समावेशी शिक्षा से विस्तृत परिक्षेत्र सम्बद्ध है यहाँ अधोलिखित तीन बिन्दुओं पर मुख्यतः विचार करेंगे।
1 – समावेशन की अवधारणा और सिद्धान्त /Concept and principles of inclusion
2 – समावेशन के लाभ / Benefits of inclusion
3 – समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need of inclusive education
समावेशनकीअवधारणाऔरसिद्धान्त /Concept and principles of inclusion –
जब हम समावेशन की बात करते हैं तो यह जानना परमावश्यक है कि यह किनका करना है। समाज में बहुत से लोग हाशिये पर हैं शिक्षण संस्थाओं में अधिगम करने वाले विविध वर्ग हैं कुछ में शारीरिक, कुछ में मानसिक क्षमताएं, अक्षमताएं विद्यमान हैं। हमारे विद्यालयों में अध्यापन करने वाला व्यक्ति समस्त अधिगमार्थियों से उनकी क्षमतानुसार अधिगम क्षेत्र उन्नयन हेतु पृथक व्यवहार कर सभी का समावेशन करना चाहता है।
समावेशन वह क्रिया है जो विविधता युक्त व्यक्तित्वों में निर्दिष्ट क्षमता समान रूप से स्थापन करने हेतु की जाती है।
गूगल द्वारा समावेशन सिद्धान्त तलाशने पर ज्ञात हुआ –
“Inclusive teaching and learning recognizes the right of all students to a learning experience that respects diversity, enables participation, removes barriers and considers a variety of learning needs and preferences.”
समावेशन का यह प्रयास विविध क्षेत्रों में विविध प्रकार से हो सकता है लेकिन यदि हम केवल शिक्षा के दृष्टिकोण से इस पर विचार करें तो प्रसिद्द शिक्षाविद श्री मदन सिंह जी(आर लाल पब्लिकेशन) का यह विचार भी तर्क सङ्गत है –
“In the field of education, inclusive education means the process of restructuring of schools aimed at providing educational and social opportunities to all children.”
समावेशी शिक्षा की प्रक्रियाओं में अधिगमार्थी की उपलब्धि, पाठ्य क्रम पर अधिकार, समूह में प्रतिक्रया, शिक्षण, तकनीक, विविध क्रियाकलाप, खेल, नेतृत्व, सृजनात्मकता आदि को शामिल किया जा सकता है।
समावेशनकेलाभ / Benefits of inclusion –
चूँकि हम शैक्षिक परिक्षेत्र में सम्पूर्ण विवेचन कर रहे हैं अतः समावेशी शिक्षा के लाभों पर मुख्यतः विचार करेंगे। इस हेतु बिन्दुओं का क्रम इस प्रकार संजोया जा सकता है।
01- स्वस्थ सामाजिक वातावरण व सम्बन्ध / Healthy social environment and relationships
02- समानता (दिव्याङ्ग व सामान्य) / Equality
03- स्तरोन्नयन / Upgradation
04 – मानसिक व सामाजिक समायोजन / Mental and social adjustment
05- व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण / Protection of individual rights
06- सामूहिक प्रयास समन्वयन / Coordination of collective efforts
07- समान दृष्टिकोण का विकास / Development of common vision
08- विज्ञजनों के प्रगति आख्यान / Progress stories of experts
09- समानता के सिद्धान्त को प्रश्रय / Support the principle of equality
10- विशिष्टीकरण को प्रश्रय / Support for specialization
11- प्रगतिशीलता से समन्वय / Progressive coordination
12- चयनित स्थानापन्न / Selective placement
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need for inclusive education –
जब समावेशी शिक्षा की आवश्यकता क्यों ? का जवाब तलाशा जाता है तो निम्न महत्त्वपूर्ण बिन्दु दृष्टिगत होते हैं –
01- सौहाद्रपूर्ण वातावरण का सृजन / Creation of harmonious environment
02- सहायता हेतु तत्परता / Readiness for help
03- परस्पर आश्रयता की समझ का विकास / Development of understanding of mutual support
04- जैण्डर सुग्राह्यता / Gender sensitivity
05- विविधता में एकता / Unity in diversity
06- सम्यक अभिवृत्ति विकास / Proper attitude development
07- अद्यतन ज्ञान से सामञ्जस्य / Alignment with updated knowledge
08- विश्व बन्धुत्व की भावना को प्रश्रय / Fostering the spirit of world brotherhood
09- हीनता से मुक्ति / Freedom from inferiority
10- मानसिक प्रगति सुनिश्चयन / Ensuring mental progress
शिक्षावादियों की बेहतरीन कण्ठ माला का अद्भुत मोती है जॉन डीवी। विलिम जेम्स से विचारों का जो प्लावन हुआ उससे प्रेरणा पाकर डीवी को जो दिशा मिली उससे जॉन डीवी ने संसार को दिग्दर्शित किया। एक सामान्य से दुकानदार का यह बेटा कालान्तर में सुप्रसिद्ध दार्शनिक के रूप में स्थापित हुआ।
डीवीकीरचनाएं / DEWEY’s creations – डीवी महोदय ने अपनी 92 साल की उम्र में लगभग 50 ग्रन्थों की रचना की। इनमें से जो ज्ञात हो पाए उन्हें यहाँ देने का प्रयास किया है –
1 – Interest and Effort as Related to Will – 1896
2 – My Pedagogic Creed – 1897
3 – The School and Society – 1899
4 – The Child and the Curriculum – 1902
5 – Relation of Theory and Practice in the Education of Teachers – 1907
6 – The School and the Child -1907
7 – Moral Principle in Education – 1907
8 – How We Think – 1910
9 – Interest and Effort in Education – 1918
10 – School of Tomorrow – 1915
11 – Democracy and Education – 1916
12 – Reconstruction and Nature in Philosophy – 1920
13 – Human Nature in Conduct -1921
14 – Experience and Nature – 1925
15 – Quest for Certainity – 1929
16 – Sources of a Science Education – 1929
17 – Philosophy and Civilization -1931
18 – Experience and Education – 1938
19 – Education of Today – 1940
20 – Problems of Man –
21 – Knowing and Known –
डीवीदर्शनकीमीमांसा / Meemansa’s of Philosophy –
इस दर्शन की मीमांसाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसके मूल में क्या है किस आधार पर यह विस्तारित हुआ, इस चिन्तन का दिशा निर्धारण कैसे हुआ इसे खाद पानी कहाँ से मिला। सबसे पहले विचार करते हैं इसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics)पर –
तत्त्वमीमांसा / Metaphysics –
विलियम जेम्स की वैचारिक पृष्ठ भूमि को पुष्ट करने वाला यह खुले दिमाग वाला व्यक्तित्व आत्मा परमात्मा की व्याख्या से दूर रहकर भौतिकता पर अवलम्बित रहा। इनका मानना था की संसार अनवरत निर्माण की अवस्था में रहता है यह लगातार परिवर्तनशील है इसमें कोई सर्वकालिक सत्य या मूल्य हो ही नहीं सकता। निरन्तर बदल रहे सत्य व मूल्यों हेतु प्रयोग किये जाते रहने चाहिए इसी लिए डीवी की विचार धारा प्रयोगवाद (Experimentalism) के नाम से भी जानी जाती है।
ये मानव को सामाजिक प्राणी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वही तथ्य सही है जो मानव मात्र हेतु उपयोगी हो। मानव को पूर्ण समर्थ मानते हुए ये कहते हैं कि अपनी समस्त समस्याओं को हल करने में वह समर्थ है अपनी प्रगति का निमित्त वह स्वयम् है विविध विषम परिस्थितियों, झंझावातों से टकराने में जो मानव समर्थ वह स्वयम् अपनी उन्नति का निमित्त कारण है इस उन्नति की कोई निर्धारित सीमा नहीं है इस तरह के विचारों का सम्पोषण करने के कारण ही इनकी विचारधारा नैमेत्तिक वाद (Instrumentalism) के नाम से भी जानी गयी।
ज्ञानऔरतर्कमीमांसा(Epistemology and logic) – डीवी का स्पष्ट मत है कि ज्ञान क्रिया अवलम्बित होता है पहले समस्या आती है उसके समाधान हेतु मानव सक्रिय हो जाता है और विविध समाधानों की परिकल्पना बनाता है। इन्हें प्रयोग की कसौटी पर कसता है इस प्रकार प्राप्त सत्य को वह अंगीकृत करता है। इस प्रकार स्वहित और समाजहित हेतु सत्य स्थापन की तात्कालिक व्यवस्था के सोपान हुए –
1 – समस्या
2 – तत्सम्बन्धी विवेचना
3 – परिकल्पना
4 – प्रायोगिक कसौटी
5 – सत्य स्थापन
आचार व मूल्य मीमाँसा (Ethics and Axiology) – ये अध्यात्म या आध्यात्मिक मूल्यों पर तो विश्वास नहीं करते थे लेकिन मानव और मानव में कोइ भेद नहीं मानते थी इनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव को उसकी रूचि, क्षमता व योग्यतानुसार स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए इनका मानना था कि पूर्व निर्धारित आदर्श न लादकर प्रत्येक को अपने लिए खुद आदर्श व सत्य निर्धारण करना चाहिए। जिस आचरण व मूल्य से स्वविकास हो और समाज के विकास में बढ़ा न पहुँचे वह उचित है।
डीवी का शिक्षा दर्शन / Dewey’s philosophy of education –
आजाद भारत के जितने भी प्रधानमन्त्री हुए वे विकास के क्रम में आध्यात्मिक विकास को भी शामिल करते हैं और मनुष्य के समग्र विकास हेतु आवश्यक समझते हैं। डीवी भी मानव जीवन की विशेषता विकास को स्वीकार करता है लेकिन मानव के सामाजिक,शारीरिक व मानसिक विकास की बात प्रमुखतः करता है। वह यह भी स्वीकार करता है कि विकास हेतु अनुकूलन की स्थिति प्राप्ति हेतु वह पर्यावरण को नियन्त्रित करने का भी प्रयास करता है। इसी आधार पर वह शिक्षा के सम्बन्ध में कहता है –
“Education is the development of all those capacities in the individual which will enable him to control his environment and fulfill his possibilities.”
“The process of education is a continuous process of adjustment whose aim at each stage is to provide increasing capacity for development.”
4 – लचीले मष्तिष्क का निर्माण
5 – सामाजिक समायोजन में निपुणता
डीवी के अनुसार –
“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी को सुखी नैतिक एवम् कार्य कुशल बनाना है। “
“The function of education is to help growing of helpness young animal in to a happy moral and efficient human being.” -Dewey
6 – लोकतन्त्रीय व्यवस्था विकास
डीवीकाशिक्षाकेअंगोंपरप्रभाव /Impact of Dewey on educational institutions – डीवी वह व्यक्तित्त्व था जो तत्कालीन व्यवस्था में यथार्थ के सन्निकट खड़ा दीख पड़ता था उसकी वाणी ऐसा ही उद्घोष करती थी लोग उससे प्रभावित हो रहे थे उसका जो दृष्टिकोण शिक्षा के विविध अंगों के प्रति था यहाँ संक्षेप में द्रष्टव्य है।–
पाठ्यक्रम / Syllabus – तत्कालीन पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचारों से ये असंतुष्ट थे इनका साफ़ मानना था कि मानव कल्याण हेतु पाठ्यक्रम निर्माण अधोलिखित सिद्धान्तों पर अवलम्बित होने चाहिए –
01 – रूचि का सिद्धान्त / Principle of interest
02 – बालकेन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त /Principle of child centered education
03 – लोच का सिद्धान्त / Principle of elasticity
04 – सक्रियता का सिद्धान्त / Principle of activation
05 – सामाजिक व्यावहारिक अनुभवों का सिद्धान्त /Principle of social practical experiences
06 – उपयोगिता का सिद्धान्त / Principle of utility
07 – सानुबन्धिता का सिद्धान्त / Principle of co-relation
शिक्षण विधि / Teaching method – शिक्षण विधि के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में इनका मानना है कि उचित सामाजिक वातावरण परमावश्यक है बिना सामाजिक चेतना की जाग्रति और सक्रिय क्रियाशीलता के विधि सम्यक आयाम ले ही नहीं पाएगी इन्होने कहा –“समस्त शिक्षा व्यक्ति द्वारा जाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से आगे बढ़ती है।””All education proceeds by the participation of the individual in the social consciousness of the race.”
ये किसी भी पूर्व प्रतिपादित सिद्धान्त अथवा ज्ञान को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक वह प्रयोग की कसौटी पर खरा न उतर जाए। ये प्रयोग को अच्छी शिक्षण विधि स्वीकार करते हैं क्योंकि इसमें अवलोकन / observation, क्रिया / action, स्वानुभव / Self experience, तर्क /Reasoning, निर्णयन / Decision making और परीक्षण सभी शामिल होता है।इसी वजह से ये करके सीखना और स्वानुभव द्वारा सीखने पर सर्वाधिक बल देते हैं। इससे प्रभावित होकर ही इनके शिष्य किल पैट्रिक ने प्रोजेक्ट मेथड (Project method) का सृजन किया। शिक्षण विधि के सम्बन्ध में डीवी के ये शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं – “विधि का तात्पर्य पाठ्यक्रम की उस अवस्था से है जो उसको सर्वाधिक उपयोग के लिए व्यवस्थित करती है। ……… विधि पाठ्य वस्तु के विरुद्ध नहीं होती बल्कि वह तो वांछित परिणामों की ओर पाठ्यवस्तु निर्देशन है।”
“Method means that arrangement of subject matter which makes it most effective in use …… Method is not antithetical to subject matter, it is the effective direction of subject matter to desired results.”-Dewey
शिक्षक / Teacher – यद्यपि ये भौतिकता से ओतप्रोत थे लेकिन गुरु के सम्मान को अपना पूर्ण समर्थन देते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह समाज सुधारक, समाज सेवक, सम्यक सामाजिक वातावरण का निर्माता है और ईश्वर का सच्चा प्रतिनिधि है। डीवी महोदय के अनुसार –
“शिक्षक सदैव परमात्मा का सच्चा पैगम्बर होता है। वह परमात्मा के राज्य में प्रवेश कराने वाला होता है। “
“The teacher is always a prophet of true God. He leads to the kingdom of God.”
ये स्वीकार करते हैं कि अध्यापक अपने विद्यार्थी का पथ प्रदर्शक और मित्र होता है इसी भावना के आधार पर जी० एस० पुरी लिखते हैं –
“शिक्षक बालक का मित्र तथा पथ प्रदर्शक है। वह अपने छात्रों को सूचनाएं या ज्ञान प्रदान नहीं करता बल्कि वह उनके लिए ऐसी स्थिति या अवसरों को प्रदान करता है जो इन्हें सीखने में सहायता देती है। “
“The teacher is to be friend and a guide to the child .He is not transmit any information or knowledge to his pupils but he has only arrange the situation and opportunities which may enable them to learn.”
विद्यार्थी / Student – वे विद्यार्थी केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे इन्होने अपनी शिक्षा योजना में सब कुछ बाल केन्द्रित रखा है बच्चों की पूर्ण स्वतन्त्रता व चयन की पूरी छूट देते हुए ही अपना आदर्श व मूल्य निर्धारण की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। बाल केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था व बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम इसी के उदाहरण हैं।
अनुशासन / Discipline – ये शिक्षा को समाजोन्मुखी बनाकर चारित्रिक दृढ़ नागरिक का निर्माण करना चाहते हैं। ये बालक के सहयोग द्वारा उसमे आज्ञा पालन, अनुशासन, विनम्रता आदि गुणों का विकास करना चाहते हैं सहयोग व रूचि के आधार पर अनुशासन स्थापन चाहते हैं प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता हेतु सहयोग, आत्म निर्भरता के पद चिन्ह बनाकर अनुशासन स्थापन का कार्य होना चाहिए।
डीवीकेशिक्षादर्शनकीविशेषताएं /Features of Dewey’s educational philosophy –
01 – ;साध्य के ऊपर साधन की महत्ता
02 – सत्य परिवर्तनशील
03 – कर्म प्रधान चिन्तन द्वित्तीयक
04 – समस्या (parikalpanaa,kriya nirdhaaran)
05 – योजना पद्धति
06 – प्रजातन्त्र सर्वश्रेष्ठ
07 – नैमेत्तिक वाद
08 – प्रयोग पर बल
09 – आगमन प्रमुख ,निगमन द्वित्तीयक
10 – प्रयोजनहीन कला व्यर्थ
11 – धर्म सम्बन्धी धारणा
डीवी के शिक्षा दर्शन की सीमाएं /Limitations of Dewey’s educational philosophy –
01 – साधनको प्रमुख मानना उचित नहीं
02 – विचार द्वित्तीयक कैसे सम्भव
03 – समस्त सत्य स्थापन की प्रायोगिक जाँच सम्भव नहीं
04 – कला सम्बन्धी विचार अव्यावहारिक
05 -धर्म के प्रति संकुचित दृष्टिकोण
06 -आगमन व निगमन दोनों से सत्य स्थापन
07 -सत्य परिवर्तनशील
08 -परिवर्तन को सत्य मानाने पर लक्ष्य निर्धारण सम्भव नहीं
09 – योजना पद्धति अधिक खर्चीली
उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन यह स्पष्ट करता है कि तत्कालीन रूढ़िवादी समाज को प्रगतिशील बनाने में उसका अपूर्व योगदान है उसने भौतिकता की लब्धि को ध्यान में रखकर शिक्षा को नया आयाम प्रदान करने की कोशिश की लेकिन धर्म के प्रति उसका दृष्टिकोण उचित नहीं कहा जा सकता। सत्य के निर्धारण में उसकी सोच पर आज के परिप्रेक्ष्य में पुनः विचार मन्थन इतना आवश्यक है कि इसके बिना भटकाव की स्थिति आ जायेगी। सत्य निरंतर परिवर्तनशील मानने के कारण इन सिद्धांतों में परिवर्तन आना ही है।
जब केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप का अध्ययन किया जाता है तो अंक वितरण के मध्यमान के बारे में अधिगमित होता है परिणामों में विचलन भी देखने को मिलता है कुछ वितरणों में अंक मध्यमान के निकट और कुछ में दूर तक फैले दीख पड़ते हैं। जब किसी अंक वितरण के विविध अंक अपेक्षाकृत अपने मध्यमान के निकट रहते हैं तो विचलन शीलता (Variability) कम होती है लेकिन जब अंकों का विस्तार मध्यमान से अपेक्षाकृत दूर-दूर तक फैला होता है अर्थात विचलित रहता है तब अंक वितरण की विचलन शीलता (Variability) अधिक होती है।
lindiquist लिन्डक्यूस्टि महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध कहते हैं –
“Variability is the extent to which the scores tend to scatter or spread above and below the average.”
“विचलनशीलता वह अभिसीमा है, जिसके अन्तर्गत अंक अपने मध्यमान से नीचे व ऊपर की ओर वितरित या विचलित रहते हैं।”
स्पीगेल महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध में कहते हैं। –
“वह सीमा जहां तक आंकड़े अपने मध्यमान मूल्य के दोनों ओर प्रसार की प्रवृत्ति रखते हैं, आंकड़ों का विचलन कहलाती है।”
अनुवाद “The extent to which data tend to spread on either side of its mean value is called variability of data.”
गैरट महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध में कहते हैं। –
“विचलनशीलता से तात्पर्य आँकड़ों के वितरण या प्रसार से है यह वितरण आंकड़ों की केन्द्रीय प्रवृत्ति के चारों ओर होता है।”
अनुवाद ” Variability refers to the distribution or spread of data. This distribution is around the central tendency of the data.”
Methods Of Measuring Variability
विचलनशीलताकोमापनेकीविधियाँ –
विचलनशीलता को मापने की विधियों को दो प्रमुख भागों में विभक्त कर सकते हैं।
[A] – निरपेक्षमाप / Absolute Measures of Dispersion
i – प्रसार / Range
ii – चतुर्थाङ्क विचलन/ Quartile Deviation
iii – माध्य विचलन/ Mean Deviation
iv – मानक विचलन/ Standard Deviation
[B] – सापेक्षमाप / Relative Measures of Dispersion
i – प्रसार गुणाँक / Coefficient of Range
ii – चतुर्थक विचलन गुणाँक / Coefficient of Quartile Deviation
iii – माध्य विचलन गुणाँक / Coefficient of Mean Deviation
iv – विचलन गुणाँक / Coefficient of Variance
विचलनशीलताज्ञातकरनेकेउद्देश्य / Objectives of determining deviation – विचलनशीलता सांख्यिकीय परिक्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है इससे हम परिणामों की सटीक स्थिति समझने में सक्षम हुए हैं, सुविधाजनक अध्ययन हेतु विचलनशीलता के अधोलिखित उद्देश्य कहे जा सकते हैं –
1 – मध्यमान की विश्वसनीयता हेतु / For reliability of mean – सांख्यिकीय विश्लेषण में विश्वसनीयता एक महत्त्वपूर्ण कारक है यही समूची गणना का दिशा निर्धारक हैअगर किसी श्रंखला में विचलन कम है तो कहा जाता है कि यह मध्यमान अंक वितरण का सही प्रतिनिधित्व करता है इसके विपरीत यदि श्रंखला में अधिक विचलन दृष्टिगत होता है तो इससे आशय है कि यह मध्यमान अंक वितरण का सही प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है। इस प्रकार मध्यमान की विश्वसनीयता पुष्ट होती है।
2 – यथार्थ से निकटता हेतु / To be closer to reality – मध्यमान एक प्रतिनिधिकारी शक्ति है और इसका यथार्थ बोध सत्य के निकट लाता है इसके मापन द्वारा ही यह जाना जाता है कि कौन सा परिणाम सत्य के अधिक निकट है, विचलनशीलता का यह मापन अन्य विविध गणितीय विश्लेषण का आधार बनता है और उन्हें ज्ञात करना सरल,सुबोध व लाभकारी हो जाता है ।
3 – विविध श्रृंखलाओं के तुलनात्मक अध्ययन हेतु / For comparative study of various series – विचलनशीलता का अध्ययन ही दो या अधिक श्रंखलाओं के तुलनात्मक अध्ययन में सक्षम बनाता है यदि विचलनशीलता उच्च कोटि की है तो यह स्वीकार किया जाता है कि यहां आँकड़ों का सामंजस्य उच्च नहीं है जबकि विचलनशीलता के निम्न कोटि के होने से आशय है कि श्रृंखला में आँकड़े सही समायोजित हैं।
कुल मिलकर यह कहा जा सकता है विचलन शीलता के अध्ययन ने सांख्यिकीय विश्लेषण के क्षेत्र में हमें अधिक विश्वसनीय और पुष्ट बनाया है इससे परिणाम यथार्थ के अधिक निकट पहुँचे हैं।
प्रातः काल उठने से प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य के दर्शन होते हैं जो लोग प्रकृति की गोद में निवास कर रहे हैं वे प्रकृति की प्रातः कालीन सुषमा की जादुई शक्ति को भलीभाँति अनुभव कर चुके हैं। प्रातः काल में पक्षी कलरव, पुष्प,कली, मञ्जरियाँ, हरीतिमा, प्राची दिशा से मार्तण्ड भगवन का उद्भव,उनकी सुखद रश्मियाँ हमारे शरीर के रोम को पुलकित कर देती हैं। प्रातः कालीन मन्द बयार जीवन का सुखद आधार है। सचमुच प्रातःकालीन प्रदत्त शक्तियों को पैसे द्वारा नहीं खरीदा जा सकता। भोर के अनुपम सौन्दर्य के साथ प्राणवायु की गुणवत्ता का स्तर भी इस समय सर्व श्रेष्ठ होता है। सभी इन लाभों को अर्जित करना भी चाहते हैं लेकिन विविध कारक इसमें बाधा (Barrier) का कार्य करते हैं।
सुबह उठने में बहुत से लोग दिक्कत का अनुभव करते हैं और इन कारणों को अव्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। आइये इन पर क्रमशः विचार करते हैं –
01 – देर रात्रि तक जागरण / Staying awake till late night
02 – रात्रि कालीन सेवाएं / Night Services
03 – घर से कार्य / Work from home
04 – रात्रि जागरण आदत / Night waking habit
05 – घरेलू वातावरण / home environment
06 – आलस्य / Laziness
07 – तथाकथित आधुनिकता / So-called modernity
08 – अनुपयुक्त गरिष्ठ भोजन व पेय / Inappropriate heavy food and drink
09 – स्वास्थय सम्बन्धी परेशानी / Health problems
10 – शिक्षण संस्थानों की संस्कृति पोषण से विरक्ति /
Disinterest in nurturing the culture of educational institutions.
प्रातःजागरणसमस्यासमाधान –
किसी विद्वतजन ने कितना सुन्दर कहा है – ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’। यदि हम अपने मानस को तैयार करें तो अपने शरीर का रिमोट अपने हाथ में आ जाएगा जिसे हम आवश्यकतानुसार निर्देशित कर सकेंगे।स्वामी अमर नाथ जी ने अपने प्रवचन में स्पष्ट रूप से कहा –
कोई मुश्किल नहीं ऐसी है जो आसान न हो।
आदमी वह है जो मुसीबत में परेशान न हो।।
मानस को साध इन व्यवस्थाओं को करने से इस समस्या का भी समाधान सम्भव हो सकेगा।
01 – समय व्यवस्थापन / time management
02 – जल्दी सोयें जल्दी जागें / Early to bed early to rise
03 – अवकाश सदुपयोग / Utilization of leisure time
04 – आलस्य त्याग / Give up laziness
05 – शारीरिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान / Special attention to physical health
06 – रात्रि कालीन सेवा समायोजन / Night service adjustment
07 – जहाँ चाह वहाँ राह / where there is a will there is a way
08 – शिक्षण संस्थानों की जागरूकता / Awareness of educational institutions
09 – माता, पिता, अध्यापकों का सम्यक आदर्श / Proper role model of mother, father, teachers
10 – स्वस्थ आदत निर्माण / Healthy habit formation
प्रातःजागरणकेलाभ /
Benefits of waking up in the morning –
कुछ तथ्य निर्विवाद सत्य है और प्रातः जागरण के लाभों से इन्कार नहीं किया जा सकता। केवल अपने देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में प्रातः भ्रमण, प्रातः प्राणायाम, व्यायाम आदि को स्वास्थय हित में स्वीकार किया गया और इस लिए भोर में जागरण परमावश्यक है। इसके लाभों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
01 – समय नियोजन में सरलता / Ease of time planning
02 – पूर्ण नींद की उचित व्यवस्था / Proper sleep arrangement
03 – व्यायाम, प्राणायाम, भ्रमण की सम्यक व्यवस्था /
Proper arrangements for Exercise, Pranayama, Travel
04 – आँखों की सम्यक देखभाल / Proper eye care
05 – जीवन की औसत आयु में वृद्धि / Increase in average age of life
06 – सम्पूर्ण स्वस्थ जीवन हेतु आवश्यक / Necessary for a completely healthy life
07 – आध्यात्मिक उच्चता सम्भव / Spiritual heights possible
08 – सांस्कृतिक विरासत संरक्षण / Cultural heritage protection
उक्त सम्पूर्ण चिन्तन मन्थन हमें गम्भीरता से सचेत करता है विकल्पों में निर्विकल्प होकर हमें प्रातः उठकर उन्नति की नई पट कथा लिखनी होगी। यह प्रातः जागरण, जीवन जागरण का आधार बन सकेगा। भारतीय चिन्तन, मंथन, विश्लेषण, बलिष्ठ होकर विश्व को सम्यक दिशा दे सकेगा। अवधी भाषा में श्रद्धेय वंशीधर शुक्ल ने बहुत सुन्दर लिखा है –
मध्यांक की परिभाषा, उपयोग, गणना (Definition, Uses, Computation of Median) –
जब प्रदत्त आंकड़ों की केन्द्रीय प्रवृत्ति को ज्ञात करना हो तब माध्य के सहारे की आवश्यकता के विकल्प के रूप में माध्यिका का प्रयोग किया जाता है। मध्यांक की गणना में प्रदत्त आंकड़ों को जोड़ने की जगह उसे आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित कर गणनाकी जाती है।मध्यांक को ही माध्यिका भी कहा जाता है।
मध्यांक की परिभाषा (Definition of Median) – विविध विचारकों ने मध्यांक को पारिभाषित किया है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं –
विकिपीडिया के अनुसार –
“माध्यिका सांख्यिकी और प्रायिकता सिद्धान्त में वह मान है जो सांख्यिकीय जनसंख्या, प्रायिकता बंटन या प्रतिचयन के पदों को दो बराबर भागों में इस प्रकार बांटता है कि आधे पद इससे बड़े तथा आधे पद इससे छोटे हों। जब पदों को परिमाण अनुसार आरोही या अवरोही कर्म में व्यवस्थित किया जाता है तब बीच वाला पद माध्यिका या मध्यक कहलाता है। “
“Median in statistics and probability theory is the value which divides the terms of statistical population, probability distribution or sampling into two equal parts in such a way that half of the terms are bigger than it and half of the terms are smaller than it. When the terms are arranged in ascending or descending order according to the magnitude Then the middle term is called Median.
गिल्फर्ड (Guilford) महोदय के अनुसार –
“मध्यांक एक ऐसा बिन्दु होता है जिसके मापन के किसी एक स्केल पर ठीक आधे अंक ऊपर की तरफ तथा ठीक आधे अंक नीचे की तरफ होते हैं।”
“The median is defined as that point on the scale of measurement above which are exactly half the cases and below which are the other half.”
एच ई गैरट (H.E.Garrett) महोदय के अनुसार –
“जब अव्यवस्थित अंक या अन्य मापक्रम में व्यवस्थित हों तो मध्य का अंक मध्यांक कहलाता है।”
“When ungrouped scores or other measures are arranged in order of size, the median is the mid- point of series.”
एल आर कॉनर महोदय के अनुसार –
“माध्यिका आंकड़ों की श्रेणी का वह पद मूल्य है जो समूह को दो बराबर भागों में इस प्रकार विभाजित करता है, कि एक भाग में समस्त मूल्य माध्यिका से अधिक तथा दूसरे भाग में समस्त मूल्य माध्यिका से कम होता है। “
“The Median is that value of a series of the variable which divides the group into two equal parts, one part comprising of all values greater and the other all values less than the median.”
मध्यिका की उपयोगिता / Uses of Median –
यह स्वीकार किया जाता है कि यदि वितरण का केन्द्र विशेष रूप से मध्य में हो तो मध्यमान की अपेक्षा प्रतिदर्श विभ्रम (Sampling Error) माध्यिका में कम होती है। साथ ही इसकी विविध उपयोगिताओं को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
01 – अंक समूह का वास्तविक मध्य बिन्दु ज्ञात करने हेतु
02 – बहुलक हेतु
03 – केन्द्रीय प्रवृत्ति के अपेक्षाकृत कम शुद्ध मान हेतु।
04 – छोटे आंकड़ों के वितरण हेतु
05 – मध्यांक पर पद संख्या का प्रभाव ,पद मूल्यों का नहीं।
06 – मध्यांक का निर्धारण ग्राफ द्वारा सम्भव
07 –असमान वितरण की स्थिति में उपयोगी
मध्यांक की गणना (Computation of Median) –
प्रदत्त आंकड़ों के आधार पर दो तरह से माध्यिका की गणना की जाती है ।
1 – अव्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना
(a ) – सम आँकड़े होने पर
(b ) – विषम आंकड़े होने पर
2 – व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना
आइए इन्हे सूत्र व उदाहरण के साथ अधिगमित करने का प्रयास करते हैं।
1 – अव्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना
(a ) – सम आँकड़े होने पर – आंकड़ों की संख्या सम होने पर माध्यिका निकालने के लिए इस सूत्र को प्रयुक्त किया जाता है। लेकिन उससे पहले वितरण को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित कर लेते हैं।
मध्यांक (Me) = {N /2 वां पद +(N /2 +1) वां पद } / 2
यहाँ N = पदों की सँख्या
एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।
EXAMPLE – निम्न आंकड़ों से मध्यांक की गणना कीजिए
8, 4, 7, 3, 13 , 9, 11, 12, 15, 14, 17, 19
हल –
आँकड़ों को आरोही क्रम में व्यवस्थित करने पर
3, 4, 7, 8, 9, 11, 12 , 13, 14 , 15, 17 , 19
यहाँ आँकड़ों की संख्या = 12 ( सम ) = N
मध्यांक (Me) = {N /2 वां पद +(N /2 +1) वां पद } / 2
= {(12/2) वां पद +(12/2 + 1) वां पद}} / 2
=(6 वां पद + 7 वां पद) / 2
=(11 + 12) / 2
=23/2
मध्यांक (Me) =11.5
(b ) – विषम आंकड़े होने पर – आंकड़ों की संख्या विषम होने पर माध्यिका निकालने के लिए इस सूत्र को प्रयुक्त किया जाता है। लेकिन उससे पहले वितरण को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित कर लेते हैं।
मध्यांक (Me) = (N +1)/ 2 वां पद
यहाँ N = पदों की सँख्या
एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।
EXAMPLE – निम्न आंकड़ों से मध्यांक की गणना कीजिए
8, 4, 7, 3, 13, 9, 11
हल –
आँकड़ों को आरोही क्रम में व्यवस्थित करने पर
3, 4, 7, 8, 9, 11, 13
यहाँ आँकड़ों की संख्या = 7 ( विषम )
मध्यांक (Mdn) = {(N+1) / 2} वाँ पद
= (7 + 1) / 2 वाँ पद
= 4 वाँ पद
मध्यांक (Mdn) = 8
2 – व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना –
व्यवस्थित आँकड़ों से मध्यांक की गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है
मध्यांक(Mdn) = L+ {(N/2- F)/ Fm } X CI
एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।
EXAMPLE – निम्न व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना कीजिए।
माध्यकीपरिभाषा, उपयोग, गणना(Definition, Uses, Computation of mean) –
सांख्यिकी की दुनियाँ में केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप एक क्रान्ति से कम नहीं है, यद्यपि इसमें कई तरह के मध्यमान,मध्यांक और बहुलांक की गणना शामिल है लेकिन इस अंक में हम यहॉं केवल माध्य जिसे कुछ लोग समान्तर माध्य या अंक गणितीय माध्य के नाम से भी जानते हैं, के बारे में अध्ययन करेंगे और इस अध्ययन में मुख्यतः इसकी परिभाषा, उपयोग और गणना को शामिल करेंगे।
माध्यकीपरिभाषा (Definitions of mean) – जब किसी आंकड़े में प्राप्त अंकों का योग करके उस समूह की कुल संख्या (N) द्वारा विभाजित किया जाता है और इस प्रक्रिया के माध्यम से जो संख्या प्राप्त होती है उसे उस समूह का मध्यमान (Mean) कहा जाता है।
प्रश्न – इस वितरण में राम और श्याम के विगत 5 माह के प्रयुक्त विद्युत् यूनिट दिए गए हैं दोनों का विगत 5 माह की विद्युत खपत का मध्यमान ज्ञात कीजिए।
क्रमाङ्क
1
2
3
4
5
राम के यूनिट
142
145
168
131
150
श्याम के यूनिट
232
243
254
212
249
हल – उक्त प्राप्तांकों के अनुसार
N = माह की संख्या = 5
∑X = राम के यूनिट का योग = 142+ 145 + 168 + 131+ 150 = 736
राम के यूनिट कामध्यमान (M ) = ∑X / N = 736/5 = 147.2
N = माह की संख्या = 5
∑X = श्याम के यूनिट का योग = 232 + 243 + 254 + 212 + 249 = 1190
श्याम के यूनिट कामध्यमान (M ) = ∑X / N = 1190/5 = 238
2 – व्यवस्थितआंकड़ोंकामध्यमान [Mean of systematic data] –
अभी जिन आंकड़ों का मध्यमान ऊपर निकाला गया है वह सरल है क्योंकि सीमित अर्थात कम आंकड़ों का प्रयोग किया है जब आँकड़े बहुत ज्यादा होते हैं तो मध्यमान को अन्य विधियों द्वारा ज्ञात किया जाता है। विस्तृत, जटिल तथा व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यमान ज्ञात करने की दो विधियाँ प्रचलित हैं।
मध्यमान (दीर्घविधिद्वारागणना) – दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है –
मध्यमान (M ) = ∑f. X / N
M = मध्यमान (Mean)
∑ = योग का चिन्ह
f = आवृत्ति
X = वर्गान्तर का मध्य बिन्दु
N = आवृत्तियों का योग
f. X = आवृत्ति और वर्गान्तर मध्यमान का गुणनफल
इस सूत्र के प्रयोग को निम्न उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।
उदाहरण /Example –
प्रश्न – निम्न आवृत्ति वितरण से दीर्घ विधि द्वारा मध्यमान की गणना कीजिए।
वर्ग अन्तराल
0-4
5-9
10-14
15-19
20-24
25-29
f
4
7
9
11
15
14
हल – उक्त प्राप्तांकों के अनुसार
वर्ग अन्तराल C- I
मध्य बिन्दु ( X)
आवृत्ति( f)
f. X
25-29
27
14
378
20-24
22
15
330
15-19
17
11
187
10-14
12
9
108
5-9
7
7
49
0-4
2
4
8
N = 60
∑f. X = 1060
दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है –
मध्यमान (M ) = ∑f. X / N
M = मध्यमान (Mean)
∑ = योग का चिन्ह
f = आवृत्ति
X = वर्गान्तर का मध्य बिन्दु
N = आवृत्तियों का योग
f. X = आवृत्ति और वर्गान्तर मध्यमान का गुणनफल
मध्यमान (M ) = ∑f. X / N
=1060 / 60
= 17.666
=17.67
मध्यमान (लघुविधिद्वारागणना) – दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है –
मध्यमान (M ) = A,M + (∑f. d / N) x i
M = मध्यमान (Mean)
A.M = कल्पित माध्य
∑ = योग का चिन्ह
f = आवृत्ति
d= कल्पित मध्यमान से विचलन
N = आवृत्तियों का योग
f. d = आवृत्ति और मध्यमान से विचलन का गुणनफल
उदाहरण /Example –
प्रश्न – निम्न आवृत्ति वितरण से लघु विधि द्वारा मध्यमान की गणना कीजिए।
जब समंक एकत्रीकरण में कोई अंक बार बार आता है या वह पुनः पुनः दीख पड़ रहा है इसे ही आवृत्ति नाम से जाना जाता है और जितनी बार वह अंक आता है उसे उसकी आवृत्ति कहा जाएगा। मान लीजिये शिक्षा शास्त्र की परीक्षा में 50 विद्यार्थियों को इस प्रकार प्राप्तांक प्राप्त हुए।
आवृत्ति वितरण को जब हम प्रदर्शित करते हैं तो ऊपरी और निचली वर्ग सीमा को तालिका के माध्यम से निरूपित करते हैं अर्थात यह प्रत्येक वर्ग की चौड़ाई ही होती है इस समूहीकृत आवृत्ति वितरण को समावेशी वर्ग अन्तराल के आधार पर क्रमबद्ध किया जा सकता है।
वर्गअन्तरालसूत्र :-
वर्ग अन्तराल = उच्चतम सीमा – निम्नतम सीमा
अर्थात वर्ग अन्तराल ज्ञात करने के लिए किसी वर्ग की उच्चतम सीमा से उसी वर्ग की निम्नतम सीमा को घटा देते हैं.
वर्गअन्तरालहेतुउदाहरण (Example for Class Interval) –
वर्ग अन्तराल को वास्तविक ऊपरी परास तथा निचली वास्तविक परास के मध्य जो जो वास्तविक अन्तर होता है उसे ही वर्ग अंतराल कहा जाता है इसे हम निम्न उदाहरण के माध्यम से अच्छी तरह समझ सकते हैं –
(यहाँ हम ऊपर प्रयुक्त समंकों का ही प्रयोग कर रहे हैं। )
वर्ग अन्तराल (Class Interval) or C I
आवृत्ति (Freequency) or f
40 – 50
14
50 – 60
6
60 – 70
3
70 – 80
23
80 – 90
4
इस उदाहरण के माध्यम से तथ्य पूर्णतः स्पष्ट हो गए होंगे।
सामान्यतः समंक गुणों के उस संख्यात्मक मान को कहा जाता है , जिससे शुद्धता के एक उचित विधि द्वारा गिना जा सके या अनुमान लगाया जा सके। वास्तव में समंक तथ्यों, गुणों, विशेषताओं आदि को प्रदत्त संख्यात्मक मान ही है ।
समंककीअवधारणा वपरिभाषाएं / Concept and definitions of data –
समंक के बारे में कहा जाता है कि समंक झूठ नहीं बोलते हालांकि खुद झूठे हो सकते हैं। यह वर्तमान शोध व्यवस्था की रीढ़ हैं समंक को परिभाषाओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं –
“Data are classified facts or information relating to the condition of the people of a state. Especially those facts which can be presented systematically in numbers or in tables of those numbers or by tabulating or classifying them in any form. “
“Data are those groups of facts which are influenced to a sufficient extent by various causes and which are expressed in numerical form and which can be calculated and estimated to a reasonable level of precision.”
उक्त विवध परिभाषाओं के आलोक में समंक की अवधारणा को स्पष्टतः समझा जा सकता है कि समंक पूर्व उद्देश्य के आधार पर प्राप्त वे आंकिक मान हैं जिन्हे तुलना हेतु ,विश्लेषण हेतु या शोध के अन्य उद्देश्यों हेतु प्रयुक्त करते हैं इनके द्वारा संक्षिप्त सारिणी के माध्यम से सरलतम रूप से क्लिष्ट तथ्यों को भी प्रदर्शित किया जा सकता है।
आंकड़ों की महत्ता / Importance of Data –
वर्तमान युग विविध साधनों से युक्त है लेकिन फिर भी यहाँ अधिकाँश लोग समय की कमी का रोना रोते हैं ऐसे समय में समय बचाने वाली हर व्यवस्था को लोक प्रिय होना ही है ऐसा ही एक उपागम हैं समंक। समंकों ने सम्पूर्ण विश्व की प्रगति का विशेष आधार तैयार किया है इनकी महत्ता को इस प्रकार कर्म दिया जा सकता है –
01 – उद्देश्य के प्रति समर्पण Dedication to purpose
02 – वर्गीकरण द्वारा व्यवस्थित प्रदर्शन /Systematic Display by Classification
03 – विश्लेषण सुगम / Analysis made easy
04 – तुलनात्मक विवेचन सम्भव / Comparative analysis possible
05 – भविष्य कथन / Predictions
06 – अधिगमसरल / Easy learning
07 – नीतिनिर्माणमेंयोगदान / Contribution to policy making
08- राज्यव्यवस्थापनमेंयोग /Contribution in state administration
09 – समस्यासमाधानमेंसहायक / Helpful in problem solving
सांख्यिकी शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध दो विचार धाराएं विश्लेषण का परिणाम बंटी दिखाई पड़ती हैं इसके बारे में जानना और इतिहास जानना अत्याधिक रोचक है। ऐसा कहा जाता है कि सांख्यिकी शब्द की उत्पत्ति इटैलियन भाषा के स्टैटिस्टा (Statista) शब्द से हुई है या लैटिन के स्टेटस(Status) शब्द इसके अस्तित्व में आने का कारण है। दोनों ही शब्दों का अर्थ राजनैतिक स्टेट (Political State) है प्रत्येक स्टेट को आय, व्यय, जनसंख्या, सैनिक संख्या व जन्म मरण का लेखा जोखा रखना पड़ता है कोई भी स्टेट इन आंकड़ों का सही लेका जोखा करके ही अपनी विभिन्न नीतियों को धरातल पर उतारता रहा होगा। इसी लिए ये कहा जा सकता है कि बदलते समय के साथ यही स्टैटिस्टा (Statista) ya स्टेटस (Status) शब्द Statistics(सांख्यिकी) कहा लगा। यह विचार धारा वर्णनात्मक सांख्यिकी (Descriptive Statistics)के सम्बन्ध में ज्यादा तर्क सांगत दिखाई पड़ती है।
एक अन्य विचारधारा के अनुसार यह माना जाता है कि कि इसका जन्म वैज्ञानिकों की जगह जुआरियों की आवश्यकता के कारण हुआ। अनुमानात्मक सांख्यिकी (Inferential Statistics) की विचार धारा इस आधार पर बलवती हुई कि इटली के कुछ जुआरियों ने उस काल के प्रसिद्द वैज्ञानिक गैलीलियो की इस सम्बन्ध में राय माँगी कि किस नम्बर पर जुआ लगाएं कि जीत सुनिश्चित हो सके। गैलीलियो ने प्रसम्भाव्यता (Probability) के आधार पर जो राय दी वह उपयोगी सिद्ध हुयी।इसी समय फ़्रांस में जुआरियों ने पास्कल के प्रसम्भाव्यता सिद्धान्त (Pascal’s Theory of Probability)के निर्माण में विशेष योग दिया।इनके अलावा सांख्यिकी विकास में बरनॉली, गॉस, बैकन व पीयर्सन का नाम भी लिया जाता है।
HISTORY OF STATISTICS
सांख्यिकी का इतिहास
सांख्यिकी के सम्बन्ध में कहा जा सकता है की इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता इतिहास। इसका विधिवत उपयोग राजतन्त्र के समय हुआ जब राज्यों ने तर्कसंगत विकास हेतु जन शक्ति,धन शक्ति, सैन्य शक्ति,पशु शक्ति,कृषि व भूमि सम्बन्धी आंकड़ों का प्रयोग किया। जन्म दर, मृत्यु दर, वनीय संसाधन आदि की गणना हेतु सांख्यिकी राजतन्त्र की सहायिका सिद्ध हुई।
आधुनिक सांख्यिकी के जन्मदाता व प्रवर्तक के रूप में फ्रांसिस गॉल्टन, कार्ल पियर्सन व आर ए फिशर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सांख्यिकी का वर्तमान स्वरुप विगत चार शताब्दियों में हुए अनुसंधान का परिणाम है यद्यपि इस सम्बन्ध में 1620 में प्रसिद्द गणितज्ञ गैलीलियो ने तार्किक विचार को धरातलीय आधार दिया। ग्राण्ड ड्यूक को लिखे चार पृष्ठीय पत्र में प्रायिकता के चार सिद्धान्त – अनुपात का सिद्धान्त, औसत का सिद्धान्त, योग का सिद्धान्त व गुणन के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।
फ्रांसिस गॉल्टन को सांख्यिकी के सह सम्बन्ध गुणांक ( Coefficient of correlation) का पता लगाने का श्रेय है . प्रसरण विश्लेषण(Analysis of Variance) हेतु आर ए फिशर का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। जेम्स बरनौली(1654 – 1705 ) ,अब्राहम डी मोइबर (1667 -1754 ) आदि गणतज्ञों ने प्रायिकता का व्यवस्थित रूपेण अध्ययन किया परिणाम स्वरुप प्रायिकता सिद्धान्त (Probability Theory) अस्तित्व में आया। सन 1733 में डी मोइबर महोदय ने सामान्य प्रायिकता वक्र (Normal Probability Curve ) का समीकरण ज्ञात किया। पीयरे साइमन लाप्लास (1749 – 1830 ) व कार्ल फ्रेड्रिच गॉस (1777 – 1827) ने 19 वीं शताब्दी के पहले दो दशकों में प्रायिकता पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया सन 1812 में लाप्लास महोदय ने प्रायिकता सिद्धान्त पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। और इसी के माध्यम से उन्होंने अल्पतम वर्ग विधि (Least Squares Method) को सत्यापित किया। गॉस महोदय ने तो सामान्य प्रायिकता वक्र हेतु इतना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया की इनके नाम पर सामान्य प्रायिकता वक्र को आज भी गॉसियन वक्र के नाम से जाना जाता है।
उन्नीसवीं शताब्दी प्रसिद्द गणितज्ञ ए क्युलेट (1796 -1874 ) ने सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में सांख्यिकी का प्रयोग कर बेल्जियम की उपस्थिति इस क्षेत्र में दर्ज की।इनके द्वारा प्रायिकता वक्र व अन्य सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग विविध व्यावहारिक विज्ञानों में किया गया। सर फ्रांसिस गाल्टन 1882 -1911 ने भी अपना अपूर्व योगदान सांख्यिकी को सामाजिक विज्ञानों में प्रयोग करके दिया। सह सम्बन्ध व शतांशीय मान के प्रत्यय को गाल्टन महोदय ने ही प्रस्तुत किया। आपके साथ गणितज्ञ कार्ल पियर्सन ने भी कार्य किया। सहसम्बन्ध व प्रतिगमन (Correlation and Regression) के अनेक सूत्रों के विकास में गाल्टन महोदय ने विशेष योगदान दिया।
बीसवीं शताब्दी सांख्यिकी के प्रयोग के हिसाब से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। इस काल में लघु प्रतिदर्शों पर कार्य करने हेतु विविध प्रविधियों का विकास किया गया। लघु प्रतिदर्शों के विकास में अंग्रेज सांख्यिकीविद रोनाल्ड ए फिशर(1890 -1962 ) का महत्त्व पूर्ण योगदान रहा। इन्होने अपनी विविध विधियों का प्रतिपादन चिकित्सा, कृषि व जीव विज्ञानों के क्षेत्र में किया लेकिन बहुत जल्दी ही सामाजिक विज्ञानो ने इन विकसित विधियों की उपयोगिता जानकर समस्याओं के अध्ययन हेतु इनका प्रयोग प्रारम्भ कर दिया। वर्तमान समय में सामाजिक विज्ञानों के अनुसंधान कार्यों में सांख्यिकी का प्रयोग अति महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में किया जाता है।
Definition and need of Statistics
सांख्यिकी की परिभाषा एवं आवश्यकता –
सांख्यिकी को प्रारम्भिक दौर में औसत, सामान्य विज्ञान और सामान्य प्रयोग तक सीमित मान कुछ संकीर्ण परिभाषाएं दी गयीं ज्यों ज्यों इस ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया परिभाषाएं यथार्थ के अधिक निकट आईं और व्यापक दृष्टिकोण से सांख्यिकी को पारिभाषित किया गया। इसमें तत्सम्बन्धी आंकड़ा संग्रहण, वर्गीकरण, वितरण , प्रस्तुतीकरण, विश्लेषण, संश्लेषण, व्याख्या, स्पष्टीकरण सभी को समाहित किया गया। यह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांख्यिकी के यथार्थ से तालमेल की क्षमता रखती हैं। प्रस्तुत हैं कुछ परिभाषाएं –
“सांख्यिकी औसतों का विज्ञान है।” – ब्राउले
“Statistics is the science of averages.”
“सांख्यिकी अनुमानों तथा सम्भावनाओं का विज्ञान है।” – बोडिंगटन
“Statistics is the science of estimates and probabilities.”
“सांख्यिकी वैज्ञानिक पद्धति की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध प्राकृतिक तथ्यों व घटनाओं के उन समंकों के अध्ययन से है जिनको गणना अथवा मापन द्वारा एकत्रित किया गया है।” – एम० जी० केण्डल
” Statistics is the branch of scientific method which deals with data obtained by counting of measuring properties of population of natural phenomena.”
“सांख्यिकी किसी जाँच क्षेत्र पर प्रकाश डालने के लिए समंकों के संकलन, वर्गीकरण, प्रस्तुतीकरण, तुलना तथा व्याख्या करने विधियों से सम्बन्धित विज्ञान है।” – सेलिंग मेन
“Statistics is the science which deals with the methods of collecting, classifying, presenting, comparing and interpreting numerical data collected to through some light on any sphere of inquiry.”
“सांख्यिकी एक ऐसा विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत सांख्यिकीय तथ्यों का सङ्कलन, वर्गीकरण तथा सारणीयन इस आधार पर किया जाता है कि उसके द्वारा घटनाओं की व्याख्या, विवरण व तुलना की जा सके।” – लोविट
“Statistics is the science which deals with the collection, classification, and tabulation of numerical facts as the basis for explanation, description, and comparison of phenomena.” – Lovitt
अभी तक दी गई परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सांख्यिकी की आवश्यकता मुख्यतः इन कारणों से है।
1 – तत्सम्बन्धी तथ्यपूर्ण आंकड़ों का संकलन / Compilation of relevant factual data
2 – प्राप्त आंकड़ों का व्यवस्थापन / Organization of received data
3 – प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण / Analysis of received data
4 – सामान्यीकरण व भविष्य कथन / Generalization and prediction
5 – गुणों को संख्यात्मक मान प्रदान करना / Assigning numerical values to properties6 – शोध हेतु परिकल्पना का निर्धारण / Determining the hypothesis for research
7 – सामान्य ज्ञान के स्तर में प्रामाणिक वृद्धि / Authentic increase in the level of general knowledge
8 – नीति निर्माण व क्रियान्वयन में योगदान / Contribution in policy formulation and implementation
सांख्यिकी के प्रकार
Types of statistics –
-सांख्यिकी को जब हम विषय सामिग्री के आधार पर विवेचित करते हैं तो सामान्यतः इसे पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है। यह पाँच प्रकार इस तरह अधिगमित किये जा सकते हैं।
05 – भविष्य कथनात्मक सांख्यिकी / Predictive Statistics
उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन में सांख्यिकी का परिचय देते हुए इतिहास, परिभाषाएं सरलतम ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है साथ ही यह भी सरलतम रूप से बताया है कि सांख्यिकी की आवश्यकता किन कारणों से है और इसके कौन कौन से प्रकार हैं।