भारत वह देश है जो सनातन ज्ञान के अविरल प्रवाह का हामी रहा है ऋषि मुनि परम्परा से आज तक शिक्षा ने विविध आयाम तय किये हैं और आज यह आर्थिक विकास के प्रमुख सम्बल के रूप में जानी जाती है। बदलते सामाजिक परिवेश में जन जन की आकांक्षा के अनुरूप उद्देश्य की प्राप्ति में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज जब कि यह कहा जाने लगा है की ज्ञान, ज्ञान के लिए नहीं। तो नई भूमिका अपने आप ही बन जाती है और शिक्षा नए परिवेश में सामाजिक आकांक्षा की पूर्ति का साधन बन जाती है। शिक्षा की विविध शाखाएं अर्थोपार्जन हेतु जनमानस की आवश्यकता बन जाती हैं। आर्थिक विकास भी नए आयाम की उपलब्धता हेतु शिक्षा की भूमिका को नकार नहीं सकता।
आर्थिक विकास से आशय / Meaning of Economic Development
आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है जो जन जन की आय में उत्तरोत्तर वृद्धि
का सूचक है प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि उस राष्ट्र की आर्टिक प्रगति का
सूचक है लेकिन सकल राष्ट्रीय आय सामान्यतः सकल राष्ट्रीय उत्पाद द्वारा तय होती
है। भारतीय परिवेश में आर्थिक विकास वह अवधारणा है जो आर्थिक,सामाजिक,व
सांस्कृतिक विकास में सकारात्मक योग देती है। परिवर्तन अवश्यम्भावी है लेकिन जब
परिवर्तन राष्ट्र के आर्थिक उत्थान का कारण बने तो शैक्षिक उपादानों का महत्त्व
स्वयं सिद्ध हो जाता है।
जब देश के समस्त साधनों का कुशलतापूर्ण दोहन
देशी साधनों द्वारा इस प्रकार किया जाता है कि उससे प्रति व्यक्ति आय और राष्ट्रीय
आय सकारात्मक रूप से दीर्घ काल के लिए प्रभावित हो व मानव विकास सूचकांक व मानवीय
जीवन स्तर प्रगति के उत्तरोत्तर सोपान तय करने लगे तब यह आर्थिक विकास का द्योतक
होगा।
आर्थिक विकास की परिभाषा / Definition of Economic Development
कुछ विद्वानों के आर्थिक विकास सम्बन्धी विचारों को कृतज्ञता पूर्वक
हम इसे अधिगमित करने हेतु प्रयुक्त कर सकते हैं।
मेयर व बाल्डविन
महोदय के अनुसार-
“आर्थिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक अर्थ व्यवस्था की
वास्तविक राष्ट्रीय आय दीर्घकाल में बढ़ती है।”
“Economic
development is the process by which the real national income of an economy
increases in the long run.”
विलियमसन तथा बर्टिक
ने कहा कि
“आर्थिक विकास उस प्रक्रिया को सूचित करता है
जिसके द्वारा किसी देश अथवा प्रदेश के निवासी उपलब्ध संसाधनों का अयोग प्रति
व्यक्ति वस्तु व सेवाओं के उत्पादन में नियमित वृद्धि के लिए करते हैं।”
“Economic development refers to the process by
which the residents of a country or region utilize the available resources for
a steady increase in per capita production of goods and services.”
जैकब वाइनर ने आर्थिक विकास को पारिभाषित करते हुए कहा कि-
”आर्थिक विकास प्रति व्यक्ति आय के स्तरों में
वृद्धि अथवा आय के विद्यमान उच्च स्तरों के अनुरक्षण से संबन्धित है।”
“Economic development is related to increase in the levels
of per capita income or maintenance of existing high levels of income.”
आर्थिक विकास के घटक / Components of Economic Development
मानव समाज की इकाई है सामाजिक आर्थिक स्तर का उन्नयन मानव की आर्थिक
प्रगति से सीधे सम्बन्ध रखती है आर्थिक विकास के सुनिश्चयन हेतु निम्न घटक
महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।
1 – मानवीय घटक
i – अनुकूल वातावरण / friendly
environment
ii – सक्षम प्रबन्धन / Efficient
Management
iii – कुशल श्रमिक / Skilled
workers
iv – उत्तम विकास योजना /Good
development plan
v – आत्म प्रेरणा / self
motivation
vi – उच्च स्तरीय तकनीकी प्रशिक्षण /high
level technical training
vii – मानवीय शक्ति / human power
2 – आर्थिक घटक
i – सुदृढ़ परिवहन व्यवस्था / Strong
Transport System
ii – प्राकृतिक संसाधन / Natural
Resources
iii – पूँजी /Capital
iv – जनसँख्या / Population
v – तकनीकी प्रगति /Technological
Progress
vi – पूँजी उत्पादन अनुपात / Capital
Output Ratio
vii – शासकीय नीतियाँ / Government
Policies
आर्थिक विकास के उद्देश्य / Aims of Economic Development –
भारत में विविध पञ्च वर्षीय योजनाओं द्वारा इन उद्देश्यों की
प्राप्ति के प्रयास हुए लेकिन गलत आर्थिक नियोजन व स्वार्थपरता के कारण वे सम्यक
गति न पकड़ सके। सैद्धान्तिक रूप से इनमें निम्न उद्देश्य पारिलक्षित हुए –
01 – आर्थिक
विकास को गति /Speed up economic
development
02 – आत्मनिर्भरता
/ Self reliance
03 – रोजगार
की उपलब्धता / Availability of employment
04 – गरीबी
उन्मूलन / Poverty Alleviation
05 – निवेश
वृद्धि / Investment Growth
06 – कुशल
श्रम में वृद्धि / Increase in skilled labor
07 – गरीबी
अमीरी की खाई कम करना / Reducing the gap between
poverty and wealth
08 – स्वदेशी को बढ़ावा
/ Promotion of indigenous
आर्थिक विकास
शिक्षा का योगदान /Contribution of
Education to Economic Development
1 – कुशल श्रम की उपलब्धता / Availability of
skilled labor
2 – विविध परिक्षेत्र हेतु विशेषज्ञ /Specialist for
various fields
3 – तकनीकी क्रान्ति /Technological revolution
4 – ग्रामीण उद्योगों हेतु प्रशिक्षण / Training for
Rural Industries
5 – कार्य कुशलता में वृद्धि / Increase work
efficiency
6 – उच्च शिक्षा को प्रश्रय / Patronage of higher
education
7 – प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग /Use of natural
resources
8 – सम्यक प्रबन्धन /Proper management
उक्त विवेचन यह स्पष्ट करता है कि बिना शिक्षा के प्रगति को पंख नहीं
लग सकते यदि बदलती दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलना है तो आर्थिक प्रगति का
सुनिश्चयन करना ही होगा जो बिना गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के सम्भव नहीं।
आर्थिक क्षेत्र में उदारवाद कुछ सङ्कीर्ण
नेतृत्व शक्तियों की स्वार्थपरता के कारण घाटे का सौदा रहा है और हमारी उदारता
हमें बहुत भारी पड़ी है एक रुपया बराबर एक डॉलर से प्रारम्भ सफर आज रुपए के भारी
अवमूल्यन तक जा पहुँचा है। उदारीकरण विश्व बन्धुत्व या वैश्विक परिवार के विचार
तले पनपने वाली सह अस्तित्व वाली विचार धारा है।
यहाँ जिस उदारीकरण की बात की जा रही है वह
शैक्षिक परिक्षेत्र से सम्बन्धित है। पहले राजा, जमींदार, प्रजा, कारिन्दे आदि शब्द आम थे और शासक वर्ग व कार्य करने वाले
वर्ग हेतु अलग अलग तरह की शिक्षा का प्रावधान था और यह अन्तर कार्य की प्रकृति के
कारण था धीरे धीरे राजा राजवाड़ा वाली व्यवस्था बदल गई और शिक्षा का भेद भी पुरानी
बात हो गई। आज अधिकाँश जगह लोकतान्त्रिक व्यवस्था है और शिक्षा की एक उदार
व्यवस्था है जो किसी से कोई भेद नहीं करती।
उदारवादी
शिक्षा से आशय / Meaning of liberal education –
वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य यह परिलक्षित करता है
कि आज सभी को सभी विषय पढ़ने का अधिकार है। योग्यता, रूचि और आर्थिक क्षमता के आधार पर किसी भी शैक्षिक विषय का ज्ञान
प्राप्त किया जा सकता है इसी को उदारवादी शिक्षा के नाम से जाना जाता है।
प्रसिद्द शिक्षाविद सुरेश भटनागर व मुनेन्द्र कुमार अपनी पुस्तक ‘समकालीन भारत और शिक्षा’ में लिखते हैं –
“उदार शिक्षा सामान्य शिक्षा है, जिसमें साहित्य, कला, सङ्गीत, इतिहास,नीति शास्त्र,राजनीति आदि की शिक्षा की प्रधानता होती
है।”
“Liberal
education is general education, in which education of literature, art, music,
history, ethics, politics, etc. has priority.”
इन विद्वानों ने उदारवादी शिक्षा से इतर अर्थों में उपयोगिता वादी
शिक्षा को लेते हुए कहा –
“उपयोगितावादी शिक्षा में आर्थिक प्रश्न जुड़े
रहते हैं। यह व्यावसायिक, कार्योन्मुख, क्रिया केन्द्रित, अर्थोपार्जन व जीविको पार्जन के उद्देश्यों को
लेकर चलती है। इसमें कला, शिल्प, व्यवसाय, रोजगार परक विषयों की प्रधानता होती है।”
“Economic questions remain attached to
utilitarian education. It runs for the purposes of vocational, work-oriented,
activity-oriented, earning and earning a living. There is importance of art,
craft, business, employment-oriented subjects in this.”
आज की उदारवादी शिक्षा में उक्त दोनों के दर्शन
होते हैं व्यवहार में कोइ भेद नहीं दीखता। कतिपय विद्वान् आज के परिदृश्य में
उदारवादी और उपयोगितावादी शिक्षा के विचार की उपादेयता नहीं स्वीकारते।
उदारवादी शिक्षा का महत्त्व / Importance of liberal education :-
वर्तमान परिदृश्य हमें उदार होने हेतु निर्देशित अवश्य करता है लेकिन
पूर्ण सावधानी की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। हमें ध्यान रखना होगा की हमारी
उदारता हमें और आने वाली पीढ़ी के लिए नुकसान दायक न बन पड़े। निःस्वार्थ भाव से और
सचेष्ट रहकर उदारवादी शिक्षा अपनाने के महत्त्व को इस प्रकार बिन्दुवार वर्णित
किया जा सकता है –
1 – आत्म
अनुशासन स्थापन / Self
discipline
2 – उत्तरदायित्व
युक्त स्वतन्त्रता / Freedom
with responsibility
3 – सकारात्मक
व्यक्तिगत उद्देश्य निर्धारण / Positive personal goal setting
4 – संस्थागत
उच्च प्रतिमान स्थापन / Institutional
high standard setting
5 – सह
अस्तित्व धारणा का विकास / Development of coexistence concept
6 – ध्येय
उन्मुख / Goal oriented
7 – स्वावलम्बन
व उच्च आदर्श स्थापन / Self
reliance and high ideal setting
8 – सद्प्रेरणा
/ motivation
9 – संस्कृति
व सभ्यता का संरक्षण व विकास / Protection and development of culture and civilization
उदारीकरण का मूल्याँकन / Evaluation of Liberalization
उदारीकरण के निष्पक्ष मूल्याङ्कन हेतु उसके लाभों और सीमाओं पर
दृष्टिपात करना आवश्यक है आइए इस के प्रमुख बिन्दुओं पर विचार करते हैं।
उदारीकरण के लाभ / Benefits of liberalization –
1 – स्वस्थ
प्रतिस्पर्धा / healthy
competition
2 – विश्व
स्तरीय उत्पादन /World
class production
3 – उत्पादन
क्षमता में वृद्धि / Increased
production capacity
4 – तुलनात्मक
ज्ञानात्मक वृद्धि / Comparative
cognitive growth
5 – शोध
स्तर का उच्चीकरण / Upgradation
of research level
6 – तुलनात्मक
अध्ययन सम्भव / Comparative
study possible
उदारीकरण की सीमाएं / Limitations of Liberalization –
उदारीकरण के लाभ अधिकाँश सैद्धान्तिक हैं व्यावहारिक रूप से इसकी
कमियाँ जग जाहिर हैं जिन देशों में राष्ट्रवादी ज्वार देखने को नहीं मिलता या काम
मिलता है वहाँ इसके नकारात्मक प्रभाव अधिक देखने को मिलते हैं। यथा –
1 – स्वदेशी
उद्योगों पर सङ्कट / Crisis
on indigenous industries
2 – बहुराष्ट्रीय
उद्योगों का बेलगाम प्रभाव / Rampant influence of multinationals
3 – शोध
साहित्य की निर्बाध चोरी / Open plagiarism
4 – मूल्यों
में अवनमन / Depression
in Values
5 – राजनीतिक
भ्रष्टाचार को बढ़ावा / Promotion
of political corruption
6 – मुद्रा
अवमूल्यन / Currency
devaluation
7 – राष्ट्रीय
हितों का ह्रास / Loss of
national interest
8 – स्वदेशी
तकनीक को नुकसान / Loss
of indigenous technology
9 – अस्वस्थ
प्रतिस्पर्धा / Unhealthy
competition
उदारीकरण के सच्चे लाभ आदर्श वैश्विक परिदृश्य
में ही सम्भव है सारे राष्ट्र अपने दृष्टिकोण से विचार करते हैं और अभी ऐसी स्थिति
नहीं बनी है सारे राष्ट्र, विश्व को एक परिवार मानने लगे इसीलिये भारत को
बहुत सोच समझ कर सीमित उदारीकरण को राष्ट्रोत्थान के दृष्टिकोण से करना होगा।
स्वयम पहल करके विश्व स्तरीय नेतृत्व को दिशा दी जा सकती है लेकिन हवन करते हाथ
नहीं जलने चाहिए।
वेदान्त दर्शन का नाम लेते ही बोध हो जाता है कि इसमें वेद का अन्तिम
भाग सामाहित है वेद के दो भाग हैं जिन्हे हम ब्राह्मण और मन्त्र नाम से जानते हैं
यज्ञ अनुष्ठान आदि का वर्णन करने वाला भाग ब्राह्मण नाम से जाना जाता है
और देवता की स्तुति में प्रयुक्त स्मारक वाक्य
मन्त्र का बोध कराता है।इन मन्त्रों के समुदाय को संहिता नाम से जाना जाता है ऋक ,यजुः ,साम व अथर्व ये संहिता हैं अर्थात सभी मन्त्र
ऋग्वेद, सामवेद,
यजुर्वेद,और अथर्व वेद नामक संहिताओं में संकलित हैं
ब्राह्मण भाग में कर्म काण्ड की और इस भाग में ज्ञान काण्ड की प्रमुखता है वेदों
का अन्तिम भाग उपनिषद कहलाता है इसे वेदान्त भी कहते हैं।
बादरायण व्यास (चतुर्थ शताब्दी) द्वारा लिखे गए
‘ब्रह्म सूत्र ‘को वेदान्त का आदि ग्रन्थ माना जाता है इसके पश्चात इसपर विविध भाष्य
ग्रन्थ लिखे गए और वेदांत की विविध शाखाओं उप शाखाओं का अभ्युदय हुआ जिसमें शंकर
नवीं शताब्दी का अद्वैत, रामानुजाचार्य तेरहवीं शताब्दी का
विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य व निम्बार्क तेरहवीं शताब्दी का द्वैत, श्री कण्ठ तेरहवीं शताब्दी का शैव
विशिष्टाद्वैत, श्री पति चौदहवीं शताब्दी का वीर शैव
विशिष्टाद्वैत और बल्लभाचार्य सोलहवीं शताब्दी का शुद्धाद्वैत प्रमुख है। इनमें शंकर और रामानुजाचार्य शिक्षा के
दृष्टिकोण से प्रमुख स्वीकारे जाते हैं।
किसी भी दार्शनिक विचारधारा को समझने के लिए उस
दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics०), ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology
and logic), तथा
मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को जानना आवश्यक है अतः पहले यही समझने का
प्रयास करेंगे।
वेदान्त दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics
of Vedant Philosophy)
शंकर के अनुसार ब्रह्म ही अन्तिम सत्य (Ultimate
Reality) है
जो ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण होने के साथ अनादि,
अनन्त और निराकार है जगत नाशवान व असत्य है
मानव ज्ञान का स्रोत व अनन्त शक्ति को धारण करने के साथ आत्मघाती है और आत्मा
सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान है। शंकर के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है कि तुम (आत्मा)
ब्रह्म हो। रामानुजाचार्य के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है ब्रह्म तथा ईश्वर एक है
शंकर ने ब्रह्म को मूल तत्त्व व रामानुजाचार्य ने इसके तीन मूल तत्त्व स्वीकारे
हैं -चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) और ब्रह्म (ईश्वर) । सृष्टि के विनाश होने
पर चित् (चेतन,आत्मा
), अचित्
(अचेतन, जड़
) सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और ईश्वर विशिष्ट ही शेष रह जाता है इसीलिये इसे
विशिष्टाद्वैत दर्शन कहते हैं। शंकर के
दर्शन में ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण में भेद न होने के कारण इसे अद्वैत
दर्शन कहते हैं।
वेदान्त दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of Vedant
Philosophy)
शंकर का दर्शन ज्ञान को दो भागों में विभाजित करता है –
1 – परा (आध्यात्मिक) – इनके अनुसार पराविद्या ही मुक्ति का साधन बन
सकती है वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, गीता
आदि के ज्ञान को ये इस श्रेणी में स्थान देते हैं।
2 – अपरा (लौकिकव व्यावहारिक) – वस्तु जगत और मानव जीवन के विभिन्न पक्षों व
ज्ञान को इन्होने अपरा की श्रेणी में रखा है जो मुक्ति का साधन कभी नहीं बन सकते।
रामानुजाचार्य महोदय ने भी ज्ञान को दो भागों में विभाजित
किया है –
1 – धर्मी भूत ज्ञान – इनका इस ज्ञान से आशय कर्त्ता रूप ज्ञान से
है।
2 – धर्म भूत ज्ञान – इस ज्ञान में ये कर्म में विद्यमान ज्ञान को
समाहित करते हैं। ये आत्मोन्नति हेतु इस ज्ञान का समर्थन करते हैं।
वेदान्त दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology
and Ethics of Vedant Philosophy)
शंकर के अद्वैत दर्शन के अनुसार वर्णक्रम के प्रति निष्ठां से
उद्देश्य प्राप्ति सुगम होती है अंतिम उद्देश्य मुक्ति को मानते हुए ये इसके दो
विभाग करते हैं एक जीवन मुक्ति और दूसरे विदेह मुक्ति जीवन मुक्ति से आशय है कि
जीवन जीते हुए कर्म फल से अनासक्त होना। विदेह मुक्ति से आशय आवागमन के चक्कर से
मुक्ति से है अर्थात जीवन के अन्त में ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति।
रामानुजाचार्य महोदय भी शंकर की भाँति जीवन का अन्तिम उद्देश्य
मुक्ति ही मानते हैं लेकिन ये जीवन मुक्ति को मुक्ति स्वीकार नहीं करते उनकी
दृष्टि में ब्रह्म (ईश्वर) की प्राप्ति ही मुक्ति है जो भक्ति से मिलती है।
वेदान्त दर्शन की परिभाषा / Definition of of Vedanta philosophy –
वेदान्त दर्शन को प्रो ० रमन बिहारी लाल ने बहुत सरल शब्दों में यूँ
संजोया है –
“वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को
ईश्वर (ब्रह्म) द्वारा निर्मित मानती है और उसे इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण मानती है यह आत्मा को ब्रह्म का अंश मानती है
और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है जिसे ज्ञान
योग, कर्म योग, राज
योग और भक्ति योग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
“Vedanta philosophyis that school of Indian philosophy
which considers this universe to be created by God (Brahm) and considers it to
be the cause of the condition, origin, and rhythm of this universe. It
considers the soul as a part of Brahma and it renders that man The ultimate aim
of life is salvation which can be achieved through Jnana Yoga, Karma Yoga, Raja
Yoga, and Bhakti Yoga.”
वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्त / Basic
principles of Vedanta philosophy –
वेदान्त दर्शन के मूल तत्वों व सिद्धान्तों को इस प्रकार विवेचित
किया जा सकता है –
1 – ब्रह्माण्ड
ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित /Universe created by Brahma (God)
2 – ब्रह्म
और जगत में ब्रह्म विशिष्ट /Brahma special in Brahma and the world
3 – आत्मा
के ब्रह्म अंश सम्बन्धी विचार /Thoughts on the Soul as the Part of Brahma
4 – मनुष्य
अनन्त ज्ञान और शक्ति का स्रोत / Man is the source of eternal knowledge and power
5 – मनुष्य
का विकास उसके कर्मों पर निर्भर / Development of man depends on his deeds
6 – मानव
जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति / Salvation is the ultimate aim of human life
7 – ज्ञान
योग, भक्ति योग, कर्म
योग के साथ साधन चतुष्टय आवश्यक /
Along with Gyan
Yoga, Bhakti Yoga, Karma Yoga, Sadhana Chatushtaya is essential.
8 – ज्ञान
हेतु श्रवण, मनन, निदिध्यासन
आवश्यक / Listening,
meditation, Nididhyasan is necessary for knowledge
9 – उत्तम
श्रवण, मनन, निदिध्यासन हेतु साधन चतुष्टय आवश्यक /
Sadhana Chatushtaya is
necessary for good hearing,
meditation and Nididhyasan.
i – नित्य अनित्य विवेक
ii – भोग विरक्ति
iii – शम दम संयम
iv – मुमुक्षत्व
वेदान्त दर्शन और शिक्षा /Vedanta
philosophy and Education
आज विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भारत शिक्षा पर खुल कर विचार
करता है और नए नए आयामों के शिखर को छूने का प्रयास कर रहा है लेकिन हम भारतीय आज
भी जड़ों से नहीं कटे हैं। और जीवन की समग्रता पर विचार करने वाले शंकराचार्यजी और
रामानुज सरीखे विद्वानों के कथनों का विश्लेषणात्मक अध्ययन कर वेदान्त दर्शन के
गूढ़ तत्वों का मनन करते हैं। यद्यपि इन्होने शिक्षा पर स्वतंत्र रूप से विचार से नहीं
किया है लेकिन इनका मीमांसात्मक विवेचन आज के मानव को सार्थक शिक्षात्मक दिशा देने
में सक्षम है।
शिक्षा का सम्प्रत्यय / Concept of Education –
शंकर का स्पष्ट रूपेण मानना है की शिक्षा का परम उद्देश्य मुक्ति
प्रदान करना है जब मानव में नित्य अनित्य विवेक जागृत हो जाता है और वह समझ जाता
है कि ब्रह्म सत्य है और जगत नश्वर है वह सबमें स्वयं को और स्वयं में सबको देखने
लगता है। शिक्षा अपने उद्देश्य की और अग्रसारित हो जाती
है अर्थात वे छान्दोग्य उपनिषद का सा
विद्याया विमुक्तए का समर्थन करते हैं और शिक्षा को मुक्ति का साधन मानते हैं।
शिक्षा के अंगों पर प्रभाव / Impact on education
शिक्षा के उद्देश्य / Aims of Education
ये जीवन के दो पक्ष परा (आध्यात्मिक) और अपरा
(व्यावहारिक) स्वीकारते हैं और जीवन के उद्देश्यों को इसी आधार पर गठित करते हैं
जिसे इस प्रकार दर्शा सकते हैं –
परा (आध्यात्मिक) उद्देश्य –
1 – मुक्ति का उद्देश्य
अपरा (व्यावहारिक उद्देश्य) –
1 – शारीरिक विकास
2 – मानसिक विकास
3 – नैतिक विकास
4 – वर्ण के अनुसार शिक्षा
5 – साधन चतुष्टय प्राशिक्षण
6 – सर्वाङ्गीण व्यक्तित्व विकास
7 – ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति
पाठ्यक्रम
शंकर के अनुसार परा एवं अपरा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु
विविध विषयों का समर्थन करते हैं यथा आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु साहित्य, धर्म, दर्शन
जैसे परमार्थिक विषयों को शामिल करना चाहते हैं और परमार्थिक क्रियाओं अर्थात
अष्टांग योग का समर्थन करते हैं।
परा (व्यावहारिक) उत्थान हेतु भाषा, चिकित्सा शास्त्र, वर्ण
क्रम, गणित के साथ व्यायाम, आसन, ब्रह्मचर्य
को भी शामिल करना चाहते हैं।
रामानुजाचार्य के विचार आधुनिक विचार धारा का समावेशन करते प्रतीत
होते हैं इनके अनुसार सभी जीव ईश्वर की अनुपम रचनाएँ हैं इनमें वर्ण के अनुसार भेद
न करना चाहिए कर्म के अनुसार भेद स्वाभाविक रूप से दृष्टिगत होगा ही। अतः
स्वकर्म के कुशलता पूर्वक सम्पादन हेतु
कर्मानुसार समान शिक्षा का विधान होना चाहिए।
शिक्षण विधियाँ / Teaching Methods
इन्होने अपने शिक्षण उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों का चयन
किया जिन्हे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
i – प्रश्नोत्तर
विधि
ii – प्रवचन
विधि
iii – व्याख्या विधि
iv – स्वाध्ययन
विधि
v – प्रत्यक्ष
विधि
vi – श्रवण, मनन,निदिध्यासन
विधि
vii – अध्यारोप – अपवाद विधि
viii – विश्लेषण विधि
अनुशासन / Discipline –
ये आत्म अनुशासन को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार
एकाग्रता ही सच्चा अनुशासन लाती है। जब मन, बुद्धि,अहंकार, पर
आत्म नियन्त्रण स्थापित हो तो अनुशासन होगा। जब बिना किसी बाहरी दवाब के अपने आत्म
तत्त्व से प्रेरित होकर सदमार्ग का अनुसरण किया जाए तब सच्चा अनुशासन स्थापित
होगा। शंकर की दृष्टि से सच्चा अनुशासन तभी स्थापित होगा जब अष्टांग के योग मार्ग का अनुसरण होगा।
शिक्षक और शिक्षार्थी / Teacher and Learner
वेदान्त दर्शन की उपादेयता इस सम्बन्ध में विशिष्ट है शङ्कर का
स्पष्ट मानना है की गुरु अपने विद्यार्थी को व्यावहारिक जीवन की शिक्षा दे और साथ
ही यह बोध कराये कि वह ब्रह्म है। ‘तत्त्व
मसि’ अर्थात तू ही ब्रह्म है अन्ततः शिक्षार्थी यह
महसूस करेगा कि ‘अहम् ब्रहास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ।
रामानुजाचार्य के विचार इस सम्बन्ध में पृथक हैं ये मानते हैं की कोइ
पूर्ण नहीं हो सकता ,शिक्षक भी। शिक्षक को फिर भी ज्ञान व आचरण हेतु
उत्कृष्ट प्रयास निरन्तर करते रहने चाहिए।
वेदान्त के अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी अनन्त ज्ञान और ऊर्जा का
स्रोत है और उनमें भिन्नता कर्म की भिन्नता के कारण ही दृष्टिगत होती है।शंकर के
अनुसार ब्रह्म की प्राप्ति हेतु इच्छुक छात्रों को साधन चतुष्टय का अनुपालन करने
के साथ गुरु में श्रद्धा,
भोग से विरक्ति, इन्द्रिय निग्रह, मन
की एकाग्रता के गुणों में उत्तरोत्तर प्रगति के प्रयास अवश्य करने चाहिए।
शिक्षालय / School
नगर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक सुरम्य वातावरण से युक्त गुरु गृह ही
उस काल के विद्यालय थे। व्यावहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा समुदायों और गुरुकुलों में
दी जाती थी। यहाँ जीवन मुक्ति और साधन चतुष्टय पुष्पित पल्लवित करने के सार्थक
प्रयास होते थे।
वेदान्त दर्शन का मूल्याङ्कन / Evaluation
of Vedanta Philosophy
किसी
भी दर्शन का मूल्याङ्कन उसके गुण दोषों के आधार पर किया जाता है और सामान्यतः उस
काल विशेष के विशिष्ट कालखण्ड की जगह आज के अनुसार समीक्षा की जाती है आइए इस
दर्शन के गन दोषों पर विचार करते हैं।
A – वेदान्त दर्शन के गुण
1 – व्यावहारिकता
2 – इहलोक और अध्यात्म का समन्वय
3 – गुरु शिष्य आदर्श सम्बन्ध
4 – उच्च आदर्श अनुपालन
5 – शिक्षण विधियां
6 – मूल्य बोध
B
– वेदान्त
दर्शन की सीमायें
1 – जन शिक्षा का अभाव 2 – अध्यात्म पर अधिक बल
उपसंहार
/ Epilogue
भारत में शङ्कर के बाद जो भी दार्शनिक विचार
धारा फलीफूली उस पर वेदान्त का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अद्यतन काल तक की
विकास यात्रा के प्रमुख चिन्तक दयानन्द सरस्वती, मोहन दास करम चन्द्र गाँधी, विवेकानन्द, रबीन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द घोष सभी कहीं न कहीं वेदान्त से प्रभावित रहे
हैं। किसी को योग
क्रिया अच्छी लगती है ,कोई
व्यावहारिकता तो कोई इसके मूल्यों पर नत मस्तक है।
वास्तव में वेदान्त समग्र दृष्टिकोण है समस्त
धर्म व दर्शन इसकी प्रस्फुटित शाखाएं हैं
इसे सार्वभौम व सार्वकालिक दर्शन कहना न्याय सांगत होगा। आज हम जिस धर्म
निरपेक्ष, समाजवादी और वर्गहीन व्यवस्था की बात करते हैं
उसके बीज इसमें संरक्षित हैं। आज की शिक्षा यदि वेदान्त पर आधारित हो तो मन्तव्य
प्राप्ति अपेक्षाकृत सुगम हो जाएगी।
योग एक भारतीय दर्शन है यह प्रतिनिधि दर्शन की श्रेणी में आता है योग
दर्शन तीन मार्गों का प्रमुखतः निर्देशन प्रदान करता है ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। व्यक्ति को अपनी क्षमता, अभिरुचि, योग्यता
के आधार पर स्व हेतु मार्ग का चयन करना चाहिए। इसके अष्टांग मार्ग का विवेचन पहले
ही educationaacharya.com किया जा चुका है।
योग दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतञ्जलि के नाम पर इसे पातञ्जल दर्शन
भी कहा जाता है। भारत में योग दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ पातञ्जलयोग सूत्र(महर्षि पतञ्जलि),
भारतीय आस्तिक षडदर्शनों में से एक है योग दर्शन,महर्षि पातञ्जलि इसके प्रमुख प्रणेता हैं यह
दर्शन सांख्य दर्शन के पूरक के रूप में भी जाना जाता है। इस दर्शन का मुख्य लख्य
मानव को मोक्ष या परमआनन्द से जोड़ना है। प्रो।
रमन बिहारी लाल जी ने योग दर्शन को पारिभाषित करते हुए बताया –
“योग दर्शन भारतीय दर्शन भारतीय दर्शन की वह
विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर द्वारा प्रकृति एवं पुरुष के योग से
निर्मित मानती है और यह मानती है कि
प्रकृति, पुरुष
व ईश्वर तीनों अनादि और अनन्त हैं। यह
ईश्वर को कर्मफल के भोग से मुक्त और आत्मा को कर्म फल का भोक्ता मानती है
और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन काअन्तिम उद्देश्य परमानन्द अनुभूति है
जिसे अष्टांग योग साधन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
आँग्ल भाषा में इसे इस प्रकार अनुवादित कर सकते हैं –
“Yoga Darshan is that ideology of Indian philosophy which
believes that this universe is created by God from the combination of Prakriti
and Purusha and believes that Prakriti, Purush and God all three are eternal
and infinite. It regards God as free from the enjoyment of the fruits of action
and the soul as the enjoyer of the fruits of action and renders that the
ultimate aim of human life is the feeling of ecstasy which can be achieved by
means of Ashtanga Yoga.”
योग दर्शन को अधिगमित करने हेतु यह परमावश्यक
होगा की इसकी विविध मीमांसाओं को जान लिया जाए यहां क्रमशः समझने का प्रयास है –
(A)-योग दर्शन की तत्व मीमांसा (Metaphysics of yoga philosophy) –
सांख्य दर्शन की भाँति ही योग दर्शन प्रकृति और पुरुष की सत्ता को स्वीकार करता है अर्थात इस दर्शन ने सांख्य की तत्व मीमांसा को स्वीकार कर लिया है। योग दर्शन सृष्टि का निमित्त कारण (कर्त्ता) ईश्वर को मानता है तथा उसके उपादान कारण (आधारभूत साधन)
प्रकृति व पुरुष को स्वीकार करता है, पुरुष
चेतनतत्व अर्थात जीवात्मा है ईश्वर अनादि है अनन्त है और भोग से रहित है आत्मा
भोक्ता है।
(B) – योग दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology
and logic of yoga philosophy)
योग दर्शन चित्त की अवधारणा का प्रयोग करता है
जिसमें मन, बुद्धि,अहंकार शामिल हैं जैसा कि
सांख्यदर्शन में भी देखने को मिलता है योग
दर्शनयह मानता है कि मानव को पदार्थ का
ज्ञान इन्द्रियों व चित्त के माध्यम से प्राप्त होता है और आत्मा को इसका
साक्षात्कार होता है। वस्तुतः शरीर ,चित्त,और पुरुष भिन्न भिन्न होते हुए भी इस प्रकार
समेकित रहते हैं कि पृथक्करण सम्भव नहीं लगता।योग दर्शन के अनुसार योगी अंततः
समाधि को प्राप्त कर लेता है इस स्थिति में उसका यानि आत्मा का परमात्मा से योग हो
जाता है और वह सर्वज्ञ हो जाता है।
(C) – योग दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Values and Ethics of yoga
philosophy) –
योग दर्शन में योग हेति चित्तवृत्तियों के
निषेध हेतु अष्टांग मार्ग बताया है इसमें यम, नियम, आसन. प्राणायाम मुख्य रूप से शरीर से सम्बंधित हैं
और इसीलिये इन्हें अन्तरङ्ग साधन कहते है जबकि प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, व समाधि आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित हैं व
इन्हें बहिरंग साधन कहा जाता है। अन्तिम मूल्य की प्राप्ति अष्टांग मार्ग के आचरण से
सम्भव है।
योग दर्शन के मूल सिद्धान्त
Basic principles of yoga philosophy
01 – प्रकृति, पुरुष
के योग से ईश्वर द्वारा सृष्टि प्रक्रिया (Creation process by God with the combination of
Prakriti, Purusha)
02 – मूल तत्व – प्रकृति, पुरुष,
ईश्वर
(Basic elements –
Prakriti, Purusha, God)
03 – आत्मा कर्मफल भोक्ता ईश्वर नहीं (The soul is the enjoyer of the fruits
of action, not God.)
04 – प्रकृति, पुरुष, ईश्वर का मेल मानव (Prakriti, Purusha, God’s Combination
– Human)
05 – प्रकृति, पुरुष
व ईश्वर द्वारा मानव विकास सम्भव (Human development possible by nature, man and God)
06 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष (Salvation is the ultimate goal of
human life)
07 – चित्तवृत्ति निरोध मोक्ष हेतु आवश्यक (Control of mind is essential for
salvation)
08 – चित्तवृत्ति निरोध हेतु आवश्यक अष्टांग मार्ग(Eightfold path necessary for control
of mind)
योग दर्शन व
शिक्षा
Yoga philosophy and education
योग एक मानस शास्त्र है जिसमें मानव मात्र को मन संयत करना और पाशविक
वृत्तियों से बचाव हेतु दिशा प्राप्त होती है। इस छोटे से जीवन में सफलता किसी भी
क्षेत्र में संयत मन पर निर्भर करती है संयत मन से आशय एक कालखण्ड में एक ही
वास्तु पर चित्त की एकाग्रता। वैसे योग दर्शन ने शिक्षा को कोई निश्चित विचार
पृथकतः नहीं दिया लेकिन इसकी विभिन्न मीमांसाओं का विश्लेषण कर सार ग्रहण किया जा
सकता है यहाँ मुख्यतः यही प्राप्त करने का प्रयास रहेगा।
शिक्षा के उद्देश्य/Aims of education
योग शिक्षा अपने उद्देश्य कालानुरूप तय करती है। श्रीमद्भगवद्गीता
में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण ने 18 योग
के माध्यम से अर्जुन को शिक्षा प्रदान की यद्यपि इनमें से कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग पर अधिक चर्चा की जाती
है और इस में से ही प्राप्त ज्ञान के आधार
पर आज की योग गठित करती है शिक्षा अपने मुख्य उद्देश्य गठित करती है जिन्हे अध्ययन
की सुविधा की दृष्टि से इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –
A – साध्य उद्देश्य (Achievable objective)
1 – मुक्ति
का उद्देश्य /The purpose
of salvation
B – साधन
उद्देश्य (Instrument
purpose)
1 – शारीरिक विकास / Physical
development
2 – मानसिक विकास /
Mental development
3 – बौद्धिक विकास / Intellectual
development
4 – भावात्मक विकास / Emotional
development
5 – आध्यात्मिक विकास / Spiritual
development
6 – नैतिक विकास /Moral development
पाठ्यक्रम / Syllabus
योग दर्शन का सम्यक विश्लेषण यह इंगित करता कि आत्म ज्ञान के विषयों को अधिक और
पदार्थगत विषयों की और अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है योग दर्शन की पाठ्य चर्या
में मनोविज्ञान, नीति शास्त्र, धर्म शास्त्र,
दर्शन, योगाभ्यास, वेद, पुराण, भाषा, तर्क शास्त्र,
आयुर्विज्ञान,
शरीर विज्ञान आदि को स्थान दिया जा सकता है।
शिक्षण विधियाँ।/ Teaching methods
योग दर्शन चूंकि साँख्य दर्शन की ज्ञान मीमांसा का अनुमोदन करता है
इस लिए ज्ञान का विकास अन्तः कारन की बुनियाद पर होने का इसे सहज समर्थन प्राप्त
हो जाता है। जिसे
योग दर्शन चित्त स्वीकार करता है वही सांख्य दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार
के रूप में वर्णित है। दोनों की एकरूपता के कारण जो साधन ज्ञान प्राप्ति के सांख्य
दर्शन द्वारा सुझाये गए वही योग हेतु स्वीकार किये जा सकते हैं जिन्हे इस प्रकार
क्रम दिया जा सकता है
प्रत्यक्ष विधि – भ्रमण विधि, इन्द्रिय प्रत्यक्षीकरण।
अनुमान विधि – शोध विधि, परिकल्पना, आगमन -निगमन, विश्लेषण -संश्लेषण , खोज
विधि आदि।
शब्द विधि -प्रश्नोत्तर, व्याख्या, प्रवचन, तर्क
विधि, स्वाध्याय आदि।
योग विधि – ज्ञाता और ज्ञेय का भेद ख़तम लम्बी योगिक
साधना द्वारा ,योगी
द्वारा ही सम्भव सामान्य शिक्षार्थी द्वारा नहीं।
अनुशासन / Discipline
अनुशासन के सम्बन्ध में इस दर्शन को विशिष्ट स्थान प्राप्त है चित्त
वृत्तियों के निरोध को अनुशासन की परिणति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और स
हेतु अष्टाङ्ग मार्ग भी सुझाया गया है इसके विविध अंग गहन उपादेयता रखते हैं यदि
सचमुच अनुकरण का प्रयास उच्च कोटि का
अनुशासन स्वतः स्थापित हो जाएगा। इस दर्शन ने चित्त की स्थितियाँ और उनके आरोहण की
स्थिति द्वारा भी क्रमशः उच्च अनुशासन स्थापन की स्थिति को बताया है जिसे समझने
हेतु इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –
चित्त
की स्थितियाँ —–प्रधान गुण
———————–प्रवृत्ति
मूढ़ तमोगुण अकरणीय कार्यों की ओर
विवेक शून्य
क्षिप्त रजोगुण अति चञ्चल
विक्षिप्त
सतोगुण सुख के साधनों की ओर
एकाग्र
अधिक सतोगुण एक विषय पर केन्द्रित
निरुद्ध
अपेक्षाकृत अधिक सतोगुण स्थिर
योग
दर्शन के अनुसार मनुष्य इनमें से जितनी अधिक स्थितियां पार कर लेता है वह उतना ही
अधिक अनुशासित हो जाता है।
शिक्षक व शिक्षार्थी / Teacher and student
योग
दर्शन क्रिया आधारित दर्शन है यह गुरु से अष्टांग योग में महारत की आशा करता है और
विद्यार्थी द्वारा उसके सम्यक अनुकरण की। चित्त को साध अंतिम लक्ष्य की ओर निरन्तर
प्रगति की अन्तः प्रेरणा जगाने वाला शिक्षक ही उत्तम शिक्षक है तथा अष्टांग योग से
समाधि की और तीव्र प्रवृत्त विद्यार्थी उत्तम विद्यार्थी है।
विद्यालय / School
यह
सुरम्य वातावरण में योग के अष्टांग मार्ग के अनुसरण हेतु अध्ययन स्थली को
प्रशिक्षण स्थली के रूप में विकसित करने पर बल देते हैं। विद्यालय ऐसे हों जो
अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति के साधन के
रूप में कार्य कर सकें।
शिक्षा
के अन्य पक्ष –
जनस्वास्थय
2 – आध्यात्मिक
और नैतिक शिक्षा
मूल्याँकन
/ Evaluation
भारतीय पुरातन गौरवशाली इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्तम्भों में से एक
है योग दर्शन। इस दर्शन के सम्यक आकलन में, संरक्षण
व विकास में लम्बे समय तक तत्सम्बन्धी शोध का अभाव रहा है। लेकिन यह दर्शन मानसिक
और शारीरिक विकास में अद्भुत योग प्रदान करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी
महत्ता को सम्पूर्ण विश्व स्वीकार कर रहा है इसके शिक्षा के अंगों पर प्रभाव गहन
गरिमा से युक्त हैं जो मानवता का पोषण करने में समर्थ है। शोध के अभाव में इसके
विविध आयाम आज भी अछूते हैं। सम्यक विश्लेषण व सार संकलन से इससे सम्पूर्ण मानवता
को शिक्षा परिक्षेत्र में विकास हेतु शारीरिक क्षमताओं की वृद्धि का वरदान प्राप्त
हो सकता है।
संस्कृति
शब्द का उच्चारण होते ही हमारा अन्तर्मन मर्यादा का बोध करने लगता है साधारणतः
संस्कृति में वह सब कुछ संयुक्त होता है जो मानव द्वारा समाज में रहकर जाना जाता
है कलाएं, कानून, नैतिकता, धार्मिक परम्पराएँ, शिष्टाचार मर्यादाएं, रीति रिवाज, व्यवहार, सङ्गीत, भाषा, साहित्य आदि सभी कुछ इसमें शामिल है।
CONCEPT
OF CULTURE (संस्कृति
की अवधारणा)
संस्कृति
की अवधारणा को समझने हेतु कुछ विज्ञजनों की संस्कृति के आशय को इंगित करने वाली
परिभाषाओं के आलोक में समझने का प्रयास करते हैं। प्रसिद्द समाजशास्त्री मैकाइवर
एण्ड पेज के शब्दों में –
“Culture
is the expression of our nature in our modes of living and of thinking, in our
everyday intercourse in art, in literature, in religion, in recreation and in
enjoyment.”- Meciver and page
“हमारे रहने, विचार करने प्रतिदिन के कार्यों, कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में संस्कृति हमारी प्रकृति
की अभिव्यक्ति है।”
लुण्डवर्ग महोदय संस्कृति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए
कहते हैं –
“Culture
may be defined as a system of socially acquired and transferred standard to
judgement, belief and conduct, as well as the symbolic and material products of
the resulting conventional patterns of behavior.” –Lundberg
“संस्कृति को उस व्यवस्था के रूप में पारिभाषित
किया जा सकता है जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को सञ्चरित कर
दिए जाने वाले निर्णयों,विश्वासों, आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले
प्रतीकात्मक और और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते हैं।”
टायलर महोदय ने संस्कृति की अवधारणा को सुन्दर
शब्दों में यूँ संजोया है –
“Culture
is that complex whole which includes knowledge, beliefs, art, morals, law,
customs and any other capabilities and habits acquired by man as a member of
society.” – Tylor
“संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिसमें ज्ञान,विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा इसी प्रकार की ऐसी सभी क्षमताओं और
आदतों का समावेश रहता है जिन्हे मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता
है। ”
यदि
हम उक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो एम०
एल० मित्तल के तत्सम्बन्धी ये विचार सत्य प्रतीत होते हैं। –
“किसी समुदाय या समाज के रहने सहने के समग्र
तरीकों या जीवन विधि को संस्कृति कहते हैं। इसमें धर्म, कला, दर्शन, विज्ञान, आचार विचार, रीति रिवाज, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा, खानपान, मशीनें, उपकरण, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था आदि सभी तत्व
सम्मिलित होते हैं। ”
“The overall way of life or way of life of a community or
society is called culture. It includes religion, art, philosophy, science,
ethics, customs, living, language, costumes, food, machines, equipment,
political and economic All the elements of system etc. are included.’’
CHARACTERISTICS
OF CULTURE
संस्कृति
की विशेषताएं
1 – संस्कृति अनुभव आधारित (Culture
based on experience)
लुण्डवर्ग
महोदय
के अनुसार
“Culture
is not related to a person’s innate tendencies or biological heritage, but it
is based on social learning and experiences.”
-Lundberg
“संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा
जैवकीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक सीख व अनुभवों पर आधारित होती
है।”
2 – संस्कृति में स्थानान्तरण की शक्ति (The
power of transference in culture)
3 – हर समाज में सांस्कृतिक विविधता (Cultural
diversity in every society)
4 – संस्कृति में सामाजिकता का गुण (Sociability
in culture)
ए ०
डब्ल्यू० ग्रीन महोदय के अनुसार –
“Culture
is the socially transmitted system of idealized ways in knowledge, practice and
belief along with the artifacts that knowledge and practice maintain as they
change in type.” – Green A.W.
“संस्कृति ज्ञान, व्यवहार, विकास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान और
व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को कहते हैं, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी
जाती हैं।”
5 – संस्कृति में अनुकूलन निहित (Adaptation
inherent in culture)
6 – समाज का आदर्श संस्कृति है (Culture
is the ideal of society)
इसीलिये
व्हाइट महोदय को कहना पड़ा –
“Culture
is a symbolic, continuous, cumulative and progressive process.”
“संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचई और प्रगतिशील प्रक्रिया है।”
7 – संस्कृति, आवश्यकता पूर्ति में सक्षम (Culture,
capable of meeting the need)
8 – मानवीय समाज की धरोहर (Heritage
of human society)
रेडफील्ड
महोदय के अनुसार –
“संस्कृति कला और उपकरणों से अभिव्यक्त
परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है, जो परम्परा द्वारा संगठित होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है। ”
“Culture
is the organised body of conventional understanding, manifest in art and
artifact, which persisting through traditions, characterizes human group. – Redfield
उक्त अवधारणाओं व विशेषताओं के अध्ययन से यह पूर्णतः स्पष्ट भान होता
है कि संस्कृति जन्मजात न होकर स्वीकार्य गुणों, विचारों व व्यवहारों का समूह है जैसा वेरको व अन्य के इन विचारों से
भी स्पष्ट होता है –
“Although the investigations of Social Scientists have
shown that culture is not innate but learned, nevertheless the pressure to
acquire this learning is so strong that is inescapable.” –Verco and others
“यद्यपि समाज शास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात
न होकर सीखी जाती है, फिर भी इनके सीखने को इतना अधिक महत्त्व दिया
जाता है कि इनकी अवहेलना नहीं की जा सकती।”
शिक्षा
वह उपागम है जो इसे धारण करने वाले व्यक्तित्व हेतु प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता
है। इसके माध्यम से हमें वह दिशा मिलती है जो हमारे जीवन के उद्देश्य तय करने और
उन्हें प्राप्त करने में हमारा सहयोग प्रदान करती है। विविध विद्वानों ने शिक्षा
के कार्य सम्बन्धी अपने विचारों की शब्द माला का गुम्फन इस प्रकार किया है।
जॉन ड्यूवी महोदय कहते हैं –
“शिक्षा का कार्य असहाय
प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाना है, जिससे वह सुखी, नैतिक व कुशल मानव बन
सके।”
“The work of education is to help in the
development of a helpless creature so that it can become a happy, moral and
efficient human being.”
डॉ जाकिर हुसैन महोदय का कहना है –
“शिक्षा का कार्य बालक
के मस्तिष्क को शुद्ध, नैतिक और बौद्धिक
मूल्यों का अनुभव करने में इस प्रकार सहायता प्रदान करना है कि वह मूल्यों से
प्रेरित होकर उनको सर्वोत्तम प्रकार से अपने कार्य और अपने जीवन में प्राप्त करें।”
“The function of education is to help the child
to perceive pure, moral and intellectual values in his mind in such a way
that he is inspired by these values to achieve them in the best possible way
in his work and his life.”
रमन बिहारी लाल महोदय कहते हैं –
“सच बात तो यह है कि
शिक्षा के अपने में कोई कार्य नहीं होते। कोई व्यक्ति, समाज अथवा राज्य
शिक्षा के द्वारा जो प्राप्त करना चाहता है वे ही शिक्षा के उद्देश्य होते हैं और
इन उद्देश्यों की पूर्ति करना ही शिक्षा के कार्य होते हैं।”
“The truth is that education does not have any
functions in itself. What a person, society, or state wants to achieve through
education are the objectives of education, and fulfilling these objectives is
the function of education.”
शिक्षा के प्रमुख कार्यों का वर्गीकरण / Classification of major functions of education –
विविध
परिभाषाओं का अध्ययन और विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा को तत्कालीन
उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कुछ कार्य करने ही होते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित
किया जा सकता है –
A – व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास / Individual and Social Development
(a) व्यक्तिगतविकास
(1) -उत्तम चरित्र की प्राप्ति
जर्मन विचारक हर्बर्ट महोदय कहते हैं –
“शिक्षा अच्छे नैतिक चरित्र का विकास है।”
“Education
is the development of good moral character.”
(2) –
व्यावसायिक कुशलता
स्पेन्सर महोदय कहते हैं कि –
“किसी भी व्यवसाय के लिए तैयार करना हमारी
शिक्षा का मुख्य अंग है। ”
“Preparation for any vocation is a core part of
our education.”
(3) – व्यक्तित्व विकास
फ्रेडरिक ट्रेसी के अनुसार –
“सम्पूर्ण शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य
व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है।
यह आदर्श संतुलित एवम समग्र व्यक्तित्व है। ”
“The real aim of all education is the complete
attainment of the ideal of personality. This ideal is a balanced and holistic
personality.”
(4) – वातावरण से समायोजन
टॉमसन महोदय के अनुसार –
“वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र
को उस वातावरण के अनुकूल बनाना जिससे कि वह जीवित रह सके और अपनी मूल प्रवृत्तियों
को संतुष्ट करने के लिए अधिक से अधिक संभव अवसर प्राप्त कर सके।”
“Environment is the teacher and the function of
education is to adapt the student to that environment so he may live and get
the maximum possible opportunities to satisfy his basic instincts.”
(5) – आत्म निर्भरता
डॉ ० राधा कृष्णन महोदय कहते हैं –
“छात्रों को जीविका उपार्जन करने में
सहायता देना शिक्षा का एक कार्य है।”
“To help the students to earn a living
is one of the functions of Education.”
(6) – मानसिक विकास
रमन बिहारी लाल महोदय के अनुसार –
“मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है। शिक्षा
के द्वारा उसका शारीरिक और मानसिक विकास होना ही चाहिए। ”
“Man is a psycho-physical being. He must have physical
and mental development through education.”
(7) – आध्यात्मिक चेतना का विकास
डॉ ० राधा कृष्णन महोदय के अनुसार –
“शिक्षा का उद्देश्य न तो राष्ट्रीय कुशलता है, न सांसारिक एकता अपितु व्यक्ति को यह अनुभूति
कराना है कि उसके पास बुद्धि से भी परे एक तत्त्व है जिसे तुम चाहो तो आत्मा कह
सकते हो।”
“The aim of Education is neither national
efficiency nor world solidarity, but making the individual feel that he has
something deeper than intellect, call it spirit if you like.’’
(8) – जन्मजात शक्तियों का विकास
जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालोजी के अनुसार –
“शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का
स्वाभाविक,
सामंजस्यपूर्ण
और प्रगतिशील विकास है।”
“Education is a natural, harmonious, and
progressive development of man’s innate powers.”
(9) – समृद्धता –
ड्यूबी महोदय का विचार है –
“जीवन का मुख्य कार्य है प्रत्येक पग पर
अपने अनुभवों द्वारा जीवन को समृद्ध करना।”
“The
main task of life is to enrich life with your experiences at every step.”
(b) सामाजिक विकास
1 – सामाजिक नियन्त्रण
2 – सामाजिक परिवर्तन–
रमन बिहारी लाल महोदय के अनुसार –
“शिक्षा मनुष्यों में अपनी भाषा,
रहन
सहन, खानपान एवं व्यवहार की विधियों और रीतिरिवाजों
में अपने अनुभवों के आधार पर आवश्यक परिवर्तन एवं विकास की क्षमता पैदा करती हैं
और वे इन सबमें निरन्तर परिवर्तन एवं विकास करते हैं। इसे समाजशास्त्रीय भाषा में
सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”
“Education
inculcates in human beings the capacity for necessary change and development in
their language, living conditions, food and behavior methods, and customs on
the basis of their experiences, and they continuously change and develop in all
these. This is called the social change in sociological language.”
3 – सामाजिक सुधार
4 – संस्कृति का संरक्षण,
हस्तान्तरण
व विकास
5 – राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्ति
6 – सामाजिक सकारात्मक भावना
एच ० गार्डन महोदय के अनुसार –
“शिक्षक को यह जानना आवश्यक है की उसे सामाजिक
प्रक्रिया को उन व्यक्तियों को समझाना चाहिए, जो इसे समझने में असमर्थ हैं।”
“It is necessary for the teacher to know that he
should explain the social process to those persons who are unable to understand
it.”
B – सांस्कृतिक विरासत का सम्प्रेषण / Transmission of cultural heritage
शिक्षा
वह साधन है जिसके माध्यम से यह महत्त्व पूर्ण कार्य सम्पादित होता है इस हेतु वह
इन कार्यों को करती है –
1 – संरक्षण / Protection
2 – विकास / Development
3 – हस्तान्तरण /Transfer
4 – सांस्कृतिक विलम्बन में कमी /Reduction of cultural lag
5 – गतिशीलता / Mobility
6 – विविध संस्कृतियों से समायोजन / Adjusting to Diverse Cultures
C – कौशलों का अर्जन / Acquisition of skills –आज प्रतिस्पर्धा का युग है और इसमें ठीके रहने के लिए यह परम आवश्यक
है कि स्वप्रगति के सुनिश्चयीकरण हेतु कौशलों का निरंतर अर्जन किया जाए। शिक्षा इन
कौशलों का सुदृढ़ीकरण हेतु इन कौशलों को अर्जित कराने का कार्य करती है –
1 – भाषाई कुशलता / Linguistic Proficiency
2 – सृजनात्मक कुशलता / Creative skills
3 – व्यावसायिक कुशलता / Professional skills
स्वामी
विवेकानन्द जी
के अनुसार –
“केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें
उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके।”
“Mere
bookish knowledge will not do. We need that education by which a person can
stand on his own feet.”
D – मानव मूल्यों का अर्जन व उत्पादन / Acquisition and generation of human
values
आज
विविध परिक्षेत्र में मानवीय मूल्यों का अवनमन दीख पड़ता है अतः शिक्षा को निम्न
कार्य अवश्यमेव सम्पादित करने होंगे। –
→ सामाजिक मूल्य / Social values
→ आर्थिक मूल्य / Economic values
→ राजनैतिक मूल्य / Political values
→ सांस्कृतिक मूल्य / Cultural values
E – अवकाश हेतु शिक्षा /Education for leisure
→ स्वास्थ्य व्यवस्थापन / Health Management
→ भविष्य व्यवस्थापन / Future Management
→ सशक्त सम्बन्ध स्थापन / Strong Relationship Establishment
→ मनः रञ्जन / Entertainment
→ आत्मनिरीक्षण / Introspection
F – सामाजिक एकजुटता / Social Cohesion
→ सहिष्णुता विकास / Tolerance development
→ सह अस्तित्व बोध / Coexistence sense
→ प्रगति उन्मुखता / Progress orientation
→ सामाजिक निष्ठा बोध / Social loyalty
→ लोचशीलता / Flexibility
G – राष्ट्रीय एकता हेतु शिक्षा / Education for National Integration
1 – पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा / Through co-curricular activities
2 – आध्यात्मिक चेतना विकास / Spiritual consciousness development
3 – अधिकार व कर्त्तव्य ज्ञान / Rights and duty knowledge
4 – राष्ट्रीय लक्ष्य बोध / National vision
5 -सामाजिक कर्त्तव्य बोध / Sense of social duty
6 – परिवर्तन ग्राह्यता / Change susceptibility
7 – धार्मिक सहिष्णुता / Religious tolerance
8 – भावात्मक एकता विकास / Emotional integration development
जवाहर लाल नेहरू ने कहा –
” भावात्मक एकता से अभिप्राय, अलगाव की भावना का दमन तथा मस्तिष्क एवं ह्रदय
की एकता से है।”
“By
Emotional integration, I mean the integration of our minds and hearts, the
suppression of the feelings of separation.”
H – अन्तर्राष्ट्रीय समझ हेतु शिक्षा / Education for Inter-National
understanding
अन्तर्राष्ट्रीय
परिक्षेत्र में शिक्षार्थियों की समझ में अभिवृद्धि हेतु शिक्षा को निम्न कार्यों
को यथायोग्य गुणवत्ता पूर्ण ढंग से करना होगा जिसके प्रभावी परिणाम देखने को
मिलेंगे।
1 – अन्तर्राष्ट्रीय पहचान रखने वाले व्यक्तित्वों
से परिचयी करण / Introduction to personalities having
international identity –
जन्मदिन, निर्वाण दिवस, विशिष्ट कार्य सम्पादन दिवस मनाकर / By celebrating Birthday, Nirvana Day,
Special Work Achievement Day
2 – विशिष्ट अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्वों के ऑडियो
वीडिओ क्लिप द्वारा / By Audio video clips of eminent international personalities.
3 – अन्तर्राष्ट्रीय क्रीड़ा प्रतिस्पर्धा का आयोजन
/ Organization of
international sports competition
4 – अन्तर्राष्ट्रीय साझा सांस्कृतिक कार्यक्रम
आयोजन / Organizing
International Shared Cultural Program
5 – भ्रमण द्वारा / by excursion
6 – शैक्षिक आदान प्रदान / – Academic Exchange
7 – शिक्षण विधि में सम्यक परिवर्तन / Due change in teaching method
8 – विविध भाषा में शोध परिणाम अनुवाद / Translation of research results in
various languages
I – मानव संसाधन हेतु शिक्षा / Education for Human Resource
Development –
आज भारत व चीन अधिक जनसँख्या वाले देशों की श्रेणी में आते हैं लेकिन जब अधिसंख्य जनसँख्या उत्पादक कार्यो से जुड़ जाती है तो यही जनसंख्या मानव संसाधन के रूप में देश को विकसित करने में योग देती है और शिक्षा मानव संसाधन के विकास में योग की दर को बढ़ाने का श्रेष्ठतम साधन है इसके द्वारा ही विविध कार्यों हेतु कौशल सिखाए जाते हैं। आज के तमाम प्रशिक्षण कॉलेज इस पावन कर्म में लगे हैं। मानव संसाधन का जितना अच्छा प्रयोग जो देश करेगा वह उतनी तीव्रता से प्रगति करेगा। प्राइवेट और सरकारी दोनों परिक्षेत्रों को इस दिशा में तीव्र प्रयास करने होंगे।
उक्त परिक्षेत्रों के अतिरिक्त आज और बहुत से कार्य शिक्षा के गिनाये जा सकते हैं और इनमे बदलते सामाजिक उद्देश्यों के साथ परिवर्तन होता रहेगा।