कभी सूरज सी लगती हो,

कभी चन्दा सी  लगती हो,

कभी बहती नदी सी  तुम,

अलकनन्दा सी लगती हो।

कभी तुम सौम्य लगती हो,

कभी  तुम रौद्र लगती  हो,

कभी बिन बात झगड़ों का,

पुलिन्दा वजनी  लगती हो।

कभी तुम फूल लगती हो,

कभी काँटों सी लगती हो,

कभी  हो  नेह की बरखा,

कभी  चिंगारी  लगती हो।

कभी उथली सी लगती हो,

कभी तुम  गहरी लगती हो,

कभी तुम ममतामयी मूरत,

भारतीय नारी सी लगती हो।

कभी तुम धूप  लगती हो,

कभी छाया सी लगती हो,

दोपहर की तीव्र तपन में,

अक्षय-वट सी लगती हो।

कभी शारदा सी लगती हो,

कभी लक्ष्मी  सी लगती हो,

जब  गीता सार सुनाती हो,

पावन गङ्गा सी लगती हो। 

कभी तुम दिया लगती हो,

कभी तुम बाती लगती हो,

आपके चरण जब छूता हूँ,

वतन की माटी लगती हो।

कभी तुम ये क्यों लगती हो,

कभी तुम वो क्यों लगती हो,

कभी दुर्गा और  कभी सीता,

 कभी भद्रकाली  लगती हो।

कभी तुम ऐसी लगती हो,

कभी तुम वैसी लगती हो,

सभी दृष्टि-कोण हमारे हैं,

मैय्या प्यारी सी लगती हो।

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