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शिक्षा

वैदिक कालीन शिक्षा[2500 ई ०पू ०-500 ई ०पू ०]

May 12, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

वैदिक कालीन शिक्षा एवम् सामाजिक व्यवस्था पर ब्राह्मणों का एक मात्र अधिकार था इसलिए वैदिक शिक्षा को ब्राह्मणीय शिक्षा के नाम से भी जानते हैं कुछ इतिहासकार इसे वैदिक काल,उत्तर वैदिक काल,ब्राह्मण काल,उपनिषद काल,सूत्र काल और स्मृतिकाल में विभक्त कर वर्णित करते हैं परन्तु इन सभी कालों में वेदों की प्रधानता रही अतः इस सम्पूर्ण काल को वैदिक काल कहते हैं।

वैदिक शिक्षा का अर्थ – वैदिक साहित्य में ‘शिक्षा’ शब्द विद्या,ज्ञान, प्रबोध एवम् विनय आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक शिक्षा का तात्पर्य शिक्षा के उस प्रकार से था जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो सके और वह धर्म के आधार पर वर्णित मार्ग पर चलकर मानव जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके जैसा  अल्तेकर महोदय ने लिखा –

“शिक्षा को ज्ञान, प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था जो हमारीशारीरिक,मानसिक,भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का उत्तरोत्तर और सामन्जस्य पूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उत्कृष्ट बनाती है।”

“Education was regarded as a source of illumination and power which transforms and ennobles our nature by the progressive and harmonious development of our physical, mental, intellectual and spiritual powers and faculties.

 A.S.Altekar; Education in Ancient India    

1973, p. 8

शिक्षा के उद्देश्य एवम् आदर्श –

चूंकि जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना था इसलिए इसके अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य एवम् आदर्श निर्धारित किये गए जैसा कि अल्तेकर महोदय ने लिखा –

 “प्राचीन भारतीय उद्देश्यों एवम् आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है – ईश्वर भक्ति की भावना एवम् धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण,व्यक्तित्व का विकास, सामाजिक कर्तव्यों को समझाना,सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार।”

“Infusion of a spirit of piety and religiousness, formation of character, development of personality, inculcation of civic and social duties, promotion of social efficiency and preservation and spread of national culture may be described as the chief aims and ideals of ancient Indian Education.” – A. S. Altekar,pp8-9

1 – धर्म परायणता की भावना एवम् धार्मिकता का समावेश

      (Infusion of a spirit of piety and religiousness)

2 – सामाजिक कुशलता की उन्नति (Promotion of Social Efficiency)

3 – चरित्र निर्माण (Formation of character)

4 – व्यक्तित्व का विकास (Development of personality)

5 – नागरिक एवम् सामाजिक कर्त्तव्यों की समझ (Inculcation of civic and social duties)

6 – राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसार (Preservation and spread of National culture)

शिक्षा व्यवस्था (Organization of Education) –

01 – गुरुकुल प्रवेश

02 – उपनयन संस्कार

03 – पाठ्य क्रम

04 – शिक्षण विधि

05 – शिक्षा की अवधि

06 – शिक्षण सत्र

07 – अवकाश

08 – शिक्षण संस्थाओं का समय

09 – शिक्षण शुल्क व अर्थ व्यवस्था

10 – शिक्षा वाह्य नियन्त्रण से मुक्त

11 – परीक्षाएं व उपाधियाँ

12 – समावर्तन संस्कार

विशिष्ट शिक्षाएं –

1 – स्त्री शिक्षा

2 – व्यावसायिक शिक्षा

3 – पुरोहितीय शिक्षा

4 – सैनिक शिक्षा

5 – वाणिज्य शिक्षा

6 – कला कौशल की शिक्षा

7 – आयुर्वेद शास्त्र 

8 – पशु चिकित्सा

वैदिक शिक्षा का मूल्याँकन –

गुण :-

1 – धार्मिक भावना का विकास

2 – चरित्र निर्माण

3 – व्यक्तित्व का विकास

4 – नागरिक व सामाजिक उत्तरदायित्व भावना का विकास

5 – सामाजिक सुख समृद्धि की वृद्धि

6 – राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व विकास

7 – गुरु छात्र सम्बन्ध

8 – पवित्र प्राकृतिक वातावरण

दोष :-

1 – धार्मिकता पर अधिक बल

2 – भौतिक विज्ञानों पर अपेक्षाकृत कम ध्यान

3 – लोक भाषाओँ की उपेक्षा

4 – विषयों में समन्वय का अभाव

5 – हस्त कार्य के प्रति हे भावना

6 – स्त्री शिक्षा की उपेक्षा

7 – शूद्रों के साथ न्याय नहीं

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शिक्षा

प्रजातन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य [Aims of Education in Democratic India ]

May 3, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जिन्हें शिक्षा के उद्देश्य कहा जाता है वास्तव में वे सम्पूर्ण मानवता के उद्देश्य होते हैं और शिक्षा वह साधन है जिससे यह उद्देश्य प्राप्त किए जाते हैं।लेकिन बलचाल में हम शिक्षा के उद्देश्य का प्रयोग करते हैं और ये इतने आवश्यक हैं कि बी ० डी ० भाटिया जी को कहना पड़ा कि :-

“Without the knowledge of aims, the educator is like a sailor who does not know the goal or his determination, and the child is like a rudderless vessel which will be drifted along somewhere ashore.”

“उद्देश्यों के ज्ञान के अभाव में शिक्षक उस नाविक के समान है जो अपने लक्ष्य या मन्जिल को नहीं जानता है और बालक उस पतवार विहीन नौका के सामान है जो लहरों के थपेड़े खाकर किसी भी किनारे जा लगेगी।”’

प्रजातन्त्रीय देश भारत के उत्थान हेतु यह परम आवश्यक होगा कि वह लोकतन्त्र की मर्यादा के अनुरूप सम्पूर्ण देश की शिक्षा हेतु उद्देश्यों का निर्धारण करे और इस उद्देश्य निर्धारण में निम्न बिन्दु महती भूमिका का निर्वहन करेंगे। सुविधा की दृष्टिकोण से इन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है।

[A] – व्यक्ति सम्बन्धी उद्देश्य या वैयक्तिक उद्देश्य

[B] – समाज सम्बन्धी उद्देश्य

[C] – राष्ट्र सम्बन्धी उद्देश्य

[A] – व्यक्ति सम्बन्धी उद्देश्य या वैयक्तिक उद्देश्य

01 – शारीरिक विकास

02 – चारित्रिक विकास

03 – आध्यात्मिक विकास

04 – मानसिक विकास

05 – सांस्कृतिक विकास

06 – वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास

07 – सकारात्मक रूचि का विकास

08 – चिन्तन शक्ति का विकास

09 – आर्थिक सक्षमता का विकास

10 – प्रजातान्त्रिक नागरिकता का विकास

[B] – समाज सम्बन्धी उद्देश्य

01 – कल्याणकारी राज्य की स्थापना

02 – सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास

03 – सामाजिक बुराइयों का अन्त

04 – जन शिक्षा का प्रसार

05 – वातावरण से सामन्जस्य शक्ति का विकास

[C] – राष्ट्र सम्बन्धी उद्देश्य

01 – राष्ट्रीय एकता

02 – भावनात्मक एकता

03 – अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास

04 – बेरोजगारी निवारण, व्यावसायिक विकास

05 – उत्पादन क्षमता में वृद्धि

06 – आधुनिकीकरण शक्ति का विकास

07 – मूल्य संरक्षण

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शिक्षा

शिक्षक स्वायत्तता और जवाबदेही (Teacher autonomy and accountability)

April 24, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शिक्षक स्वायत्तता से आशय –

शिक्षक स्वायत्तता का सीधा सादा अर्थ है शिक्षक को उसके निमित्त कार्यों में स्वतन्त्रता। शिक्षक के दायित्व बदलते समय के साथ सामाजिक मांगों के अनुरूप परिवर्तित होते रहते हैं और सारी समस्याओं के निदानीकरण हेतु शिक्षा की और देखा जाता है जिसका निर्वहन शिक्षक को करना होता है शिक्षक को स्वतंत्र चिंतन के साथ स्वायत्त रूप से कार्य करने की आवश्यकता यहीं से पारिलक्षित होने लगती है। शिक्षक स्वायत्तता वस्तुतः अधिगम को प्रभावी व व्यावहारिक बनाने के  लिए  विषयवस्तु की आवश्यकतानुरूप शिक्षक द्वारा बिना किसी बाहरी दवाब से प्रभावित हुए कार्य को परिणति तक पहुँचाने से है।

            यह कोई ऐसी निश्चित सत्ता नहीं है जो कुछ लोगों के पास होती है और कुछ के पास नहीं यह संस्थान,पाठ्यक्रम ,राज्य तन्त्र से सीधे प्रभावित होती है वैतनिक अध्यापक निर्धारित पाठ्यवस्तु को अपनी क्षमता के अनुसार अधिगम कराने हेतु शिक्षण विधियों व सम्प्रेषण के लिए स्वायत्त है। . संजीव बिजल्वाण महोदय ने प्रवाह मई -अगस्त 2015 में ‘अध्यापक स्वायत्तता ‘ नमक लेख में लिखा –

“बदलते सन्दर्भों, मायनों,व भूमिकाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण बात हे शिक्षक और शिक्षार्थी की स्वायत्तता। सीखने और सिखाने की प्रक्रिया तभी लचीली और सन्दर्भ व परिवेश आधारित होगी जब शिक्षक इसके लिए स्वायत्त होगा। ” 

अध्यापक स्वायत्तता से आशय विविध परिसीमाओं के अन्तर्गत शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षक द्वारा स्वायत्त रूप से कार्य करने से है।

शिक्षक स्वायत्तता और विविध काल –

a – वैदिक काल

b – बौद्ध काल

c – मुस्लिम काल

d – ब्रिटिश शासन काल

e – आजाद भारतीय कालावधि

आज का अध्यापक एक व्यवस्था (System ) का एक हिस्सा है जो राज्य द्वारा संचालित होता है और यह राजनीति से इतना अधिक प्रभावित है की गलत तथ्यों ,गलत इतिहास व अनावश्यक परोसने से भी नहीं चूकता। व्यवस्था है किसी हाथ में और दिखती दूसरे हाथों में है।

शिक्षक स्वायत्तता का यथार्थ –

जब समाज व राष्ट्र के उत्थान हेतु पाठ्यक्रम निर्माण से लेकर अधिगम तक के सम्पूर्ण कालन्तराल पर विविध विज्ञ अध्यापकों के स्वतन्त्र मौलिक विचारों की छाप दिखाई देने लगेगी कुछ लोगों के निहित स्वार्थों से ऊपर उठ शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था एक स्वायत्त पक्षपात पूर्ण दृष्टिकोण से ऊपर उठ राष्ट्रवाद के आलोक में निर्णय लेने में सक्षम होगी। जब वास्तविक अध्यापक शिक्षा की विविध नीतियों के निर्माण से लेकर परिणाम की प्राप्ति तक प्रभावी भूमिका बिना किसी बाहरी दवाब के निभाएगा। वास्तविक अर्थों में शिक्षक स्वायत्तता होगी।

शिक्षक स्वायत्तता व जवाबदेही –

आजाद भारत की सारी व्यवस्थाएं न तो शिक्षा के साथ न्याय कर पाईं और न सम्पूर्ण अध्यापकों के साथ, सभी राजनैतिक पार्टियां शिक्षा के दायित्व से अपना हाथ खींचने में लगीं रहीं। परिणाम यह हुआ कि लगभग 80 %शिक्षा व्यवस्था व्यक्तिगत हाथों में पहुँचकर व्यक्तिगत लाभ का साधन मात्र बनकर रह गयीं। अध्यापक बेचारा बन गया उसके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे और सारी स्वायत्तता अपने सच्चे अर्थ खो बैठी। वर्तमान भारत में सम्पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था की जिम्मेदारी का निर्वहन निम्न माध्यम से सम्पन्न होता है और इनमें स्वायत्तता व जवाबदेही की स्थिति में अन्तर स्पष्ट द्रष्टव्य है –

1 – सरकारी संस्थाएं

2 – गैर सरकारी संस्थाएं

1 – सरकारी संस्थाएं –

इसमें सरकारी व अर्धसरकारी संस्थान आते हैं। माध्यमिक स्तर तक अलग अलग राज्यों के बोर्ड व्यवस्थाओं को संभालते हैं सीधे शासन की नीतियों के अनुरूप कार्य सम्पादित होते हैं बहुत बड़े तंत्र के रूप में इनका विकास हुआ है केन्द्रीय व राज्य स्तर पर विभिन्न नियमों विनियमों के आधार पर कार्य सम्पादित होता है।

और अध्यापक स्वायत्तता अलग अलग नियामक सत्ताओं द्वारा कार्य करने के कारण बाधित होती है चूंकि स्वायत्तता व सामञ्जस्य का स्तर निम्न है अतः जवाबदेही का स्तर भी बहुत प्रभावी नहीं बन पड़ा है। इन शिक्षण संस्थाओं में बहुत अधिक परिवर्तन की आवश्यकता है मर्यादित स्वायत्तता व प्रभावी जवाबदेही की उचित व्यवस्था न होने के कारण ,मोटा वेतन देने के बाद भी इनके विश्व स्तरीय बनाने में संदेह है।

 उच्च शिक्षा के स्तर पर स्थिति अत्यन्त दयनीय है इसमें प्रश्नपत्र निर्माण से लेकर उनके मूल्याँकन तक में अध्यापक भागीदारी दिखाई देती है जितने भी अतिरिक्त लाभ के कार्य हैं बखूबी निभाए जाते हैं सिर्फ कक्षा शिक्षण के, अधिकाँश विद्यार्थी अधिकाँश जगह अनुपस्थित रहते हैं नाम मात्र की कक्षागत क्रियाएं होती हैं। शासन के साधनों का उपयोग कम दुरूपयोग अधिक देखने को मिलता है महाविद्यालय से लेकर विश्विविद्यालय तक आमूलचूल परिवर्तन की दरकार है कोई ऐसा विश्वविद्यालय खोजना मुश्किल होगा जहाँ दलाल न हों। अध्यापक स्वायत्तता, शिक्षण वातावरण के अभाव में कुप्रभावित है जवाबदेही के अभाव का प्रभाव कार्यों पर देखा जा सकता है नाम मात्र के लोग जिम्मेदारी से कार्य निर्वहन करते हैं व्यवस्था भ्रष्ट आचरण से प्रभावित दिखती है।

2 – गैर सरकारी संस्थाएं –

शासन की नीतियों के कारण ये संस्थाएं सरकारी संस्थाओं की तुलना में तीन से चार गुने विद्यार्थियों के अधिगम की व्यवस्था कर रही हैं कुछ समितियों द्वारा भी इनका संचालन किया जा रहा है लेकिन इन पर शासन द्वारा निर्धारित संस्थाओं का अप्रत्यक्ष नियंत्रण रहता है ये स्ववित्त पोषित संस्थान, विविध कार्यों हेतु शासन के संस्थानों के अनुरूप कार्य करने को बाध्य होते है जिनके प्रतिनिधि हर कार्य के बदले भौतिक लाभ लेते हैं  प्रायोगिक परीक्षाओं में शतप्रतिशत प्रथम श्रेणी इन्हीं की कृपा दृष्टि का परिणाम है।

अध्यापकों के साथ भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण के कारण न तो इन संस्थाओं को शासन से उचित लाभ मिल पाता है और न इनके अध्यापकों को। समान कार्य के लिए असमान वेतन प्राप्त करने के साथ अल्प वेतन भोगी अध्यापक आयाराम गयाराम की भूमिका में अधिक देखा जाता है। इनकी पूर्ण स्वायत्तता की तो कल्पना ही व्यर्थ है  हाँ अधिगम को प्रभावी बनाने के लिए ये स्वायत्त रूप निर्णय लेते हैं और यह तुलनात्मक रूप से अधिक जवाब देह होते हैं। प्रबन्धन के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण ये कार्य दायित्व निर्वहन के प्रति अधिक सजग रहते हैं।

            यदि समग्र रूप से विवेचना की जाए तो यह मानना ही होगा कि कुछ अच्छे लोगों ने ही सम्पूर्ण व्यवस्था को सही दिशा दे रखी है और ये सब जगह हैं इनकी संख्या सीमित है और ये अपने कार्य के प्रति उत्तरदायित्व पूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं और जवाबदेही स्वीकार करते हैं। राष्ट्रोत्थान हेतु सीमित शिक्षक स्वायत्तता व जवाबदेही शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित करना परम आवश्यक है।

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शिक्षा

आत्मअभिव्यक्ति/Self Expression

April 18, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

आत्म अभिव्यक्ति से आशय (MEANING OF SELF EXPRESSION )-

आत्म अभिव्यक्ति एक महत्त्वपूर्ण व कम व्याख्यायित शब्द है हिन्दी भाषा में आत्म शब्द स्व का परिचायक है और अभिव्यक्ति का आशय सरल शब्दों में प्रगटन से है। विकीपीडिया के अनुसार : –

 “अभिव्यक्ति का अर्थ विचारों के प्रकाशन से है व्यक्तित्व के समायोजन के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अभिव्यक्ति को मुख्य साधन माना है । इसके द्वारा मनुष्य अपने मनोभावों को प्रकाशित करता तथा अपनी भावनाओं को रूप देता है।”

साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति से आशय प्रगटन से है और स्वयम का प्रगटन चाहे वह किसी भी माध्यम से हो,आत्म अभिव्यक्ति कहलाता है।

आत्म अभिव्यक्ति के प्रकार (TYPES OF SELF EXPRESSION)-

विविध विद्वानों ने इसे विविध प्रकार से विवेचित किया है जिससे इसका स्वरुप जटिल हो गया है लेकिन मुख्य रूप से इसके प्रकारों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है। –

1 – शाब्दिक

 (a )- लिखित

 (b) – मौखिक

2 – अशाब्दिक -समस्त कलाएं

3 – चेतन शारीरिक भाषा  

आत्म अभिव्यक्ति को सुधारने के उपाय   (Ways to improve self expression) –

आत्म अभिव्यक्ति को सुधारने के उपायों को समझने हेतु यह आवश्यक है कि आत्म अभिव्यक्ति को प्रभावित करने वाले कारक  (TYPES OF SELF EXPRESSION) की समझ विकसित करने के साथ निम्न बिंदुओं पर गहनता से सम्पूर्ण क्षमता भर ध्यान दिया जाए। 

शारीरिक भाषा (Body Language) में सुधार हेतु वे सभी प्रयास सम्मिलित किये जाने चाहिए जो कौशल विकास से सम्बंधित हैं।

अशाब्दिक अभिव्यक्ति हेतु निरन्तरता ,जिज्ञासा, धैर्य, क्षमता सम्वर्धन की अनवरत साधना परमावश्यक है।

  आत्म अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने हेतु डॉ ० सतीश बत्रा जी का मानना है कि सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति में निम्न का विशेष संज्ञान लिया जाए –

1 – अधिक

2 – अनावश्यक

3 – अप्रिय

4 – अप्रासंगिक

5 – असमय

6 – असम्बन्धित

7 – अपात्र

साथ ही बत्राजी प्रभावी अभिव्यक्ति हेतु KISSSSS पर विशेष जोर देते हैं जिसका आशय है –

K – keep

I – it

S – Simple

S – Short

S – Straight

S – Sense full 

S – Strength of evidence

यानि कि तथ्यों को सम्प्रेषित करने में बात को सरल संक्षिप्त सीधा सार्थक व प्रभावी तरीके से रखा जाए।

अन्त में अध्यापकों से मैं विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि वे यदि निम्न पर ध्यान देंगे तो अच्छी आत्म अभिव्यक्ति कर पाएंगे –

T – Talent

E – Evaluation before communication

A – Apologize for mistakes

C – Confusion Removal

H – Harmony

E – Effectiveness

R – Realistic Approach

 वस्तुतः यह तथ्य सर्व विदित है कि जहां चाह वहाँ राह ,यदि आप पूरे आत्म विश्वास से आत्म अभिव्यक्ति प्रभावी बनाने का प्रयास करेंगे तो लक्ष्य की निकटता महसूस करेंगे और जल्दी आपका सपना साकार होगा।

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शिक्षा

पाठ्यक्रम मूल्याँकन के मानदण्ड और प्रक्रिया /CRITERIA AND PROCESS OF CURRICULUM EVALUATION

April 15, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शिक्षा की त्रिमुखी प्रक्रिया का और अध्यापक व विद्यार्थी के बीच सम्वाद का प्रमुख साधन पाठ्यक्रम ही है। यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि इसके बिना शैक्षिक प्रगति और उसकी क्रमबद्धता की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्यक पाठ्यक्रम मानव जाति की प्रगतिशीलता का आधार है इसलिए पाठ्यक्रम का कुछ मानदण्डों पर खरा उतरना परमावश्यक है।

पाठ्यक्रम मूल्याँकन के मानदण्ड (CRITERIA  OF CURRICULUM EVALUATION) –

चूँकि पाठ्यक्रम विद्यार्थी के अधिगम का आधार होने के साथ उसके व्यवहार परिवर्तन का भी प्रमुख आलम्ब है अतः यह परम आवश्यक है की उसे निम्न मानदण्डों को अवश्यमेव अपने में समाहित करना चाहिए। पाठ्यक्रम मानदंडों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।

1 – विश्वसनीयता (Reliability)

2 – वैधता (Validity)

3 – क्रमबद्ध सम्बद्धता (Serial affiliation)

4 – सामन्जस्यता (Harmony)

5 – व्यावहारिकता (Practicality)

6 – लोचशीलता (Elasticity)

पाठ्यक्रम मूल्याँकन की प्रक्रिया (PROCESS OF CURRICULUM EVALUATION) –

पाठ्यक्रम का निर्माण शिक्षा के उद्देश्यों तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इससे अधिगम की सुगमता व व्यवहार में परिवर्तन के गुण की भी अपेक्षा की जाती है ऐसी स्थिति में जाहिर सी बात है कि पाठ्यक्रम के मूल्यांकन की प्रक्रिया शिक्षा व मानव व्यवहार के व्यापक परिदृश्य से सम्बन्ध रखती है। पाठ्यक्रम के मूल्यांकन के माध्यम से ही यह ज्ञात होता है कि कोई अपने निर्माण का उद्देश्य कहाँ तक पूर्ण करने में सक्षम है। अतः पाठ्यक्रम मूल्यांकन की प्रक्रिया निम्न सोपानों से होकर गुजरती है।

1 – शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति

2 – शैक्षिक स्तर से समन्वयन

3 – प्राप्त अधिगम अनुभव का विवेचन

4 – व्यावहारिक सक्रियता में परिवर्तन

5 – विद्यार्थियों हेतु सार्थकता

6 – अधिगम स्थानान्तरण से अनुकूलता

7 – व्यावहारिक जीवन में उपादेयता

8 – ज्ञानात्मक व भावात्मक पक्ष की प्रबलता

            वस्तुतः पाठ्य क्रम मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है जो एक चक्र पाठ्यक्रम नियोजन -पाठ्यक्रम प्रस्तुतीकरण -विकास प्रक्रिया -मूल्यांकन तक पहुँचती है तत्पश्चात पुनः शुरू हो जाता है  पुनः पाठ्यक्रम नियोजन -पुनः पाठ्यक्रम प्रस्तुतीकरण -पुनः विकास प्रक्रिया -पुनः मूल्यांकन।

क्योंकि मानव की प्रगति काल के सापेक्ष होती है अतः एक बार का मूल्यांकन हर काल का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।

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शिक्षा

माह भर में परीक्षा की तैयारी कैसे करें. How to prepare for the exam in a month?

April 10, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

आज जहाँ कुछ बच्चे जान बूझ कर पढ़ने से जी चुराते हैं वहीं कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो सचमुच पढ़ना चाहते हैं और परिस्थितियाँ विपरीत हैं। कुछ बच्चे परिवर्तित स्थिति से साम्य बनाकर अपने अभीप्सित प्राप्त करना चाहते हैं।चाहे कारण कोई रहा हो कुछ बच्चों का समय  रेत की तरह हाथ से फिसल गया है  और मात्र एक माह शेष है और उनकी बलवती इच्छा।

सबसे पहले इन सभी की सकारात्मक ऊर्जाओं का वन्दन ,उक्त सारी परिस्थितियाँ अपने विद्यार्थियों, चाहे वो कहीं भी हैं से मुझे मिली हैं उन सभी विद्यार्थियों में से चुने हुए 10 प्रश्न और क्षमता भर उनके उत्तर देने का प्रयास करता हूँ आशा है सभी को जवाब मिल जाएगा। सामान परिस्थिति वाले देश के अन्य अधिगमार्थियों को भी लाभ मिलेगा। वादे के अनुसार किसी भी नाम का उच्चारण नहीं करूंगा ?

प्रश्न – मेरे परिवार का गुजारा एक दूकान से चलता है पिताजी की अस्वस्थता के कारण मैं दूकान पर बैठता हूँ प्रातः 10 बजे सुबह से रात्रि 8 बजे तक का समय दूकान के कार्यों में लग जाता है। परीक्षा की तैयारी कैसे हो ?

उत्तर – ये सही है कि बारह घण्टे कार्य के बाद थकान होती है आप दूकान से आकर अपने आप को तारो ताजा करें स्नान अनुकूल लगे तो किया जा सकता है खाइये पीजिए थोड़ा बहुत समय अपने मनोरञ्जन को दीजिये और सो जाइए कम से कम 6 घण्टे की नींद भी लीजिए तनाव रहित रहिए सब आराम से प्रबंधन हो जाएगा 10 बजे रात्रि से सुबह 4 बजे तक की आराम दायक नींद लीजिये उठिए प्रभु का कृतज्ञता ज्ञापन कीजिये दैनिक कार्यों यथा शौच, दन्त धावन, शेविंग,स्नान आदि से निवृत्त होकर सुबह 5 बजे से 10 बजे तक में से केवल 3 घण्टे अध्ययन को प्रति दिन दीजिए और इसमें चुने हुए कम से कम 4  प्रश्न याद कीजिए। विश्वास रखिये इन प्रश्नों की संख्या कब बढ़ गयी आपको पता ही नहीं चलेगा। 10 दिनों में आपका आत्म विश्वास लौट आएगा। सप्ताहान्त का समुचित प्रयोग करें। आप निश्चित सफल होंगे। 

प्रश्न – मेरे पति सहयोगी प्रवृत्ति के हैं मेरा बच्चा छोटा है मेरे से चिपका रहता है कब और कैसे पढ़ूँ ?

उत्तर – ऐसी स्थिति में आपको समय प्रबन्धन की आवश्यकता है जल्दी सोना और जल्दी उठना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है यह सोचकर आप दोनों समय का ऐसा विभाजन करें कि आप दोनों बच्चे की देखभाल के साथ पूरी नींद ले सकें। पूरी नींद लेने से अधिगम सशक्त होता है यदि आप रात्रि 8 बजे से दो बजे तक सोने का क्रम रखें ,हॉस्टल वाले बच्चों की तरह तो सुबह 2 बजे से पाँच, छः बजे तक अच्छी पढ़ाई हो सकती है बशर्ते की आप यह दिन में नोट कर लें कि रात्रि में क्या क्या याद करना है। सुबह उठने पर आप 30 मिनट प्राणायाम हेतु निकाल कर अपनेआप को रीचार्ज कर सकती हैं। पाँच  छः दिन में स्थिति अनुकूल हो जाएगी स्वास्थय का पूरा ध्यान रखना है।

प्रश्न – मैं एम० एड ० प्रथम वर्ष का छात्र हूँ  आठ घण्टे की प्राइवेट फर्म में सेवा व दो घण्टे आने जाने के व्यय करके जीवनयापन कर रहा हूँ मेरा अवकाश सोमवार को पड़ता है इसलिए केवल सोमवार को व कभी छुट्टी लेकर महाविद्यालय जा पाता हूँ।कब व कैसे तैयारी करूँ ?

उत्तर – जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं। … ये पंक्तियाँ आपको दिशा देंगीं। आप दो दो हफ़्तों में पूरे होने वाले लेक्चर्स यू ट्यूब – Education Aacharya पर देख सुन सकते हैं और वो भी एक घण्टे से भी कम समय में,यानी जब आप बस यात्रा कर रहे होते हैं। यदि लिखा हुआ मैटर चाहिए तो educationaacharya.com से ले सकते हैं। शेष आप जो भी समय निकाल सकते हैं उसे 40 मिनट के कालांश में तोड़ लें व सलेक्टेड स्टडी करें। कुछ भी असम्भव नहीं है।

प्रश्न – मेरा प्रायोगिक कार्य पूर्ण है लघु शोध भी हो चुका है लेकिन अब परीक्षा में लगभग एक माह शेष है प्रश्नों की तैयारी एम० एड ० परीक्षा हेतु कैसे करूँ ?

उत्तर –  घबराने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है इतना प्रायोगिक कार्य पूर्ण होने पर अब समस्त ध्यान पढ़ने पर ही लगाने की आवश्यकता है ,आप यूनिट के हिसाब से 10 -10 उद्धरण (Quotation) लिख लिखकर याद करें।  प्रश्न के शीर्षक उपशीर्षक बार बार लिखकर याद करें। अलग अलग तरह के प्रश्नों में अपने याद किये उद्धरण प्रयुक्त करने की कला सीखें। निश्चित रूप से आप अच्छा कर पाएंगे। स्वयं योजना बनाकर विगत वर्षों के प्रश्नपत्रों के आधार पर अपने उत्तरों को व्यवस्थित करें।अवश्यमेव कल्याण होगा।

प्रश्न – मैं बी० एड ० द्वित्तीय वर्ष की विद्यार्थी हूँ मेरा लेख बहुत खराब है ब्लैक बोर्ड स्किल से डर लगता है वैसे मैं याद सब कर लेती हूँ सुना भी सकती हूँ पर लेख कैसे सुधारूँ ?

उत्तर – महाकवि वृन्द ने कहा –

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निशान।

इसी में आपके प्रश्नका उत्तर छिपा है  आपको निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है यह ध्यान रखना है अक्षर सीधे लिखे जाएँ अक्षर और अक्षर के बीच की दूरी व शब्द और शब्द की दूरी बराबर रखी जाए। पंक्तियाँ एक दूसरे के समानान्तर रहें। शीघ्र ही वाँछित लाभ मिलेगा। अभ्यास में निरंतरता रखें।

प्रश्न – मैं सॉफ्ट बॉल और मेरी बहिन कबड्डी की खिलाड़ी हैं अभी हम दोनों अन्तर्विश्वविद्यालयी प्रतियोगिता से लौटे हैं क्रीड़ा की तैयारी में पढ़ाई कहीं पीछे छूट गई अब 30 – 35 दिनों में परीक्षा की तैयारी कैसे करें ?

उत्तर – आपसे बस यह कहना है –

          करे कोशिश अगर इंसान तो क्या क्या नहीं मिलता 

          वो सिर उठा कर तो देखे, जिसे रास्ता नहीं मिलता,

         भले ही धूप हो काँटे हों राहों में मगर चलना तो पड़ता है,

         क्योंकि किसी प्यासे को घर बैठे कभी दरिया नहीं मिलता।

         स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मष्तिष्क निवास करता है उचित रणनीति, सही समय विभाजन, लिख लिखकर अभ्यास, विगत वर्षों के प्रश्न पत्र सभी आपकी मदद को तैयार बैठे हैं। विश्वास रखें और एक भी दिन खराब न जाने दें ,गुरुओं से निर्देशन लें। पूर्ण विश्वास है  मैदान की तरह परीक्षा में में भी आपका प्रदर्शन लाजवाब रहेगा। 

प्रश्न – मैं MSW का छात्र हूँ मेरी समस्या यह है कि मैं  याद किया हुआ परीक्षा कक्ष में भूल जाता हूँ, क्या करूँ ?

उत्तर –  कई विद्यार्थी इस समस्या से ग्रस्त हैं सबसे पहले अपने खान पान की आदत में सुधार करना है अधिक गरिष्ठ भोजन से बचना है और तजा सुपाच्य भोजन करना है जब कुण्डलिनी की सारी शक्ति भोजन पचाने में लगी रहती है तब भी ऐसा देखने को मिलता है। दूसरे आत्मविश्वास विकसित करना है प्रश्नो को  निश्चित समय में खुद लिखकर अभ्यास करना है। पर्याप्त पानी का सेवन करना है। प्राणायाम, व्यायाम, ध्यान को दिनचर्या का हिस्सा बनाना है। निश्चित रूप से आशातीत सफलता मिलेगी।

प्रश्न – मैंने  PCM ग्रुप से B.Sc. की है बी० एड ० के बाद ईश्वर कृपा से नौकरी भी मिल गई है हाई स्कूल को पढ़ाता हूँ अब की M.A राजनीति शास्त्र का प्राइवेट फार्म भरा है,इसमें तो फार्मूले भी नहीं होते,  इतना सारा कैसे लिखा जाएगा ?

उत्तर – आप अध्यापक हैं कई विद्यार्थियों के प्रेरणा स्रोत,निश्चित रूप से आपने कहावत सुनी होगी –

 जहाँ चाह वहाँ राह 

आप यकीन मानिए विचार संसार की सबसे ताकतवर शक्ति है और जब आप दृढ़ इच्छा शक्ति से इस दिशा में कार्य करेंगे तो कई पथ प्रकाशित होते चले जाएंगे रही बात फार्मूले की तो वो आप यहां भी बना सकते हैं प्रत्येक शीर्षक का पहले अक्षर को लेकर मिला लीजिये फार्मूला तैयार है। मानलीजिए आपको अपने प्रश्न के उत्तर में 10 उप शीर्षक देने हैं तो आप हेड्स याद करने के साथ 10 अक्षर का फार्मूला बना लीजिये वह दसों शीर्षक क्रम से याद आते जाएंगे।

यहाँ मैंने अपनी क्षमता भर आपके प्रश्नों का समाधान देने का प्रयास किया है लेकिन याद रखें एक ही समस्या के कई समाधान होते हैं इसलिए हिम्मत न हारते हुए हम सबको तब तक प्रयास करना चाहिए जब तक समस्या समाधान न हो जाए अन्त में आपसे यही कहूँगा –

रास्ता किस जगह नहीं होता

सिर्फ हमको पता नहीं होता

छोड़ दें डरकर रास्ता ही हम

ये कोई  रास्ता नहीं होता।  

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शिक्षा

विश्व विद्यालय की परीक्षा में अच्छे अंक कैसे प्राप्त करें /How to get good marks in university exam?

April 5, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

आज जो परिचर्चा आपके समक्ष प्रस्तुत है उसका मूल उद्देश्य विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में अच्छे अंकों की प्राप्ति से है। ध्यान रहे यह परिचर्चा स्नातक, परास्नातक और प्रशिक्षण कार्यक्रम को ध्यान में रखकर की जा रही है। कोरोना काल में प्रश्नों की संख्याऔर समय में जो कमी की गयी थी वह सामान्य स्थिति में पुनः पहले जैसी रहेगी अर्थात वही तीन घण्टे वाला प्रश्नपत्र। यहाँ पूछे गए प्रश्नों के आधार पर प्रभावी उत्तर लेखन (प्रस्तुतीकरण) सम्बन्धी मत दिए जा रहे हैं जिससे निश्चित रूप से अच्छे अंक प्राप्त होंगे।

A -दीर्घ उत्तरीय प्रश्न [Long Answer Type Question]

B – लघु उत्तरीय प्रश्न [Short Answer Type Question] 

C – शब्द संख्या वाले प्रश्न [word count question]

D – अति लघु उत्तरीय प्रश्न [Very Short Answer Type Question]

A –दीर्घ उत्तरीय प्रश्न [Long Answer Type Question] –

1 – प्रश्न सावधानी से पढ़ें और केवल पूछी गई बात का ही उत्तर दें अनावश्यक नहीं।

2 – प्रश्न में ध्यान से देखें क्या अंक विभाजन दिया गया है ?यदि हाँ ,तो उत्तर उसी आधार पर लिखा जाना चाहिए। यदि 16 अंक के प्रश्न में 4 +6 +6  लिखा है तो उत्तर में इस अनुपात का ध्यान रखकर प्रभावोत्पादकता सृजित करनी है।

3 – बड़ा बड़ा लिखकर पृष्ठ भरने का अनर्गल प्रयास कदापि न करें। सम्यक लिखें।

4 – परीक्षक को धोखा देने का कोई प्रयास न करें अपने ऊपर और अपने लेखन कौशल पर नियन्त्रण रखें। रटे हुए शीर्षक की जगह प्रश्न में पूछे गए तथ्यों को शीर्षक के रूप में प्रयोग करें।

5 – अपनी बात के समर्थन में विद्वानों के उद्धरण ( Quotes ) या तथ्यात्मक तर्क(Logic) दें। इन्हें अलग रंग की स्याही से लिख सकते हैं (वर्जित रंग को छोड़कर), रेखांकित(Under Line ) भी किया जा सकता है।

6 – स्वयम् बनाकर उद्धरण (Quotation) न लिखें यह विद्वान् परीक्षकों द्वारा सहज ही पकड़ लिए जाएंगे और आपके सम्पूर्ण मूल्यांकन पर विपरीत प्रभाव डालेंगे।  

7 – उद्धरण को इस तरह लिखें कि वह स्पष्ट नज़र आये यद्यपि आज डॉट पेन या बाल पेन से लिखने का चलन है लेकिन यदि आप इंक पेन या निब वाले पेन से लिखने के अभ्यस्त हैं तो इससे लिखें यदि प्रतिबन्ध नहीं है।

8 – कोई ऐसा अवसर नहीं छोड़ना है जिससे प्रभाव पैदा किया जा सके।

9 – वास्तव में आपके नोट्स ही वह अवलम्ब हैं जो आपको संतुलन या सकारात्मकता प्रदान करते हैं।

10 – योजना, प्रदर्शन, परिमार्जन का चक्र आपके प्रश्नोत्तर लिखने के कौशल में निरन्तर सुधार करेगा।

B – लघु उत्तरीय प्रश्न [Short Answer Type Question] –

1 – लघु उत्तरीय प्रश्न हल करने में ध्यान रखना है कि अति अल्प में प्रभाव पैदा करना है।

2 – केवल उतना ही लिखें जो प्रश्न की मांग हो।

3 – उत्तर बिन्दुवार लिखने का प्रयास करें।

4 – यदि प्रश्न में चार कारण या पाँच उपाय जो व जितना पुछा है उतना ही लिखें।

5 – समय के साथ यथायोग्य साम्य रखें।

6 – गागर में सागर भरने का प्रयास करें लेकिन जितने अंक का प्रश्न है उसी के अनुसार लिखना है।

C – शब्द संख्या वाले प्रश्न [word count question]-

कभी कभी प्रश्न अपने उत्तर हेतु शब्द संख्या का निर्देश साथ लेकर आता है और इसी से उसके आकार का पता चलता है पुछा जा सकता है कि 2000 शब्दों में उत्तर दें या 100 शब्दों में लिखें।

उक्त स्थिति में आपके द्वारा लिखे एक पंक्ति के शब्दों को गईं लीजिये और उसके आधार पर तय कीजिये की उत्तर कितने स्थान में देना है।

उदाहरण स्वरुप यदि मैं एक पंक्ति में औसतन 10 शब्द लिखता हूँ तो 100 शब्दों हेतु 10 पंक्तियाँ पर्याप्त हैं इससे थोड़ा बहुत ज्यादा हो सकता है पर कई पृष्ठ लिखना असंगत होगा।

 पूरे उत्तर के शब्द गिनने में समय बरबाद न करें पहले ही अन्दाज विकसित करें घर पर लिखकर भी ठीक विचार कर सकते हैं। प्रश्न पात्र बांटने से पहले पृष्ठ की पंक्तियाँ गिन सकते हैं।

शब्द सीमा देने का सीधा आशय यह होता है कि प्रश्न के अनुसार उत्तर की चाह स्पष्ट की गयी है।

D – अति लघु उत्तरीय प्रश्न [Very Short Answer Type Question]-

कतिपय विश्व विद्यालय सभी तरह के प्रश्न ,प्रश्नपत्र में शामिल करते हैं जिससे अधिक से अधिक पाठ्य क्रम का प्रतिनिधित्व प्रश्न पात्र कर सके। इसमें अति लघु उत्तरीय प्रश्न विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करते हैं। यह संक्षेप में उत्तर की माँग, एक शब्द में उत्तर की माँग या बहु विकल्पीय प्रकार के हो सकते हैं।

इनका उत्तर लिखने में स्पष्टता एक विशेष गुण है जिस खण्ड या भाग का यह प्रतिनिधित्व करते हैं वह लिखें ,और प्रश्नपत्र में इनके लिए निर्धारित प्रश्न नम्बर का उल्लेख करें व प्रश्न की प्रकृति के अनुसार उत्तर लिखें।

अन्त में यह अवश्य कहूँगा की प्रश्न पात्र प्रारम्भ होने से ठीक पहले ित्तरों को लेकर कोइ बहस न करें शांत चित्त से आत्म विश्वास से युक्त होकर परीक्षा कक्ष में जाए प्रसन्न रहें और प्रसन्न रहने दें अनायास किसी से न उलझें क्षमा करें, क्योंकि समय केवल आपका जाया होगा।

परीक्षा हेतु समस्त राष्ट्रीय ऊर्जाओं को हार्दिक शुभ कामना।

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शिक्षा

मूल्य और समाज (VALUE AND SOCIETY)

April 4, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मूल्य का अर्थ (Meaning of value) –

मूल्य शब्द अंग्रेजी के value शब्द का समानार्थी है यह लैटिन भाषा के Valare शब्द से बना है और इसका अर्थ है योग्यता या महत्त्व। इसे संस्कृत में इष्ट कहा जाता है इष्ट का अर्थ है “वह जो इच्छित है।” वास्तव में मूल्य वह मानदण्ड हैं जिसके द्वारा लक्ष्यों का चुनाव किया जाता है मूल्य एक व्यवस्था है मूल्य यथार्थ तथा आदर्श के विभेद के मध्य संयोजक की भूमिका का निर्वहन करते हैं मूल्यों का बोध विवेक शक्ति उत्पन्न होने पर ही सम्भव होता है। मूल्य चाहे व्यावहारिक हों या आदर्शवादी, पारमार्थिक हों या नैतिक। यह सभी मानव को नैतिक जीवन जीने में सहायक होते हैं।

मूल्य सम्बन्धी भारतीय दृष्टिकोण –

भारतीय मनीषियों ने मानवीय मूल्यों की विवेचना  के कल्याण की कामना करते हुए की है हमारा आदर्श है गरुण पुराण के यह शब्द –

सर्वे भवन्तु सुखिनः।      

सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥

भारतीय मनीषियों ने मूल्य के लिए पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया है इनके आधार पर मूल्य इस प्रकार हैं –

भारतीय मूल्य

(1) – आध्यात्मिक मूल्य(Spiritual Value)  मोक्ष Self Perfection

(2) – लौकिक मूल्य (Empirical value)- धर्म (Virtue),  अर्थ (Wealth), काम(Pleasure)

 यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि अर्थ और काम वही नैतिक जो धर्मयुक्त हो।  

मनु स्मृति धर्म पथ को मूल्य अनुगमन स्वीकारती है इनके अनुसार  धर्म के गुणों का धारण करने वाला ही मूल्य संरक्षक है इनके अनुसार-

इसे सुनें

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।

अर्थात्:— धर्म के ये दस लक्षण होते हैं:- धृति (धैर्य), क्षमा, दम (मन को अधर्म से हटा कर धर्म में लगाना) अस्तेय (चोरी न करना), शौच (सफाई), इन्द्रियनिग्रह, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध (क्रोध न करना)।

इन दस गुणों से युक्त व्यक्ति धार्मिक है शिक्षोपरान्त आचार्य शिष्य को उपदेश देता था –

सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः

अर्थात सामाजिक गृहस्थ जीवन में  सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य मत करो।और इस प्रकार मूल्यों को दिशा दी गयी है।

यद्यपि चार्वाक दर्शन सुखवादी है। वह साधन और साध्य में अन्तर नहीं मानता। वह साध्य को सदैव सुख मानता है चार्वाक अर्थ और काम दो ही मूल्य मानता है। खाओ पीओ और मौज करो यही उसके मूल्य हैं जब कि अन्य दार्शनिक काम को निम्न कोटि का मूल्य मानते हैं।

पाश्चात्य दृष्टिकोण –

प्लेटो के अनुसार

1 – मूल्य बुद्धि ग्राह्य है न कि इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ

2 – मूल्य और सात का मौलिक अभेद है

3 – मूल्य निरपेक्ष, नित्य स्वरुप सत विषय है 

4 – ज्ञान का परायण क्षेय और क्षय में श्रेष्ठता का सम्पर्क अथवा प्रमाण 

5 – भौतिक और सामाजिक स्तर पर वस्तु का द्योतक वस्तु की नियत रूपता एवम् उसके घटकों का परस्पर          अवरोध मूल्य है।

ह्यूम और सिजविक ने “मनुष्य के नैतिक जीवन को द्वन्दात्मक प्रवृत्तियों का विकास निरूपित कर स्वार्थ और परमार्थ के सहज बोध को मूल्य की संज्ञा दी है।”

अर्बन के अनुसार – “मूल्य वह है जो मानव इच्छाओं की तुष्टि करे। ”

जेम्सवार्ड ने मूल्य को इच्छाओं की सन्तुष्टि करने वाली वस्तु बताया है इच्छा की पूर्ति से सुख का अनुभव होता है इस प्रकार सुखानुभूति में मूल्य की अनुभूति होती है।

हॉफ डिंग के अनुसार -“मूल्य वस्तु या विचार में निहित वह गुण है जिससे हमें तात्कालिक सन्तुष्टि मिलती है या उस संतुष्टि के लिए साधन मिलता है। ”

मूल्यों का सङ्कट (VALUE CRISIS )

आज मूल्य परक अवधारणा में बदलाव आ रहा है पुराने भारतीय मूल्य लुप्त हो रहे हैं हमारी मान्यताएं परम्पराएं और प्राथमिकताएं बदल रही हैं हम आध्यात्मिकता को नकार कर पाश्चात्य जगत के जीवन मूल्यों और उनकी भौतिकवादी सभ्यता को अपनाते जा रहे हैं हमारे जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है प्रसिद्द अर्थशास्त्री ग्रेशम का नियम है कि

  “खोटा सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है। ”

हमारे मूल्यों पर ग्रेशम का नियम पूरी तरह लागू हो रहा है इन मूल्यों के क्षरण के पीछे निम्न कारण उत्तरदाई हैं। –

1 – आधुनिकता का प्रभाव

2 – पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण

3 – भौतिकता वादी सभ्यता के प्रति अप्रत्याशित मोह

4 – अनीश्वरवादी प्रवृत्ति

5 – तर्क प्रधान चिन्तन

6 – वैज्ञानिक प्रवृत्ति का अधकचरा विकास 

क्षरण की इस प्रवृत्ति के बावजूद मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है नाश नहीं। अवश्य ही वे दब गए हैं परन्तु नष्ट नहीं हुए। भारतीय संस्कृति आज भी जीवित है जबकि यूनान मिश्र और रोम की संस्कृतियां विलुप्त हो गईं। भारतीय संस्कृति अपनी प्राचीन धरोहर के रूप में मूल्यों को आज भी संचित किये हुए है।

उभरते सामाजिक सन्दर्भ में मूल्य (Values in Emerging Social Context) –

आज देश को अपने सामाजिक ढाँचे को मजबूत करने की सर्वाधिक आवश्यकता महसूस हो रही है देश द्रोही शक्तियां येन केन प्रकारेण इसमें सेंध लगाकर मूल्यों को छिन्न भिन्न करने का हर सम्भव प्रयास कर रही हैं। उभरते सामाजिक सन्दर्भ में निम्न आधारित मूल्यों का सृजन व संरक्षण करना होगा।

1 – समता आधारित

2 – ममता आधारित

3 – दया, करुणा आधारित 

4 – समय आधारित

5 – संविधान आधारित

6 – राष्ट्रवाद आधारित

7 – आदर्श स्थापन

8 – विवेक आधारित

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शिक्षा

सामाजिक गतिशीलता Social Mobility 

March 23, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

परिवारों,व्यक्तियों,और अन्य स्तर के लोग जब समाज के एक वर्ग से दूसरे वर्ग में गति करते हैं तो इसे सामाजिक गतिशीलता कहते हैं इससे उसकी सामाजिक स्थिति में बदलाव हो जाता है। अर्थात एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति को प्राप्त करना सामाजिक गतिशीलता कही जाती है।

मिलर और वूक के शब्दों में –

“व्यक्तियों अथवा समूह का एक सामाजिक  दूसरे  संचलन होना ही सामाजिक गतिशीलता है।”

“Social mobility is a movement of individuals or group from one social class stratum to another.”

पी ०सोरोकिन महोदय के अनुसार –

“समाजिक गतिशीलता का अर्थ समाजिक समूहों एवं सामाजिक स्तरों में किसी व्यक्ति का एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति में पहुँच जाना है। ”

By social mobility is meant any transition of an individual from one social position to another in constellation of social group and strata.”

कार्टर वी गुड के अनुसार –

“सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है -व्यक्ति या मूल्य का एक समाजीक स्थिति से दूसरी समाजिक स्थिति में परिवर्तन।”

“Social mobility is the change of person or value from one social position to another.”

समाजिक गतिशीलता, शैक्षिक विकास के सम्बन्ध में  Social mobility in reference to educational development-

सामाजिक गतिशीलता और शैक्षिक विकास आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए पहलू हैं जहां शिक्षा सामाजिक गतिशीलता में प्रभावी वृद्धि करती है वहीं सामाजिक गतिशीलता के फलस्वरूप यह ज्ञात होता है की शिक्षा में इस हेतु कौन से सुधार आवश्यक हैं यह अन्योनाश्रित गुण इनकी वर्तमान में उपादेयता परिलक्षित करता है। शैक्षिक विकास द्वारा सामाजिक गतिशीलता की वृद्धि इन बिंदुओं द्वारा दर्शाई जा सकती है। –

1 – विद्यालय की प्रभावी भूमिका –

वस्तुतः जिस शिक्षा के आधार पर सामाजिक स्थिति में परिवर्तन होता है वह विद्यालयों की देन है कार्ल वीनवर्ग के शब्दों में –

“विद्यालय का प्रमुख कार्य, नवीन मार्ग प्रशस्त करना तथा इनमें सभी को स्थान देना है जिससे वह सामाजिक गतिशीलता के बदलते हुए ढाँचे के साथ कदम मिला सके। विद्यालय इस कार्य को तभी पूरा कर सकता है जब वह सभी प्रकार के आर्थिक स्तरों के बालकों को अपनी उन्नति के लिए व्यापक अवसर प्रदान करेगा।”

“The function of the school in keeping pace with the changing structure of social mobility has been to open channels and keep them open. This is accomplished by providing widespread opportunities to children of all economic statutes to advance their position.”

2 – औपचारिक शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता का अधिक प्रभावी साधन –

यह निर्विवाद सत्य है की बहुत से शैक्षिक संवर्धन के साधन अस्तित्व में हैं लेकिन औपचारिक शिक्षा इस गतिशीलता का सशक्त साधन है  मिलर और वूक लिखते हैं –

“औपचारिक शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता से प्रत्यक्ष रूप में तथा कारणतः सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध को सामान्यतः इस रूप में समझा जाता है की शिक्षा स्वयं शीर्षात्मक सामाजिक गतिशीलता का एक प्रमुख कारण है। ”

“Formal education is directly and causally related to social mobility. Than relationship is generally understood to be one in which formal education itself is a cause or one of the causes of vertical social mobility.”

3 – सार्वभौम अनिवार्य शिक्षा दृष्टिकोण –

शासन का यह दृष्टिकोण भी गतिशीलता की वृद्धि में सहायक है क्योंकि एक स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिक्षा के सम्बन्ध में परिपक़्व दृष्टिकोण विकसित हो जाता है। भारत जैसे देश में जहां बेटे और बेटियों के प्रति दृष्टिकोण में भिन्नता देखने को मिल जाती है वहां इस व्यवस्था से बेटे और बेटियां दोनों लाभान्वित हो रहे हैं और पारिवारिक प्रगति का आधार बन रहे हैं।

4 – विविध पाठ्यक्रम

5 – प्रशिक्षण व व्यावसायिक पाठ्यक्रम

6 – वैज्ञानिक, तकनीकी व शोधपरक शिक्षा

7 – शैक्षिक अवसरों की यथार्थ समानता

8 – शिक्षक और सामाजिक गतिशीलता

            अन्ततः यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश की प्रगति उसके यहाँ होने वाले सामाजिक उन्नयन या सामाजिक गतिशीलता पर निर्भर है और निः सन्देह शिक्षा का इस क्षेत्र में महत्त्व पूर्ण योगदान है और रहेगा लेकिन इसका अभाव पतन की कहानी लिखेगा नयी शिक्षा नीति भी अध्यापकों के साथ यदि न्याय हेतु अपने को तैयार नहीं कर पाई तो वांछित परिणाम नहीं मिलेंगे।

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शिक्षा

क्रोध (Anger)

March 21, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

क्रोध एक मानसिक भाव है शरीर का सॉफ्टवेयर बिगड़ने का संकेत है इसमें आवाज ऊँची होने लगती है मुखाकृति बिगड़ने लगती है बुराइयों का ज्वार उठने लगता है एक एक पुरानी भटकी हुई बातें याद आने लगती हैं एक दूसरे में कमी के सिवाय कुछ नहीं दीखता, मति भ्रम कब पैदा हुआ, कब नासूर बना। सम्बन्ध कब तिरोहित हुए। सब कुछ अनहोनी शीघ्रता से घाटित हो जाती है थोड़े से सजग रहकर इस अनहोने घटना क्रम से बचा जा सकता है। सम्बन्धों के रिक्ताकाश को लबालब प्रेम से भरा जा सकता है। क्रोध से निपटना दुष्कर अवश्य लगता है पर यह असम्भव कदापि नहीं है।

            आइए जानने का प्रयास करते हैं कि समस्त विवाद का मूल क्रोध का कैसे नाश किया जा सकता है ?

क्रोध शान्त करने के उपाय (Ways to calm anger) –

मानव की मूल प्रकृति शान्ति है लेकिन यह भी अटल सत्य है कि कुछ परिस्थितियां मानव को क्रोध दिलाने में सक्षम हैं हालाँकि कोई क्रोध को जानबूझ कर अपना स्वभाव बनाना नहीं चाहेगा। अपनी मूल प्रकृति शान्ति की और लौटने तथा वाणी के घाव से खुद और दूसरे को बचाने के लिए कुछ उपाय प्रयोग में लाए जा सकते हैं आइए ध्यानपूर्वक संज्ञान में लेने का प्रयास करते हैं। –

  • स्वभाव में परिवर्तन –

परदोष देखने के मानवीय स्वभाव ने समाज में क्रोध के स्तर का उन्नयन किया है अपनी आदतों की और ध्यान देना चाहिए स्वयम् का विश्लेषण करने का प्रयास होना चाहिए। कुछ भी अनायास नहीं होता और प्रयास अन्ततः सफल होता है मिलनसार स्वभाव बनाना है यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए। व्यवहार परिवर्तन की शुरुआत स्वभाव परिवर्तन की अनुगामी होती है। हमें गिले शिकवे की आदत नहीं बनानी है। अपने व्यवहार का रिमोट अपने पास ही रखना है भूल कर भी नियन्त्रण नहीं खोना है। याद रखें हम स्वयम् में परिवर्तन शीघ्र ला सकते हैं दूसरे में नहीं। इसीलिए कहना चाहूँगा –

स्वभाव में सु परिवर्तन का आगाज़ हो जाए,

स्वयम् की गलतियों का हमें दीदार हो जाए,

फिर क्रोध को न मिल पाएगा कोई ठिकाना,

यदि स्वभूलों के सुधार का व्यवहार हो जाए।

  • वाणी सदुपयोग –

कबीर दास जी ने कहा –

 “ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

इन शब्दों में क्रोध विनाश का मूल मन्त्र छिपा हुआ है याद रखें सम्राट के क्रोध भरे वचनों से भिखारी के मधुर शब्द ज्यादा अच्छे लगते हैं। वाणी से लगे घावों का आज तक कोई मरहम नहीं बना इसीलिये मधुर गरिमामयी वाणी का सोच समझ कर प्रयोग करना चाहिए। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘ ने कितने सरल शब्दों  समझाया –

लड़कों जब अपना मुँह खोलो

तुम भी मीठी बोली बोलो

इससे कितना सुख पाओगे

सबके प्यारे बन जाओगे ।

  • क्षमा –

जब हमसे गलती हो तो क्षमा मांग लेना चाहिए और यदि गलती अन्य की हो तो उदारता से क्षमा कर देना चाहिए ध्यान रखना है कि क्षमा माँगने का अधिकार क्षमा देने की बुनियाद पर खड़ा है क्षमा से आनन्द का वह प्रवाह जीवन से जुड़ता है जो क्रोध तिरोहित कर जीवन को आनन्दमयी बना देता है रहीम दास जी ने कितना सुन्दर कहा –

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात,

का रहीम हरी को घट्यो, जो भृगु मारी लात।

याद रखें क्षमा के प्रभाव से जवानी में गुस्सा मन्द और बुढ़ापे में बन्द हो जाता है।

  • सत्संग –

सत्संग का मानव पर व्यापक प्रभाव पड़ता है सकारात्मक परिवर्तन की चाह का प्रादुर्भाव सत्संग के प्रभाव से आता है और मानव मन पर फिर ऐसी अमिट छाप पड़ती है कि बुरी मनोवृत्ति की छाया सत्संगी पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाती रहीम जी ने कितना अच्छा समझाया है –

जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग,

 चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग

  • गहरी श्वाँस –

गहरी गहरी श्वाँस और इनकी निरन्तरता किसी भी क्रोध आवेग का क्षरण करने का अचूक उपाय है इससे जहाँ ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा का हम सेवन करते हैं वहीं समस्या पर विचार मन्थन का पर्याप्त समय मिल जाता है। स्थान परिवर्तन व पूर्ण श्वाँस प्रश्वाँस क्रोध शमन में वह कार्य कर जाता है जो कई बार वह पूर्वाग्रह युक्त मष्तिष्क नहीं कर पाता। इसी लिए कहता हूँ –

पूर्ण श्वांस प्रश्वांस का क्रम

वह जादू सा कर जाता है।

क्रोध आवेग और मतिभ्रम

सब का हरण कर जाता है।

06- कामना नियन्त्रण –

कामना नियन्त्रण एक दुष्कर कार्य है असम्भव नहीं। कामना में बाधा पड़ने पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है इसीलिये यह जानना परमावश्यक है की आखिर कामना का जन्म कैसे हो जाता है यह जन्म पाती है रूप, रस, गन्ध आदि प्रधान कारणों से, इसका आधार होती हैं इन्द्रियाँ। इन्द्रियों पर नियन्त्रण का सबल आधार है सच्चा अध्यात्म, कामना अर्थात इच्छा भोग प्रवृत्ति से जन्म लेती है और योग इस पर अंकुश में सहायक है।

07- क्षमता सदुपयोग –

ज्यों ज्यों हमारी क्षमता में वृद्धि होती है सामान्यजन विवेक खोने लगता है और क्रोध मद में वृद्धि होने लगती है, जोकि क्षमता का दुरूपयोग कराती है इसके उदाहरण हमें यत्र तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं। इसे साधने की क्षमता विवेक युक्त ज्ञान के पास है। हमारी आत्मिक शक्ति ही दिशा बोध पैदा कर  सकती है। क्षमता के साथ विवेक जन्य संयम आवश्यक है। educationaacharya.com पर ‘हमें क्रोध क्यों आ जाता है’ रचना में यह प्रश्न उठा है जिसका लिंक मैं डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दे दूँगा।

08- सम्यक विवेचन –

आज होने वाले विवादों से उत्पन्न क्रोध सम्यक विवेचन के अभाव के कारण होता है जब दिशा देने वाली शक्तियाँ और धर्म के तथा कथित मसीहा दिशाबोध स्वयं के स्वार्थ से युक्त होकर देने लगते हैं तो सामान्य भोलाभाला जनमानस किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है और क्रोध प्रादुर्भावित हो जाता है। इसीलिये कहा है –

क्रोध को सिरे से दरकिनार करना चाहिए।

जीवन छोटा है, बहुत प्यार करना चाहिए।

किसी विवाद से पूर्व विचार करना चाहिए।

प्रेम व सम रसता का प्रसार करना चाहिए।।

09-क्रोध उपवास–

जिस प्रकार अन्न उपवास शरीर में भू तत्व नहीं बढ़ने देता। अलग अलग उपवास अलग तरह के फल प्रदान करते हैं। ठीक उसी तरह क्रोध उपवास आपको आनन्द से भर देगा पहले कोई एक दिन चुनें और अपने सेदृ दृढ़ प्रतिज्ञा करें आज क्रोध उपवास करूंगा कुछ भी हो जाए आज विवाद नहीं करूंगा। हर हाल में उसे टालने का मन बनाना है। आप देखेंगे वह दिन खुशनुमा होगा। धीरे धीरे इन उपवासों की संख्या बढ़ा सकते हैं।

10 – एकान्त वास –

यदि सम्भव हो तो पूर्व निर्धारित समय पर मौन का सहारा ले मोबाइल और तमाम संचार साधनों से दूर रहकर देखें। अंग प्रत्यंग का चेतना स्तर उच्च हो जाएगा एक विलक्षण शक्ति की अनुभूति करेंगे लोक कल्याण की भावना आपको और सबल करेगी व्यक्तित्व प्रखर होगा प्रतिक्रियाओं में जान आएगी। क्रोध पर प्रभावी अंकुश लगेगा। याद रखें, करेंगे तो इसका महत्त्व समझ पाएंगे।

वस्तुतः आत्म साक्षात्कार हेतु साधक को इस गुण का अभ्यास करना ही चाहिए। मन प्रसन्न रहेगा और क्रोध छु मंतर हो जाएगा।

11 – शान्ति की साधना-

श्री मद्भगवद्गीता में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण स्वयम् कहते हैं –

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।

जिसके मनइन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं ऐसे मनुष्यकी व्यवसाय आत्मिका बुद्धि नहीं होती। व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है।

वस्तुतः जहां शान्ति नहीं है वहाँ अशान्ति है ,क्रोध है, असन्तुलन है, तम है इसीलिए क्रोध मुक्ति हेतु शान्ति परमावश्यक है। इसीलिये शान्ति के साधक ध्यान, धारणा, समाधि आदि अन्तरङ्ग साधनों से इसे वरण करने में निरन्तर लगे रहते हैं।

ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।

परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना कि हम सब क्रोध पर नियन्त्रण रखना सीख सकें। उक्त बिन्दु सभी के लिए मददगार साबित होंगे ऐसा विश्वास है। धन्यवाद

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