वैश्वीकरण
विचारों का वह प्रवाह है जिससे सम्पूर्ण विश्व लाभान्वित होता है, वैश्वीकरण आंग्ल भाषा के शब्द Globalization का हिन्दी रूपान्तरण है विकिपीडिया के अनुसार –
वैश्वीकरण का शाब्दिक अर्थ स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं के विश्व स्तर
पर रूपान्तरण की प्रक्रिया है इसे एक ऐसी प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए भी
प्रयुक्त किया जा सकता है जिसके द्वारा पूरे विश्व के लोग मिलकर एक समाज बनाते हैं
तथा एक साथ कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक ताक़तों का एक संयोजन है।
यद्यपि
इसकी परिभाषा को लेकर विविध मत दिखाई पड़ते हैं ऐसा लगता है की वैश्वीकरण का चोला
ओढ़कर भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा ही अपना प्रभाव दिखा रही है।
विकिपीडिया
की इस परिभाषा को विविध विद्वानों द्वारा विशेष महत्त्व प्रदान किया गया –
“Globalization,
or globalisation, is the process of interaction and integration among people,
companies, and governments worldwide.”
“वैश्वीकरण, या वैश्वीकरण, दुनिया भर में लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच बातचीत और एकीकरण
की प्रक्रिया है।”
टर्बर्टसन
के अनुसार –
“Globalization
is a concept that is related to the shrinking of the world and the
consciousness and closeness of the whole world.”
“वैश्वीकरण एक ऐसी अवधारणा है जिसका सम्बन्ध
विश्व के सिकुड़ने तथा पूरे विश्व की चेतना और घनिष्ठता से है।”
वैश्वीकरण
को अधिगमित करने हेतु कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सम्पूर्ण जगत
का एकीकरण एक परिवार के रूप में होता है और लोग अपनी आर्थिक, भौगोलिक, राजनीतिक, और सामाजिक दूरियों को मिटाकर एकीकृत होते हैं।
इससे भौगोलिक दूरियाँ सिमट जाती हैं।
वैश्वीकरण
और शिक्षा (Globalization
and Education) –
वैश्वीकरण और शिक्षा आज एक दूसरे की
आवश्यकता बन गए हैं जहाँ वैश्वीकरण हेतु शिक्षा की भूमिका को नकारा नहीं जा
सकता वहीं यह कहने में भी कोइ अतिशयोक्ति नहीं कि शिक्षा पर वैश्वीकरण का
प्रभाव स्पष्ट पारिलक्षित होता है। ये दोनों आपस में एक दूसरे से इतने
गुत्थमगुत्था हैं कि दोनों की एक दूसरे पर अन्योन्याश्रिता स्पष्ट महसूस की जा
सकती है। इन सम्बन्धों को इन बिंदुओं द्वारा और स्पष्ट किया जा सकता है –
01 – उद्देश्य निर्धारण/Objective setting
02 – विविधता / Diversity
03 – व्यक्तिगत और सामाजिक
विकास / Personal
and Social Development
04 – श्रेष्ठ नागरिक
निर्माण/ best
citizen building
05 – संचार माध्यम का कुशल
प्रयोग/Efficient
use of media
06 – सांस्कृतिक उन्नयन/ Cultural upgrade
07 – जनतन्त्र अभ्युत्थान/ Democracy Resurgence
08 – स्वस्थ प्रतिस्पर्धा/ Healthy Competition
09 – समरसता वृद्धि/ Harmony Growth
वैश्वीकरण का शिक्षा
के उद्देश्यों पर प्रभाव (Impact of Globalization on the
Objectives of Education) –
वर्तमान समय यह माँग कर रहा है कि वैश्वीकरण
की जरूरतों को समझा जाए और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शिक्षा के उद्देश्यों
में परिवर्तन आज की आवश्यकता है .बदलते वैश्विक परिदृश्य में जहाँ स्व के मूल्यों, मौलिकताओं, संस्कृति व रीति
रिवाजों का संरक्षण आवश्यक है वहीं वक़्त के साथ कदमताल भी आवश्यक है अतः वैश्वीकरण
का शिक्षा के उद्देश्यों पर पड़ने वाले प्रभावों को सतर्कता के साथ अंगीकार करना
होगा या नियन्त्रित रखना होगा
. वर्तमान हेतु आवश्यक उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
1 – सहअस्तित्व की स्वीकार्यता / Acceptance of coexistence
2 – वैश्विक एकता को बढ़ावा / Promoting global unity
3 – व्यापक दृष्टिकोण का विकास / Development of Broad Perspective
4 – स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक भावना का विकास / Development of healthy competitive spirit
5 – आधुनिकता का समावेशन / Absorption of modernity
6 – व्यावसायिक कुशलता को महत्त्व / Importance of professional skills
उक्त उद्देश्य आज के
वैश्वीकरण की आवश्यकता भी हैं और मानव के संरक्षण हेतु आवश्यक भी अतः इन्हें
शिक्षा को अंगीकार करना ही होगा .
वैश्वीकरण का
मूल्याँकन / Evaluation
of globalization –
वर्तमान ने मानव को उस स्थल पर लाकर खड़ा कर
दिया है जहाँ प्राचीन भारतीय सह अस्तित्व व सह विकास के भाव का पोषण वैश्वीकरण के
रूप में पारिलक्षित हुआ है .वैश्वीकरण के मूल्यांकन हेतु उसके लाभ व सीमांकन का
विश्लेषण करना समीचीन होगा .जिसे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं .
वैश्वीकरण से लाभ / Benefits
from globalization –
1 – विश्व व्यापार को
बढ़ावा / boost world trade
2 – वैश्विक समस्या का
समाधान / global problem solving
3 – विश्व बन्धुत्व को
बढ़ावा / promotion of universal brotherhood
4 – तकनीकी सुविधाओं का
विकास / development of technical facilities
5 – वैश्विक ज्ञान
प्राप्ति / global knowledge acquisition
6 – राष्ट्रीय सशक्तीकरण /
national empowerment
वैश्वीकरण की सीमाएं /
Limitations of Globalization –
1 – अस्वस्थ
प्रतिस्पर्धा / unhealthy competition
2 – नैतिक मूल्य अवनमन
/ moral degradation
3 – राष्ट्रीय आय
दुष्प्रभावित / national income affected
4 – प्रतिभा पलायन / brain
drain
5 – नव शिक्षण प्रतिभा
विकास में बाधक / Barriers to new teaching talent
development
6 – विकासशील राष्ट्रों
को क्षति / damage to developing nations
उक्त लाभों व सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए
यह महसूस किया जा सकता है कि वैश्वीकरण आज की आवश्यकता है लेकिन प्रत्येक राष्ट्र
को इसे राष्ट्रोन्नयन के आलोक में देखना होगा. बिना सहअस्तित्व व परस्पर सहयोग की
भावना विकसित हुए वैश्वीकरण के सात्विक लक्ष्यों की प्राप्ति दूर की कौड़ी ही सिद्ध
होगी. यद्यपि इसके सकारात्मक प्रभाव अधिक पारिलक्षित होते हैं और यह उचित ही होगा
कि समस्त राष्ट्र सकारात्मकता के आलोक में सामान आचार संहिता बना तत्सम्बन्धी
नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करें .
ज्ञानात्मक मानसिक क्रिया को प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है इसके द्वारा
ज्ञान चक्षुओं द्वारा किसी की भी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है कुछ विचारक
संवेदी उत्तेजना व परिणामी संवेदना के बीच प्रयुक्त चर को प्रत्यक्षीकरण स्वीकार
करते हैं।
चैपलिन (19750) महोदय
कहते हैं –
“Perception is an interviewing variable inferred
from the organism’s ability to discriminate among stimuli.”
“प्रत्यक्षीकरण एक मध्यवर्ती चर है जिसका अनुमान
उत्तेजनाओं के बीच प्राणी द्वारा भेदीकरण की योग्यता से होता है।”
वास्तव में प्रत्यक्षीकरण वह है जिसका इन्द्रियों द्वारा बोध होता है
इसी से एक विशेष दृष्टिकोण का निर्माण या विकास होता है और हम कोई राय को बनाते
हैं।
यह स्वीकार करना भी तर्क संगत होगा कि –
प्रत्यक्षीकरण = संवेदना + अर्थ +
सोच
+ स्मृति
यह परिस्तिथि का अपरोक्ष बोध कराने वाली मानसिक प्रक्रिया है इसक
अर्थ संवेदनाओं के व्याख्या करने से भी लिया जा सकता है।
सामाजिक प्रत्यक्षीकरण / SOCIAL PERCEPTION –
सामाजिक प्रत्यक्षीकरण के प्रत्यय का विकास समय 1940 स्वीकारा जाता है कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसे भी हुए
जिन्होंने व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण को ही सामाजिक प्रत्यक्षीकरण स्वीकार किया। हीडर
(1958) महोदय ने कहा कि –
“We shall speak of thing perception as non social
perception when we mean the perception of inanimate objects, and of person perception when we mean the
perception of another person.”
“निर्जीव वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण को गैर
सामाजिक प्रत्यक्षीकरण व व्यक्तियों के प्रत्यक्षीकरण को सामाजिक प्रत्यक्षीकरण
कहते हैं।”
बैरोन व बिर्ने (1969) महोदय के अनुसार –
“Social perception is the process through which we seek
to know and under land other persons.”
“सामाजिक प्रत्यक्षीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूसरे व्यक्ति को जानने समझने
का प्रयास करते हैं।”
उक्त परिभाषाएं यह कहने में सक्षम हैं कि
(A) – सामाजिक प्रत्यक्षीकरण से समाज व व्यक्ति दूसरे
समाज व व्यक्ति को समझने का प्रयास करता है।
(B) – इससे एक दूसरे के प्रति धारणा बनाने में मदद
मिलती है।
(C) – व्यक्ति स्वयं को भी उस सामाजिक परिवेश में
समझने का प्रयास करता है।
प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक / Determinants of perception –
प्रत्यक्षीकरण के अन्तर्गत व्यक्ति
प्रत्यक्षीकरण, स्व प्रत्यक्षीकरण, सामाजिक प्रत्यक्षीकरण की विवेचना की जाती है।
वर्तमान के विविध विद्वानों के विचार विश्लेषण के आधार पर प्रत्यक्षीकरण
निर्धारकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है :-
1 – उत्तेजना कारक (Stimulus Factors) – उत्तेजना
कारक से आशय उन व्यक्ति सम्बन्धी कारकों से है जिनके आधार पर एक दूसरे का विश्लेषण
कर राय का निर्धारण किया जाता है। उदाहरणार्थ – एक दूसरे से होने वाला प्यार बहुत
कुछ उत्तेजना कारकों पर निर्भर करता है। यह विविध निर्णयों का आधार बनाता है।
उत्तेजना कारकों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है –
अशाब्दिक संकेत / Nonverbal cues – जब हम किसी को प्रत्यक्षतः देखते हैं तो इस
प्रत्यक्षीकरण में सामने वाले की शरीर रचना व शील गुणों का प्रभाव प्रथम दृष्टिवा
पड़ता है इसीलिये विभिन्न विद्वतजन शरीर रचना व व्यक्तित्व संगठन के बीच गहन
सम्बन्धों की स्वीकारोक्ति देते हैं। देखने को मिलता है कि इस आधार पर लोग राय बना
लेते हैं और निर्णय तक पहुंचते हैं लेकिन इस धारणा निर्माण की प्रक्रिया में बहुत
से मध्यवर्ती चर भी सक्रिय हो
जाते हैं। क्रेशमर (Kretchmer,1925)
कहते हैं –
“मोटे तथा नाटे शरीर वाले लोग सुस्त,खुशमिजाज,मिलनसार,तथा आरामतलब होते हैं। दुबले, पतले तथा
लम्बे शरीर वाले लोग सक्रिय, चिड़चिड़े, तथा क्रोधी होते हैं। सुगठित शरीर वाले लोग सामाजिक, सन्तुलित तथा फुर्तीले होते हैं।”
a – शारीरिकहावभाववमुद्रा (Body gesture and posture) – अलग अलग संस्कृतियों के लोगों के
शरीर विविध हाव भाव व मुद्रा प्रदर्शित करते
हैं। जिनमें अन्तर दीख पड़ता है। यथा चुम्बन लेना, आलिङ्गन करना,
हाथ मिलाना, स्पर्श
करना आदि।
शरीरमुद्रासेवैरभाव,
तनाव,
व विभिन्न
संवेगों का परिचय मिलता है विविध अध्ययनों ने भी शारीरिक मुद्राओं और उसके विभिन्न
शील गुणों के बीच सम्बन्धों के प्रमाण दिए हैं।
b – मुखाकृति / Facial
Expressions –
यह भी एक अशाब्दिक संकेत स्वीकार किया जाता है तथा विभिन्न विद्वानों
ने इसके आधार पर भी अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। सेकर्ड 1945 के अनुसार – काले मोटे चमड़े वाले लोगों को
वैरपूर्ण, घमण्डी,
बेईमान,आदि समझा जाता है।
एक अन्य अध्ययन में सेकर्ड तथा मुथार्ड 1955 के अनुसार –
मोटी त्वचा वाले व्यक्तियों को प्रायः घटिया,
गँवार व असंवेदनशील समझा जाता है। ऊँची पेशानी
को तीव्र बुद्धि का संकेत माना जाता है।
उक्त अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है की मुखाकृति प्रत्यक्षीकरण
का एक प्रमुख कारक है।
c – आवाज – इसे उत्तेजना कारकों में गिना जाता है।
व्यक्ति की बोल चाल व प्रभावशीलता के आधार पर बहुत से निर्णय लिए जाते हैं। बोलने
की गति, लहजा,
उच्चारण, तथ्य प्रस्तुतीकरण से विविध तथ्यों यथा उसका
समुदाय, परिवार,
संस्कार आदि का पता चलता है।
d – पहनावा व रहन सहन – अशाब्दिक प्रत्यक्षीकरण का महत्त्वपूर्ण उपागम
पहनावा व रहन सहन है इसके आधार पर महिला, पुरुष, हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि को पहचाना जा सकता है। वर्दी देखकर अलग
अलग सुरक्षा संवर्ग के लोगों को पहचाना जा सकता है। रहन सहन के अंदाज भी
प्रत्यक्षीकरण में सहयोग करते हैं।
यह अक्षरशः सत्य है कि प्रत्यक्षीकरण करने वाले का दृष्टिकोण
तत्सम्बन्धी धारणा के गठन में महत्त्वपूर्ण है एक ही व्यक्ति किसी का भाई, किसी का पिता, किसी का बेटा,
किसी का प्रेमी और किसी का पति, रूप में देखा जाता है। प्रत्यक्षीकरण की इस
विभिन्नता का कारण वह व्यक्ति नहीं बल्कि प्रत्यक्षीकरण करने वाले लोग हैं।
प्रत्यक्षीकरणकर्त्ता निर्धारकों को इस प्रकार
क्रम दिया जा सकता है।
a - संज्ञानात्मक योग्यता /Cognitive ability –
प्रत्यक्षीकरण करने वाले की संज्ञानात्मक योग्यता का सीधा असर
प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है यह सर्व विदित है की अधिक बुद्धिमान व्यक्ति का
प्रत्यक्षीकरण स्तर कम बुद्धिमान व्यक्ति से अच्छा व सटीक होगा। अपनी योग्यता के
कारण वह तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ धारणा निर्माण में सक्षम होगा।
b - संज्ञानात्मक प्रणाली/Cognitive system -
व्यक्ति के व्यवहार में सैद्धान्तिक व व्यावहारिक आधार पर अंतर देखने
को मिलता है एक व्यावहारिक परिक्षेत्र में रहने वाला सैद्धांतिक की तुलना में
अच्छा प्रत्यक्षीकरण कर सकेगा। ऐसा बहुधा देखने को मिलता है।
व्यावहारिक क्षमता वाले व्यक्ति की
संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ जाती है इस लिए वह प्रत्यक्षीकरण व निर्णयन में अधिक सक्षम
हो जाता है।
C-संज्ञानात्मक जटिलता/cognitive complexity - संज्ञानात्मक जटिलता अधिक होने पर बारीकी से और विशेष ध्यान पूर्वक प्रत्यक्षीकरण की क्रिया को अंजाम दिया जाता है। बीरी (1955) के अनुसार -
निरीक्षक की संज्ञानात्मकता जटिलता का निश्चित प्रभाव व्यक्ति के
प्रति उसके प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है।
d - उदारवाद वरूढ़िवाद/Liberalism and conservatism-
यह दोनों ही प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं। ये दोनों ही हठधर्मिता को प्रश्रय देते हैं इससे सही प्रत्यक्षीकरण मुश्किल हो जाता है,
चैपलिन (1975) के अनुसार -
उदारवादी व्यक्ति की अपेक्षा रूढ़िवादी व्यक्ति के निर्णय पर पुराने
मूल्यों तथा परम्परावादी उन्मुखता का प्रभाव अधिक देखा जाता है।
मैक क्लोस्की(1958)
ने अपने अध्ययन के परिणाम स्वरुप पाया कि –
रूढ़िवादी लोग अपने प्रत्यक्षीकरण व निर्णय में दृढ़,
असहनशील, अटल, तथा जिद्दी होते हैं।
e – पूर्व धारणा /
Prejudice–
कोई भी पूर्व धारणा प्रत्यक्षीकरण पर अनुकूल प्रभाव नहीं डालती।
प्रजातीय, धार्मिक,
जातिगत, यौन, सम्प्रदायगत पूर्व धारणाएं निष्पक्ष
प्रत्यक्षीकरण की बाधा बनती हैं। यह बाधा
प्रत्यक्ष भी हो सकती है और अपत्यक्ष भी। हम अपने समुदाय,
वर्ग, धर्म, जाति का जो प्रत्यक्षीकरण करते हैं वैसा दूसरे
समुदाय,वर्ग,
धर्म, जाति
का नहीं अर्थात पूर्व धारणा का प्रभाव प्रत्यक्षीकरण पर स्पष्ट रूप से पड़ता
है।
f – यौन भिन्नता / Sex
difference –
दैनिक जीवन के विविध अनुभवों व विविध अध्ययन ये स्पष्ट करते हैं कि
प्रत्यक्षीकरण पर यौन भिन्नता का प्रभाव दृष्टिगत होता है। कभी इस आधार पर निर्णय
में देरी होती है मैं 28 अक्टूबर 2022 को दैनिक जागरण, मुरादाबाद
की एक खबर की और आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जिसमें कहा गया कि –
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए महिला और पुरुष क्रिकेटरों को सामान
मैच फीस देने का फैसला किया है। बीसीसीआइ सचिव जय शाह ने यह घोषणा की।
g – आयु /Age –
विविध अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि आयु का
प्रभाव प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है अधिक आयु के व्यक्ति की मनोवृत्ति,
आवश्यकता, आकांक्षा, सपने और युवा आयु की सोच और प्रत्यक्षीकरण में
अंतर स्वाभाविक है। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता, अनुभव जो आयु बढ़ने के साथ मिलते हैं
प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव डालते हैं। कई अध्ययन इस बात को प्रमाणित करते हैं कि कम
उम्र की अपेक्षा अधिक उम्र के लोग मानवजातीय पूर्वधारणाओं पक्षपातों से अधिक पीड़ित
होते हैं।
इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे कारक हैं जो
प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं इस पर स्थान, समय, सत्ता सभी का प्रभाव पारिलक्षित होता है। यह
संस्कृति, संस्कार,
परिवेश, चिन्तन आदि कारकों से भी प्रभावित होता है।
यह व्यक्ति व्यक्ति व सामाजिक भिन्नताओं में भी
अलग अलग होता है।
वैदिक शिक्षा से आशय उस शिक्षा से है जो मानव का सर्वाङ्गीण विकास कर
सके और वह जीवन का परम लक्ष्य धर्म के मार्ग पर चलकर प्राप्त कर सके। इन अर्थों को
समाहित करते हुए अल्तेकर महोदय कहते हैं –
“Education was regarded as a source of
illumination and power which transforms and ennobles our nature by the
progressive and harmonious development of our physical mental, intellectual and
spiritual powers and faculties.”
A.S.Altekar : Education in Ancient India, 1973.p.8
“शिक्षा को ज्ञान प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत
माना जाता था जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का उत्तरोत्तर और
सामंजस्य्पूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित और उत्कृष्ट बनाती है।”
यह शिक्षा मूलतः वेदों पर आधारित थी और आध्यात्मिक अलख जगाने वाली
अर्थात अन्तर्ज्योति के जागरण व आध्यात्मिक पथ को आलोकित वाली थी। वेद में शिक्षा का प्रयोग विद्या, बोध, ज्ञान, विनय आदि के लिए किया गया है। इसी लिए कहा था
कि
-“ज्ञानं मनुजस्य तृतीय नेत्रं ”
लेकिन सायण महोदय ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में पृष्ठ 49 पर लिखा है –
“जो स्वर, वर्ण, मात्रा, आदि के उच्चारण – प्रकार का उपदेश दे, शिक्षा दे वही शिक्षा है।”
वैदिक कालीन शिक्षा के
उद्देश्य / Objectives of Vedic period education
वैदिक कालीन शिक्षा में मानव मूल्य उसे इह
लौकिक और पार लौकिक ज्ञान प्राप्ति का निर्देश देते थे पर पारलौकिक अर्थात परा
विद्या को अधिक महत्तव प्रदान किया जाता था।
1 – नैतिक उन्नयन / moral
elevation
2 – चारित्रिक विकास / Character
development
3 – आध्यात्मिक मानसिक
उत्थान / Spiritual upliftment
4 – व्यक्तित्व का विकास /
Personality development
5 – राष्ट्रीय संस्कृति
संरक्षण व प्रसार / National Culture Preservation and
Dissemination
6 – मोक्ष की प्राप्ति / Attainment
of salvation
उक्त विविध तथ्यों को ध्यान में रखते हुए
अल्तेकर महोदय कहते हैं –
“Infusion
of a spirit of pity and religiousness, formation of character, development of
personality, inculcation of civic and social duties promotion of social
efficiency and preservation and spread of national culture may be described as
the chief aims and ideals of ancient Indian Education.”
“प्राचीन भारतीय शिक्षा
के उद्देश्यों व आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जासकता है -ईश्वर भक्ति की भावना का एवम
धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास,सामाजिक कर्त्तव्यों
को समझाना, सामाजिक कुशलता की
उन्नति व संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार।”
शिक्षा व्यवस्था / Organization of education –
वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था को समझने हेतु
इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –
1 – विद्यारम्भ संस्कार / Vidyarambha Sanskar
2 – उपनयन संस्कार / Upanayana ceremony
3 – पाठ्यक्रम / Syllabus
4 – शिक्षण विधि / Teaching Method
5 – शिक्षण अवधि / Teaching period
6 – संस्थान का अध्ययन समय
/ Institute
study time
7 – अवकाश व शिक्षणसत्र / Vacation and academic session
8 – शिक्षण शुल्क व आर्थिक
व्यवस्था / Tuition fee and financial system
9 – परीक्षा तथा उपाधियाँ / Exams and degrees
10 – समावर्तन संस्कार / Samavartan Sanskaar
विविध शिक्षाएं / Miscellaneous
teachings –
सैन्य शिक्षा
व्यावसायिक शिक्षा
पुरोहितीय शिक्षा
महिला शिक्षा
कला कौशल की शिक्षा
आयुर्वेद की शिक्षा
पशु चिकित्सा
शिक्षण संस्थाओं के
विविध रूप / Various forms of educational institutions –
1 – गुरुकुल
2 – ऋषि आश्रम
3 – चरण
4 – परिषद्
5 – सम्मेलन
6 – परिब्राजक उपदेश
प्रमुख शिक्षा केन्द्र /Major Educational Center –
वैदिक कालीन शिक्षा के केन्द्र सम्पूर्ण
भारत में फैले थे दक्षिण भारत में माल खण्ड, तन्जौर, कल्याणी, उत्तर भारत में मिथिला, कन्नौज, धार, तक्षशिला प्रमुख शिक्षा केंद्र थे। कर्नाटक, काञ्ची, काशी, और नासिक में भी शिक्षण कार्य होता था।
वैदिक कालीन शिक्षा का
मूल्याङ्कन / Evaluation of Vedic period education –
वैदिक कालीन शिक्षा के मूल्याङ्कन हेतु इसके
गुण दोषों पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा इसलिए पहले जानते हैं इसके गुण
वैदिक कालीन शिक्षा के
गुण / Virtues of Vedic Period Education –
1 – नागरिकता के उच्च गुणों का समावेशन। Inclusion
of high qualities of citizenship
इस सम्बन्ध में अल्तेकर महोदय कहते हैं –
“The
success of educational system in infusing a sense of civic responsibility was
also remarkable.”
“नागरिक उत्तरदायित्व
की भावना अनुप्राणित करने में शिक्षा प्रणाली की सफलता भी अनूठी थी।”
2 – आध्यात्मिकता को प्रश्रय / support
spirituality
3 – चारित्रिक सुगठन / Character
formation
इस सम्बन्ध में अल्तेकर महोदय कहते हैं –
“There
is no exaggeration and that the educational system of the country had succeeded
remarkably in its ideas of raising the national character to a high level.”
“इसमें कोई अतिशयोक्ति
नहीं है कि देश की शिक्षा प्रणाली उच्च स्तर के राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान के
अपने आदर्श में सफल रही थी।”
4 – व्यक्तित्व का विकास / Personality
development
5 – गुरु शिष्य सम्बन्ध / Teacher-disciple
relationship
6 – विशेषज्ञ तैयार करने में सफल / Successful
in producing experts
अल्तेकर महोदय कहते हैं –
“The
educational system did not aim to act imparting a general knowledge of a number
of subjects; its ideal was to train experts in different branches.”
“अनेक विषयों का
सामान्य ज्ञान देने के कार्य का लक्ष्य इस शिक्षा प्रणाली का नहीं था। इसका आदर्श
विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञ तैयार करना था।”
7 – साहित्य व
संस्कृति के संरक्षण व प्रसार में सफल / Successful in
the preservation and dissemination of literature and culture–
अल्तेकर महोदय का कहना है –
“The
ancient Indian system of education has been eminently successful in its aim of
the preservation of ancient literary and cultural heritage.”
“प्राचीन भारतीय शिक्षा
प्रणाली प्राचीन साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के अपने उद्देश्य में
विशेष सफल रही।”
वैदिक कालीन शिक्षा की
सीमाएं / Limitations of Vedic Period Education –
निम्न सीमाएं वैदिक कालीन शिक्षा में
दृष्टिगत होती हैं –
1 – धर्म पर अधिक बल / More
emphasis on religion
2 – लौकिक विज्ञानों की
उपेक्षा। Neglect of cosmic sciences
अल्तेकर महोदय ने कहा –
“Secular
sciences like history, economics, politics, mathematics, and astronomy did not
receive as much attention as theology, philosophy, ritualism, and sacred law.”
“लौकिक विज्ञानों जैसे
इतिहास, अर्थ शास्त्र,राजनीति, गणित और ज्योतिष इतना
ध्यान नहीं पा सके थे जितना धर्म शास्त्र, दर्शन, कर्मकाण्ड वाद, और पवित्र कानून। ”
3 – साधारण जनता की प्रगति
में असमर्थ / Incapable of progress of the general public
4 – लोक भाषाओँ के प्रति
उदासीन / Indifferent to folk languages
अल्तेकर महोदय ने कहा –
“Hindu
educational system was unable to promote the education of the masses, probably because
of its concentration on sanskrit and the neglect of vernaculars.”
“सम्भवतः हिन्दू शिक्षा
प्रणाली जनसाधारण की शिक्षा की उन्नति करने में असमर्थ रही क्योंकि इसका लोक
भाषाओँ की उपेक्षा और संस्कृत भाषा पर ध्यान केन्द्रित था।”
5 – नारी शिक्षा की अवहेलना
/ Disregard for women’s education
6 – शूद्र शिक्षा की
उपेक्षा / neglect of shudra education
एफ ई केई महोदय कहते हैं –
“The
Brahmnik educational system become stereotyped and formal and unable to the
needs of a progressive civilization.”
“ब्राह्मणीय शिक्षा
प्रणाली रूढ़िगत एवं औपचारिक हो गई थी और प्रगतिशील सभ्यता की आवश्यकताओं को पूर्ण
करने में असमर्थ थी।”
उक्त विश्लेषण के आधार
पर यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि तत्कालीन परिस्थितियों के
दृष्टिकोण से वैदिक कालीन शिक्षा सर्वोत्तम शिक्षा व्यवस्था थी इसने शिक्षा के
क्षेत्र में महान विदुषी महिलाओं व महान विचारकों व शोध पिपासुओं को जन्म दिया तथा
उस ज्ञान ज्योति को और अधिक जाज्वल्यमान करने में योगदान दिया इसीलिये एफ ई केई
महोदय को लिखना पड़ा कि –
“Not
only did the brahman educators develop a system of education which survived the
crumbling of empires and changes of society but they also, through all those
thousands years, kept aglow the torch of higher learning.”
“ब्राह्मण शिक्षकों ने
एक शिक्षा प्रणाली को केवल विकसित ही नहीं किया जो साम्राज्यों के पतन समाज के
परिवर्तनों में जीवित रही वरन उन्होंने हजारों वर्षों तक उच्च शिक्षा की ज्योति को
प्रज्ज्वलित रखा।”
जब गम्भीरता पर विचार करते हैं तब कई शब्द मानस से टकराते हैं जिन्हे इसके आशय के आसपास स्वीकारा जाता है। जैसे अचञ्चलता, गम्भीर होने का भाव, गहनता, गाम्भीर्य, उदात्तता, गहराई, चिन्तनशीलता, सोच विचार का भाव, सन्जीदगी, स्थिरचित्त, स्थिर मनस्कता, उद्वेगहीनता, शान्त चित्तता, अचपलता आदि आंग्ल भाषा के भी कुछ शब्द जेहन में आते हैं जैसे Grimness, Sobriety, Solemnity, Seriousness आदि।
लेकिन सारे शब्दों पर उदारता पूर्ण विचार करने
और वाक्यों में प्रयोग करने पर यह स्पष्ट भान होता है कि कोई शब्द दूसरे का
वास्तविक पर्याय नहीं हो सकता।
गम्भीरता से आशय (Seriously intended)
आज
गम्भीरता स्वविवेक बुद्धि के अनुसार विविध तरीके से व्याख्यायित किया
जाता है एक व्यक्ति अपने जीवन काल के अलग अलग खण्डों में इसका अलग अलग अर्थ
व्याख्यायित करता है।
यहां मेरे द्वारा भी अपने बुद्धि विवेक द्वारा इसे जैसा समझा है देने
का प्रयास है आपका मत भिन्न हो सकता है उसे आप कमेण्ट में देकर दिशाबोध करा सकते
हैं। हम मानते हैं कि ज्ञान अनन्तिम होता है।
साधारणतः कम बोलने वाला, शान्त चित्त, उच्च विवेक स्थिति के कारण सुख दुःख में समभाव रखने वाला अन्तर्मुखी
व्यक्ति गम्भीर की श्रेणी में आता है और यही गुण गम्भीरता कहलाता है।
यह स्थिर प्रज्ञता के अधिक निकट है गम्भीरता
में हमारा समर्पण श्रेष्ठ ज्ञान के प्रति है श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 54 वें
श्लोक में अर्जुन का प्रश्न और 55
वें
में केशव के समाधान से हम अर्थ के नज़दीक पहुँचते हैं। अर्जुन कहते हैं –
स्थितप्रज्ञस्य का
भाषा समाधिस्थस्य केशव |
स्थितधी: किं प्रभाषेत
किमासीत व्रजेत किम् ॥54॥
हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए
स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष
कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
हे अर्जुन, जिस काल में यह पुरुष
मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में
ही सन्तुष्ट रहता है उस काल में वह स्थिरप्रज्ञ कहा जाता है।
व्यक्ति स्व स्वरुप
में स्थिर रहकर स्वाभाविक गाम्भीर्य प्राप्त करता है। अष्टावक्र गीता के ग्यारहवें
प्रकरण में अष्टावक्र जी कहते हैं –
यदा नाहं तदा मोक्षो
यदाहं बन्धनं तदा।
मत्वेति हेलया
किञ्चित् मा गृहाण विमु़ञ्च मा।।8.4।
जब तुच्छ पदार्थों से
संयुक्त अहंकार नहीं रहता, तभी मुक्ति होती है और
बन्धन तब होता है जब तुच्छ अहंकार मन में विकास करे ऐसा मानकर अपनी इच्छा से न कुछ
ग्रहण करो और न ही कुछ छोड़ो।
अतः यह स्पष्ट भान होता
है कि गम्भीरता श्रेष्ठ ज्ञान लब्धि के बाद का स्वाभाविक स्वभाव है यह कहाँ, कब, किससे कितना विनिमय व
क्या यथोचित करना है का संज्ञान कराता है।
चिन्तनशीलता को समाधान तक पहुँचाता है।
गम्भीरता क्या नहीं है
? (What is not
seriousness?)
वर्तमान में कठिन प्रतिस्पर्धा व अस्तित्व
रक्षा प्रबल आवश्यक कर्मक्षेत्र बनकर उभरे हैं और इस क्रम में मूल्य ह्रास के भी
नए प्रतिमान गढ़े गए हैं और गम्भीरता के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या धारणाएं बनी हैं।
असल में निम्न परिक्षेत्र गम्भीरता नहीं स्वीकारे जाएंगे।
1 – अज्ञान के कारण शान्त
स्थिति गम्भीरता नहीं है।
2 – समस्या से भागकर
निष्क्रिय होना गम्भीरता नहीं है।
3 – रूढ़ता गम्भीरता नहीं
है।
4 – मौन को प्रत्येक
प्रश्न का समाधान मानना गम्भीरता नहीं है।
5 – प्रभावी क्रोध व
दुराग्रह गम्भीरता नहीं है।
6 – समभाव से विरक्ति
गम्भीरता नहीं है।
7 – स्वाभाविक उथलापन
गम्भीरता नहीं है।
8 – प्रदर्शनकारी
चिन्तनशीलता गम्भीरता नहीं है।
वस्तुतः बहुत सी भ्रान्तियाँ दिग्भ्रमित कर
हमें गम्भीरता का वाह्य मुखौटा दिखाती हैं। हमें सजगता से सार्थक गाम्भीर्य का
अवलोकन करना होगा।
गम्भीरता के आधारभूत तत्व (fundamentals
of seriousness) –
स्वभाव में गम्भीरता स्वतः आ जाती है किसी
के कहने से नहीं स्व में डूबने से, मैं केवल शरीर नहीं के
भाव से और हमारे चिन्तन की तीव्रता हमें कब गम्भीर कर देती है पता भी नहीं चलता।
हमसे पहले अन्य को इसका अहसास पहले होता है। कुछ कारक भी इसके लिए उत्तरदाई हैं
यथा –
1 – यथार्थ स्थिति
परिस्थिति
2 – क्षमता आधारित
3 – अद्यतन अर्जित
ज्ञान से प्रभावित
4 – विवेक व विश्लेषण
शक्ति आधारित
5 – अनुभव आश्रित
गम्भीरता के लाभ (Benefits
of seriousness) –
व्यवहार के गम्भीर होने पर स्वतः कुछ लाभ
होने लगते हैं यथा
1
– ऊर्जा का समुचित प्रयोग
2
– भटकाव पर नियन्त्रण
3
– दिशाबोध जागृति में अहम्
4
– अनुभूति जागरण
5
– सम्यक ज्ञान प्राप्ति में सहयोगी
यहाँ यह कहना सामयिक
होगा की हमारे पास गाम्म्भीर्य युक्त पूर्वजों की एक लम्बी श्रृंखला है विदेह जनक, याज्ञवल्क्य, प्रसिद्द विद्वान् की
विदुषी धर्मपत्नी भारती, विद्योत्तमा, प्रभु श्री राम, युधिष्ठर, केशव, कर्ण, महर्षि पाणिनि और
वर्तमान उद्यमी,वैज्ञानिक, चिन्तक आदि।
व्यक्तित्व
विकास में मानव का सम्पूर्ण परिकलन छिपा है यह एक दिन में नहीं गढ़ा जा सकता। मानव
व्यक्तित्व परिमार्जन उसकी निरन्तर विकास यात्रा का परिणाम है। स्वभाव की चन्द
विमाएँ न तो इसका प्रतिनिधित्व कर सकती हैं न स्वयं का आकलन सर्वश्रेष्ठ निर्णय हो
सकता है । दुनिया दीर्घकाल में आपको बार बार परख कर आपके व्यक्तित्व पर दृढ
विश्वास जमाती है। व्यक्तित्व को दिशा देने वाली पिताश्री के मुख से सुनीं चन्द
पंक्तियाँ जेहन में आ रही हैं, जो याद आता है आपकी झोली में रखता हूँ –
आदमी वह है जो मुसीबत में
परेशान न हो
कोई मुश्किल नहीं ऐसी है जो आसान न हो
यह है दुनियाँ यहाँ दिन ढलते ही शाम आती है
सुबह हर रोज लेकर नया पैगाम आती है
यह हमेशा से है इस दौर औ दुनियाँ का चलन
चाँद सूरज को भी लग जाता है इक रोज ग्रहण
जानी बूझी हुई बातों से अनजान न हो
आदमी वह है जो मुसीबत में परेशान न हो .
आज जो कहने जा रहा हूँ, वह
बहुत सामान्य है और आपको लगेगा कि आपको पता था यह थोड़ा सा परिवर्तन जीवन का परिवर्तक बिन्दु भी हो
सकता है हम सँवर सकते हैं बात किताबी नहीं है बल्कि अनुभव के खजाने के कुछ विचार
हैं मुझे लगता है ये व्यक्तित्व को सही आयाम देने में अवश्य सक्षम होंगे .
व्यक्तित्व विकास के आठ उपाय / Eight tips of personality development –
1 – स्वयम्
से प्यार / Love yourself
2 – परिधान
/Apparel
3 – सद्
सङ्गति / Good fellowship
4 – धैर्य
व जोश का समागम / Patience
and passion
5 – अद्यतन
जानकारी / updated
information
6 – सम्प्रेषण
कौशल / communication
skills
7 – मुस्कराहट
का सम्यक प्रयोग / use of
smile
8 – व्यापक
दृष्टिकोण अभ्युदय / Comprehensive
outlook
1 – स्वयम् से प्यार / Love
yourself –
सृष्टि ने मानव शरीर के रूप में अद्भुत देन
हमें दी है साथ दिया है विचार विश्लेषण में सक्षम मानस। हम विचार सकते हैं कि यह
शरीर वह आलम्ब है जो जीवन पर्यन्त कर्म करेगा। अतः इसको व्यवस्थित रखना हमारा परम
दायित्व है प्राणायाम, व्यायाम, योगासन, मालिश आदि के द्वारा
इसे दीर्घ काल तक सक्षम, सुडौल, सुन्दर, आकर्षक रखा जा सकता है
तो फिर क्यों न हम इश्वर प्रदत्त का सर्वोत्तम उपयोग उक्त रूप में करें। स्वयम् से
प्यार के प्रतिफल में चुस्ती, फुर्ती, सक्षमता, के रूप में आकर्षक
व्यक्तित्व आपको प्राप्त होगा।
2 – परिधान /Apparel –
अपनी विकास यात्रा के प्रारम्भिक काल में
परिधान की आवश्यकता व शक्ति को हमने पहचान लिया था इसीलिये पेड़ की पत्तियाँ, छालें, विभिन्न पशु चर्म के उपयोग से आगे बढ़कर आज
के आकर्षक परिधानों तक की यात्रा हमने पूर्ण की है। आज विभिन्न आकार, प्रकार, का आकर्षक रंगों में परिधान उपलब्ध हैं।
हमें अपनी कद, काठी, मर्यादा, क्षमता, समय
ध्यान में रखकर अपने अनुरूप चरण से शीर्ष तक परिधान चयनित करने चाहिए। सही
चयन आपके व्यक्तित्व को और आकर्षक बना देगा।
3 – सद् सङ्गति / Good
fellowship –
यह बहुत बड़े आयाम को अपने अन्दर समेटे है और
इसीलिये यह हमें अंदर बाहर दोनों
परिक्षेत्रों में सुदर्शनीय स्थिति में लाती है यह सङ्गति अच्छे आवश्यक साहित्य, अच्छे विचार, सार्थक व्यक्तित्वों, दिशा बोधक वर्तमान व
पुरातन प्रेरक प्रसंगों की भी हो सकती है। हमारे यहां के चित्र उपस्थिति सामग्री
सभी हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं इसलिए बहुत सावधानी पूर्वक जिन्दगी
बितानी चाहिए। याद रखें सद् सङ्गति प्रवृत्तियों को संयमित रखती है और हमारे आचरण
व चरित्र का उच्चीकरण करती है और इसी पुनीत भाव से जुडी कुछ पंक्तियाँ आभार सहित
प्रस्तुत करता हूँ किसी विशिष्ट व्यक्तित्व की –
श्वाँस खींचने से पूर्व ठीक से विचार लो, कि;
श्वाँस धारने की कौन नीति होनी चाहिए,
मान या गुमान, अभिमान का विधान हो या;
कर्म में मनुष्यता प्रतीत होनी चाहिए,
काँच के खिलौने सी छुई मुई जिन्दगानी,
बड़ी सावधानी से व्यतीत होनी चाहिए,
और;भूल करना तो स्वभाव है
मनुष्य का
पर मूल में तो भावना पुनीत होनी चाहिए।
उक्त सब कुछ सम्भव होगा यदि हम सद् सङ्गति में होंगे।
4 – धैर्य व जोश का समागम / Patience and passion –
याद रखें हमारे दो प्रमुख शत्रु आलस्य और अधैर्य हमें चतुरता पूर्वक
गिरफ्त में ले लेते हैं और अच्छा खासा व्यक्तित्व बेचारे की श्रेणी में जा कर खड़ा
हो जाता है। होश के साथ जोश हो तो सोने पर सुहागा है। वरना यही कहोगे की वो तो
अभागा है। असल में धैर्य वह आलम्ब है जो हमको यथोचित व्यवहार सिखाता है और हम
सफलता की सीढ़ियां अपने सही निर्णय के आधार पर चढ़ते जाते हैं। याद रखें धैर्य व जोश
का समागम वह कार्य करा जाता है जिसका
अनुकरण करने को दुनिया विवेश होती है।आभार सहित लेता हूँ पँक्तियाँ जिनमें क्या खूब कहा गया है। –
है वही सूरमा इस जग में जो अपनी राह बताता है,
कोई चलता पद-चिन्हों पर, कोई
पद-चिन्ह बनाता है।
मुझे लगता है की यदि
व्यक्तित्व गढ़ना है तो पद चिन्ह बनाने की अपनी सक्षमता सिद्ध करनी ही होगी।
5 – अद्यतन जानकारी / updated information-
समय के साथ चलते हुए यदि उससे आगे निकलना है तो अपनी प्रासंगिकता
बनाए रखनी पड़ेगी। इसलिए यह परम आवश्यक है की हम अपनी जानकारी के स्तर को अद्यतन
रखें। प्रत्येक समस्या समाधान में हमारा
प्रयास समाधान की ओर ले जाने वाला होना चाहिए उलझाने और लटकाने वाला नहीं।
विचार विनिमय, प्रभावशाली विश्लेषण तभी सम्भव होगा जब उसकी
अद्यतन जानकारी हमारे पास होगी और तभी हम अपनी या अपने व्यक्तित्व की कोइ छाप छोड़
सकेंगे। त्वरित
समस्या को यदि त्वरित समाधान मिल जाए तो समस्या विकराल होने से बच जाती है और यह
त्वरित संज्ञान और निदान क्षमता पर निर्भर करती है। अतः अद्यतन जानकारी परम आवश्यक
है।
6 – सम्प्रेषण कौशल / Communication skills –
यहाँ यह समझना नितान्त आवश्यक है कि सम्प्रेषण बोलकर
और लिख कर दोनों तरीके से किया जाता है और यह प्रभावी तब होता है जब यह उस भाषा
में हो, जिस तक पहुँचाना है। जिस तरह संस्कृत निष्ठ
बाल्मीकि रामायण का जब बाबा तुलसी ने सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण किया तो यह सहज
सम्प्रेषणीय बन गयी।
जब बुद्ध जी से पुछा गया की ज्ञान किस भाषा में सम्प्रेषित हो तब
उनका जवाब था जिस भाषा में समझ में आये।
सम्प्रेषण की कला जादू सा
प्रभाव रखती है और इसमें निपुण जादुई व्यक्तित्व वाला स्वीकार किया जाता है। इन
शब्दों और कहने के अन्दाज से बहुत बड़ी जान संख्या को प्रभावित किया जा सकता है।
शास्त्री जी, इन्दिरा जी, विनोबाजी, विवेका नन्द जी और वर्तमान में मोदीजी इसी
श्रेणी में हैं। एक ही कथा अलग अलग श्री
अलग अलग प्रभाव छोड़ती है। इसीलिये कहा जाता है सफल वक्ता सफल व्यक्तित्व।
मेरा कहना हे कि –
प्रेम और सद्भाव का झरना, तब
झर-झर बहता जाता,
यदि तथ्य निरूपण में हमको सम्प्रेषण कौशल आता।
7 – मुस्कुराहट का सम्यक प्रयोग / Use of smile –
मुस्कराहट कई प्रश्नों
का जवाब है, इससे कई चिन्ताओं को हवा में उड़ाने की ताक़त
मिलती है यदि आपके पास बच्चों सी निस्वार्थ मुस्कान है तो समझिए आप सौभाग्यशाली
हैं। मुस्कराहट इसलिए नहीं होती कि जिंदगी में खुशियाँ बहुत हैं बल्कि यह इसलिए
होती है कि जिन्दगी में हार न मानने का जज्बा अधिक है।
किसी ने क्या खूब कहा है कि –
बाँटो मुस्कुराहट इतनी कि
किसी आँख में पानी न हो।
जियो जिन्दगी जिन्दादिली से
जीत कभी बेमानी न हो।
विषम स्थिति में आपकी मुस्कुराहट आपके बहुत से गुणों की अभिव्यक्ति
करती हैं याद रखिये रोते हुए उतने समाधान नहीं मिलते जितने सहज मुस्कान के साथ
मिलते हैं। आपकी मुस्कराहट आपके व्यक्तित्व में गजब का इजाफा करती है। आपक
व्यक्तित्व खुशनुमा व्यक्तित्व कहलाता है। दूरदर्शन पर रामायण के राम और महाभारत के कृष्ण
की मुस्कराहट से आप प्रभावित तो हुए ही होंगे जब कि यह अभिनय था।
सत्य कितना प्रभावी होगा।
8 – व्यापक दृष्टिकोण अभ्युदय / Comprehensive outlook-
वह व्यक्तित्व ज्यादा प्रभावी होता है जो जितने बड़े क्षेत्र के उत्थान में
योग देता है और जो केवल अपने लिए नहीं जीता। इस संस्कृत श्लोक में कितने सहजता से
यह बात कही गयी है –
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्
उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम।
भारतीय दर्शन, अष्टाङ्ग योग इतनी क्षमता रखते हैं की यदि
इनका अध्ययन किया जाए तो संकीर्ण दृष्टिकोण विकसित हो ही नहीं सकता। गीताएं, वेद, पुराण इसी क्रम में आते हैं। इसीलिए यथा सम्भव
इनका अध्ययन किया जाए। लोग आपके
व्यक्तित्व के कायल हो जाएंगे।
व्यक्तित्व शब्द पुरातन काल खण्ड का एक महत्त्वपूर्ण विषयवस्तु है
अथर्ववेद में सतोगुणी, रजोगुणी,और
तमोगुणी व्यक्तित्वों के बारे में बताया है यह त्रिगुणी अवधारणा मानव चेतना की
यात्रा के अंश हैं सत्व,स्थिरता का रज सक्रियता का तथा तम जड़त्व से
सम्बद्ध है। इन्हें आगे चलकर सांख्य दर्शन ने अपनाया। श्रीमद्भगवद्गीता में
व्यक्तित्व पर सारगर्भित दिशा निर्देश है। सामान्य अर्थों में व्यक्तित्व को बाहरी
सौन्दर्य व सद्गुणों के समाविष्ट स्वरुप के रूप में देखा जाता है।
पाश्चात्य दृष्टिकोण में व्यक्तित्व आंग्ल भाषा
के Personality शब्द का समानार्थी है।यह शब्द लेटिन के परसोना (Persona)
से विकसित हुआ जिससे आशय है नकली चेहरा या
मुखौटा अर्थात उस काल में शरीर रचना, पोशाक, रंगरूप आदि वाह्यगुण व्यक्तित्व में समाहित
स्वीकार किये गए।
विभिन्न दृष्टिकोणों व मतों के कारण अलग अलग
विद्वतजनों ने इसे अलग अलग तरह से पारिभाषित किया उनमें से कुछ यहां द्रष्टव्य हैं
यथा –
Allport / आलपोर्ट महोदय के अनुसार
“Personality is the dynamic
organisation within the individual of those psychophysical systems that
determine his unique adjustment to his environment.”
“व्यक्तित्व,
व्यक्ति
में उन मनोदैहिक व्यवस्थाओं का संगठन है जो वातावरण के साथ उसका सुसमायोजन स्थापित
करता है। ”
munn,N.L
के अनुसार
“Personality may be defined as
the most characteristic integration of an individual’s structures, modes of
behaviour, interests attitudes, capacities, abilities, and aptitudes.”
“व्यक्तित्व एक व्यक्ति के गठन व्यवहार के
तरीकों, रुचियों,
दृष्टिकोणों,
क्षमताओं
और तरीकों का सबसे विशिष्ट संगठन है।”
May and
Hartshorn महोदय का मानना है कि –
“Personality
is that which makes one effective and gives influence over others.”
“व्यक्तित्व, व्यक्ति का वह स्वरुप है जो उसे प्रभावशाली
बनाता है और दूसरों को प्रभावित करता है। ”
Drever महोदय इस सम्बन्ध में कहते हैं –
“Personality
is a term used for the integrated and dynamic organization of the physical,
mental, moral, and social qualities of the individual, as that manifests itself
to other people, in the give and take social life.”
“व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग, व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, और सामाजिक गुणों के सुसंगठित और गत्यात्मक
संगठन के लिए किया जाता है, जिसे वह अन्य व्यक्तियों के साथ अपने सामाजिक जीवन के आदान प्रदान
में व्यक्त करता है।”
व्यक्तित्व
के प्रकार / Types
of Personality –
व्यक्तित्व
के कोई निश्चित प्रकार नहीं बताये जा सकते इसीलिये विविध विद्वानों द्वारा इन्हें
अलग अलग तरह से वर्गीकृत किया गया है।सामान्यतः इन्हें निम्न तीन भागों में बाँटकर
अध्ययन करेंगे –
1 – शरीर बनावट के आधार पर (Based on body composition)
2 – समाजशास्त्रीय प्रकार (Sociological type)
3 – मनोवैज्ञानिक प्रकार (Psychological type)
1 – शरीर बनावट के आधार पर (Based on body composition)–
क्रेचमर
(Kretschmer) महोदय इन्हें चार भागों में बाँटा है जो इस
प्रकार है –
A – मिलनसार (Pyknic) – सामान्य कद काठी के मृदुभाषी व्यक्ति मित्रता, अच्छे स्वभाव और मिलनसारिता के गुण से युक्त
होते हैं ये समाज से मिलकर चलते हैं।
B – एकान्तप्रिय (Leptosome) – ये कमजोर, शर्मीले, चुप
रहने वाले, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के होते हैं।इन्हें
एकान्त पसन्द होता है।
C – चुस्त (Athletic) – इस प्रकार के व्यक्ति का सीना चौड़ा व उभरा, कन्धे चौड़े, मजबूत
माँसपेशियाँ, ताक़तवर भुजाएं, हृस्टपुष्ट स्वस्थ शरीर होता है। इन्हे चुस्त(Athletic) व्यक्तित्व वाला कहते हैं।
D – मिश्रित (Dysplastic) -इस तरह के व्यक्ति लम्बे, चौड़े, मोटे होते हैं और इनमें ऊपर वर्णित प्रकारों का
आंशिक सम्मिश्रण होता है।
2 – समाजशास्त्रीय प्रकार (Sociological type)-
स्प्रेंगर
/ Spranger महोदय ने अपनी पुस्तक “Types of Men” में 6 प्रकार के व्यक्तित्व बताए हैं –
1 – वैचारिक (Theoretical) – दार्शनिक, आविष्कारक, वैज्ञानिक आदि को इसमें स्थान दिया जाता
है।
2 – आर्थिक (Economic) – ऐसे व्यक्ति धन को अधिक महत्ता प्रदान करते
हैं। व्यवसायी, दुकानदार, उद्योगी
आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।
3 – सौन्दर्यात्मक (Esthetic) – सौन्दर्य
व कला को महत्ता प्रदान करने वाले इस श्रेणी में आते हैं। यथा चित्रकार, साहित्यकार, कलाकार
आदि।
4 – धार्मिक (Religious) – ईश्वर में आस्था रखने वाले,सशक्त आध्यात्मिक पक्ष वाले लोग इसमें आते हैं
जैसे संत, पुजारी, पादरी, भक्त, मुल्ला
मौलवी इसके तहत आते हैं।
5 – सामाजिक (Social) – सामाजिक हितों व सामाजिक समस्याओं से जूझने
वाले लोग इसमें गिने जाते हैं जैसे विनोबाजी, गाँधीजी, नेल्सन मंडेला,दयानन्द सरस्वती आदि।
6 – राजनैतिक (Political) – सत्ता, नियन्त्रण, प्रभुसत्ता, राज
व्यवस्था के दावपेचों से उलझने वाला इस क्षेत्र में आता है जैसे नेता, मन्त्री, आदि।
3 – मनोवैज्ञानिक प्रकार (Psychological type)-
मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर जिन विद्वानों ने व्यक्तित्व का वर्ग
विभाजन किया है उनमें C.G.JUNG को सर्वाधिक स्वीकार किया जाता है इनका पुस्तक
“Psychological
Types” दिया गया विवरण आज भी महत्ता रखता है इन्होने
व्यक्तित्त्व वर्गीकरण इस प्रकार किया है –
1 – बहिर्मुखी (Extrovert)
– ऐसा
व्यक्तित्व बहुत सामाजिक बाहरी दुनिया से मेलजोल बढ़ाने वाला व्यक्तिगत धन या
स्वास्थ्य की कम परवाह कर नई परिस्थितियों से सुसमायोजन कर लेता है। इनका
आत्मविश्वास बहुत अच्छा होता है, ये विज्ञापन, भाषण कला, प्रकाशन आदि के द्वारा दूसरों को अपने अनुकूल
बना लेते हैं यथा शास्त्रीजी, श्रीमति इन्दिरा गाँधी,
नरेन्द्र मोदी जी,
विवेकानन्द जी आदि को समझा जा सकता है।
2 – अन्तर्मुखी (Introvert)
– ये
बहुधा अपनेआप में खोये रहते हैं किताबें पढ़ना, निर्धनता में खुश रहना,
सामाजिक व्यवहार निर्वाहन में संकोची,
स्वयं के प्रगटन से परे,
शीघ्र दुःखी होने वाला,
कम लोचपूर्ण दृष्टिकोण,
संसार की परवाह न कर स्वपथ पर अग्रसर,
कम बोलने वाला, बहिर्मुखी से अधिक कार्य क्षमता वाला होता
है।
3 – उभयमुखी (Ambivert)
– ऐसे
व्यक्ति किन्ही परिस्थितियों में अन्तर्मुखी व भिन्न परिस्थिति में बहिर्मुखी
व्यक्तित्व वाले होते हैं आपने भी देखा होगा एक अच्छा लिखने वाला और बोलने वाला
एकान्त में कार्य करना पसन्द करता है।
जुंग
महोदय ने इस सिद्धान्त की आगे और व्याख्या की है जिससे यह बहुत बड़ा हो जाता है
उसने अंतर्मुखी व बहिर्मुखी को चार चार भागों में बांटा है –
1 – विचार प्रधान (Ideological)
2 – तर्क बुद्धि प्रधान (Logic minded)
3 – भाव प्रधान (Sentimental)
4 – दिव्य दृष्टि प्रधान (Celestial vision)
इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्तित्व को
कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। क्रो व क्रो ने विभिन्न दृष्टिकोणों की आलोचना हुए कहा –
“A general criticism of such
classifications is the tendency to place emphasis upon one or another phase of
development and to deal with extremes rather than with the mediocrity of human
nature.”
“इस
प्रकार के वर्गीकरणों की एक सामान्य आलोचना यह है कि यह विकास के किसी न किसी पहलू
पर बल देते हैं और सामान्य मानव स्वभाव की अपेक्षा उसके उग्र रूपों की व्याख्या
करते हैं।”
व्यक्तित्व
विशेषक / Traits
of Personality –
व्यक्तित्व
का निर्धारण उसकी विशेषता या गुणों के आधार पर होता है। गैरट महोदय कहते
हैं –
“Personality
traits are distinctive ways of behaving more or less permanent for a given
individual. Personality traits are neat short ways of describing the multifold
aspects of behaviour.”
“व्यक्तित्व के गुण व्यवहार करने की निश्चित
विधियाँ हैं जो प्रत्येक व्यक्ति में बहुत कुछ स्थाई होती हैं। व्यक्तित्व के गुण, व्यवहार के बहुसंख्यक स्वरूपों का वर्णन करने की
स्पष्ट और संक्षिप्त विधियां हैं।”
व्यक्तित्व
के अंगों को हम दो भागों में विभक्त कर विशेषता बता सकते हैं –
1 – प्रत्यक्ष – शारीरिक विशेषक
2 – अप्रत्यक्ष (क्रिया आधारित) – बौद्धिक, सामाजिक, संवेगात्मक,चारित्रिक व अन्य विशेषक।
उक्त
विशेषक भी अपने आप में बहुत से गुण रखते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित कर सकते
हैं।
A – शारीरिक विशेषक (Physical Traits) B – बौद्धिक विशेषक (Intellectual Traits)
सामाजिक विशेषक (Social Traits)
संवेगात्मक विशेषक (Emotional Traits)
चारित्रिक विशेषक (Character Traits)
अन्य
विशेषक (Other
Traits)
व्यक्तित्व
के सिद्धान्त / Theories
of Personality –
मनोवैज्ञानिकों
हेतु यह परमावश्यक हो गया कि व्यक्तित्व का अध्ययन किया जाए लेकिन सच्चाई यह है कि
एक नहीं बहुत से कारक हैं जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं विविध वैयक्तिक
धारणाओं के आधार पर विविध सिद्धांतों का उदय हुआ है उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण
सिद्धांत देने का यहां प्रयास है –
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त – यह मत सिग्मण्ड
फ्रायड की देन है फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व का निर्माण इड (Id),
इगो (Ego),
सुपर इगो (Supar
Ego) से हुआ है।
इड (Id) अचेतन मन है इसमें मूल
प्रवृत्तियों व प्राकृतिक इच्छाओं का निवास है ये शीघ्र संतुष्ट होना चाहती हैं
तृप्ति चाहती हैं।
इगो (Ego) चेतना बुद्धि, तर्क तथा इच्छा शक्ति
है।
सुपर इगो (Supar Ego) इसका निर्माण आदर्शों
से होता है।
Sigmund Freud ने ईगो के बारे में कहा –
“Ego is the part of Id which has been
modified by its proximity to the external world and the influence the later has
on it and which serves the purpose of receiving stimuli and projecting the
organism from them ,like the cortical layer with which a particle of living
subustance surrounds itself.”
“इगो, इड का वह भाग है जो
वाह्य संसार के अनुमान और संभावना से परिष्कृत होता है और उसका कालान्तर में
प्रभाव भी पड़ता है, जो प्राणी को उद्दीपन
करने एवं उसके इर्द गिर्द जमी परत के अंश के रूप में व्याप्त रहता है।”
Sigmund Freud ने सुपर ईगो के बारे में कहा –
“Super Ego that expect of the ego which
makes possible the processes of self observation and what is commonly called
conscience.”
“सुपर ईगो, ईगो का वह पक्ष है जो
आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया को सम्भव बनाता है जिसे सामान्य रूप से चेतना कहते
हैं। ”
Sigmund Freud महोदय का मानना है कि
मानव के व्यक्तित्व का निर्माण इन्हीं तत्वों से मिलकर होता है जो विभिन्न रूप में
परिलक्षित होते हैं।
रचना (Constitution) सिद्धान्त –
इस विचार धारा के प्रतिपादक शैलडॉन / SHELDON महोदय हैं इन्होने
व्यक्तित्व के प्राथमिक आधारों की संख्या तीन बताई है –
1 – गोलाकृति (Endomorphy) –
इस तरह के लोगों का
व्यक्तित्व अलग तरह से परिलक्षित होता है इस व्यक्तित्व के मनुष्य गोल गर्दन, माँस पेशियों का पूर्ण
विकसित न होना, चर्बी की वृद्धि आदि गुणों से युक्त होते
हैं।
2 – आयताकृति (Mesomorphy) –
इस तरह के व्यक्तित्व
में मुख्यतः माँस पेशियों व हड्डियों का विकास परिलक्षित होता है।
3 – लम्बाकृति (Ectomorphy) –
इस तरह के
व्यक्तित्वों में केंद्रीय स्नायु संस्थान के माँस पेशी तन्तु विकसित होते हैं।
इस मत के
अनुसार मूलतः यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि इसमें शरीर के विभिन्न अंगों को
व्यक्तित्व निर्माण का आधार माना जाता है।
प्रतिकारक (Factorial) प्रणाली सिद्धान्त –
इस मत का प्रतिपादन आर ० बी ० कैटल (R.
B. Cattell) महोदय द्वारा किया गया। इन्होने बताया मानव
चरित्र अनेक कारकों से युक्त होता है इनके अनुसार निम्न तथ्य प्रतिकारक चरित्र का
निर्माण करते हैं –
चरित्र की सुन्दरता (Fitness of
Character)
सामाजिकता (Sociability)
भावात्मक एकता (Emotional
Integration)
कल्पनाशीलता (Imagination)
अभिप्रेरक (Motivator)
उत्सुकता (curiosity)
लापरवाही (Negligence)
उक्त आधारों पर कैटल महोदय ने कहा –
“Personality is, that permits a prediction
of what a person will do in a given situation.”
“व्यक्तित्व वह है जो
किसी विशेष परिस्थिति में जो कार्य करता है उसका प्रतिरूप ही व्यक्तित्व है। ”
ऑलपोर्ट (Allport) का सिद्धान्त –
व्यक्तित्व के सम्बन्ध में गोर्डन डब्ल्यू
ऑलपोर्ट (Gordon W. Allport) का सिद्धान्त वंशक्रम
वातावरण वैयक्तिक भेद पर अवलम्बित है इन्होने वंशक्रम के द्वारा निर्धारित
व्यक्तित्व के जटिल मिश्रण के प्रति न्याय करने ,सामाजिक,स्वाभाविक तथा
मनोवैज्ञानिक कारणों के प्रति न्याय करने को कहा है। तथा साथ में विभिन्न
सम्प्रदायों तथा व्यक्तित्वों की नवीनता को भी मान्यता देनी चाही है। इन्होने
स्पष्टतः स्वीकार किया की प्रवृत्तियों,विशेषताओं तथा वातावरण
के प्रति समायोजन से व्यक्तित्व का गठन होता है।
उक्त सिद्धांतों के
अतिरिक्त भी विविध सिद्धांत भी अपनी धमक रखते हैं। व्यक्तित्व के सिद्धान्तों में विविध
दृष्टिकोणों का समावेशन करने पर इसका विशेष वृहत प्रखण्ड प्रस्तुत किया जा सकता है
लेकिन इसे यहीं विराम दिया गया है।
Dissertation या लघु शोध लगभग एम ० एड ० स्तर पर सभी जगह
चाहे वहाँ सैमेस्टर प्रणाली लागू हो या वार्षिक परीक्षा हो, पाठ्यक्रम का हिस्सा है। विविध विषयों में परा
स्नातक स्तर पर लघु शोध (Dissertation)
के साथ ही अस्तित्त्व में है। – लघुशोध और
मौखिक परीक्षा (Dissertation
and Viva Voce)
आज मुख्यतः इसके प्रभावी ढंग से निष्पादन के
विषय में कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जाएंगे। यह लघु शोध ही अन्ततः हमारे शोध ग्रन्थ
को भी दिशा प्रदान करता है।
लघु शोध आधारित मौखिक परीक्षा को प्रभावी बनाने
वाले कारक
Factors that make
Dissertation Based Viva Effective
सम्पूर्ण रूप में Synopsis(रूप
रेखा ), Dissertation(लघु शोध), Research Summary (शोध सार) मिलकर शोध परिक्षेत्र को जाज्वल्यमान बनाते हैं। यही लघु
शोध आगे शोध ग्रन्थ लिखने में हमारी मदद करता है और इसीलिए इसकी मौखिक परीक्षा एक
वृहद दृष्टिकोण लिए होती है। यही शोध कार्य देश की प्रगति का आधार बनाते हैं।
लघुशोध आधारित मौखिक परीक्षा के प्रश्न लघुशोध पर आधारित होते हैं और इन्हे इन
बिन्दुओं का आधार लेकर सरलता से साधा जा सकता है –
1 – सामान्य प्रश्न (General question)
2 – समस्या कथन आधारित प्रश्न (Problem statement based questions)
3 – शोध के प्रकार (Types of research)
4 – चर, परिकल्पना, उद्देश्य आधारित तथ्य (Variables, Hypotheses, Objective
Based Facts)
5 – शोध उपकरण व परिकलन आधारित प्रश्न (Research Tools & Calculation
Based Questions)
6 – सम्बन्धित साहित्य के अध्ययन पर प्रश्न (Question on study of related
literature)
7 – शिक्षा परिक्षेत्र में आपके शोध का लाभ (Benefits of your research in the
field of education)
8 – ऐसे शोध के अभाव से देश को नुक्सान (Lack of such research damages the
country)
वर्तमान समय में परास्नातक स्तर पर लघु शोध के
स्तर में गिरावट देखने को मिली है बहुत कम विद्यार्थी सही ढंग से कार्य कर
पा रहे हैं। कारणों का एक मिथ्या पहाड़ है।
सुधार हेतु विद्यार्थी, प्राध्यापक, अभिभावक, उच्च शिक्षा
सभी को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। शोधार्थियों की ओर देश की आशाभरी
नज़रें हैं। ईमानदारी से कार्य करें, मौखिक
परीक्षा स्वतः अच्छी व गरिमामयी होगी।
शिक्षण प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है मौखिक परीक्षा अर्थात VIVA .यद्यपि इसके लिए अंक निर्धारित हैं लेकिन यह ही
भविष्य के साक्षात्कार [Interview]
का मुख्य आधार है जिस स्तर का VIVA होता है उस स्तर पर आपका कितना अधिकार है और आप
सर्वहित में इसका भविष्य में कैसे प्रयोग करेंगे, इसकी झलक इस मौखिक परीक्षा अर्थात VIVA से मिल जाती है। आइए B. Ed. स्तर पर अन्ततः होने वाले viva को प्रभावशाली बनाने के लिए हमारे लिए क्या
आवश्यक है इस पर विचार करते हैं।
बी० एड ० वायवा हेतु आवश्यक कारक
Factors Required for B.Ed. Viva
यद्यपि पूर्व निर्धारित प्रश्नों की कोई व्यवस्था नहीं होती है इसलिए
आपके व्यक्तित्व से लेकर अधिगम क्षमता व उनके व्यावहारिक प्रयोग की परीक्षा इसके
माध्यम से हो जाती है। इसे प्रभावशाली बनाने के लिए निम्न तथ्य महत्त्वपूर्ण
भूमिका अभिनीत करते हैं।
1- आधारभूत
ज्ञान [Basic knowledge]
2- तत्सम्बन्धी
फाइलें व आवश्यक सामग्री [Related
files and necessary material]
3- स्वनिर्मित
फाइल सम्बन्धी जानकारी [Self-contained
file information]
4- अप्राप्त
ज्ञान की स्व स्वीकारोक्ति [Self confession of unrealized knowledge]
5- झूठ
से परहेज [Abstaining
from lies]
6- बहानेबाजी
व बहस से दूरी [Distance
from excuses and arguments]
7- धारा
प्रवाहिता [Fluency]
8- आत्म
विश्वास [Self-confidence]
मौखिक परीक्षा के असंरचित (Unstructured) होने की वजह से इसका स्वरुप व्यापक हो जाता है लेकिन यह सत्य का एक
आवश्यक दर्पण भी होता है यदि गैर पक्षपात पूर्ण और योग्य व्यक्तित्व द्वारा इसका
सम्पादन होता है। यह आज की व्यवस्था का अनिवार्य अंग है इसे सहजता से लिया जाना
चाहिए यह आपकी परिपक्वता का द्योतक है।
अभिप्रेरणा
से आशय व परिभाषाएं (Meaning and definitions of motivation)-
अभिप्रेरणा जीव की वह आन्तरिक स्थिति है जो उसमें क्रियाशीलता
उत्पन्न करती है और अपनी उपस्थिति तक चलाती रहती है। यह वह जादू है जो मानव को
उसकी शक्तियों से साक्षात्कार कराता है यदि इसकी दिशा ठीक है तो यह एक ऐसा उपागम
है जो लक्ष्य की प्राप्ति सुगम कर देता है। अर्थात यह सीधे सीधे हमारे व्यवहार को
प्रभावित करता है। वुडवर्थ महोदय कहते हैं –
“A
motive is a state of the individual which disposes him for certain behaviour
and for seeking certain goals.”
“अभिप्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह समूह है जो
किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ती के लिए निश्चित व्यवहार को स्पष्ट करती है।”
जब
कि जॉनसन (Johnson)
महोदय का विचार
है कि –
“Motivation
is the influence of general pattern of activities indicating and directing the
behaviour of the organism.”
“अभिप्रेरण सामान्य क्रियाकलापों का प्रभाव है
जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती है।”
गुड
महोदय का
अभिप्रेरणा के विषय में मत है –
“Motivation
is the process of arousing, sustaining and regulating an activity.” – Good
“अभिप्रेरणा किसी कार्य को प्रारम्भ करने, जारी रखने तथा सही दिशा में लगाने की प्रक्रिया
है।”
मैग्डूगल
(McDougall) महोदय का विचार है कि –
“Motives
are conditions physiological and psychological within the organism that
disposes it to act in certain ways.”
“अभिप्रेरणा वह शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दशाएं
हैं जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।”
एक
अन्य महत्त्व पूर्ण विचारक पी. टी. यंग
महोदय का विचार है –
“Motivation
is the process of arousing action sustaining the activities in progress and
regulating the pattern of activity.”
“प्रेरणा व्यवहार को जागृत करके क्रिया के विकास
का पोषण करने तथा उसकी विधियों को नियमित करने की प्रक्रिया है।”
उक्त
विचारकों के विचारों के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा या
प्रेरणा आवश्यकता से उत्पन्न मनोव्यावहारिक क्रिया है जो लक्ष्य प्राप्ति की दिशा
में कार्यों का सम्पादन कराती है।
अभिप्रेरणा के सिद्धान्त / Principles of motivation –
अभिप्रेरणा हेतु बहुत से सिद्धान्त व मान्यताएं विविध मनोवैज्ञानिकों
द्वारा बताये गए हैं इन सिद्धान्तों द्वारा विविध प्रकार से अभिप्रेरणा की
व्याख्या की गयी है। जिन्हें अपनी सुविधा के अनुसार इस प्रकार अनुक्रमित किया जा
सकता है –
1 – शारीरिक सिद्धान्त / Physiological Theory
–
शरीर की मनोदशा हमेशा एक जैसी नहीं होती इसमें समय समय पर विविध
परिवर्तन परिलक्षित होते हैं और इसी कारण शरीर में प्रतिक्रियाएं भी होती रहती हैं
और इस प्रतिक्रिया के मूल को यदि हम जानने का प्रयास करें तो वह अभिप्रेरणा ही है।
उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त वह सिद्धान्त है जो व्यवहारवादियों
द्वारा प्रति पादित किया गया है यह सीखने के सिद्धांत पर ही आधारित है इनके अनुसार
मनुष्य का सम्पूर्ण व्यवहार शरीर द्वारा उद्दीपन के परिणाम स्वरुप होने वाली
अनुक्रिया है ये मानते हैं की अभिप्रेरणा की इसमें भूमिका नहीं है कोई भी
प्रतिक्रिया विशुद्ध रूप से विशिष्ट अनुक्रिया ही है।
इस मान्यता में विविध तथ्यों व अनुभव की अवहेलना की गयी है यद्यपि
उद्दीपकों द्वारा विविध अनुक्रियाएं होती हैं लेकिन किसी प्रतिक्रिया के होने में
मूलतः अभिप्रेरणा का हाथ होता है।
3 – मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धान्त / Instinct Theory –
इस सिद्धान्त के अनुसार किसी
भी मानव का व्यवहार जन्मजात मूल प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित व संचालित होता है
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मैक्डूगल महोदय द्वारा किया गया लेकिन यह सिद्धान्त
अभिप्रेरणा की पूर्ण व्याख्या करने में
सक्षम नहीं है ।
4 – मनो – विश्लेष्णात्मक सिद्धान्त / Psycho-analysis Theory –
यह सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक फ्रायड की देन
स्वीकारा जाता है यह सिद्धान्त बताता है कि मनुष्य का अभिप्रेरणात्मक व्यवहार दो
कारकों द्वारा संचालित होता है . जिनमें से एक तो मूल प्रवृत्तियाँ ही हैं और
दूसरा है अवचेतन मन। वह यह भी मानता है कि
दो ही मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं जीवन मूल प्रवृत्ति और दूसरी मृत्यु मूल
प्रवृत्ति जो उसे क्रमशः सृजनात्मक व
विध्वंशात्मक व्यवहार हेतु प्रेरित करते हैं। मूल प्रवृत्ति सम्बन्धी यह विचार
मनोवैज्ञानिकों को मान्य ही नहीं और दूसरे अवचेतन मन के अलावा चेतन मन और
अर्ध चेतन मन के द्वारा भी व्यवहार संचालित होता है अतः फ्रायड महोदय भी पूर्ण
स्वीकार्य नहीं।
5-
अन्तर्नोद
सिद्धान्त / Drive
Theory –
यह सिद्धान्त प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक हल महोदय
की देन है इन्होने यह बताया कि मनुष्य की आवश्यकताओं के कारण उसमें तनाव पैदा होता
हे जिसे मनोविज्ञान की भाषा में अन्तर्नोद उच्चारित करते हैं ये अन्तर्नोद ही उसके
विशिष्ट व्यवहार का कारण है कुछ समय पश्चात मनोवैज्ञानिकों ने शारीरिक आवशयकताओं
के साथ मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को भी जोड़ लिया लेकिन फिर भी यह सिद्धान्त अपूर्ण
ही रहा क्योंकि यह मानव के उच्च ज्ञानात्मक व्यवहार की व्याख्या में सक्षम नहीं बन
सका।
6
– इच्छा
आधारित सिद्धान्त / Desire based theory –
इस मत के अनुसार मानव का व्यवहार इच्छा will
द्वारा निर्धारित होता है बौद्धिक मूल्यांकन
द्वारा सृजित इच्छा द्वारा अभिप्रेरणा को दिशा मिलाती है और संकल्प को बल मिलता है
लेकिन संवेग/Emotions व प्रतिवर्त/Reflexis तो इच्छा से अभिप्रेरित नहीं होते।
7 – कुर्ट लेविन सिद्धान्त / Kurt
Levin Theory –
यह सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण अधिगम सिद्धान्त है जो यह मानता है कि
सीखने में अभिप्रेरणा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है यह सिद्धान्त संयोग,
स्मृति, गतिशील प्रक्रिया,
व्याख्या, भग्नाशा, आकांक्षा स्तर सभी को समाहित करता है जो मूलतः
साक्षी पृष्ठभूमि पर आधारित है।
उक्त
विवेचन यह स्पष्ट करता है कि अभिप्रेरणा किसी एक कारक से निर्धारित नहीं होती
इसीलिये बॉल्स / Bolles
तथा फौफ्मैन
/ Pfaffman का पर्यावरण आधारित प्रोत्साहन सिद्धान्त व मैसलो/ Maslow का मांग सिद्धान्त भी अभिप्रेरणा के अपूर्ण
सिद्धान्त की श्रेणी में ही आते हैं।
अभिप्रेरणा के प्रकार / Types of motivation –
वास्तव में अभिप्रेरणा दो प्रकार की होती है
जिन्हे हम आन्तरिक अभिप्रेरणा व वाह्य अभिप्रेरणा में वर्गीकृत कर सकते हैं।
[A] – आन्तरिक अभिप्रेरणा / Internal Motivation –
इस प्रेरणा को धनात्मक, सकारात्मक, जन्मजात
प्राकृतिक, प्राथमिक अभिप्रेरणा के नाम से भी जाना जाता
है। आन्तरिक अभिप्रेरणा उसे कहा जाता है जो आन्तरिक अभिप्रेरकों / Internal Motives अर्थात भूख, प्यास, आत्म रक्षा, काम, आदि के कारण उत्पन्न होते हैं।इसमें मानव स्वयं
प्रेरित होकर अपनी इच्छा से कार्य करता है।
[B] – वाह्य अभिप्रेरणा / External Motivation –
इसे ऋणात्मक, कृत्रिम, सामाजिक, द्वित्तीयक
अर्जित, अभिप्रेरणा के नाम से भी जाना जाता है। वाह्य
अभिप्रेरणा उसे कहा जाता है जो वाह्य अभिप्रेरकों / External Motives अर्थात बाहरी स्थितियों आत्म सम्मान, उच्च सामाजिक स्थान, डॉक्टर, नेता, न्यायाधीश आदि बनने की इच्छा के कारण उत्पन्न
होते हैं। निन्दा, प्रशंसा, आलोचना, प्रतियोगिता, पुरस्कार आदि वाह्य अभिप्रेरक हैं।
अभिप्रेरणा के प्रकारों को बताने के लिए तरह तरह के वर्गीकरण प्रस्तुत किये जाते हैं
लेकिन यदि हम उनका निष्पक्ष विश्लेषण करें तो उक्त दो ही प्रकार के तहत ही उन्हें
रखा जा सकता है। एक और तथ्य विश्लेषण
योग्य है की अभिप्रेरणा हेतु प्रेरक आंतरिक हो या वाह्य उसका वास्तविक स्वरुप तो
आन्तरिक ही होता है उसे ऊर्जा तो आन्तरिक
शक्ति से अभिप्रेरण के रूप में मिलती है जो लक्ष्य प्राप्ति तक उसको उत्साहित रखती
है।
अधिगम में प्रेरणा की भूमिका / Role
of motivation in learning –
अधिगम में अभिप्रेरणा की भूमिका निर्विवाद है
यह वह शक्ति है जो सीखने की गति को तीव्र कर देती है प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक वुड
वर्थ महोदय ने कहा –
उक्त समीकरण चीख चीख कर कह रहा है कि योग्यता
के साथ प्रेरणा होने पर ‘सोने पर सुहागा’ वाली कहावत चरितार्थ होती है।
वास्तव में प्रेरणा अध्यापक के हाथ में ऐसा
महत्त्वपूर्ण उपागम है जिससे देश का भविष्य, हमारे विद्यार्थियों का कल सँवारा जा सकता है
उनकी अन्तर्निहित क्षमता को उत्कृष्ट रूप से उभारा जा सकता है। राष्ट्र को समर्पित
सेवा भावी युवा तैयार किये जा सकते हैं। शैक्षिक उत्कृष्टता के प्रदत्त सोपान तय
किये जा सकते हैं अधिगम क्षेत्र में नए प्रतिमान गढ़े जा सकते हैं। तत्सम्बन्धी कुछ
बिन्दु इस प्रकार दिए जा सकते हैं –
01- उत्सुकता जागृति
02- ऊर्जा व्यवस्थापन
03- ध्यान संकेन्द्रण
04- अनवरतता
05- रूचि परिमार्जन
06- स्वस्थ आदतें
07- निर्णयन क्षमता
08- अधिगम इच्छा
09- आवश्यकता पूर्ति
सक्षमता
10- सम्यक मार्ग दर्शन
11 – सम्यक साधन चयन
12 – आशावादी भविष्य
विकास यात्रा में
अभिप्रेरणा ऐसा शक्तिशाली साधन है जो हमारे सपने, हमारे अभीप्सित, हमारे लक्ष्य हमें
दिला सकता है। एण्डरसन/Anderson महोदय ने उचित ही कहा है। –
“Learning
will proceed best if motivated.”
“सीखने की प्रक्रिया
सर्वोत्तम रूप से आगे बढ़ेगी यदि वह अभिप्रेरित होगी।”
अभिप्रेरणा कुशल अध्यापक के हाथ में शिक्षा
जगत का अमूल्य वरदान है स्किनर/Skinner महोदय तो अभिप्रेरणा को
सीखने का राज मार्ग बताते हैंउन्होंने कहा –
आधुनिक युग का वह पुरोधा जिसे हम श्रेष्ठ दार्शनिक, चिन्तक, शिक्षा शास्त्री के रूप में स्वीकारते हैं। इनके क्रान्तिकारी विचारों ने मानवता की दिशा निर्धारण का गम्भीर प्रयास किया मानव को विविध संकीर्णताओं से ऊपर उठा यथार्थ ज्ञान दर्शन का साक्षात्कार कराया और तत्कालीन मानवता को सरल दिशा बोध का सम्यक प्रयास किया।
जीवन की विसंगतियों से जूझते हुए ये थियोसोफिकल
सोसायटी की अध्यक्षा डॉ ० एनी बेसेन्ट के सम्पर्क में आये इनकी प्रतिभा को पहचान
कर उन्होंने इनकी शिक्षा दीक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया और उच्च शिक्षा की
प्राप्ति हेतु इंग्लैण्ड भेजा। जब इन्हे 1922 में
अध्यात्म की अनुभूति हुयी तभी से इनके जीवन की दिशा मानव कल्याणार्थ चिन्तन के
धरातल पर उतरी। मानव को दुखों से छुटकारा दिलाने का मार्ग तलाशना ही जीवन का
उद्देश्य हो गया।
इन्होंने
बौद्धिक वर्ग के बीच अपनी बात रखने के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
इंग्लैण्ड, भारत, हालेण्ड में व्याख्यान दिए। इनके विचारों में प्यार (Love)
पर विशेष ध्यान देने की ओर ध्यानाकर्षण किया गया। इन्होने कहा –
“यदि
आपके हृदय में प्यार है तो फिर किसी ईश्वर को तलाश करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि प्यार ही ईश्वर है।”
प्यार हेतु ये
आत्म ज्ञान और आत्म शोध को आवश्यक तत्व स्वीकारते हैं।
शैक्षिक
चिन्तन (Educational thinking)-
इन्होंने
अपने विचारों के प्रसार हेतु व्याख्यान, पुस्तक
लेखन, व्याख्यान संग्रह प्रकाशन आदि को माध्यम बनाया आज इनकी
कैसेट्स भी उपलब्ध है इनका मूल कार्य अंग्रेजी में है लेकिन आज विविध भारतीय भाषाओँ
में इनका अनुवाद हो चुका है। हिन्दी में
अनुवादित कुछ रचनाओं को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
संस्कृति का प्रश्न,स्कूलों
के नाम पत्र, हिंसा से परे, ज्ञान से मुक्ति, जीवन
की पुस्तक,प्रथम एवं अंतिम मुक्ति,जो
मनुष्य कुछ नहीं है वह सुखी है,
ध्यान,
आनन्द की खोज,दिमाग ही दुश्मन
है?, ईश्वर क्या है?, प्रेम क्या है?, मन क्या है?, शिक्षा क्या है?, जीवन
और मृत्यु, सत्य और यथार्थ, सोच
क्या है? आदि ।
शिक्षा से आशय /Meaning of education -
इनके द्वारा
स्थापित संस्था ‘कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन’ आज
भी इनके विचारों के क्रियान्वयन कर रही है
इनके लेखन व विचारों से शिक्षा की प्रभाव शीलता स्पष्ट होती है इन्होने कहा
–
“शिक्षा द्वारा ही मनुष्य को जीवन का सही अर्थ समझाया जा सकता है और शिक्षा
द्वारा ही उसको गलत रास्ते से सही रास्ते पर लाया जा सकता है।”
इनका मानना हे कि शिक्षा विश्व को वस्तुगत रूप से देखना सिखाती है
इसीलिये जे ० कृष्णमूर्ति महोदय
स्पष्ट रूप से कहते हैं –
“शिक्षा का कार्य तुम्हें एक पूर्णतया मित्र बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से
संसार का सामना करने में सहायता करना है।”
“The function of education is to help you to face
the world in a totally different intelligent way.”
अर्थोपार्जन को यह मात्र एक पक्ष के रूप में स्वीकारते
हैं और रटना, डिग्री प्राप्त करना, परीक्षा
पास करना आदि को शिक्षा नहीं मानते ये कहते हैं –
“अन्तः मन का ज्ञान ही शिक्षा है।”
शिक्षा के उद्देश्य /Aims of education –
बहुत से विद्वानों से भिन्न मत रखते हुए जे ० कृष्ण मूर्ति महोदय कहते हैं -
"To be really educated means not to confirm, not to imitate, not to do what millions and millions are doing. If you feel like doing that, do it, but be awake to what you are doing.''
"वास्तविक रूप से शिक्षित होने का अर्थ करोड़ों जो कर रहे हैं उससे अनुरूपता, उसका अनुसरण, उसे करना नहीं है। यदि तुम वह करना चाहते हो तो करो? परन्तु जो कुछ तुम कर रहे हो उसके प्रति जागरूक रहो। ''
जे ० कृष्ण मूर्ति एकीकृत मानव, समग्र या सम्पूर्ण मानव के प्रगटन हेतु शिक्षा को एक आवश्यक कारक के रूप में स्वीकार करते हैं और इसकी प्राप्ति हेतु शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य इनके विचारों द्वारा स्पष्ट होने लगते हैं जिन्हे हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं -
1 - आत्म ज्ञान का उद्देश्य/Purpose of self-knowledge -
इनका मानना है कि प्रत्येक मानव स्वयं को जानने का प्रयास करे इनका अपने को
जाने से आशय चेतन आत्म तत्व को जानने से नहीं है बल्कि ये चाहते हैं कि शिक्षा यह जानने में मदद करे कि हम क्षण
क्षण क्या हैं अर्थात विभिन्न क्षणों में हम क्या सोचते, विचार
करते, अनुभव करते हैं हमें उसे जानने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा
न हो कि जिस धर्म का उद्भव मानव से हुआ है वह उसका गुलाम बनकर न रह जाए।
2 - सृजन शीलता का विकास/Development of creativity -
इससे इनका आशय शरीर, आत्मा, मन
तीनों की सृजनशीलता से है। विद्यार्थियों को स्वतंत्र निर्णयन के अवसर प्रदान किये
जाएँ इनके ऊपर अपने विचार थोपने का प्रयास न किया जाए। यह भयमुक्त वातावरण
सृजनशीलता की वास्तविक पृष्ठ भूमि तैयार करेगा।
3 - वर्तमान महत्त्वपूर्ण/Importance ofPresent time -
ये कहते हैं कि काल की सत्ता नहीं है और शुद्ध चेतना मात्र का अस्तित्व है।
हमारे जीवन का वर्तमान क्षण ही प्रिय अप्रिय भूत या भविष्य से सम्बन्ध रखने वाला
हो सकता है इसीलिये ये जीवन में वर्तमान को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। अतः शिक्षा
वर्तमान में जीना सिखाये।
4 - विज्ञान का यथोचित समावेशन /Reasonable inclusion of science-
ये विज्ञान व तकनीकी के विरोधी नहीं थे इनका मानना था की विज्ञान को मानव
के विकास का सहयोगी होना चाहिए। ये विज्ञान के सम्यक प्रयोग द्वारा मानव मात्र का
कल्याण करना चाहते थे।विज्ञान व तकनीकी को कोई ऐसा कार्य सम्पादित नहीं करना चाहिए
जो मानवता विरोधी हो।मानव मात्र के कल्याणार्थ अध्यात्म और विज्ञान का यथायोग्य
सम्मिलन भी होना चाहिए।
5 - संवेदनशीलता में वृद्धि /Increased sensitivity-
इनका मानना था कि बालकों को प्रतिस्पर्धा और भय मुक्त वातावरण मिले अनुशासन
के साथ संवेदनशीलता का गन अपरिहार्य है। बच्चों में प्रेम का ऐसा प्रस्फुटन हो
जिससे वे प्रकृति व मानव मातृ से प्रेम करना सीख सकें। वे इतने संवेदनशील बनें की
क्रोध, घृणा,
हिंसा,
द्वेष को भाव पूर्ण तिरोहित हो जाए।
6 -व्यावसायिक योग्यता का विकास/Development of professional competence-
यह नितान्त पलायनवादिता की जगह व्यावहारिकता से बालक को जोड़ना चाहते थे इसी
लिए बालक को व्यावसायिक निपुणता सिखाना चाहते थे क्योंकि जीवन यापन हेतु कोइ न कोइ
व्यवसाय प्रत्येक को करना ही होता है।शिक्षा को इंगित करते हुए मानव को एक विशेष
सन्देश देते हुए इन्होने कहा –
“Education must help in facing the world in a totally different,
intelligent way, knowing you have to earn a livelihood, knowing all the
responsibilities the miseries of it all.” Begning of Learning, p 171
“यह जानते हुए की तुमने जीविकोपार्जन करना है, सम्पूर्ण
जिम्मेदारियों को निभाना है उस सबका दुःख उठाना है। शिक्षा को तुम्हें एक पूर्णतया
मित्र, बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से संसार का सामना करने में
सहायता करनी चाहिए। ”
7 - नवीन मूल्यों की वाहक संस्कृति का निर्माण/Creating a culture of new values-
इनका स्पष्ट रूप से मानना था कि विविध संस्कृतियों का प्रभाव हमारे
दृष्टिकोण को संकीर्ण कर देता है जबकि आवश्यकता है पूर्व धारणाओं व पूर्वाग्रहों
से मुक्त होने की। शिक्षा का उद्देश्य ऐसी अन्तः चेतना व आत्मिक उत्थान की पृष्ठ
भूमि बनाना है जो दृढ़तापूर्वक हमें पूर्वाग्रहों के खिलाफ खड़ा कर सके। तभी नवीन
मूल्यों व नव संस्कृति का उद्भवन सम्भव हो सकेगा।
पाठ्यक्रम Syllabus
जे ० कृष्णमूर्ति जी का मानना था कि पाठ्यक्रम ऐसा हो जो सम्पूर्ण मानव
बनाने में सहयोग प्रदान कर सके। इन्होने आर्थिक पक्ष की सबलता हेतु व्यावसायिक शिक्षा, भौतिक
विज्ञान, मानवोपयोगी विज्ञान तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया। तथा
भावात्मक पक्ष के प्रबलन हेतु सृजनात्मकता, सौन्दर्य
बोध, कविता कला, सङ्गीत को
पाठ्यक्रम में स्थान देने की बात कही है।
शिक्षण विधियाँTeaching methods
इन्होंने अधिगम की प्रभावशीलता की वृद्धि हेतु निम्न विधियों का समर्थन
किया।
1 – निरीक्षण
विधि
2 – अनुभव
आधरित विधि
3 – स्वाध्याय
4 – परीक्षण
विधि
5 – श्रवण
6 – शान्ति
व मनन
7 – ध्यान
इन्होने ध्यान की महत्ता की गहन
अनुभूति की। जिससे उसके गूढ़ अर्थ निकलते हैं ये मानते हैं कि ध्यान इच्छा शक्ति, निष्प्रयोजन, और
चेष्टा विहीन होता है। जिससे एकाग्रता उद्भूत होकर आत्म ज्ञान के प्रति सचेष्ट
रखती है।
अध्यापक/Teacher
इन्होने बहुत स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया की गुरु एक एकीकृत मानव होना
चाहिए वह धैर्य की प्रतिमूर्ति हो और बच्चों के साथ उसका व्यवहार प्रेम पूर्ण हो।
अपनी इच्छा थोपने की जगह वह विद्यार्थियों की सीखने में मदद करने वाला हो। इस
प्रकार अच्छा अध्यापक वह होगा जो प्रेम के आधार पर बच्चों में लोकप्रिय होगा।
विद्यार्थी/Student
ये विद्यार्थियों को ऐसी चेतना से युक्त करना चाहते हैं जो उनमें वह शक्ति पैदा कर सके जिससे वे स्वयम्
मूल्य सिद्धान्त व नियमों का चयन कर सकें। वे यह बिलकुल नहीं चाहते की उनपर किसी
तरह के सामाजिक, राजनैतिक,
आर्थिक,
सांस्कृतिक,धार्मिक
पूर्वाग्रह थोपे जाएँ। इन्होने
विद्यार्थियों से स्पष्ट रूप से कहा –
“Education implies to live a life of
tremendous order in which obedience is under stood, in which it is seen
where conformity in necessary and where it is totally unnecessary, as to see
when you are imitating.” Ibid p.187
“वास्तविक शिक्षा एक जबरदस्त व्यवस्था का जीवन जीना
है जिसमें आज्ञापालन को समझ लिया जाता है, जिसमें
यह जान लिया जाता है कि कहाँ अनुरूपता आवश्यक है और कहाँ वह पूर्णतया अनावश्यक है, यह
देख लिया जाता है कि कब आप अनुकरण कर रहे हैं।”
अनुशासन/Discipline
ये विद्यार्थियों को आतंरिक व वाह्य दोनों प्रकार की स्वतन्त्रता देना
चाहते हैं। और आत्म अनुशासन के प्रचलित सिद्धान्तों को भी नहीं मानते। लेकिन साथ
हे यह भी कहते हैं की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वछंदता नहीं है दूसरों का ध्यान रखा
जाए उनके प्रति विवेकशील,
नम्र व यथोचित व्यवहार किया जाए।
विद्यालय /School
यह प्रभावी अधिगम,
अध्यापन,
व्यवस्थापन हेतु विद्यालय की भूमिका को स्वीकार करते थे।
इन्होने विद्यालय सुसंचालन हेतु प्रशासन में अध्यापक व विद्यार्थियों की भागीदारी
की बात कही। ये चाहते थे कि विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या को सीमित रखा
जाए। विद्यालय की समस्याओं के निराकरण हेतु शिक्षक परिषद व छात्र परिषद का निर्माण
किया जाए। छात्र परिषद में भी शिक्षकों का प्रतिनिधित्व हो ,विद्यालय
की साफसफाई ,अनुशासन,
भोजन आदि की जिम्मेदारी विद्यार्थियों को दी जाए। ऐसे
पर्यावरण का निर्माण किया जाए जिससे विद्यार्थी अपनी शक्तियों को पहचान सकें और
स्वयम् समस्या निराकरण में सक्षम बन सकें।
अन्य आवश्यक पक्ष/Other necessary dimensions
1 – नैतिक व
धार्मिक शिक्षा
2 – जन शिक्षा
3 – स्त्री
शिक्षा
4 – व्यावसायिक
शिक्षा
शैक्षिक चिन्तन का मूल्याङ्कन/Assessment of academic thinking
जे ० कृष्णमूर्ति महोदय शिक्षा को साधारणतया जिन अर्थों में स्वीकार किया जाता
है उसके अनुसार ये पुनः विचार की विषय वस्तु है इन्होने कहा –
“Education generally used to mean learning out of
books, storing up information and using it either selfishly or a particular
cause or a particular sect, and marketing oneself important in that sect of
organisation.”
“साधारणतया शिक्षा का अर्थ पुस्तकों को पढ़ना, जानकारी
का संग्रह करना और उसे या तो स्वार्थ के लिए या किसी विशिष्ट कारण के लिए, किसी
विशेष सम्प्रदाय के लिए स्वयं को उस सम्प्रदाय में अथवा संगठन में महत्त्वपूर्ण
बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। ”
ये अन्तः चेतना के विकास की बात करते हैं जबकि सर्वांगीण विकास में प्रगति
के अधिक बीज संग्रहीत हैं।
उद्देश्यों के क्रम जो पूर्ण मानव के विकास की बात इनके द्वारा रखी गयी
उसके निर्माण हेतु सुझाये गए साधन और बताया गया पाठ्यक्रम अपर्याप्त है। यहां तक
स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अन्तः चेतना विकास की यात्रा इस पाठ्य क्रम से होना
संभव नहीं है। शिक्षण विधियों में मनोवैज्ञानिकता अच्छी विचारधारा है पर कोई नई
विधि सुझाई नहीं गयी है। गुरु शिष्य सम्बन्धों को ये आवश्यक नहीं मानते और कहते
हैं –
“Disciple means one who learns but the generally
accepted meaning is that a disciple is one who follows someone, some guru, some
silly person. But both the follower and the one who follows are not learning,”
“शिष्य का अर्थ है जो सीखता है परन्तु शिष्य का साधारण स्वीकृत अर्थ वह है
जो किसी का, किसी गुरु का, किसी
बुद्धिहीन व्यक्ति का अनुसरण करता है,ऐसी
स्थिति में गुरु और शिष्य दोनों नहीं सीख रहे हैं।”
यदि निष्पक्षता के चश्मे से देखा जाए तो इसमें सत्य का अंश परिलक्षित होता
है। शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु जो कम संख्या विद्यालय से संयुक्त करने की बात
इन्होने की वह सैद्धांतिक दृष्टिकोण से अच्छी लगती है पर भारत जैसे अधिक जनसंख्या
वाले देश में व्यावहारिक नहीं है।
कुल मिलाकर इनके विचार नवपरिवर्तन की इच्छा से युक्त लगते हैं पर स्पष्ट
रूप रेखा के अभाव में मजबूत सम्बल नहीं मिल सका है। ध्यान, आत्म
ज्ञान ,आत्म शोध हेतु स्तर का अभाव दिखता है। परन्तु इनके
द्वारा स्थापित विद्यालय प्रेम,
सौंदर्य बोध, सहयोग की अपनी
विचार श्रृंखला के कारण ये हमेशा याद किये
जाएंगे।