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काव्य

आत्मबोध भर देती है।[AATM BODH BHAR DETI H]

November 24, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

माँ बच्चे को हाथ का साथ देती है।

प्रथम गुरु रूप में योगदान देती है।

निज चेहरे पर शिकन ओढ़ लेती है

शिशु मुस्तकबिल को दिशा देती है । । 

अद्भुत पीड़ा है, जो सुकून देती है,

सब दर्दोगम सह, ओठ सी लेती  है,

शिशुमुख देख खुशी से जी लेती है,

माँ तो माँ है रो लेती है,हंस लेती है ।।

धैर्य से सारा परिवार, संजो लेती है,

अपमान के अश्रुघूँट भी पी लेती है,

अपने सपनों में नवरंग नहीं लेती है

शिशु प्रगति अरमान ले जी लेती है ।।

वह स्वयम के लिए कुछ नहीं लेती,

परिवार की झोली, भर ही देती है।

सर्व न्यौछावर कर परिवार खेती है,

तिलतिल जल घर द्वारसजा देती है।

माँ कर्जे में डूब बलैयाँ ले लेती है

वो  ममता हमें ऋणी कर देती है

तपस्वी तप को वही दिशा देती है,

जीवन मन्थन हलाहल पी लेती है ।।

भूख,चोट,पीड़ा सभी सह लेती है,

फूँक से भी अनन्त प्यार दे देती है,

जादुई फूँक में प्यार उड़ेल देती है,

हर लाल को कर्जदार कर देती है।।

समय का हर निशाँ चहरे पे लेती है

जो चीख कर हम सबसे कह देती है,

हर सलवट में वो दर्द  छिपा लेती है

खास आसविश्वास से माँ जी लेती है ।।

आँसू पी पीकर निज ग़म खा लेती है,

पावन सद आशीष हमें वो दे देती है,

यथा शक्ति सारे अवगुण हर लेती है,

नवजीवन हेतु आत्मबोध भर देती है ।।

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शोध

शोध पत्र कैसे लिखें ?[HOW TO WRITE A RESEARCH PAPER ?]

November 21, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

एक शोध कर्त्ता जब अपना शोध कार्य पूर्ण करता है तब वह शोध के लाभ को जन जन तक या तत्सम्बन्धी परिक्षेत्र के लोगों को उससे परिचित कराना चाहता है और शोध से प्राप्त दिशा पर विद्वत जनों काप्रतिक्रियात्मक दृष्टि कोण जानना चाहता है ऐसी स्थिति में सहज सर्वोत्तम विकल्प दिखता है -शोध पत्र

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काव्य

आध्यात्मिक पथ, हमें घर पहुँचायेंगे।

November 19, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

चलो, अब अच्छाइओं को साथ लेते हैं,
काले घने अँधेरे, आपस में बाँट लेते हैं
आओ हम सब मिल नया गीत गाते हैं,
होश खोए सुषुप्त भाइयों को जगाते हैं।

संस्थाओं में मानस का सार बाँट देते हैं
वो मेरी बाजारी कीमत को बाँट लेते हैं,
आवश्यकतायें निरन्तर मुझे चिढ़ाती हैं,
व्यवस्थाएं तयशुदा पथ से, भटकाती हैं।

लेकिन सारी जगह एक जैसा मञ्जर है,
कहीं चाक़ू लगता है तो कहीं खंजर है,
अंश मेरी ऊर्जा का मुझे धैर्य बँधाता है,
श्रमरुपी ऊर्जा का संचय न हो पाता है।

मेरा आजअब मुझे आइना दिखाता है,
आगत जालिम मञ्जर,चेतना जगाता है,
चलो चलें,महत्वपूर्ण साधन हो जाते हैं,
छोड़ो सब कुछ स्वकर्म में खो जाते हैं।

ऐ मौत शिद्दत से तेरा इन्तजार करते हैं,
जिन्दादिली से हम दो दो हाथ करते हैं,
आखिर कब जज्बातों का रैला आएगा,
परेशां न हो,खुशियों का मेला आएगा।

ठहरो मत क्यों वक्त बरबाद करते हो,
खुद को मिटा दुनियाँ आबाद करते हो,
ज़िन्दगी का चलन है ये चलती जाती है,
रास्ते में कभी खुशियाँ या ग़म लाती है।

ये ज़िन्दगी का सफर,यूँ बढ़ा जाता है,
पथ में शीत,लूह का ठिकाना आता है,
ये जिन्दगी की मन्जिल पर ले जाती है,
जन्म का सफर अन्त में मौत लाता है।

जीवन यात्रा में आशा के झोंके आते हैं,
बस ये अनायास आ, हमें गुदगुदाते हैं,
ये सब जीवन को नीरसता से बचाते हैं,
ये कर्तव्यबोध व दायित्व कहे जाते हैं।

जब इस सफर में सम्पूर्ण रंग आता है,
संभल नहीं पाते सफर निपट जाता है,
अज्ञानी व चोर भ्रमवश खुश दीखते हैं,
जीवनसन्ध्या में डगमगा कर चीखते हैं।

मायावश हमें अद्भुत मञ्जर दीखते हैं,
भ्रम के भँवर में हम धीरे-धीरे रीतते हैं,
पुस्तकालय, पोथियाँ ज्ञानिक समन्दर हैं,
जितने हैं बाहर,उससे ज्यादा अन्दर हैं।

बाहर की यात्रा हमें,दरबदरकरती है,
अन्तस यात्रा अद्भुत सुकून भरती है,
बाहरवाली दौड़ में, हम खो जाएंगे,
आध्यात्मिक पथ, हमें घर पहुँचायेंगे।

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वाह जिन्दगी !

अन्दर तार तार हुआ जाता हूँ।[ANDAR TAR TAR HUA JATA HUN.]

November 15, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava 1 Comment

माँ,कैसे समझाऊँ,आजभी तुझे बहुत प्यार करता हूँ,

दूर रह कर भी दिल से,हमेशा तेरे ही पास रहता हूँ,

मन में उठी गहरी हूक को आँसू नहीं बनने देता हूँ,

मैं, जिम्मेदारी और वक्त की पाटी में बुरादा होता हूँ,

जिन्दगी मुझे हरपल झकझोरती है ,हाँ नहीं रोता हूँ,

घर,बाहर,दुनियाँ के शब्द, मुझे छलनी कर देते हैं,

न जाने क्यों मैं मज़बूत दिखने का प्रयास करता हूँ ,

अस्तित्व बचाने की खातिर, रोज ही कुर्बान होता हूँ,

माँ, अन्दर ही अन्दर, मैं बहुत लहू-लुहान होता हूँ,

दुनियाँ  के रन्जो ग़म सुन, उन्हें  ढाँढस बंधाता  हूँ,

पर अपना दर्द जमाने के लोगों से बाँट नहीं पाता हूँ,

कैसे कहूँ, कि पैसा इस दौर में, लोकाचार गढ़ता है,

मैं समाज को नहीं बाजार मुझे वस्तु समझ पढ़ता है,

वह मेरी आवाज़ काम कुर्बानी की कीमत लगाता है,

तेरा ये बेटा, कई अनगढ़ टुकड़ों में, बँटता  जाता है,

माँ,कई दिनों से कोई रात मुझे सुलाने नहीं आती  है,

कई रातें दायित्व निर्वाह को इधर से उधर भगाती हैं,

यादें घेर लेती हैं माँ, पर जाने क्यों नींद नहीं आती है,

ऐसा लगता है इन टुकड़ों में, जिन्दगी छिनी जाती है,

अब भी कोई भौतिक सुविधा,मुझे बाँध नहीं पाती है,

बचपन से जुड़ी  हर  बात,हर कहानी  याद आती है,

हर मौसम की वो गुजरी बिसरी रवानी जाग जाती है,

मेरी खुशी हित आप दोनों की, कुर्बानी याद आती है,

माँ- बाप द्वारा पसीने से लिखी,कहानी याद आती है,

इन स्मृतियों  में सुबह हो जाती है, नींद नहीं आती है,

अगले दिन जूझने वास्ते, मैं  खुद को तैयार करता हूँ,

ऊपर से मजबूत, अन्दर खुद को जार जार करता हूँ,

मुझे याद है माँ स्कूल से आ, हर बात तुझे बताता था,

आज बहुत कुछ सबसे से नहीं खुद से भी छिपाता हूँ,

और इसी कशमकश में, मैं खुद  ही बिखर  जाता हूँ,

लेकिन चेहरे पर शिकन,आँखों में पानी नहीं लाता हूँ,

जमाने का कुछ हिस्सा मुझे भी पैसे वाला समझता है,

उन्हें नहीं पता कि मैं स्वयम को किस तरह छलता हूँ,

यहाँ वक़्त के साथ जमाना बहुत कुछ रंग बदलता है,

प्राइवेट नौकरियों में बहुत कुछ उलटपुलट चलता है,

कभी वेतन बढ़ता,तो कभी आधे से कम रह जाता है,

और ऐेसे थपेड़े खाने में अब, अजब आनन्द आता है,

कभी बच्चों की फीस का खर्चा वेतन से बढ़ जाता है,

गतबचत का इस चक्कर में दिवाला निकल जाता है,

प्रारब्धवश हुआ मन ये बताता है गुस्सा नहीं आता है,

जमाने के गणित से रिश्तों का गणित बिगड़ जाता है,

माँ, जिन्दगी में ईमानदार रहना कठिन हुआ जाता है,

कितना भी प्रारब्ध मानूँ मष्तिस्क समझ नहीं पाता है,

कभी लगता है कि अब  मैं भी  मशीन हुआ जाता हूँ,

माँ, आज भी तेरी पूरी शिद्दत से बहुत  याद आती है,

आँख डबडबाने की इस कशमकश में छटपटाती है,

शरीर यहाँ रहता है ऑ,आत्मा तेरेपास चली जाती है,

जिन्दगी मुझे पुनः, यथार्थ धरातल  पर खींच लाती है,

कभी भावनाओं के गुबार में चकनाचूर हुआ जाता हूँ,

सुबह,शाम केआवर्तन में ख़ुदको समझ नहीं पाता हूँ,

सर्वोत्थान के चाह में अनसुलझा रहस्य हुआ जाता हूँ,

ऊपर से सशक्त और अन्दर तार तार हुआ जाता हूँ।

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वाह जिन्दगी !

जीवन श्रेष्ठ मानव का अज्ञानी सा बीतता है।

November 10, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मैं  न बोलूँ कुछ भी  तो नयन  बोल  देता है,

प्रेम-रस भीगे मन की, गाँठ  खोल  देता है,

भाव अभिव्यक्ति में तन जब अक्षम होता है,

भाव सम्प्रेषण  में  मन  तब सक्षम होता है।

 

कहो तन सम्बन्धों की गाँठ कब खोलता है,

पीर जब पराई हो, मन दरारों से बोलता है,

अपनों की चोट से मन जब व्यथित होता है,

पीछे तन कहाँ रहता, अश्रुवाणी बोलता है।

 

पड़ा पड़ा जब तन, विगत पन्ने खोलता है,

सम्बन्धों की एकता मनवा तो टटोलता है,

विवशता को जान बालक तो न बोलता है,

बालक भले न बोले, चेहरा सब बोलता है।

 

भूखे रहो कई दिन, क्षुधा कहाँ बोलती है,

बेहोशी शरीर की अपनी भाषा बोलती है,

अहित में अन्य के समाज कहाँ बोलता है,

निज के अहित में चीखा चीखा डोलता है।

 

खोकर प्रिय वस्तु , मन व्यथित दीखता है,

अन्य से खोने पर,  वही मानव चीखता है,

अपने  पराए में ये अन्तर क्यों दीखता है,

मानव हुआ दानव,जो  प्रेम न सीखता है।

 

आवागमन  का  ये, चक्कर नहीं छूटता है,

ये तेरा  है, वो  मेरा है,  बस यही बूझता है,

लोभ,मोह,लालच  का मेला यहाँ दीखता है,

जीवन श्रेष्ठ मानव का अज्ञानी सा बीतता है।

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काव्य

सब झूठा है संसार।[SB JHUTHA H SANSAAR]

November 6, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

इतने सब,जो सपने आए कहाँ गए,

सपने में जो अपने आए, कहाँ गए,

देखो,हम घर बार छोड़कर बैठे हैं,

सारा  कारोबार,  छोड़कर बैठे  हैं।

 

मेरी मछली  खाकर वो  किधर गए,

कर्जा ले भइया अब वो खिसक गए,

देखो, वो  तो  तिलक  लगाए बैठे हैं,

सबके हिस्से का मुर्गा, खाए बैठे हैं।

 

उनके सिरसे बाल न जाने कहाँ गए,

नए  नए  टोटके  उनको  सिखा गए,

देखो,बालों का व्यापार चलाए बैठे हैं,

तरह  तरह  के  गुर  अजमाए बैठे हैं।

 

नकलची नकल में पकड़ा था हमने,

फेल हुआ, कई  बार, वो कॉलेज में,

देखो कॉलेज, व्यापार बनाए बैठे हैं,

शिक्षामन्दिर पर घात लगाए बैठे हैं।

 

कॉलेज के पंखे टोंटी जो पचा गया,

कई लोग कहते थे जाने कहाँ गया,

देखो,नेता वाली कैप लगाए बैठे हैं,

नकली प्रगतिजाल बिछाये  बैठे  हैं।

 

वादोंका सिरमौर हुआ करता था,वो,

भाषण लच्छेदार दिया करता था,वो,

देखो खाँसखाँस,फाँस लगाए बैठे हैं,

सब दुनियाँ  दागदार  बताए  बैठे हैं।

 

मोटावाला थुलथुल बाबा कहाँ गया,

चलने से लाचार फिर भी चला गया,

देखो,वेट घटे, दूकान लगाए बैठे हैं,

नकली   कारोबार  चलाए  बैठे  हैं।

 

सूखे,अच्छनमियाँ शहर से भाग गए,

लम्बे अरसे बाद यहाँ पर प्रकट भए,

देखो,फिटनेस दरबार लगाए बैठे हैं,

सुगठित होनेका प्रचार कराए बैठे हैं।

 

पैठ थी, मलाईदार पद पर चले गए,

रोग उनके लाइलाज  होते चले गए,

देखो,चेहरा रॉबदार  बनाए  बैठे  हैं,

जुए में पकड़े गए,मार खाए  बैठे हैं।

 

अच्छे पद  पर, रिश्वत  लेते  धरे  गए,

जाने किसके पैसे खाकर चमक गए,

देखो,सर्वसुधारक बोर्ड लगाए बैठे हैं,

रिश्वत  के  पैसे  पर, अब भी  एैंठे हैं।

 

देशहित छोड़ स्वार्थ करते चले गए,

हमने उनको अपना माना,ठगे गए,

देखो,आपस में लड़ने तैयार बैठे हैं,

दुश्मन वहाँ नहीं,यहीं गद्दार बैठे हैं।

 

विद्वानों की सूची में, जो  गिने  गए,

सिद्धान्तों की लिस्ट दिखा,चले गए,

देखो,जेलों में दरबार लगाए बैठे हैं,

सब झूठा है संसार सिखाए बैठे हैं।

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वाह जिन्दगी !

खुशियों का मेला। [ KHUSHIYON KA MELA]

November 5, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

किसी  से  शिकायत  नहीं  है,

पर  समस्या  वहीं की वहीं  है,

है सब कुछ पर मानव दुखी है,

बस  चिन्ता का कारण यही है।


पर  निराशा ने हमको  है  घेरा,

प्रभु बताओ कहाँ सुख का डेरा,

भीड़  में  नर  चले  है  अकेला,

है,  परेशानियों  का  बस मेला।


हो   गयी  है,   घनी-भूत  पीड़ा,

अब नहीं है, खुशी-युक्त क्रीड़ा,

जिन्दगी  ने  अजब, खेल खेला,

खो  गया  है, खुशियों का मेला।


शान्ति खोई, मन का चैन खोया,

इस  दुनियाँ  में, हर  कोई रोया,

सुख  भौतिक है, लोगों में धुन है,

मुश्किल में  मानव, प्रेम  गुम  है।


क्यों,   बैचैन   तन  और  मन  है,

जिधर देखता  हूँ, तम  ही तम है,

क्यों,   सुवासित  नहीं  जीवन  है,

कहाँ  सम्बल, कहाँ  प्रियतम  है।


गलत  चिन्तन  ने, ये  खेल  खेला,

मानव मन में है,खुशियों का मेला,

गर   नहीं   ढंग  से   खेल   खेला,

तो   ये   जीवन   लगेगा   विषैला।


ये   सारा   विचारों   का  तम  है,

न   खोई  खुशी, न  प्रेम  गुम  है,

न  निराशा,  न  पीड़ा   सघन  है,

ये  सब मानव  मन का, भरम है।


मानव -चिन्तन ने  डाला  है फेरा,

कभी  रहता  नहीं,  मन  अकेला,

मानव -मन ने, अजब खेल खेला,

है ,अन्तस  में  खुशियों  का  मेला।

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काव्य

 शुभ दिवाली ,शुभ दीपोत्सव [Shubh Diwali, Shubh Deepotsav ]

November 4, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

भविष्य जब अतीत के पृष्ठ खोलेगा,हमारी मूर्खता के कृत्य पढ़कर रो लेगा।

हमारी अन्तर्कलह जब हिंडोलेगा,दौड़ में पिछड़ने के राज सब समझ लेगा।

जब वह लड़ने का मर्म समझेगा,छुआछूत,जातिवाद के कपट को जी लेगा।

प्रान्त काअलगाव वाद पढ़ लेगा,अर्ध-विकसित होने का रहस्य समझ लेगा।

 

युवा  विगत सोन-चिरैया ढूंढेगा,उस शोध  में प्राचीन,वेद व दर्शन समझेगा।

भारतीय ज्ञान-सार तत्त्व चुनेगा, तब भारत का ज्ञान-शौर्य कलश  चमकेगा।

भारत सुदूर अतीत स्वर  लेगा, चाणक्य, चन्द्र गुप्त के  यथार्थ को परखेगा।

चेतनपंख   संवार  उठ बैठेगा,अरण्य  रोदन  की  काल्पनिकता  समझेगा।

 

नव-चिन्तन,नव-स्वर  शोधेगा,अन्तः मन सारे पुरातन-व्यथा रहस्य खोलेगा।

पापछोड़,स्वर्णिम पृष्ठ खोलेगा,जाग्रत नव भारत नव चेतना के स्वर बोलेगा।

कालिमा युक्त भाव खो  देगा,नवसम्बल,नवपौरुष लेकर नवभारत दौड़ेगा।

नूतनगति, नूतनऊर्जा ले लेगा,भूल कलुषता जयजय जन-गण-मन  बोलेगा।

 

नवऊर्जा ज्ञानशिखर चमकेंगे,विलुप्त प्राच्य- ज्ञान अक्षर,गोचर हो दमकेंगे।

नालन्दा व तक्षशिला ठुमकेंगे,ज्ञान गौरव मण्डित भारत ज्ञान घट छलकेंगे।

युगयुगीन पसरे अँधेरे भागेंगे,सर्वहारा मुहल्ले, श्रम-जीवी गीत गुन गुनायेंगे।

दीपोत्सव से तम विदा करेंगे,सकल विश्व मस्तक पर, शुभ तिलक लगाएंगे।

 

तम की विदा, हम मुस्कायेंगे,दीपोत्सव पर होने वाले शुभ नव तराने गाएंगे।

भेद-भाव छोड़,हम इतरायेंगे,सत्य की दिवाली होगी, दीपक झिलमिलाएँगे।

शुभ दीपपर्व आशा दिलाएगा,भारत का  बच्चा बच्चा  जन-गण-मन  गायेगा।

विकल-विश्व आशा से देखेगा,शुभ-दिवाली,शुभ-दीपोत्सव सारा जग बोलेगा।

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काव्य

मैं व्यथा हूँ [M VYATHA HUN]

October 31, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

 

मैं व्यथा हूँ ,

यानि अन्तर्मन की कलह कथा हूँ।

जब जब मैं मन में कोई अन्तर्द्वन्द उलझाता हूँ,

अपने जन्म  हेतु अनुकूलतम  अवसर पाता हूँ,

मन का चैन , तन का सुकून सब  खा  लेता हूँ,

जिसके मन में पलता हूँ उसी को डस लेता हूँ।।

 

मैं व्यथा हूँ ,

यानि अन्तर्मन की कलह कथा हूँ।

घोर अवसर-वादी हूँ, मस्तिष्क जकड़  लेता हूँ,

प्रगतिपथ पर बढ़नेवालों के पग पकड़ लेता हूँ,

सारे  प्रगतिशील  विचार सिरे से कुचल देता हूँ,

ज्ञान को अज्ञान के झंझावातों मेंजकड़ लेता हूँ।।

 

मैं व्यथा हूँ ,

यानि अन्तर्मन की कलह कथा हूँ।

व्यसन -वासना स्वार्थ से फलता- फूलता हूँ  मैं,

सरल अधकचरा औ  अन्धविश्वासी ढूंढता हूँ मैं,

उसी के रक्त से स्वयं को जी भर  सींचता हूँ मैं,

कल्पना,प्रगति,विकास उड़ानें  रद्द करता हूँ मैं।।

 

मैं व्यथा हूँ ,

यानि अन्तर्मन की कलह कथा हूँ।

जब किसी चेतन के सितारे गर्दिश  में लाता हूँ,

साजिशन उसका  हम-दर्द करीबी हो जाता हूँ,

उस  मस्तिष्क पर निज मकड़जाल फैलाता हूँ,

पुरानी  गलत यादों  को  कुरेद कर  जगाता हूँ।।

 

मैं व्यथा हूँ,

यानि अन्तर्मन की कलह कथा हूँ।

कभी- कभी मैं अपने अन्त को निश्चित पाता हूँ,

आत्मविश्वासी सहृदयी को जकड़ नहीं पाता हूँ,

सकारात्मक सोच  से  मैं, स्वयं बिखर जाता हूँ,

सद्ज्ञान  के आलोक में, मैं ठहर नहीं पाता हूँ।।

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वाह जिन्दगी !

बुढ़ापा दिमाग की खिड़की से आता  है।/Budhapa Dimag kee Khidki se aata h.

October 30, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मानव मन अद्भुत है और सर्वाधिक सशक्त हैं विचार। पहले हमारे मन में किसी भी वस्तु, क्रिया, सिद्धान्त को वरण करने का विचार आता है। तत्पश्चात, हमारी चेष्ठा उसे हमसे सम्बद्ध कर देती है यहाँ तक कि हमारे शरीर पर हमारी सोच का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। यदि हम सकारात्मक सोच के हामी हैं तो व्यक्तित्व पर उसका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

हम अलग लोगों को अलग अलग मिजाज का देखते हैं यह स्वभाव मानव मन की तरंग दिशा से ही निर्धारित होता है। कुछ लोगों को युवावस्था में बुढ़ापे का और कुछ वयो वृद्धों को युवावस्था का आनन्द लेते देखा जा सकता है।

हमें जीवन पर्यन्त क्रियाशील रहने के लिए और शैथिल्य या बुढ़ापे में युवाओं जैसी ऊर्जा बनाये रखने हेतु व मस्तिष्क की जाग्रत स्थिति बनाये रखने के लिए निम्न तथ्यों पर ध्यानाकर्षण करना होगा।

महत्वपूर्ण तथ्य (Important Facts ):-

(1)- मस्तिष्क के वातायन में सकारात्मक विचारों के झोंके आने दें।

(2)- मस्तिष्क को आदेश दें कि हमेशा सक्रिय स्थिति बनाए रखे और समझें यह सम्भव है।

(3)- हल्का व्यायाम की निरन्तरता हमारी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा होना चाहिए।

(4)- प्रतिदिन प्राणायाम अवश्य किया जाना चाहिए ।

(5)- प्रत्येक दिन खुश रहते हुए टहलने का समय अवश्य निकालना चाहिए इसके चमत्कारिक परिणाम होंगे।

(6)- सुपाच्य भोजन ,फल आदि लेकर पेट ठीक रखा जाना चाहिए,देर रात्रि में भोजन करने से बचें। सम्भव हो तो सूर्यास्त से पूर्व भोजन करें।

(7)- जल की पर्याप्त मात्रा का सेवन करें।

(8)- स्वच्छ वस्त्र धारण करें एवं स्वच्छ वातावरण में रहना सुनिश्चित करें ,नमी वाले स्थल पर रहने की जगह उस स्थान को वरीयता दें जहाँ धूप सुलभ हो।

(9)- आध्यात्मिक चिन्तन को दिनचर्या का अनिवार्य अंग बनाएं।

(10)- ‘कम बोलें ,खुश रहें ,खुश रहने दें.’ के सिद्धान्त का अनुपालन सुनिश्चित करें।

(11)- अपने से कम उम्र के लोगों से मिलें उनके अच्छे विचारों का स्वागत करें।

(12)- पर्याप्त नींद लेना सुनिश्चित करें।

उक्त तथ्यों से जब आपके जीवन का सम्बन्ध बन जाएगा तब आप अवश्य कह उठेंगे -वाह जिन्दगी।

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