मेरा बिलकुल कहा न करता मेरा मन,

क्या यह सम्भव है दोनों में अन बन पन ?

बहु बन्धन में बस बँध जाता मेरा तन,

पर बिल्कुल, स्वच्छन्द घूमता मेरा मन।

मुझसे कितना दूर .. .. .. ..

अन्तर्मुखता से जुड़ता जाता है यह तन,

पर बहिर्मुखी बनता जाता है, मेरा मन।

कर्त्तव्यपथ पर बढ़ने को तत्पर यह तन,

पर केवल अधिकार चाहता है ये मन।

मुझसे कितना दूर .. .. .. ..           

गुत्थम – गुत्था होता रहता है तन मन,

ऐसा लगता नहीं किसी से कोई कम।

जीवन यापन को प्रस्तुत होता है तन,

कल्पना जगत में रह जाता बेचारा मन।

मुझसे कितना दूर .. .. .. ..

समझ समस्या सुलझाने को तत्पर तन,

पर मन उड़ता लेने को आकाश कुसुम।

आवारागर्दी से मन की, तपता है तन ,

पर बाज नहीं आता फितरत से मेरा मन।

मुझसे कितना दूर .. .. .. ..

सभी विवशताओं से विवश होता है तन,

लेकिन सारी डोर काट, उड़ जाता मन।

धरातलीय ठोकर खाने को प्रस्तुत तन,

पर सब तथ्यों को हल्के में लेता है मन।   

मुझसे कितना दूर .. .. .. ..

ऐसा कब तक द्वन्द चलेगा ऐ तन मन ,

दोनों में अब संगत करवा दे अन्तर्मन।

जीवन के चलने तक चलता है ये तन,

तन के साथ ‘ नाथ ‘ हरण होता है मन।

मुझसे कितना दूर .. .. .. ..

Share: