प्रस्तुत पंक्तियों में ‘मेरी वो बड़ी वो है ‘आप सभी की अपनी अपनी सोच के आधार पर वो के आशय बदल सकते हैं लेकिन यहाँ प्रथम वो से आशय आत्मा और दूसरे वो से आशय शक्तिशाली से है  अर्थात  प्रकृति से जुड़ाव के पश्चात पुरुष (आत्म स्वरुप )को बोध का संज्ञान है (सांख्य) । 

मेरी वो बड़ी वो है।

मन की बात बोलने, बतियाने नहीं देती।

कहीं जाने नहीं देती खो जाने नहीं देती।

समझाऊँ मन इच्छा समझाने नहीं देती।

भारीमन  गुबारों को पिघलाने नहीं देती ।

मेरी वो बड़ी वो है।

जीवनसन्ध्या बेला में सुनाने भी नहीं देती।

ना खुद गीत गाती है गुनगुनाने नहीं देती।

बने आसक्ति उपवन बनाने भी नहीं देती।

सारा आडम्बर कह भजन गाने नहीं देती।

मेरी वो बड़ी वो है।

ख्याल रखे है बहुत गरिष्ठ खाने नहीं देती।

वस्त्र जो पहनता हूँ सलवट आने नहीं देती।

बारिश में खूब भीगने और नहाने नहीं देती।

मौसम बदलते रहते हैं मुस्कुराने नहीं देती।

मेरी वो बड़ी वो है।

बात बे बात वो खिल खिलाने भी नहीं देती।

मनस के मुक्त ज्वार बाहर आने नहीं देती।

मुझे वो पढ़ती रहती है पढ़ाने भी नहीं देती।

हौसला उद्दीप्तकर मदहोश होने नहीं देती।

मेरी वो बड़ी वो है।

शायद समझती है जग में खोने नहीं देती।

मिथ्या तथ्यआलम्ब ले मुझे रोने नहीं देती।

अध्यात्म प्रबल करके ढोंगी होने नहीं देती।

मोक्ष है अन्तिम शुभ,भ्रमित होने नहीं देती।

मेरी वो बड़ी वो है।

दूर जाने नहीं देती और पास आने नहीं देती।

बता अनहद नाद, आह्लाद में खोने नहीं देती।

अन्तर्नाद संज्ञान कह आर्त्तनाद होने नहीं देती।

अन्तर्घट की महत्ता बता बाहर खोने नहीं देती।

मेरी वो बड़ी वो है।

पीने भी नहीं देती और पिलाने भी नहीं देती।

मुझे बहती सरिता बना कुआँ होने नहीं देती।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, आभास खोने नहीं देती।

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से पगलाने नहीं देती।

मेरी वो बड़ी वो है।

जाग्रति कुण्डलिनी मति भ्रम होने नहीं देती।

मन भ्रमर को कुमुदिनी में खो जाने नहीं देती।

पुरुष प्रकृति स्पष्टकर अनात्म होने नहीं देती।

सांसारिक भ्रम को हटा, अशुभ होने नहीं देती।     

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