न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाणों की दुनियाँ में एक महत्त्वपूर्ण
प्रमाण है ‘अनुमान’ . यह शब्द दो शब्दों का योग है अनु +मान =अनुमान ।
अनु शब्द से आशय पश्चात से है मान का अर्थ होता है ज्ञान। अर्थात अनुमान
का तात्पर्य पूर्व ज्ञान के पश्चात होने वाले ज्ञान से है।
उदाहरण के लिए यदि हम कहते हैं कि पर्वत पर धुआँ है इसलिए वहाँ आग है
क्योंकि हमें यह पहले से ही पता है कि धुएं और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है। अर्थात
जहाँ पर धुआँ होता है उस जगह पर आग अवश्य होती है।
अतः अनुमान को सरलतम रूप में इस तरह पारिभाषित किया जा सकता है जब दो
वस्तुओं की व्याप्ति के पूर्व ज्ञान के आधार पर उनमें से किसी एक को देखकर दूसरी
का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अनुमान प्रमाण कहलाता है।
अनुमान
के भेद (Types of
inference ) –
चूँकि अनुमान एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है अर्थात विविध आधारों पर इसके
भेदों का अधिगमन आवश्यक है यहाँ प्रयोजन, व्याप्ति, और व्याप्ति स्थापना के आधार पर विविध भेदों को
सरलतम रूप में देने का प्रयास है।
प्रयोजन
भेद के आधार पर –
1
– स्वार्थानुमान
2 –
परार्थानुमान
1
– स्वार्थानुमान – जिस अनुमान को अपने लिए किया जाता है उसे
स्वार्थानुमान कहते हैं जैसे कोई व्यक्ति पर्वत पर धुआँ देखता है और व्याप्ति
सम्बन्ध के आधार पर यह निष्कर्ष निकालता है कि उक्त नियमानुसार पर्वत पर अग्नि है
और यह वह खुद के लिए निकालता है तो इसे स्वार्थानुमान कहेंगे।
2 –
परार्थानुमान – जो
अनुमान अन्य लोगों ज्ञान कराने हेतु पंचावयवों का प्रयोग कराते हुए किया जाता है
उसे परार्थानुमान कहते हैं। ये पॉंच अवयव इस प्रकार हैं –
i – प्रतिज्ञा
ii – हेतु
iii – दृष्टान्त
iv – उपनय
v – निगमन
i – प्रतिज्ञा – साध्य के पक्ष में होने का ज्ञान प्रतिज्ञा द्वारा कराया जाता है।
जैसे -पर्वत पर अग्नि है।
ii – हेतु – जिस साधन के द्वारा साध्य का अनुमान होता है
उसे हेतु कहते हैं। जैसे – क्यों कि पर्वत पर धुआँ है।
iii – दृष्टान्त – व्याप्ति की व्याख्या और प्रमाणिकता हेतु दिए
गए दृष्टान्त का वर्णन किया जाता है। यथा जहाँ -जहाँ धुआँ होता है वहाँ वहाँ अग्नि
होती है जैसे रसोई घर में।
iv – उपनय – जिस व्याप्ति का होना तृतीय अवयव के रूप में
दिया जाता है और उसे विशिष्ट हेतु का पक्ष होना दिखाया जाता है उपनय कहलाता है।
जैसे – अमुक पर्वत पर धुआँ है।
v – निगमन – जिससे साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन करते
हैं निगमन कहलाता है। जैसे -अतः पर्वत पर अग्नि है ।
व्याप्ति
के भेद –
अनुमान के अनुसार व्याप्ति के तीन भेद इस प्रकार हैं –
पूर्ववत
– जब भविष्य के
कार्य का अनुमान वर्तमान के कारण से होता है अर्थात किसी कारण से कार्य के अनुमान
को पूर्ववत कहते हैं। जैसे बादलोँ की उमड़ घुमड़ को देखकर यह अनुमान लगाना कि आज
बारिश होगी।
शेषवत
– शेषवत कार्य से
कारण के अनुमान को कहते हैं व्याप्ति में साधन व साध्य के बीच कार्य कारण सम्बन्ध
होता है। इसमें इस समय यानी कि वर्तमान काल में जो कार्य सम्पन्न हो रहा होता है
उसके पिछले कार्य का अनुमान लगाया जाता है। जैसे अचानक नदी में पानी के बढ़ने और
उसके तीव्र वेग से यह अनुमान लगाना कि कहीं बारिश हुई होगी।
सामान्यतोदृष्ट
–
सामान्यतोदृष्टउस प्रमाण का नाम है जिसमें अप्रत्यक्ष के आधार पर भी सम्बन्ध का
अनुमान लगाया जाता है जैसे दो अलग अलग दूरस्थ स्थानों से चन्द्रमा को देखकर उसकी
गतिशीलता का अनुमान लगाना। यह अनुमान
कार्य कारण सम्बन्ध पर नहीं बल्कि इस आधार पर होता है साधन और साध्य एक दूसरे के
बराबर निकट पाए जाते हैं।
व्याप्ति
स्थापना प्रणाली –
अनुमान
के तीन भेद व्याप्ति स्थापना प्रणाली के आधार पर किये जाते हैं
केवलान्वयी
–
जब
साधन और साध्य में नियत साहचर्य पाया जाता है तो यह केवल अन्वयी कहलाता है। इस प्रकार की व्याप्ति केवल अन्वय द्वारा
स्थापित होती है इसमें व्यतिरेक का एकदम अभाव रहता है उदाहरणार्थ सभी ज्ञेय, अभिज्ञेय हैं।
केवल
अन्वय व्याप्ति के बल पर खड़ा किया हुआ हेतु केवलान्वयी कहलाता है। इसमें उपस्थित
शब्द ‘केवल’ उसकी
व्यतिरेक व्याप्ति की सम्भावना को दूर कर देता है।
केवल
व्यतिरेकी –
जब
हम जीवित शरीर को सिद्ध करने हेतु यह कहते हैं उसमें आत्मा है क्योंकि उसमें
प्राणदिमत्त्व (प्राण,इन्द्रियाँ,ह्रदय
आदि )हेतु उपस्थित है अर्थात जब साधन तथा साध्य की अन्वयमूलक व्याप्ति से नहीं
बल्कि साध्य के अभाव के साथ साधन के प्रभाव की व्याप्ति के ज्ञान से अनुमान होता
है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं।
अन्वय
व्यतिरेकी –
जब
साधन के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है एवम् साध्य के अनुपस्थित होने
पर साधन भी अनुपस्थित हो जाता है अर्थात व्याप्ति का ज्ञान अन्वय एवम् व्यतिरेक की सम्मलित उपस्थिति पर ही
निर्भर करता है। अतः अन्वय व्यतिरेकी अनुमान उसको कहा जा सकता है जिसमें साधन और
साध्य का सम्बन्ध अन्वय और व्यतिरेक दोनों के साथ स्थापित होता है।उदाहरण के लिए
जहाँ आग नहीं वहाँ धुआँ नहीं।
उक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि अनुमान प्रमाण एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है जिसे इससे
सम्बद्ध कुछ शब्दों को जानकर आसानी से समझा जा सकता है।
न्याय दर्शन को एक ऐसी शाखा के रूप में स्वीकारा जाता है जो भारतीय तर्कशास्त्र की रीढ़ कही जाती है। वर्तमान समय में इसे प्रमाण शास्त्र के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है इसके अनुसार मुख्यतः प्रमाणों की संख्या चार मानी जाती है – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। नवन्याय में इसकी विशद व्याख्याएं देखने को मिलती हैं। इसमें कालान्तर में परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन भी देखने को मिले। आपके NET के पाठ्यक्रम में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण में शामिल किया गया है। इसका विस्तृत आकाश है और उसमें से केवल प्रत्यक्ष के बारे में उसके प्रकारों के बारे में यहाँ अध्ययन करेंगे।
Pratyaksh Praman / प्रत्यक्ष प्रमाण / Perception –
प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण को उपस्थित करते हुए न्याय दर्शन में
उल्लेख है –
इससे आशय है इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग से जो
अव्यपदेश्य अर्थात अकथनीय,
अव्यभिचारि अर्थात संशय विपर्यादि दोषों से
रहित, व्यवसयात्मक अर्थात निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न
होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।
वस्तु के साथ इन्द्रिय का संयोग होने से जो
ज्ञान प्राप्त होता है ये मानते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष है।
प्रत्यक्ष को छोड़कर सभी प्रमाण पूर्व-ज्ञान पर आश्रित रहते हैं।
प्रत्यक्ष के भेद / Types
of Perception – प्रत्यक्ष का वर्गीकरण विविध प्रकार से किया सकता है। प्रथम दृष्टिकोण से दो भागों में
प्रत्यक्ष को विभाजित किया जा सकता है।
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception)
2 – अलौकिक
प्रत्यक्ष (Extra
Ordinary Perception)
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception) –
जब सामान्य रूप से इन्द्रिय और उसके विषय का सन्निकर्ष (संयोग ) होता
है और इस प्रकार जो अनुभव प्राप्त होता है
उसे लौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। लौकिक प्रत्यक्ष को भी दो भागों में विभक्त किया
जा सकता है
i – वाह्य
(External)
ii – आन्तर
(Internal)
i – वाह्य (External) –
वाह्य इन्द्रियों द्वारा यह साध्य है
ii – आन्तर (Internal) –
इसे आन्तरिक अर्थात मन द्वारा साध्य माना गया
है
लौकिक प्रत्यक्ष को नव्य
न्याय में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है उस आधार पर तीन भागों में विभक्त कर
समझ सकते हैं।
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate
Perception)
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception)
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate
Perception) – पदार्थ और इन्द्रिय के संयोग के तुरन्त बाद
वस्तु का जो यत्किञ्चित ज्ञान हमें प्राप्त होता है इसमें नामजात्यादि नहीं आता।
यह केवल वास्तु मात्र का ज्ञान है। यथा अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर कोई गोल
सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा है या
अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा।
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष में नामजात्यादि की योजना
कर लेने पर वह सविकल्प प्रत्यक्ष हो जाएगा। जैसे अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर
कोई गोल सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा
है या अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा। अगले ही क्षण यदि
हमें यह पता चले की वह सन्तरा है तो यह सविकल्प प्रत्यक्ष कहलायेगा। नाम ,जाति, गुणों का आभास निर्विकल्प प्रत्यक्ष को सविकल्प बना देता है।
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
– प्रत्यभिज्ञा
से आशय है पहले से देखे हुए को पहचानना। इस प्रत्यक्ष में किसी वस्तु,
चेहरे आदि को देखने पर हमें यह लगता है कि इसे
पहले भी कहीं देखा है और जब हम उस आभास के आधार पर कहते हैं इसे मैंने अमुक शहर
में उस स्थान पर देखा था तो इस गुण धर्म को प्रत्यभिज्ञा प्रमाण कहा जाएगा।
2 – अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra
Ordinary
Perception) –
जिस
प्रकार लौकिक प्रत्यक्ष का अध्ययन दो वर्गों में विभाजित करके किया गया उसी तरह
अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं –
i – सामान्य लक्षण
ii – ज्ञान लक्षण
iii – योगज
i – सामान्य लक्षण –
अनुमान साहचर्य या व्याप्ति के सम्बन्ध पर खड़ा
होता है और इस साहचर्य ज्ञान हमें प्रत्यक्ष के आधार पर होता है यही प्रत्यक्ष
ज्ञान सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष है। यथा मनुष्य मरण शील है लेकिन मनुष्य की मरण के
साथ व्याप्ति अपने अस्तित्व के लिए उसके प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधरित रहेगी। इसे ही
सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहेंगे।
ii – ज्ञान लक्षण –
यह ज्ञान पूर्वाभास के कारण होता है एक के ज्ञान
के साथ ही जब दूसरा भी अनायास उठ खड़ा हो तो यह ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता है
जैसे चन्दन देखने के साथ उसकी खुशबू का आभास। वास्तव में बार बार विविध अनुभव का
अभ्यास से हमारी इन्द्रियाँ पृथक पृथक प्राप्त ज्ञानों का युगपत ही प्रकट करने
लगती हैं। जैसे। पानी -तरल , बर्फ -ठण्डा, अग्नि -गरम, पत्थर -ठोस आदि
iii – योगज –
इस
प्रकार का ज्ञान योगियों को प्रत्यक्ष योग शक्ति के द्वारा होता है। योगियों को
भूत ,भविष्य
व विविध पदार्थों का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है जो ज्ञान बिना इन्द्रिय और
अर्थ के सन्निकर्ष से प्राप्त हो वह अलौकिक ज्ञान ही है इस लिए इसे अलौकिक की
श्रेणी में रखा गया है।
योगियों को दो प्रकार का कह सकते हैं। 1 -युक्त
योगी , 2 –
युञ्जान
उक्त
योगियों को अपने योगाभयास के बल से देश व काल से व्यवहित पदार्थों के ज्ञानार्जन
की सामर्थ्य होती है जिन्हे सर्वदा सर्व प्रकारक ज्ञान उपलब्ध रहता है युक्त योगी
कहलाते हैं और जो चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध करते हैं युञ्जान योगी कहलाते हैं।
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्रमाणों की
दुनियाँ में प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है इसे वर्गीकृत करके
इसके प्रकारों को किस प्रकार सरलता से समझा जा सकता है। मुझे लगता है बोर्ड पर
किया वर्गीकरण इसका समुचित प्रतिनिधित्व कर रहा है।
परिवर्तन
के एजेंट और जीवन कौशल प्रशिक्षक के रूप में शिक्षक
जीवन की यात्रा शैशव से शुरू होकर बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था के पायदान पर पैर रखते हुए बढ़ती है लेकिन
जीवन पर्यन्त माँ – बाप के अतिरिक्त एक और जो हमारी खुशी में आनन्दित होने वाला
व्यक्तित्व होता है वह जिसे दुनियाँ शिक्षक के रूप में जानती है। शिक्षक यूँ तो
बहुत सी भूमिकाओं का निर्वहन करता है लेकिन यहाँ शीर्षक के अनुरूप हम उसके दो
रूपों की चर्चा करेंगे।
परिवर्तन
के एजेंट के रूप में शिक्षक से आशय / Meaning of teacher as an agent of change –
परिवर्तन के एजेंट के रूप में परिवर्तन का प्रमुख अभिकर्त्ता शिक्षक इस लिए है क्योंकि मान बाप जिन गुणों को अपने बच्चे में अधूरा छोड़ देते हैं उसकी पूर्णता का गुरुत्तर दायित्व शिक्षक द्वारा निर्वाहित होता है। टूटे फूटे अक्षरों से धारा प्रवाहित सम्प्रेषण के साथ बालक विश्लेषण और संश्लेषण की शक्ति से युक्त होता है। जीवन पर्यन्त विविध परिवर्तनों के मूल में कहीं नींव ईंट के मानिन्द शिक्षक को नकारा नहीं जा सकता। इसीलिये अरस्तु(Aristotle ) ने कहा –
“जन्म
देने वालों से अच्छी शिक्षा देने वालों को अधिक सम्मान दिया जाना चाहिए; क्योंकि उन्होंने तो बस जन्म दिया है ,पर उन्होंने जीना सिखाया है।”
“Those who give good education should
be given more respect than those who give birth; Because they have just given
birth, but they have taught how to live.”
जीवन
कौशल प्रशिक्षक के रूप में शिक्षक से आशय / Meaning of Teacher as Life Skills Trainer-
जीवन
में बहुत कुछ अधिगमित किया जाता है और व्यवहार में परिवर्तन, आदत का बनना, कार्य कुशलता की वृद्धि परिणाम होता है प्रशिक्षण का। इस प्रशिक्षण
क्रिया को सम्पन्न करने का गुरुत्तर
दायित्व है गुरुवर का। यहॉं
जीवन कौशल प्रशिक्षक आशय जीवन काल में उपयोगी कौशलों के प्रशिक्षण प्रदाता से है . स्कूल, समाज
और जेण्डर सुग्राह्यता में यह प्रशिक्षण महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है।
इसीलिये श्रद्धेय अब्दुल कलाम (Abdul Kalam) जी ने कहा –
“If a country is to be corruption free
and become a nation of beautiful minds, I strongly feel there are three key
societal members who can make a difference. They are the father, the mother and
the teacher.”
“अगर किसी देश को भ्रष्टाचार – मुक्त और सुन्दर-मन वाले लोगों का देश बनाना है
तो, मेरा दृढ़तापूर्वक मानना
है कि समाज के तीन प्रमुख सदस्य ये कर सकते हैं. पिता, माता और गुरु.”
परिवर्तन
के एजेंट के रूप में शिक्षक / Teachers as an Agent of Change –
शिक्षक
मार्ग दर्शक, परामर्श दाता, नेतृत्व कर्त्ता और सुविधा प्रदाता के रूप में तो परिवर्तन का वाहक
बनता ही है इसके अलावा भी निम्न कारक उसे परिवर्तन के अभिकर्त्ता के रूप में स्थापित
करते हैं। –
1 – भाषा बोध / Language Comprehension
2 – अधिगम स्तर समायोजन / Learning Level Adjustment
3 – व्यवहार परिवर्तन / Behavior Change
4 – समय के साथ ताल मेल / Rhythm matching with time
5 – लिंग भेद के प्रति सम्यक दृष्टिकोण विकास / Development of proper attitude
towards gender discrimination
6 – सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास / Development of positive attitude
7 – समस्या समाधान योग्यता / Problem solving ability
8 – व्यक्तित्व परिवर्तक / Personality changer
9 – मानसिक, बौद्धिक
उत्थान / Mental, Intellectual
development
10 – सर्वांगीण विकास / All round development
11 – प्रेरणा प्रदाता / Inspiration provider
विलियम
आर्थर वार्ड (William
Arthur Ward) ने
कितने सुन्दर ढंग से समझाया
‘’The mediocre teacher
tells. The good teacher explains. The superior teacher demonstrates. The great
teacher inspires.”
‘‘एक औसत दर्जे का शिक्षक बताता है. एक
अच्छा शिक्षक समझाता है. एक बेहतर शिक्षक कर के दिखाता है.एक महान शिक्षक प्रेरित
करता है.”
जीवन कौशल
प्रशिक्षक के रूप में शिक्षक / Teacher as Life Skills Trainer –
जीवन में
उत्तरोत्तर विकास के सोपानों से अपने विद्यार्थी को जोड़ने हेतु शिक्षक विविध
कौशलों में पारंगत कर स्थिति से समायोजन करना चाहता है। कुछ कौशलों को इस प्रकार
क्रम दया जा सकता है –
01 – व्यावसायिक दक्षता कौशल / Professional competence skills
02 – सृजनात्मक कौशल / Creative skill
03 – जागरूकता कौशल / Awareness skill
04 – प्रभावी सम्प्रेषण कौशल / Effective communication skill
05 – समस्या समाधान कौशल / Problem solving skill
06 – निर्णयन कौशल / Decision making skills
07 – संवेग नियन्त्रण कौशल / Emotion control skills
ज्ञान की उन्नति और विषयात्मक परिक्षेत्र में विस्तृत परिवर्तन
ज्ञान
की उन्नति से आशय / Advancement of Knowledge
भारतीय
ज्ञानकाश में ज्ञान से प्रदीप्त विद्वानों की एक विस्तृत श्रृंखला है। निरन्तर
बदलते काल खण्डों ने वैश्विक परिक्षेत्र को बहुत से ज्ञानियों के आलोक से प्रदीप्त
किया है ज्ञान एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है यह अनवरत चलने वाली प्रक्रिया
अपने साथ विविध सकारात्मक परिवर्तन करती चलती है जो ज्ञान की उन्नति का पथ प्रशस्त
करते हैं यद्यपि ज्ञान प्राप्ति का पथ दुरूह व कण्टकाकीर्ण होता है पर इसपर चलने
वाले विज्ञजन लगातार होते आये हैं। इस प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में होने वाली, मानव उत्थान में सहयोगी क्रियात्मक तलाश ही
ज्ञान की उन्नति को परिलक्षित करती है।
ज्ञान की उन्नति की यह बयार अपने साथ
परिवर्तनों की आँधी लेकर चलती है जो विविध विषयात्मक परिक्षेत्र में होते हैं।
DISCIPLINARY AREAS / विषयात्मक परिक्षेत्र –
जब
ऋषियों, मनीषियों,
वैज्ञानिकों, ज्ञानियों की ज्ञान पिपासा नित नए परिक्षेत्र
तलाशती है तो विविध क्षेत्र ज्ञान आप्लावित हो जाते हैं और उनमे व्यापक परिवर्तन
होते हैं यहां जिस डिसिप्लिनरी एरिया की बात की जा रही है वह मुख्यतः बी०एड ०
पाठ्यक्रम से सम्बन्धित हैं उन DISCIPLINARY
AREAS / विषयात्मक
परिक्षेत्र को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है
–
(i) – सामाजिक विज्ञान / Social Science
(ii) – विज्ञान / Science
(iii) – गणित / Mathematic
(iv) – भाषाएँ / Languages
ज्ञान
की उन्नति के प्रभाव / Effects of the Advancement of Knowledge –
Or ज्ञान की उन्नति से विस्तृत परिवर्तन / Sea change due to advancement of
knowledge
जिस
तरह से सूर्य की धूप मुठ्ठी में बन्द नहीं की जा सकती, पुष्प की खुशबू विस्तार पाती ही है उसी प्रकार
ज्ञान की उन्नति का प्रभाव समग्र क्षेत्रों पर पड़ता है निश्चित रूप से बी ० एड ०
पाठ्यक्रम में प्रदत्त विषयात्मक परिक्षेत्र पर भी उनका प्रभाव परिलक्षित होता है
यहां सुविधा की दृष्टि से एक -एक का अध्ययन करेंगे –
1 – सामाजिक विज्ञान पर ज्ञान की उन्नति का प्रभाव
/ Impact
of the Advancement of Knowledge on the Social Sciences
A -विविध
विषयों का अद्वित्तीय संयोजन / Unique Combination of Various Subjects
B
– मानवीय
सम्बन्धों के अध्ययन में अमूल्य योगदान / Invaluable contribution to the study of human relations
C – समृद्ध सामाजिक जीवन का आधार / Base of a prosperous social life
D – स्वस्थ सामाजिक परिवेश / Healthy social environment
E - प्राचीन और अद्यतन का अद्भुत समावेश / wonderful mix of ancient and modern
F - भावी जीवन की तैय्यारी/ Preparation for future life
G – जागरूकता विकास समस्या समाधान में सहायक/Awareness Development Helpful in Problem Solving
H – सत्य व ज्ञान की खोज की प्रेरक / Motivator of search for truth and knowledge
2 – विज्ञान पर ज्ञान की उन्नति का प्रभाव / Impact of the Advancement of
Knowledge on the Science
आज
का युग विज्ञान का युग है और विज्ञान के आधार पर भौतिक युग में हम अपने को यथार्थ
के अधिक निकट पाते हैं ज्ञान के प्रस्फुटन से विज्ञान को भी दिशा मिली और इसने
मानव की जिंदगी आसान करने में अहम् भूमिका अभिनीत की। कुछ परिवर्तन के क्षेत्र इस
प्रकार हैं –
01 – स्वास्थ्य व चिकित्सा /
Health and Medicine
02 – कृषि / Agriculture
03 – उद्योग / Industry
04 - सञ्चार / Communication
05 – परिवहन / Transport
06 – मनोरञ्जन/ Entertainment
07 – खाद्यान्न उत्पादन व संरक्षण / Food production and preservation
08 – अन्तरिक्ष / Space
09 – युद्ध / War
10 - घरेलू साधन / Household appliances
उक्त के अतिरिक्त भी बहुत से परिक्षेत्र गिनाये जा सकते हैं उनमें मुख्य है मूल्य सम्वर्धन - बौद्धिक मूल्य (Intellectual Values), नैतिक मूल्य (Moral Values), व्यावहारिक मूल्य (Practical Values), मनोवैज्ञानिक मूल्य (Psychological Values), साँस्कृतिक मूल्य (Cultural Values), सौन्दर्यात्मक मूल्य (Aesthetic value),, व्यावसायिक मूल्य (commercial value) आदि।
गणित
के क्षेत्र में ज्ञान की उन्नति से होने वाले परिवर्तन/Changes due to advancement of
knowledge in the field of mathematics –
दुनियाँ
में ज्ञान का सागर हिलोरें मार रहा है बहुत सा ज्ञान कल्पना से यथार्थ की और चलता
है तो बहुत सा यथार्थ की मज़बूत नीव पर समस्या समाधान की योग्यता रखता है गणितीय
आधार ऐसा ही है जिसमें एक सिद्धान्त एक दिशा का बारम्बार सत्य यथार्थ बोध कराता
है। ज्ञान की उन्नति ने इसे नीरसता से सरस यथार्थ की और अग्रसारित किया है कुछ
परिवर्तन इस प्रकार हैं –
0 1 – बौद्धिक मूल्य/ Intellectual Value
0 2 - नैतिक मूल्य / Moral Values
0 3 – सामाजिक मूल्य / Social Value
0 4 – प्रयोगात्मक मूल्य / Experimental value
0 5 – अनुशासनात्मक मूल्य / Disciplinary Values
0 6 – सांस्कृतिक मूल्य / Cultural Values
0 7 – जीविको पार्जन मूल्य/ Livelihood Earning Value
0 8 – मनोवैज्ञानिक मूल्य/ Psychological Value
0 9 – कलात्मक मूल्य/ Artistic value
1 0 – अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य/ International value
वास्तव में मानव मानस को सत्य का महत्त्वपूर्ण
बोध गणित ने कराया और दिशा दी इसीलिये प्लेटो महोदय को कहना पड़ा –
“Mathematics is a subject which provides
opportunities for training the mental powers.”
”गणित एक ऐसा विषय है जो मानसिक शक्तियों को
प्रशिक्षित करने के अवसर प्रदान करता है।”
भाषा
के क्षेत्र में ज्ञान की उन्नति से होने वाले परिवर्तन/Changes
brought about by the advancement of knowledge in the field of language –
भाषा ही वह माध्यम है जिसने दूरियों को मिटा निकटता स्थापित करने का
काम किया है ज्ञान की प्रगति ने हमें विविध भाषाओं को समझने में मदद की है और सभी
क्षेत्रों में उच्च प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं परिवर्तनों को इस प्रकार इंगित किया
जा सकता है –
1- ज्ञान
प्राप्ति का प्रमुख साधन / Main source of knowledge
2 – राष्ट्रीय एकता की दिशाबोधक /Guide of National
Integration
3 – विचार विनियम में सरलता / Ease of exchange of
thoughts
4 – व्यक्तित्व निर्माणक/ Personality builder
5 – अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को बढ़ावा /Promotion of
international relations
6 – सामाजिक जीवन का प्रगति आधार / Progress Basis of
Social Life
7 – चिन्तन, मनन का आधार / Thinking, the
basis of meditation
8 – प्रगति का आधार /The basis of progress
9 – कला,सभ्यता,संस्कृति,साहित्य का आधार /The
basis of art, civilization, culture, literature
अब तक का प्रस्तुतीकरण यह भी बोध कराता है कि
और भी बहुत सारे परिवर्तन इसमें शामिल होने से रह गए हैं छोटे से काल खंड में
विवेचना दुष्कर है जैसे शोध परिक्षेत्र
क्रान्ति इसी ज्ञान प्रस्फुटन का परिणाम है अन्यथा यह तीव्रता संभव ही नहीं
थी। ज्ञान की उन्नति मानव को सर्वोत्कृष्ट प्रदान करने में सभी परिक्षेत्रों में
मदद करेगी और सभी क्षेत्रों में सकारात्मक परिवर्तन निरंतर होते रहेंगे।