष अंग है। अतः मानव के प्रत्येक व्यवहार पर संस्कृति की छाप
होनी चाहिए। “
F –
Vocational Aim
जीविकोपार्जन का उद्देश्य –
गाँधीजी की बेसिक शिक्षा की अवधारणा बालक को किसी एक शिल्प में दक्ष
करने की थी ये स्पष्ट कहा करते थे –
”Education
ought to be a kind of insurance against unemployment.
”शिक्षा
को बेरोजगारी के विरुद्ध एक बीमा होना चाहिए।”
Ultimate
Aim of Education
शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य
यहाँ गाँधीजी के विचारों में आदर्शवादी दर्शन का प्रभाव पारिलक्षित
होता है ये ईश्वर प्राप्ति और आत्मानुभूति को सर्वोच्च वरीयता प्रदान करते हैं और
स्वीकार करते हैं कि शिक्षा के द्वारा अंतिम वास्तविकता से साक्षात्कार कराया जाना
चाहिए। आत्मानुभूति की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उद्देश्य निर्धारित करते हैं –
”Realization
of ultimate reality, a knowledge of God and self realization.”
”अन्तिम
वास्तविकता का अनुभव,
ईश्वर और आत्मानुभूति का ज्ञान। “
Curriculum
पाठ्यक्रम
गाँधीजी देश के नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाकर वर्गविहीन समाज को
स्थापित करना चाहते थे। इनके पाठ्यक्रम में सत्य, कल्याण व सौन्दर्यबोध जाग्रत करने वाले विषयों को स्थान मिला है
जिन्हे इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
1 – मातृ
भाषा
2 – विभिन्न
शिल्प यथा चर्म कार्य,
कताई,
बुनाई,
बागवानी,
कृषि,
काष्ठ कला,
मछली पालन,
मिट्टी का काम व क्षेत्र आधारित अन्य शिल्प।
3 – अंक
गणित, बीज
गणित, रेखा
गणित, नाप
तौल आदि।
4 – भौतिक
विज्ञान, रसायन
विज्ञान, जीव
विज्ञान, वनस्पति
विज्ञान,स्वास्थ्य
विज्ञान, शरीर
विज्ञान, गृह
विज्ञान, प्रकृति
ज्ञान, नक्षत्र
ज्ञान आदि।
5 – खेलकूद
व व्यायाम।
6 – कला
व संगीत।
7 – इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, अर्थ शास्त्र व
सामाजिक अध्ययन।
8 – नैतिक
शिक्षा व सामाजिक कार्य।
9 – हिन्दी
जहाँ यह मातृ भाषा नहीं है ।
Methods
of Teaching
शिक्षण विधि
गाँधीजी इस प्रकार की शिक्षण विधियों को प्रयोग करना चाहते थे जिसमें
शिक्षार्थी भी सक्रिय रहे वह प्रयोग कर्त्ता ,शोध कर्त्ता,
निरीक्षण
कर्त्ता के रूप में कार्य करे।
उन्होंने करके सीखना(Learning by doing), अनुभव द्वारा
सीखना (Learning by experience), सीखने की प्रक्रिया में समन्वयन (Correlation
in the process of learning), प्रशिक्षण द्वारा सीखना (Learning by training) आदि
पर जोर दिया।
Teacher
अध्यापक
गाँधीजी कहते थे कि जो शिक्षण कार्य को व्यवसाय न मानकर सेवा धर्म के
रूप में स्वीकार करता है वही अध्यापक बन सकता है वे चाहते थे कि सेवा भावी,सहिष्णु, सत्य का आचरण
करने वाले, धैर्यवान, ज्ञान पुञ्ज,साधन की
पवित्रता समझने वाले लोग इस पावन कार्य से जुड़ें।
Discipline
अनुशासन
गाँधीजी आत्म अनुशासन के पक्षधर थे ऊपर से थोपे जाने वाले अनुशासन
इन्हें स्वीकार्य नहीं था ये चाहते थे की अध्यापक अपने मर्यादित आचरण व अनुकरणीय
व्यवहार द्वारा विद्यार्थी में अनुशासन का समावेशन करे।
Student
विद्यार्थी
गाँधीजी बालकों के शारीरिक, मानसिक,
नैतिक,
बौद्धिक,
आध्यात्मिक उत्थान हेतु ब्रह्मचर्य पर बल देते थे। वे चाहते थे की
बालक संयमी, धैर्यवान,आत्म विश्वासी व
आध्यात्मिक बल से युक्त हों।
Other
aspects of Education
शिक्षा के अन्य पक्ष
गाँधीजी भारतीय जनमानस से घुले मिले विशिष्ट व्यक्तित्व थे, उन्हें भारतीय
सामाजिक संरचना का विशेष ज्ञान था इसीलिए वे शिक्षा से प्रत्येक वर्ग को बिना
विवाद के जोड़ना चाहते थे.समग्र को शिक्षा से जोड़ने के क्रम में उन्होंने निम्न
कारकों को भी स्थान प्रदान किया।
धर्म शिक्षा (Education
of Religion)
महिला शिक्षा(Women
Education)
जन शिक्षा(Mass
Education)
सह शिक्षा(Co
Education)
व्यावसायिक शिक्षा (Vocational
Education)
Evaluation
of Educational Thought of Mahatma Gandhi
महात्मा गाँधी के शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन
गाँधीजी के विचार भारतीय
पृष्ठभूमि में भारत की आवश्यकता के अनुसार तत्कालीन परिस्तिथियों की उपज हैं और उस
समय के इनके विचार एक प्रयोग के रूप में भारत में धारित भी किये गए और आधिकांश को
विद्वतजनों का व जन समर्थन भी प्राप्त हुआ। बालकों की सक्रिय साझेदारी व बाल
केन्द्रित शिक्षण विधियाँ आज भी आवश्यक हैं प्रभावात्मक विधि द्वारा अनुशासन
स्थापन भी शिक्षा शास्त्रियों को स्वीकार्य हैं। आज की परिस्थितियों में भी लोग
शिक्षक में आदर्श तलाशते हैं भले ही वह बाजारवादी व्यवस्था का शिकार हो गया हो।
इन्होने जन शिक्षा,सह
शिक्षा, स्त्री
शिक्षा, प्रौढ़
शिक्षा आदि के विषय में जो अमूल्य विचार दिए उनके लिए देश उनका चिर ऋणी रहेगा।
अध्यापक, धर्म शिक्षा,बेसिक शिक्षा, आत्म निर्भर शिक्षण संस्थान आदि से जुड़े उनके विचार
कालातीत हुए से लगते हैं यद्यपि गाँधीजी के विचारों पर गीता दर्शन का प्रभाव
स्पष्ट पारिलक्षित होता है और यह प्रभाव कुछ पाश्चात्य दर्शनों से मेल खाता लगता
है एम0 एस0 पटेल महोदय कहते हैं-
“It is
naturalistic in its setting, Idealistic in its aim and pragmatic in its method
and programme of work. The real greatness of Gandhiji as educational
philosopher consists in the fact that the dominant tendencies of naturalism, idealism
and pragmatism are not seprate and independent in his philosophy, but they fuse
into a unity.”
“दार्शनिक के रूप में
गांधीजी की महानता इस बात में है की उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद और प्रयोजनवाद की मुख्य
प्रवृत्तियां अलग और स्वतंत्र नहीं हैं वरन वे सब मिलजुलकर एक हो गयी हैं जिससे
ऐसे शिक्षा दर्शन का जन्म हुआ जो आज की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त होगा, मानव आत्मा की सर्वोच्च आकांक्षाओं को
सन्तुष्ट करेगा।”
उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है की
शिक्षा जगत के निरभ्र आकाश में महात्मा गांधीजी एक जाज्वलयमान नक्षत्र के रूप में
युगों तक अपनी आभा से मानवता को आलोकित करते रहेंगे। उनके जैसे शिक्षाविद की
मौलिकता हमेशा संसार का इतिहास संजोकर रखेगा।
राष्ट्रीय एकता वह विचारधारा है जो देश के सभी नागरिकों को सामन्जस्य
पूर्ण तथा सहयोग पूर्ण जीवन यापन हेतु प्रेरित करती है, यही वह भाव है
जो सारी विभिन्नताओं का परित्याग कर राष्ट्रीय हिट में परित्याग हेतु विवश करता है
राष्ट्र के लोगों में भ्रातृत्व, एकीकरण, देश-भक्ति,देश
प्रेम का उद्भव ही राष्ट्रीय एकता का परिचायक है। 1961 में राष्ट्रीय
एकता को ‘राष्ट्रीय एकता सम्मलेन’ में इस प्रकार पारिभाषित किया गया –
“National
Integration is a psychological and educational process involving the
development of a feeling of unity, solidarity, and cohesion in the heart of
people, a sense of common citizenship and a feeling of loyality to the
nation.”- Report of ‘National Integration conference 1961’
” राष्ट्रीय
एकता एक मनोवैज्ञानिक एवं शैक्षिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा लोगों के दिलों में एकता, संगठन एवं सन्निकटता के भावना,सामान नागरिकता की अनुभूति तथा राष्ट्र के प्रति भक्ति की भावना का
विकास किया जाता है।”
राष्ट्रीय एकता के अर्थ को समझाते हुए डॉ 0 जे 0 एस
0 बेदी कहते हैं –
”National Integration means bringing about economic,
social, cultural and linguistic differences among the people of various states
in the country within tolerable range
and imparting to the people a feeling of the oneness of India.”
”राष्ट्रीय एकता का अर्थ है -देश के विभिन्न राज्यों के व्यक्तियों की
आर्थिक, सामजिक, सांस्कृतिक एवं भाषा विषयक विभिन्नताओं को वांछनीय सीमा के अन्तर्गत
रखना और उसमें भारत की एकता का समावेश करना।”
Need
of National Integration
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता –
देश की समृद्धि एवं विकास हेतु संकीर्ण मनोवृत्तियों व स्वार्थपरता
का परित्याग कर राष्ट्रीय एकता का समावेशन परमावश्यक है इसीलिये के0 एल 0
श्रीमाली महोदय ने कहा-
“The
process of national integration must continue and be strengthened, if we are to
preserve and enrich our hard one freedom.” – K.L. Shrimali
“यदि
हम मुश्किल से प्राप्त अपनी स्वतन्त्रता की सुरक्षा एवं समृद्धि चाहते हैं, तो हमें
राष्ट्रीय एकता की प्रक्रिया को जारी रखना और शक्तिशाली बनाना पड़ेगा।”
राष्ट्रीय एकता राष्ट्र के अस्तित्व के लिए परमावश्यक है राष्ट्रीय
एकता की समस्या प्रत्येक राष्ट्रवादी को व्यथित करती है इसीलिये डॉ 0 राधाकृष्णन
जी ने कहा –
“National Intrregation is a problem with which our
survival as a civilized nation as a bound up.”- Dr. Radha Krishanan
”राष्ट्रीय एकता एक ऐसी समस्या है, जिससे सभ्य
राष्ट्र के रूप में हमारे अस्तित्व का घनिष्ठ सम्बन्ध है।”
Factors Against National Integration-
राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व –
राष्ट्र को समुन्नत बनाने और विकास की ओर अग्रसर करने हेतु राष्ट्रीय
एकता की परम आवश्यकता है किन्तु भारत में राष्ट्र्रीय एकता के मार्ग में कई बाधाएं
हैं जिन्हे हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
Casteism (जातिवाद
) – लोगों का संकीर्ण दृष्टिकोण तथा राजनीतिक दलों का जातीयता भड़काने वाला भाव
लोगों को भ्रमित कर देता है इससे राष्ट्रीयता की भावना को ठेस लगती है,इस
सम्बन्ध में G.S.Ghuriye (जी0 एस0 घुरिये) का विचार है –
“The feeling of casteism creates the feeling of hatred
for other casts and prepares unhealthy atmosphere for the development of
national consciousness.”
“यह जाति प्रेम की भावना है जो अन्य जातियों में कटुता उत्पन्न करती
है तथा राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए अनुपयुक्त वातावरण तैयार करती है।”
Noncivilized
thinking-
असभ्य सोच –
कुछ लोगों की सोच संकीर्णता में इतनी जकड़ी है की वे सभ्य समाज और देश
के भविष्य का चिन्तन न कर केवल खुद का क्षणिक लाभ देखते हैं और भविष्य के सार्थक
क्रिया कलापों की बाधा बन जाते हैं जैसा कि जवाहर लाल नेहरू ने स्पष्ट कहा –
“National Integration and cohesion is a matter of vital
importance today. It is the basic of all other activities which we try to
further.”
“राष्ट्रीय एकता एवं सामंजस्य आज एक महत्वपूर्ण विषय है। यह उन सभी
क्रिया कलापों का आधार है जिन्हे हम भविष्य में करना चाहते हैं।”
Provincialism (प्रान्तीयता) –
भारत के प्रान्तों में स्वस्थ विकासात्मक प्रतिस्पर्धा का अभाव देखने
को मिलता है यह प्रान्तीयता की भावना हिन्सात्मक आन्दोलन व आतंक वाद में परिणित हो
जाती है और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाती है।
Communalism
(साम्प्रदायिकता)-
इस देश की एकता के समक्ष साम्प्रदायिकता बहुत विकराल समस्या के रूप
में उभरी है जो सम्प्रदाय हमारी भारतीय सनातन सभ्यता की उदारता से पनपे वही
अलगाववादी दुष्प्रभाव से युक्त हो विषवमन कर रहे हैं आए दिन साम्प्रदायिक
दंगे की सूचना सम्प्रेषित होती रहती है यह
खूनी होली निर्दोषों की बलि लेती रहती है। राष्ट्रीय एकता के समक्ष यह बहुत बड़ा
खतरा है।
Political
Parties (राजनीतिक दल)-
भारतीय परिदृश्य में निहित स्वार्थ वाले, संकीर्ण
मानसिकता से युक्त राजनीतिक दल अस्तित्व में आ गए हैं जो उत्तेजना,भावनात्मक
उन्माद फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं लेश मात्र भी राष्ट्रवादी भावना से युक्त
नहीं हैं। जाति, सम्प्रदाय, धर्म, भाषा के आधार पर
राष्ट्र को विघटित करने वाले राजनीतिक दलों ने एकता को विघटित करने का कार्य किया है। गैर राष्ट्रवादी दलों से देश की
एकता को बड़ा खतरा है।
Communication
System (संचार व्यवस्था )-
संचार के बहुत से साधन अस्तित्व में आये हैं लेकिन गलत तथ्य
सम्प्रेषण पर रोक की कोइ प्रभावी व्यवस्था नहीं है इसीलिये इन साधनों से अनर्गल
तथ्य दुष्प्रचार कर राष्ट्रीय एकता के समक्ष बाधा उपस्थिति की जा रही है।
Lack
of Effective Leadership (प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव) –
परिवार वाद,
भाई भतीजा वाद,
धन ,आपराधिक
मनोवृत्ति आदि नेतृत्व शक्ति पर हावी होकर उन्हें पथ भ्रमित कर देता है,चारित्रिक दृढ़ता
के अभाव में प्रभावशीलता खो जाती है और
देश राजनीतिक अपवंचना का शिकार हो जाता है, घोटाले बाज हावी हो जाते हैं।
कुशल नेतृत्व के अभाव में राष्ट्रवादी चेतना जाग्रत नहीं हो पाती और
राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाती है।
Social,
Economic Status (सामाजिक, आर्थिक
स्तर)-
सामाजिक हीन दृष्टिकोण और वास्तविक आर्थिक कमजोरी का दुष्प्रभाव वही
समझ पाता है जिसने इसे भोगा है अस्तित्व रक्षा में लगे मानव से उच्च मूल्य
निष्पादन की आशा कैसे की जा सकती है मूलभूत सुविधाओं से वंचित व समाज की अपवंचना
का शिकार राष्ट्रीय एकता जैसे बिन्दु पर सोच भी नहीं पाता। शोषक धन लिप्सा में और
शोषित अस्तित्व रक्षा को प्रधान मान एकता को तिलाञ्जलि दे देते हैं।
Language
Controversy (भाषा विवाद) –
प्रत्येक विकसित राष्ट्र का राष्ट्र ध्वज, राष्ट्र गीत, राष्ट्र गान, राष्ट्र भाषा
निर्विवादित है, सनातन
संस्कृति के उदारवादी दृष्टिकोण के चलते ही हिन्दी आज भी राष्ट्र भाषा के रूप में
गरिमामयी स्थान नहीं पा सकी।जबकि सुशीला नायर ने 21 नवम्बर 1967 को लोक सभा डिबेट
में कहा –
“Hindi should be accepted as the common medium of
instruction in all the universities of India.”
“भारत के सभी विश्व विद्यालयों में शिक्षण के सामान्य माध्यम के
रूप में हिन्दी स्वीकृत की जानी चाहिए।”
भाषा के नाम पर पंजाब,असम, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु में
अपमान जनक घटनाएं घटीं। यह विवाद एकता के समक्ष बाधा उपस्थित करता है।
उक्त के अतिरिक्त सांस्कृतिक विविधता, संवैधानिक भूल,
रोजगार नीति व शिक्षा की विफलता भी राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्वों
में शुमार हैं।
Suggestions
to remove the obstacles of National Integration (राष्ट्रीय
एकता की बाधाओं को दूर करने के उपाय) –
सन 1961 में शिक्षा मंत्रालय,भारत सरकार ने डॉ सम्पूर्णा नन्द की अध्यक्षता
में समिति ने राष्ट्रीय एकता हेतु निम्न सुझाव दिए –
(1 )- सभी स्तरों के पाठ्यक्रम में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के अनुरूप
परिवर्तन व सुधार किया जाए।
(2 )- पाठ्य सहगामी क्रिया जैसे राष्ट्रीय महत्त्व की घटनाओं, पर्वों,
खेलकूद
,शैक्षिक भ्रमण, एन ० सी ० सी ०, स्काउट व गाइड,
नाटक,युवा
समारोह आदि का प्रचुर मात्रा में आयोजन किया जाए।
(3)- विश्व
व राष्ट्र की सामजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का बोध कराया जाए। देशभक्तों व महान
व्यक्तित्वों की कहानियाँ व जीवन वृत्त पढ़ाया जाना चाहिए।
(4)- पाठ्य क्रम में सुधार कर भावात्मक व राष्ट्रीय एकता में वृद्धि की जा
सकती है ,
(5)- राष्ट्र गान, राष्ट्रध्वज, तथा राष्ट्रीय
दिवसों के प्रति सम्मान दिखाया जाना चाहिए।
(6)- प्रतिदिन राष्ट्रीय एकता की प्रतिज्ञा के साथ शुरू होना चाहिए।
Suggestion
of Kothaari Commission (कोठारी आयोग के सुझाव)-
राष्ट्रीय एकता सम्मलेन के पश्चात जो आयोग अस्तित्व में आया वह
कोठारी आयोग था जो शिक्षा को राष्ट्रीय एकता हेतु परमावश्यक मानते हैं उन्होंने
राष्ट्रीय एकता हेतु सुझाव इस प्रकार दिए। –
(1 )- सामान
विद्यालय व समान अवसर प्रणाली सिद्धान्त प्रयुक्त करना।
(2
) -सामान्य
राष्ट्रीय विकास व सामजिक राष्ट्रीय एकीकरण को शिक्षा के सभी स्टारों पर अभिन्न
अंग बनाना।
(3 )- राष्ट्रीय
एकता का सम्यक विकास।
(4 )- सभी
आधुनिक भाषाओं का विकास करते हुए हिन्दी का तीव्र गति से विकास जिससे इसे केंद्र
की सरकारी भाषा का दर्जा मिल सके।
Contribution
of Education (शिक्षा का योगदान) –
संसार की किसी भी समस्या का समाधान करने की महती शक्ति शिक्षा धारण
करती है राष्ट्रीय एकता हेतु भी शिक्षा का आश्रय लिया जा सकता है भारतीय
परिप्रेक्ष्य में निम्न बिंदुओं पर ध्यान देकर राष्ट्रीय एकता की भावना पुष्ट की
जा सकती है –
शिक्षा
शब्द का अंग्रेजी पर्याय एजुकेशन (Education )है Education
शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन (Latin) भाषा के निम्न शब्दों से हुई है
Educatum (एडुकेटम )
Educere (एडुसीयर)
Educare (एडुकेयर)
Educatum
(एडुकेटम
) – शिक्षित करना
E – अन्दर से
Duco – आगे बढ़ाना
इस
प्रकार एजूकेशन का अर्थ है — बालक की आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रगट करने
की क्रिया
Educere (एडुसीयर) – विकसित करना अथवा निकालना ( To lead out )
Educare (एडुकेयर) – बाहर निकालना अथवा विकसित करना (To Educate, To bring up or To raise )
उक्त
सभी आशयों से स्पष्ट है कि शिक्षा बालकों की आन्तरिक शक्तियों के पूर्ण विकास से
सम्बन्धित है।
शिक्षा
शब्द को भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो संस्कृत शिक्षा शब्द शिक्ष धातु में अ
प्रत्यय लगाने से बना है शिक्ष का अर्थ है सीखना और सिखाना। इस प्रकार श्क़्श का
शाब्दिक अर्थ हुआ –
सीखने
सिखाने की क्रिया
Narrower Meaning of Education –
शिक्षा
का संकुचित अर्थ –
J.S.
Mackenzi के
अनुसार –
“Education may be taken to mean any consciously direct effort to develop and cultivate our powers.”
अर्थात
संकुचित अर्थ में शिक्षा का अभिप्राय – हमारी शक्तियों के विकास और उन्नति के लिए
चेतना पूर्वक किये गए किसी भी प्रयास से हो सकता है।
जब
कि Drever महोदय का विचार है –
”Education is a process in which and by which, the knowledge, character and behaviour of the young are shaped and moulded . ”
(” शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसमें तथा जिसके
द्वारा बालक के ज्ञान, चरित्र और व्यवहार को एक विशेष सांचे में ढाला
जाता है। “)
Wider meaning of education
शिक्षा
का व्यापक अर्थ –
J.S. Mackenzi के अनुसार
“In wider sense, It is a process that goes on throughout life and is promoted by almost every experience in life.”
(जे
० एस ० मैकेन्जी – व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो आजीवन चलती रहती
है और जीवन के प्रायः प्रत्येक अनुभव से उसके भण्डार में वृद्धि होती है। “)
जबकि
Dumville महोदय कहते हैं –
“Education in its wider sense includes all the influences which act upon an individual during his passage from the cradle to the grave.”
(”
शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे सभी प्रभाव
आते हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं।”- प्रो ०
डम्विल )
Analytical
meaning of Education
शिक्षा
का विश्लेष्णात्मक अर्थ –
A-शिक्षा एक आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।
-शिक्षा एक द्विध्रुवीय प्रक्रिया है।
Teacher
– Student
B-शिक्षा
एक त्रिमुखी प्रक्रिया है।
Teacher – Student
–
Curriculum
C-शिक्षा
एक सामाजिक प्रक्रिया है।
D-शिक्षा
एक गतिशील प्रक्रिया है। –
टी
० रेमण्ट – ” शिक्षा विकास का वह क्रम है जिसमें व्यक्ति के शैशव से
प्रौढ़ता तक की वह क्रिया निहित है जिसके द्वारा वह अपने को धीरे धीरे विभिन्न
विधियों से अपने भौतिक सामाजिक, आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बनाता है। ”
E-शिक्षा
विकास की प्रक्रिया है-
हॉर्न
के अनुसार –
“शारीरिक और मानसिक दृष्टि से विकसित, स्वतन्त्र और सचेतन मानव, मानव की ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट अनुकूलन की
निरन्तर प्रक्रिया ही शिक्षा है जो मनुष्य के बौद्धिक भावात्मक एवम् इच्छा शक्ति
से जुड़े वातावरण में अभिव्यक्त होती है
।”
F-जन्मजात
शक्तियों के विकास का प्रमुख कारक शिक्षा है। –
एडिसन
महोदय के अनुसार –
“शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य
में निहित उन शक्तियों और गुणों का दिग्दर्शन होता है जिनका ऐसा होना शिक्षा के
बिना असम्भव है।”
G-शिक्षा
का अर्थ केवल विद्यालयों में प्रदत्त ज्ञान तक सीमित नहीं है।
शिक्षा का वास्तविक अर्थ (True meaning of Education)-
शिक्षा
वह गतिशील एवम् सामाजिक प्रक्रिया है जो मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का सर्वांगीण
विकास करने में सहायता देती है उसे विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों से सामंजस्य
करने में योग देती है उसे जीवन एवं नागरिकता के कर्त्तव्यों एवम् दायित्वों को
पूर्ण करने के लिए तैयार करती है तथा उसमें ऐसा विवेक जाग्रत करती है जिससे वह
अपने समाज राष्ट्र विश्व और सम्पूर्ण मानवता के हित में चिन्तन संकल्प और कार्य कर
सके।
Different
concepts of Education
शिक्षा
की विभिन्न धारणाएं –
1-शिक्षा मानव का विकास है (Education is the development of man)-
डीवी
के अनुसार –
“शिक्षा उन सब शक्तियों का विकास है जिनसे वह
अपने वातावरण पर अधिकार प्राप्त कर सके और अपनी भावी आशाओं को पूर्ण कर सके।”
“Education is the development of all those capacities in an individual which will enable him to control his environment and fulfill his possibilities.” -John Dewey
दूसरे
शब्दों में शिक्षा अभिवृद्धि (Growth) है।
प्रशिक्षण
व वातावरण के अनुसार – क्रिया प्रतिक्रिया
2 –शिक्षा वातावरण से अनुकूलन की प्रक्रिया है (Education is a process of adjustment
to environment.)-
बटलर
के अनुसार -“शिक्षा प्रजाति की आध्यात्मिक सम्पत्ति के साथ व्यक्ति का क्रमिक
सामञ्जस्य है। ”
“Education is a gradual adjustment of the individual to the spiritual possession of the race.” –Butler
3 – शिक्षा समूह में परिवर्तन करने की प्रक्रिया है
(Education
is the process of producing a change in the group)-
“शिक्षा चैतन्य रूप में एक नियन्त्रित प्रक्रिया
है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किये जाते हैं तथा व्यक्ति के
द्वारा समाज में। “
“Education is the consciously controlled process whereby changes in behaviour are produced in the person and through the person within the group.” – Brown
शिक्षा
के अंग या घटक ( Data or factors of Education)-
अंग्रेज
विद्वान जॉन एडम – (1 ) –
प्रभावित होने वाला ( शिक्षार्थी )
(2 )-
प्रभावित करने वाला ( शिक्षक )
अमेरिकन
विद्वान् जॉन डीवी के अनुसार -1 – मनोवैज्ञानिक
(सीखने वाले की मानसिक स्थिति)
2- सामाजिक
(सीखने वाले का सामाजिक पर्यावरण )
अंग्रेज
विद्वान रायबर्न –
1 -शिक्षार्थी
2 – शिक्षक
3 -पाठ्यचर्या
उक्त
विवेचन और समकालीन साहित्य के विश्लेषणोपरान्त सामान्यतः निम्न घटक स्वीकार किए जा
सकते हैं –
1 -शिक्षार्थी
2 – शिक्षक
3 -पाठ्यचर्या
4 -शिक्षण विधियाँ और शिक्षोपकरण
5 – प्राकृतिक पर्यावरण
6- सामाजिक पर्यावरण
7- मापन तथा मूल्याँकन
शिक्षा
की कुछ विशिष्ट परिभाषाएं –
Some specific definition of Education-
“Education is a natural harmonious and progressive development of man’s innate powers.” -Pestalozi
पेस्टालॉजी
– ” शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरूप तथा प्रगतिशील
विकास है। ”
“Education means to enable the child to find out the ultimate truth …….. making truth its own and giving expression to it.”- R. N. Tagore
रवीन्द्र
नाथ टैगोर –
“शिक्षा का अर्थ मनुष्य को इस योग्य बनाना है कि
वह सत्य की खोज कर सके … तथा अपना बनाते हुए उसको व्यक्त कर सके।”
“Education should be man-making and society making.”-Dr.Radha Krishan
डॉ
राधा कृष्णन-
“शिक्षा को मनुष्य और समाज का निर्माण करना
चाहिए। “
“Education is a process by which a child makes its internal-external.” Frobel
फ्रोबेल
महोदय के अनुसार –
“शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक अपनी
आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करता है।”
“Education is that process whereby he adopts himself gradually in various ways to his physical, social, and spiritual environment. – T. Remant
टी ० रेमांट के अनुसार –
“शिक्षा वह क्रम है जिससे मानव अपने को
आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना
लेता है।”
Swami Viveka
Nand-
“Education
is the manifestation of perfection already reached in man.”
प्रसिद्ध सन्त विवेकानन्द के मत में –
“शिक्षा मनुष्य के अन्दर सन्निहित पूर्णता का प्रदर्शन है।”
Kant – “Education is the development in the individual of all the perfections of which he is capable.”
काण्ट – “शिक्षा व्यक्ति की उस पूर्णता का विकास है जिसकी उसमें क्षमता है। “
John Dewey -“Education is a process of living and not a preparation for future living.”
डीवी
के अनुसार -“शिक्षा भावी जीवन की तैयारी मात्र नहीं है वरन जीवन यापन की
प्रक्रिया है। “
Krishna
Murti –
“To
understand life is to understand ourselves and that is both the beginning and
the end of education.”
“जीवन को समझना अपने आप को समझना है और वह दोनों शिक्षा का प्रारम्भ तथा अन्त है।”-कृष्ण मूर्ति
Herbert Spencer- “Education means the establishment of coordination between the inherent powers and the outer life.”
हर्बर्ट
स्पेन्सर –
“शिक्षा का अर्थ अन्तः शक्तियों का वाह्य जीवन
से समन्वय स्थापित करना है। “
Nature
of Education
शिक्षा
की प्रकृति –
(1 )- शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके तीन
प्रमुख अंग हैं सीखने वाला,
सिखाने वाला और सीखने सिखाने की विषय सामग्री
अथवा क्रिया।
(2 )-संकुचित अर्थ में माना जाता है की शिक्षा की
प्रक्रिया विद्यालय में ही चलती है जबकि व्यापक अर्थ में यह प्रक्रिया समाज में
निरन्तर चलती रहती है।
(3 )-शिक्षा के उद्देश्य समाज द्वारा निश्चित होते
हैं और विकासोन्मुख होते हैं शिक्षा इस उद्देश्य की प्राप्ति की क्रमक व्यवस्था है
यह सोद्देश्य प्रक्रिया है।
(4 )- व्यापक अर्थ में शिक्षा की विधियां अति व्यापक
होती हैं परन्तु संकुचित अर्थ में निश्चित प्राय होती हैं।
(5 )-व्यापक अर्थ में शिक्षा की विषय सामग्री अति व्यापक होती हैं जिसका
सीमांकन सम्भव नहीं परन्तु संकुचित अर्थ में इसकी विषय सामग्री निश्चित पाठ्यचर्या
तक सीमित होती हैं।लेकिन दोनों ही अर्थों में यह सामाजिक वकास में योग देती है।
(6 )-शिक्षा का स्वरुप समाज के स्वरुप शासन तन्त्र,
अर्थतन्त्र,और वैज्ञानिक प्रगति आदि पर निर्भर करता है।
(7 )- शिक्षाकी प्रकृति गतिशील होती है क्योंकि समाज के स्वरुप,
शासन तन्त्र, अर्थतन्त्र,और वैज्ञानिक परिवर्तनों के साथ साथ उसकी
शिक्षा के स्वरुप में भी परिवर्तन होता रहता है।