एक ऐसा महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व जो राजनैतिक गलियारों की सुर्ख़ियों में आने और जेल यात्राओं के बाद भी अपने आप को आध्यात्मिक चिन्तन से विलग न कर सका। एक विशुद्ध दार्शनिक जो महान चिन्तक, विश्लेषक, योगाचार्य सभी की विशिष्ट भूमिका में जीवन पर्यन्त दिखाई पड़ा। इसीलिए पी ० टी ० राजू कहते हैं –
“Of all Indian Philosophers Shri Aurobindo is the only who is known both as yogi and philosopher…….. .Hi is much respected in India and regarded as one of her greatest sons.”
“भारत के सभी दार्शनिकों में श्री अरविन्द ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो एक योगी और एक दार्शनिक दोनों रूपों में प्रसिद्द हैं। वे भारत में बहुत ही सम्मानित और उसके महानतम पुत्रों में से एक माने जाते हैं।”
श्री अरविन्द का दार्शनिक चिन्तन
PHILOSOPHICAL THOUGHT OF SHRI AUROBINDO
श्री अरविन्द आधुनिक युग में ऋषि परम्परा के वे साधक हैं जो महान चिन्तक, विश्लेषक, क्रान्तिकारी, पत्रकार। शिक्षा सुधारक सभी के गुणों को वहन करते हुए मूल रूप से गीता का विशेष आलाम्बिक बल रखते थे ये मानव और दिव्य शक्ति के संयोग को दिव्यानुभूति कराने वाला योग मानते हैं ये सम्पूर्ण मानव जाति सर्वांगीण सर्वोत्थान की और ले जाने का प्रयास है। इसीलिये इनकी विचारधारा को सर्वांग योग दर्शन भी कहा जाता है इस दर्शन के अधिगमन हेतु विभिन्न मीमांसाओं का अध्ययन समीचीन होगा।
तत्त्व मीमांसा –
ये सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर को स्वीकार करते हैं और जगत के निर्माण हेतु विभिन्न विकास सोपानों की बात करते हैं। ये आरोहण और अवरोहण विकास की दो दिशाएँ बताते हैं।इस प्रक्रम को अधिगमन हेतु इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –
सत् → चित्त→ आनन्द → अतिमानस → मानस → प्राण → द्रव्य (अवरोहण)
द्रव्य → प्राण → मानस → अतिमानस → आनन्द → चित्त → सत् (आरोहण)
ज्ञान एवं तर्क मीमांसा –
इनके अनुसार ज्ञान और अज्ञान में परस्पर विरोध नहीं है बल्कि अज्ञान का स्वाभाविक गन्तव्य ज्ञान है ये भौतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों में अभेद को जानना ही सच्चे ज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं व इसे द्रव्य ज्ञान और तत्त्व ज्ञान नामक दो विभागों में बाँटते हैं द्रव्य ज्ञान से आशय जगत ज्ञान अर्थात साधारण ज्ञान से है जबकि आत्म ज्ञान को ये उच्च ज्ञान के रूप में स्वीकारते हैं आत्म ज्ञान अन्तःकरण द्वारा होता है इनका तर्क है कि इसकी प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन योग की क्रियाएं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि हैं।
मूल्य एवम् आचार मीमाँसा –
इनके योग दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा को समझने के लिए महर्षि अरविन्द के आरोहण क्रम का अध्ययन परम आवश्यक है इनके आरोहण सोपान हैं – – द्रव्य → प्राण →मानस→ अतिमानस→ आनन्द→ चित्त→ सत। इसमें द्रव्य, प्राण, मानस के स्तर को तो मानव जन्म के समय पार कर चुका होता है जन्म के पश्चात अति मानस की स्थिति को प्राप्त कर उसका ध्येय अर्थात अंतिम उद्देश्य आनन्द+ चित्त+ सत की प्राप्ति होता है। सत चित्त आनन्द की प्राप्ति का साधन गीता का कर्म योग व ध्यान योग है और इसके लिए यह परम आवश्यक है कि मन विकार रहित हो, शरीर स्वस्थ व जीवन संयमी हो और इस उद्देश्य की प्राप्ति का साधन योग की क्रियाएं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि हैं।
जीवन दर्शन (Philosophy of life) –
1 – मानव, सर्वोत्तम योनि
2 – ब्रह्म -सर्वशक्तिमान और निरपेक्ष
3 – सच्चा ज्ञान भौतिक और आध्यात्मिक तत्वों के अभेद को जानना।
4 – ज्ञान के दो रूप – द्रव्य ज्ञान और आत्म ज्ञान
5 – कर्म योग व ध्यान योग सत चित्त आनन्द की प्राप्ति का साधन
6 – जीवन का अन्तिम उद्देश्य सत चित्त आनन्द की प्राप्ति।
7 – पुनर्जन्म सम्बन्धी धारणा
वे लिखते हैं -“यदि किसी सचेतन व्यक्तित्व का विकास होता है तो पुनर्जन्म होना आवश्यक है। पुनर्जन्म एक युक्ति संगत आवश्यकता है और एक आध्यात्मिक तथ्य है जिसका हम अनुभव कर सकते हैं।”
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (fundamentals of Educational philosophy ) –
श्री अरविन्द का कहना है –
“That alone would be true and living education which helps to bring out to full advantage all that is in an individual man.”
“सच्ची और वास्तविक शिक्षा वही है जो मानव की अन्तर्निहित समस्त शक्तियों को इस प्रकार विकसित करती हैं कि वह उनसे पूर्ण रूप से लाभान्वित होता है।”
उक्त स्थिति को प्राप्त तभी किया जा सकता है जब इनके शिक्षा दर्शन को पूर्ण आयाम मिले जिसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं –
01 – बालक शिक्षा का केन्द्र
02 – मातृ भाषा, शिक्षा का माध्यम
03 – ब्रह्मचर्य शिक्षा का आधार
04 – अन्तर्निहित समस्त शक्तियों का व्यावहारिक विकास
05 – पूर्ण मानव बनाने का साधन शिक्षा
06 – सुरुचि पूर्णता
07 – धर्म को यथोचित स्थान
08 – चेतना का सम्यक विकास
09 – ज्ञानेन्द्रियों का यथाशक्ति प्रशिक्षण
10 – सुषुप्त शक्तियों का विकास
11 – मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों से अनुकूलन
12 – मित्र व पथ प्रदर्शक हो शिक्षा
श्री अरविंद का शैक्षिक चिन्तन (Educational thought of Shri Aurobindo) –
ये शिक्षा के द्वारा मानव का सच्चा उत्कर्ष चाहते थे इन्होने कहा –
“Education to be true must not be a machine made fabric, but a true building or living evocation of the powers of the mind and spirit of human being.”
“सच्ची शिक्षा को मशीन से बना सूत नहीं होना चाहिए, अपितु इसको मानव के मस्तिष्क तथा आत्मा की शक्तियों का निर्माण अथवा जीवित उत्कर्ष करना चाहिए।”
श्री अरविन्द ने दार्शनिक के रूप में इतना श्लाघनीय कार्य किया है कि जहाँ इतिहास के पृष्ठ उन्हें समेटने को आकुल दिखे वहीं आने वाले युग ने उनके विचारों में अपने लिए पथ की तलाश की। ये राष्ट्र के समग्र उत्थान हेतु नवीन शिक्षा से युक्त करना चाहते थे इसीलिये इन्होंने अपनी दो पुस्तकों नेशनल सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन (National System Of Education)और ऑफ़ एजुकेशन (Of Education)) के माध्यम से एक राष्ट्रीय योजना प्रस्तुत की। उक्त को आधार बनाकर उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों को यहाँ दिया गया है :-
शिक्षा का सम्प्रत्यय [Concept Of Education]-
महर्षि अरविन्द के अनुसार –
“सूचनाओं का संग्रह मात्र शिक्षा नहीं है। सूचनाएं ज्ञान की नींव नहीं हो सकती। वे अधिक से अधिक वह सामग्री हो सकती हैं जिसके द्वारा जानने वाला अपने ज्ञान की वृद्धि कर सकता है अथवा वे वह बिन्दु हैं, जहां से ज्ञान को आरम्भ किया जाए या नई खोजों को निकालना प्रारम्भ किया जाए। वह शिक्षा जो अपने आप को ज्ञान देने तक सीमित रखती है शिक्षा नहीं है।”
इनका दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य द्रव्य और प्राण की अवस्था पार कर मानस की स्थिति में होता है जन्म के बाद उसे क्रमशः अति मानस ,आनन्द ,चित् , सत् की स्थिति को प्राप्त करना होता है अतः शिक्षा ऐसी हो जो मानव का आध्यात्मिक, भौतिक, प्राणिक, मानसिक विकास करे इस प्रकार की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा (Integral Education ) के रूप में इन्होने स्वीकार किया। श्री अरविन्द के अनुसार –
“Education is the building of the power of the human mind and spirit. It is the evoking of knowledge, character and culture.”
“शिक्षा मानव के मष्तिस्क और आत्मा की शक्तियों का निर्माण करती है और उसमें ज्ञान, चरित्र और संस्कृति को जागृत करती है। ”
शिक्षा के उद्देश्य (Aim of Education) –
1 – भौतिक या व्यावसायिक विकास
2 – प्राणिक उत्थान
3 – मानसिक उत्कृष्टता
4 – अन्तः करण का विकास
5 – सत् चित्त आनन्द की प्राप्ति
पाठ्यक्रम (Syllabus)–
यदि ध्यान से देखा जाए तो पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्देश्यों पर आलम्बित होता है यहां भी शिक्षा उन उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन भर है और इसी वजह से इनके पाठ्यक्रम को इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है।
भौतिक उत्थान हेतु विषय – मातृ भाषा, राष्ट्र भाषा व उत्थान हेतु आवश्यक अन्य अन्तर्राष्ट्रीय भाषाएँ। भूगोल,इतिहास,अर्थशास्त्र,समाज शास्त्र विज्ञान, गणित,स्वास्थय विज्ञान,भूगर्भ विज्ञान,कृषि,वाणिज्य,कला और मनोविज्ञान आदि।
शारीरिक क्रियाएं – व्यायाम, खेलकूद, योगासन, शिल्प व अन्य श्रमसाध्य कार्य।
आध्यात्मिक विषय – वेद, उपनिषद,नीति शास्त्र, गीता, धर्म शास्त्र ,विभिन्न देशों का धर्म व दर्शन।
आध्यात्मिक क्रियाएं – भजन, कीर्तन, प्राणायाम आदि।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)–
ये प्राचीन विधियों को नवीन रूप देना चाहते थे और चाहते थे कि रटाने की प्रवृत्ति से बचा जाए। इनकी क्रियाओं व शिक्षण विधियों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।
1 – रूचि आधारित
2 – प्रेम, सहानुभूति आधारित
3 – स्वातंत्रय अनुभूति आधारित
4 – स्वप्रयत्न विधि,स्व अनुभव विधि
5 – स्वनिरीक्षण विधि
6 – क्रिया आधारित शिक्षण विधि
7 – मौखिक विधि
इसके अतिरिक्त ये उपदेश,प्रवचन,तर्क ,तुलना,अभिव्यक्ति,विवेचना,व्याख्यान,व स्वाध्याय विधियों को भी उचित सम्मान देते हैं।
शिक्षक (Teacher) –
ये शिक्षक को रटाने वाली मशीन नहीं बनाना चाहते बल्कि उसे निर्देशक,पथ प्रदर्शक,सहायक,के रूप में देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि वह अभिरुचि आधारित संकलन के प्रस्तुतीकरण कर्ता के रूप में कार्य सम्पादित करे। वह प्रकृति के अनुरूप चलाने हेतु अभिप्रेरक की भूमिका का निर्वहन करे। उन्होंने कहाकि –
“The teacher is not an instructor or task master, he is helper and guide this business is to suggest and not to impose. He does not actually train the pupils mind, he only shows him how to perfect his instruments of knowledge and helps him and encourages him in the process.”
“अध्यापक निर्देशक या स्वामी नहीं है। वह सहायक और पथ प्रदर्शक है। उसका कार्य सुझाव देना है, न कि ज्ञान को लादना। वह वास्तव में छात्र के मष्तिस्क को प्रशिक्षित नहीं करता है। वह छात्र को केवल यह बताता है कि वह अपने ज्ञान के साधनों को किस प्रकार समृद्ध बनाए। वह छात्र को सीखने की प्रक्रिया में सहायता और प्रेरणा देता है।”
विद्यार्थी (Student) –
इनकी शिक्षा बाल केन्द्रित शिक्षा है और इसीलिये ये चाहते हैं की बालक की विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर उसके विकास के सोपान बहुत सोच समझ कर विकसित किये जाने चाहिए। इन्होने कहा :-
“The idea of hammering the child into shape desired by the parent or teacher is a barbarous and ignorant supersituation, there can be no great error than for the parent to arrenge before hand that his son shall develop particular qualities and capacities.”
“बालक को मातापिता अथवा शिक्षक की इच्छानुकूल ढालना अंधविश्वास और जंगलीपन है। मातापिता इससे बड़ी भूल और कोइ नहीं कर सकते कि वे पहले से ही इस बात की व्यवस्था करें कि उनके पुत्र में विशिष्ट गुणों, क्षमताओं तथा विचारों का विकास होगा।”
विद्यालय (The School) –
ये प्राचीन ऋषियों द्वारा संचालित आश्रम पद्धतियों के साथ आधुनिक परिस्थतियों का भी पूर्ण ध्यान रखना चाहते हैं और विद्यालयों में मनसा,वाचा,कर्मणा,पर अधिक ध्यान देना चाहते हैं और नहीं चाहते कि रंग, रूप, देश, जाति, धर्म के आधार पर कोइ भेद भाव हो। ये विश्व बन्धुत्व के विकास का वातावरण विद्यालयों में चाहते हैं।
अनुशासन (Discipline ) –
इनके अनुसार शिक्षा और अनुशासन में अनुलोम सम्बन्ध है ये चाहते हैं की विद्यालय ब्रह्मचर्य का अनुपालन सुनिश्चित करने साथ मुक्तिवादी अनुपालन सिद्धान्त का अनुकरण करें और बच्चों में स्वतंत्र रूप सर आदर्श स्वीकारोक्ति का गुण विकसित करेंऔर स्व अनुशासन की भावना बलवती करें।
शिक्षा के अन्य पक्षों के सम्बद्ध में विचार (Views of other Aspects of Education)-
1 – राष्ट्रीय शिक्षा सम्बन्धी विचार (Views about National Education)
2 – धार्मिक व नैतिक शिक्षा (Religious and Moral Education)
3 – अन्तर्राष्ट्रीयता की शिक्षा (Education of internationalism)
4 – नारी शिक्षा (Women Education)
5 – धर्म सम्बन्धी विचार (Views about religion)-
श्री अरविन्द के अनुसार :-
“हम भारतवासी आर्य जाति के वंशधर हैं, आर्य शिक्षा और आर्य नीति के अधिकारी हैं। यह आर्य भाव ही हमारा कुलधर्म और ज्योति धर्म है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म आर्य शिक्षा के मूल तत्व हैं तथा ज्ञान, उदारता, प्रेम, साहस, शक्ति, विनय आर्य चरित्र के लक्षण हैं।”
शिक्षा दर्शन का मूल्याङ्कन (Evaluation of Philosophy of Education) –
इनकी विदेशी शिक्षा पद्धति से मुक्ति की छटपटाहट और भारतीय समाज के कल्याण की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है। ऐसा लगता है गुरु शिष्य परम्परा से कालान्तर में इस पर प्रभावी कार्य नहीं हो सका और शिक्षा पर जो इनका प्रभाव परिलक्षित होना चाहिए था नहीं हो सका जबकि इन्होने शिक्षा के विविध पहलुओं को समयानुकूल बनाने का प्रयास किया। श्री कंगाली चरणपति के भाव द्रष्टव्य हैं :-
“श्री अरविन्द का शिक्षा दर्शन मूलतः उनके आध्यात्मिक योग दर्शन पर आधारित है। श्री अरविन्द ने अपनी दिव्य दृष्टि की शक्ति से मानव जीवन के जिन गंभीर तत्वों का उदघाटन किया है, वे ही उनके शिक्षा दर्शन की आधारशिला हैं। इसमें हमें समग्र मानव जीवन व समग्र संसारके सर्वांगीण रूप का आभास मिल जाता है। श्री अरविन्द ने जीवन और संसार के किसी पहलू को त्यागा नहीं है।”