ई – अधिगम, अधिगम का वह प्रकार है जिसमें अधिगम हेतु मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या स्रोतों की मदद ली जाती है, इसमें दृश्य व दृश्य- श्रव्य साधनों के माध्यम से अधिगम को सरल बनाया जाता है इन साधनों में माइक्रो फोन, दृश्य व दृश्य श्रव्य टेप सी ० डी ०, डी ० वी ० डी ०, पेन ड्राइव, हार्ड डिस्क आदि प्रयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक अधिगम में सूचना व सम्प्रेषण तकनीकी का प्रयोग मुख्यतः होता है इसके अन्तर्गत टेली कॉन्फ्रेंसिंग, कम्प्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग, वीडिओ कॉन्फ्रेंसिंग, ऑन लाइन लाइब्रेरी, ई मेल, चैटिंग आदि आते हैं। इन सबमें इण्टरनेट व वेव तकनीकी प्रयुक्त की जाती है। आधुनिकतम कम्प्यूटर, बहु माध्यम नेट वर्किंग, इलेक्ट्रॉनिक अधिगम के प्रमुख सहायक हैं।
रोजेन वर्ग महोदय (2001) ने बताया –
“ई – अधिगम से तात्पर्य इण्टरनेट तकनीकियों के ऐसे उपयोग से है जिनसे विविध प्रकार के ऐसे रास्ते खुलें जिनके द्वारा ज्ञान और कार्य क्षमताओं में वृद्धि की जा सके।”
“E-learning refers to the use of Internet technologies that open up a variety of avenues through which knowledge and work abilities can be enhanced.”ई–अधिगम के लाभ / Benefits of e-learning – 1- कभी भी कहीं भी अधिगम0 2- प्रभावी अधिगम सामग्री 0 3- शिक्षण विधियों का प्रभावी अधिगम 0 4- स्वगति से अधिगम 0 5- तत्सम्बन्धी गैजेट्स का सम्यक उपयोग 0 6- परम्परागत संसाधन से वंचितों को वरदान 0 7- मानसिक स्तर, कौशल व रूचि अनुसार अध्ययन 0 8- आवश्यकतानुसार अध्ययन 0 9- उपचारात्मक व निदानात्मक शिक्षण 10 – विविधता में एकता के दर्शन 11 – गुणवत्ता युक्त प्रभावी माध्यम 12 – स्व क्षमतानुसार अध्ययनई–अधिगम की सीमाएं / Limitations of e-learning –01 – शिक्षा का यांत्रिकीकरण 02 – अधिगम कर्त्ताओं की नकारात्मकता 03 – वांछित कौशलों का अभाव 04 – अन्तः क्रिया का अभाव 05 – व्यक्तिगत संसाधनों का अभाव 06 – साधनविहीन विद्यालय 07 – प्रशिक्षण रहित शिक्षक08 – ऊर्जा संसाधनों का अभाव 09 – जागरूकता अभाव 10 – परम्परागत रूढ़िवादी सोच
आकलन शिक्षार्थियों के अधिगम और विकास के बारे में पता लगाने का व्यवस्थित आधार है इससे विद्यार्थी को अधिगमित करने और विकसित होने में मदद मिलती है यह जानकारी एकत्र करने, विश्लेषण करने और उपयोग करने की प्रक्रिया है। यह प्राथमिकताओं को तय करने, सूचना प्राप्ति और आवश्यकताओं को ज्ञात करने की महत्त्व पूर्ण पद्धति है। विद्यार्थियों की उपलब्धि को ज्ञात करते समय अध्यापक द्वारा किसी मानक के आधार पर मूल्य निर्णय करना आकलन कहलाता है।
इरविन के अनुसार –
“आकलन छात्रों के व्यवस्थित विकास के आधार का अनुमान है। यह किसी भी वस्तु को पारिभाषित कर चयन, रचना,संग्रहण,विश्लेषण,व्याख्या और सूचनाओं का उपयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास तथा अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है।”
“Assessment is an estimate of the basis of systematic development of students. It is the process of defining any object, selecting, creating, collecting, analyzing, interpreting and using information appropriately to enhance student development and learning.”
NEED OF ASSISMENT (आकलन की आवश्यकता) –
विद्यार्थियों किन अधिगम की क्षमता ही उसकी प्रगति का प्रमुख आधार बनती है अतः क्षमता का आकलन परम आवश्यक है। अधोवर्णित बिंदुओं के आधार पर इसकी आवश्यकता को समझा जा सकता है।
01 – विविध विषयात्मक परिक्षेत्र में अधिगम
02 – कौशल विकास व समन्वय
03 – स्वस्थ व उपयोगी जीवन स्तर की प्राप्ति
04 – आत्म प्रेरणा व रुचयात्मक विकास
05 – सु समायोजन हेतु
06 – समय के साथ कदमताल हेतु
07 – सम्यक प्रतिक्रिया अभिव्यंजन हेतु
08 – आत्म मूल्यांकन व आत्म विश्लेषण हेतु
09 – दीर्घकालिक अधिगम हेतु
10 – समसामयिक मुद्दों के प्रति जागरूकता
IMPORTANCE OF ASSISMENT (आकलन की महत्ता) –
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिवेश से बेखबर रहकर नहीं रहा जा सकता इसलिए यह आवश्यक है कि निरन्तर स्वआकलन किया जाए और यथार्थ के धरातल पर रहकर प्रगति सुनिश्चित की जाए। इस आकलन की महत्ता को इन बिंदुओं के आधार पर विवेचित किया जा सकता है। –
1 – शक्ति परिक्षेत्र/ Areas of strength
2- कमजोरी के क्षेत्र / Areas of weakness
3- प्रेरणा / Motivation
4- पृष्ठपोषण / feedback
5- प्रगति सुधार / Improving progress
6 – जवाबदेही / Accountability
7- अद्यतन जानकारी Up to date information
8- क्षमता सुधार Performance Improvement
9- निर्णयन क्षमता / Decision making capacity
उक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि आकलन आज महत्त्वपूर्ण परिक्षेत्र है और समय रहते सम्यक आकलन प्रगति के नए आयाम गढ़ सकता है। आकलन की आवश्यकता व महत्त्व दूरगामी नीति में सहायक सिद्ध होते हैं। विविध राजनीतिक पार्टी स्व आकलन करती रहती हैं उसी तरह व्यक्तिगत स्तर पर भी यह परमावश्यक है।
कलाकार अपने संवेगों, भावों, अनुभूतियों, कल्पनाओं आदि के प्रदर्शन के लिए विविध प्रकार की कलाओं को माध्यम बनाता है इन विविध कलाओं में दृश्य कला, कला कृतियों का वह स्वरुप है जिसका भाव मुख्यतः दृश्य होता है वे दृश्य इन्द्रियों द्वारा पहचानी जाती हैं तथा दृश्य भाव और सौन्दर्य का प्रकाशन करती हैं।
Definition of visual arts / दृश्यकलाकीपरिभाषा –
कल्पनाशीलता व चिन्तन के घटक जब वातावरण की विविध शक्तियों से द्वन्द कर अपना प्रगटन कलाकार के माध्यम से इस प्रकार करते हैं कि अन्य चक्षुओं के आनन्द का कारण बनते हैं। तब कला का यह स्वरुप दृश्य कला के नाम से जाना जाता है। विकिपीडिआ के अनुसार –
“दृश्य कला, कला का वह रुप है जो मुख्यतः दृश्य प्रकृति की होती है जैसे -रेखा चित्र, चित्र कला, मूर्ति कला,…….. “
“Visual art is that form of art which is mainly of visual nature such as drawing, painting, sculpture,……”
स्टडी.कॉम के अनुसार –
“दृश्य कला से तात्पर्य उन कला रूपों से है जो दृश्य माध्यमों से अपना संदेश, अर्थ और भावना व्यक्त करते हैं।”
“Visual arts refers to those art forms that express their message, meaning and emotion through visual means.”
दृश्य कला की परिभाषा को शर्मा व सक्सैना (आर लाल बुक डिपो) ने इन शब्दों में बांधने का प्रयास किया है –
“Visual arts are the such arts in which the articles made by an artist create their effect visually, it means they create visual experience of beauty and express feelings visually.”
“दृश्य कलाएँ ऐसी कलाएँ हैं जिनमें किसी कलाकार द्वारा बनाई गई वस्तुएँ दृश्य रूप से अपना प्रभाव पैदा करती हैं, इसका अर्थ है कि वे सौंदर्य का दृश्य अनुभव पैदा करती हैं और भावनाओं को दृश्य रूप से व्यक्त करती हैं।”
उक्त विविध परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि दृश्य कला उस कला को कहा जाता है जिसमें कलाकार की कृतियाँ दृश्य प्रभाव का प्रादुर्भाव करती हैं यह दृश्य कलाएं वह दृश्य सामग्री प्रस्तुत करती हैं जो नेत्रों को को आनन्द प्रदान करे। इन नयनाभिराम दृश्यों के उदाहरण यत्र तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं जैसे भव्य महल, आकर्षक मूर्तियां, आकर्षक आभूषण, सुन्दर वस्तुयें ,कला कृतियों, भित्ति चित्रों,किलों,परकोटों, गुम्बदों आदि के रूप में ।ये दृश्य कलाएं मुख्यतः 5 भागों में बांटी जा सकती हैं।
1 – चित्रकला
2 – मूर्तिकला
3 – वास्तुकला
4 – नृत्यकला
5 – दृश्यश्रव्यकला
Importance of visual arts in Education
शिक्षामेंदृश्यकलाकामहत्व –
शिक्षा में दृश्य कला के महत्त्व को निम्न बिन्दुओं द्वारा इंगित किया जा सकता है। –
काल चक्र के परिभ्रमण के साथ जो पाठ्यक्रम बनाया जाता है उसके मूल्यांकन द्वारा ही यह औचित्य सिद्ध होता है कि यह प्रासंगिक है अथवा नहीं। पाठ्यक्रम मूल्याङ्कन में यह जानने का प्रयास निहित है कि जिन व्यवहार गत परिवर्तनों, उद्देश्यों, निर्देशनों, दिशाओं और मार्ग दर्शन की अपेक्षा पाठ्यक्रम से की गयी थी वह कहाँ तक प्राप्त हुए हैं विविध स्तरों पर विविध विद्यालयी पाठ्यक्रम समाज, राष्ट्र, व्यक्ति, नैतिकता, मूल्य आदि को ध्यान में रखने के साथ ज्ञान के बोधात्मक स्तर के विकास को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं और अन्त में पाठ्यक्रम मूल्यांकन में इन्हे ही जानने का प्रयास किया जाता है कि उक्त उद्देश्य किस स्तर तक प्राप्त हुए हैं। इसी आधार पाए उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण की अवधारणा का विकास हुआ।
आशयवपरिभाषा (Meaning and definition) –
पाठ्यचर्या विकास का एक महत्त्वपूर्ण नितान्त आवश्यक चरण है पाठ्यचर्या मूल्याङ्कन। इसके माध्यम से ही यह ज्ञात किया जाता है कि पाठ्यक्रम अपना उद्देश्य प्राप्त कर पा रहा है या नहीं। साथ ही यह अधिगम में कितना सहयोगी सिद्ध हो रहा है यह भी मूल्याङ्कन से ही ज्ञात होता है। डेविस 1980 ने बताया –
“It is the process of delineating obtaining, and providing information useful for making decisions and judgement about curricula.”
Criteria and process of Good Curriculum Evaluation / अच्छेपाठ्यचर्यामूल्यांकनकेमानदण्डऔरप्रक्रिया-
यद्यपि पाठ्यचर्या मूल्यांकन के परिक्षेत्र में बहुत कार्य होना शेष है फिर भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि पाठ्यचर्या मूल्यांकन में निम्न मानदण्डों को ध्यान में रखना चाहिए तथा मूल्याङ्कन प्रक्रिया हेतु इन्हीं बिन्दुओं को तरजीह दी जानी चाहिए।
01 – निर्धारितउद्देश्यप्राप्यता / Attainment of set objective
02- वस्तुनिष्ठता / Objectivity
03- क्रमबद्धता / Sequentiality
04- विश्वसनीयता / Reliability
05- वैधता /Validity
06- व्यापकदृष्टिकोण / Broad perspective
07- दूरदर्शिता / Foresight
08- व्यावहारिकता / Practicality
09 – सहभागिता / Participation
पाठ्यक्रममूल्याङ्कनकेप्रकार / Types of curriculum evaluation
पाठ्यक्रम मूल्याङ्कन मुख्य रूप से तीन प्रकार का कहा जा सकता है जो इस प्रकार हैं –
यह पाठ्यक्रम विकास के दौरान होता है। इसका उद्देश्य शैक्षिक कार्यक्रम के सुधार में योगदान देना है। किसी कार्यक्रम की खूबियों का मूल्यांकन उसके विकास की प्रक्रिया के दौरान किया जाता है। मूल्यांकन परिणाम प्रोग्राम डेवलपर्स को गति प्रदान करते हैं और उन्हें प्रोग्राम में पाई गई खामियों को ठीक करने में सक्षम बनाते हैं।
2- योगात्मकमूल्यांकन / Summative evaluation –
योगात्मक मूल्यांकन में किसी पाठ्यक्रम के अंतिम प्रभावों का मूल्यांकन उसके बताए गए उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। यह पाठ्यक्रम के पूरी तरह से विकसित होने और संचालन में आने के बाद होता है।
3- नैदानिक मूल्यांकन / Diagnostic evaluation –
नैदानिक मूल्यांकन दो उद्देश्यों की ओर निर्देशित होता है या तो छात्रों को निर्देशात्मक स्तर (जैसे माध्यमिक विद्यालय) की शुरुआत में उचित स्थान पर रखना या अध्ययन के किसी भी क्षेत्र में छात्रों के सीखने में विचलन के अंतर्निहित कारण की खोज करना।
किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति पर अवलम्बित होती है और इस संस्कृति का विकास दीर्घकालिक सभ्यता और उस क्षेत्र के व्यक्तित्वों के कठिन प्रयासों से गढ़ा जाता है।जब किसी राष्ट्र की पीढ़ियाँ दीर्घकाल तक मर्यादाओं और परम्पराओं का अनुपालन करती हैं तब रीति रिवाज और धरती से जुडी व्यवस्थाओं का उद्भव होता है। वे सर्वस्वीकार्य तब हो पाती हैं जब उनसे आस्था और विश्वास जुड़ता है। इन आस्था, विश्वास, परम्पराओं का सहज जुड़ाव पर्वों से इस प्रकार हो जाता है कि पर्व और कला आपस में इतने गुत्थमगुत्था हो जाते हैं कि समरस हो जाते हैं।
भारत पर्वों का देश है इससे लोक कलाएं स्वाभाविक रूप से ऐसी जुड़ गई हैं जिससे अलगाव की सोच भी मानस को व्यथित करती है। भारत में जहां विविधताओं के दर्शन होते हैं वहीं देवी देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है यहाँ भूमि पूजन किया जाता है और पृथ्वी को माँ कहा जाता है। यहाँ का सहज उद्घोष है –
‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’‘
धरती माँ के प्रति श्रद्धा की अभिव्यञ्जना अलग अलग परिक्षेत्र में विविध रूपों में होती है और इन सब का आधार बनती है कला।कला से माँ का श्रृंगार कर मानस को आध्यात्मिक आलम्बन मिलता है। विविध त्यौहारों पर धार्मिक भावना का प्रगटन विविध कलात्मक स्वरूपों से दृष्टिगत होता है।
कलात्मक महत्ता स्थापित करती रीतियाँ व पर्व (Rituals and festivals establishing artistic importance) –
माँ भारती का श्रृंगार भूमि व भित्ति के विविध श्रंगारों में विविध पर्वों पर स्वाभाविक रूप से दिखाई पड़ता है। कुछ को यहाँ उल्लिखित करने का प्रयास है यथा
1 – रंगोली – भारत के विभिन्न प्रान्तों में रंगोली के विविध स्वरुप दृष्टिगत होते हैं वर्तमान में रंगोली बनाने हेतु गेहूँ या चावल का आटा, हल्दी, विभिन्न रंगों के लकड़ी व पत्थर के बुरादे, अबीर, गुलाल, खड़िया, विविध भूसी, विविध रंगीन चूर्ण आदि प्रयुक्त होता है। इस माध्यम से भूमि को विविध रूप अलंकृत करते हैं इनमें पत्तियों, फूलों, बेलबूटों, मङ्गलमय प्रतीकों का प्रयोग दीख पड़ता है लेकिन इस माध्यम से ईश्वर का स्वागत (Welcome to God) अभिव्यंजित होता है। विकीपीडिया के अनुसार –
“रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा और लोक कला है अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है।”
2 – माण्डना – यह राजस्थानी लोक कला का बेहतरीन उदाहरण है वहाँ मेहँदी माण्डने की प्रथा भी पुरातन काल से प्रचलित है विवाहित, कुँवारियाँ विविध त्योहारों पर हाथ, पैरों पर मेहँदी माण्डने का कार्य उत्साह पूर्वक करती रही हैं आज यह शरीर के विविध अंगो तक विस्तार प् चूका है और पुरुष भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। राजस्थान में विविध पर्वों, विवाह समारोहों,और उत्सवों में आज भी इसकी धूम देखी जा सकती है। यह आलेखन केवल भूमि तक सीमित नहीं है बल्कि दीवारों,खम्भों,वाहनों आदि पर भी इन्हें बनाया जाता है। दीवाली पर चमकदार रंगों से और होली पर विविध अबीर ,गुलाल व् अन्य रंगों तक से यह चित्रण किया जाता है।
3 – अल्पना – इसमें ज्यामितीय चित्रण की प्रधानता रहती है बंगाल में इसका अधिक प्रचलन है गीली खड़िया, पत्र रस, हल्दी, चावल का अहपन आदि से विभिन्न त्यौहारों पर दीवारों पर देवी देवताओं का चित्रण किया जाता है। विधिवत पूजा भी की जाती है।
4 – गोदना – शरीर की खाल पर गुदना गुदाने की प्रथा बहुत प्राचीन है इसमें कुछ भी चित्रित करवाया जा सकता है अपने ईष्ट का चित्र, नाम, गहना, पुष्प, बेल बूटे, कुल देवता, विविध वंशों से जुड़े चित्र, विविध पर्वों के आराध्य आदि।
5 – साँझी – यह कला उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में अधिक प्रचलित है इसमें सम्पूर्ण चित्रण गोबर की पतली पतली बत्तियों के माध्यम से किया जाता है इससे सम्पूर्ण आकृति को पूर्ण कर लिया जाता है और पत्तियों व गहनों का प्रयोग कर उसे और प्रभावी बनाया जाता है विविध फिल्मों में आपने ये आकृतियाँ देखि होंगी। नवरात्रि के देवी स्वरुप की परम्परागत रूप से साँझी के माध्यम से आज भी बनाया और पूजा जाता है।
6 – विविध पर्वों पर विशिष्ट कलात्मक चित्रण –
भारत में यूँ तो विविध पर्वों की लम्बी श्रृंखला कला से युक्त रही है यहाँ कुछ को देने भर का प्रयास है।
i – अहोई
ii – करवा चौथ
iii – गोवर्धन पूजा
iv – चित्र गुप्त पूजा
v – जन्माष्टमी
vi – दुर्गा पूजा
अन्ततः कहा जा सकता है कि भारत में पर्वों और कलाओं का अटूट सम्बन्ध है सामाजिक अभिव्यक्त का कलाएं प्रबलतम साधन हैं और भारत में उत्तरोत्तर आनन्द प्राप्ति का कला पवित्र साधन है। कला और पर्व का यह सम्मिलन हमें सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम्,से जोड़ता है।
मापन की दुनियाँ निराली है हमारी दृष्टि ,हमारा दृष्टिकोण जब परिमार्जित रूप से शोध का आधार तैयार करता है तब परम आवश्यक भूमिका का निर्वहन करते हैं आँकड़े। शोध हेतु सामाजिक, आर्थिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक जो आँकड़े प्राप्त होते हैं उनके आधार पर ही विविध मापन सम्भव होता है। इन्ही से व्यावहारिक विज्ञानों को आधार मिलता है। एस ० एस ० स्टीवेंस महोदय ने मापन को चार स्तरों में विभाजित किया है कुछ विज्ञ जनों ने इन स्तरों को स्केल कह कर वर्णित किया है जो इस प्रकार है –
1 – शाब्दिक स्तर (Nominal Level) or शाब्दिक पैमाना (Nominal Scale)
2 – क्रमिक स्तर (Ordinal Level) or क्रमिक पैमाना (Nominal Scale)
3 – अन्तराल स्तर (Interval Level) or अन्तराल पैमाना (Nominal Scale)
4 – आनुपातिक स्तर (Ratio Level) or आनुपातिक पैमाना (Nominal Scale)
डॉ अमरजीत सिंह परिहार ने मापन के इन चार स्तरों के आधार पर मापन के चार प्रकार इस प्रकार बताए हैं
1 – शाब्दिक मापन (Nominal Measurement)
2 – क्रमिक मापन (Ordinal Measurement)
3 – अन्तराल मापन (Interval Measurement)
4 – आनुपातिक मापन (Ratio Measurement)
अधिगम व अध्ययन के दृष्टिकोण से विभिन्न स्तरों को इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है
1 – शाब्दिक स्तर (Nominal Level) –
इस स्तर पर केवल गुण को ध्यान में रखा जाता है चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। इसे नामित और वर्गीकृत स्तर भी कहा जाता है। व्यावहारिक विज्ञानों में इस स्तर को प्रयोग में लाया जाता है उदाहरण के रूप में रहने या निवास के आधार पर शहरी या ग्रामीण, लिङ्ग के आधार पर महिला पुरुष , अध्ययन हेतु स्नातक स्तर पर कला, विज्ञान, वाणिज्य वर्ग में विभाजित करना। इसी तरह अगर बरेली को सुरक्षा के दृष्टिकोण से 5 भागों में बांटना हो और समस्त मोहल्लों को 5 भागों में बाँटकर बरेली-1, बरेली -2, बरेली – 3, बरेली – 4, बरेली – 5 आदि नाम दिय जाए तो इसे नामित या शाब्दिक स्तर कहेंगे।
अतः यहाँ यह कहा जा सकता है कि गुणात्मक चरों के आधार पर मापन का यह स्तर शाब्दिक स्तर (Nominal Level) कहलाता है।
2 – क्रमिक स्तर (Ordinal Level) –
इस स्तर में गुण के आधार पर प्राणी या वस्तु का मापन करते हैं और इस आधार पर वर्ग विशेष को संकेत या नाम दे दिया जाता है। इस मापनी में विशेषताओं या योग्यताओं के आधार पर एक क्रम आरोही या अवरोही बना लिया जाता है। इसी आधार पर श्रेणी या विशेष क्रम प्रथम, द्वित्तीय, तृतीय आदि विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में प्रदान किया जाता है।इस क्रमित मापनी को कोटिकरण मापनी या क्रम सूचक मापनी भी कहते हैं। श्रेष्ठता के आधार पर विश्व सुन्दरी, खिलाड़ी,नौकरी हेतु चयन, विविध सेवाओं में चयन में यही आधार बनाता है।
3 – अन्तराल स्तर (Interval Level) –
इसे मापन के स्तरों में तृतीय स्थान प्रदान किया गया है इसमें ऊपर के दो स्तरों में सुधार किया गया है यद्यपि यह वास्तविक शून्य से प्रारम्भ नहीं होता लेकिन अन्तराल बराबर रखा जाता है इसका बहुत अच्छा उदाहरण थर्मामीटर है वास्तव में अन्तराल मापनी में वस्तु या प्राणी के किसी गुण का मापन इकाइयों के माध्यम से किया जाता है। इनमें दो लगातार अंकों के बीच समान अन्तर रहता है।इस मापनी के द्वारा सापेक्षिक मापन(Relative measurement) किया जाता है न कि निरपेक्ष मापन (Absolute measurement)।
4 – आनुपातिक स्तर (Ratio Level) –
यह उक्त तीनों मापनियों से उच्च स्तर की है इसमें उक्त तीनों की विशेषताएं समाहित रहती हैं वास्तविक शून्य बिन्दु मौजूद रहता है और यह शून्य बिन्दु कल्पित नहीं होता। लम्बाई, दूरी, भार आदि के मापन हेतु हम यहीं से प्रारम्भ करते हैं वास्तविक शून्य बिन्दु ही अनुपात मापनी का प्रारम्भिक बिंदु मन जाता है। इस मापन द्वारा प्राप्त संख्यात्मक मान बताता है कि यह दूरी उसकी दो गुनी या चार गुनी है। इसकी लम्बाई उसकी आधी है आदि अर्थात मापित शील गुणों के मध्य अनुपात इसके द्वारा प्राप्त संख्या द्वारानिर्धारित किया जाता है। उदाहरणार्थ यदि मेरा वजन 110 कि० ग्रा० और X महोदय का 55 कि० ग्रा० है तो हम दोनों का भार अनुपात 2 :1 हुआ। इस तथ्य से यह भी स्पष्ट होता है कि यह स्तर केवल भौतिक चरों का मापन कर सकता है अभौतिक का नहीं।
सम्पूर्ण विश्व और इसके विविध तत्व अपने आपको मापन से पृथक नहीं कर सकते। जहाँ परिमाण है, जहाँ अंक है, जहाँ तुलना है, MKS, FPS या CGS कोई भी प्रणाली हो गुण, अवगुण या मानवीय चेतना का कोई भी आयाम हो मापन की परिधि में आ जाता है।
वर्तमान काल जिसे हम विज्ञान का युग कहते हैं इसकी सम्पूर्ण प्रगति का आधार यह मापन ही है।जन्म से मृत्यु तक हर आयु वर्ग में समय, दूरी, गति, धन, नौकरी, व्यवसाय, कालांश,अध्ययन, न्यादर्श हर जगह मापन है। मापन हमारे साथ इस तरह सन्नद्य है कि हम चाह कर भी इससे अलग नहीं हो सकते। मीठा, नमकीन, ऋतु परिवर्तन, पृथ्वी परिभ्रमण सम्पूर्ण प्रकृति इसके आगोश में अपने को सुगम बनाती है। रॉसमहोदय ने तो यहाँ तक कहा –
“If all the instruments and means of measurement were to disappear from this world, modern civilization would collapse like a wall of sand.”
आज के सभी गैजेट्स और हमारी पूरी दिनचर्या मापन से युक्त हैं।
MEANING AND DEFINITION
आशयवपरिभाषा –
यद्यपि मापन को परिभाषा में बाँधना या अभिव्यक्त करना एक दुष्कर कार्य है लेकिन अधिगम योग्य बनाने हेतु कहा जा सकता है कि परिमाणात्मक रूप से अपने अवलोकन को अभिव्यक्त करना ही मापन है। वास्तव में मापन भौतिक पदार्थ की विशेषता या गुण को अंकात्मक मान प्रदान करना है। किसी व्यक्ति के गुण, बुद्धि, मानसिक स्तर या किसी भी तुलना हेतु महत्त्व पूर्ण कारक मापन है।
“Measurement is the process of assigning symbols to dimensions of a phenomenon in order to characterise the status of the phenomenon as precisely as possible.” – Bradfield and Mordock
“Measurement has been defined as the process of obtaining a numerical description of the extent to which a person or thing possesses some characteristics.”
उक्त परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मापन से वस्तुओं, व्यक्तियों को गुण धर्मों के आधार पर अंक, शब्द, अक्षर या संकेत प्रदान किये जाते हैं।
Functions of Measurement/ मापनकेकार्य –
1 – शीलगुणनिर्धारण।/ Determination of Trait
2 – तुलना / Comparison
3 – भविष्यकथन /Prediction
4 – वर्गीकरण / Classification
5 – निदान / Diagnosis
6 – निर्देशनवपरामर्श / Guidance and Counseling
7 – शोध / Research
उक्त सम्पूर्ण विवेचन यह स्पष्ट करता है कि ज्ञान के परिक्षेत्र में जो भी नए नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं मापन भी अपने परिक्षेत्र का तदनुरूप विस्तार व रूप परिवर्तन करता जा रहा है।
यहाँ एक बात पूर्ण रूप से स्पष्ट करना परम आवश्यक है कि यहाँ हम उस मीमांसा दर्शन की बात करने नहीं जा रहे हैं जो भारतीय दर्शनों में कर्मकाण्ड द्वारा उद्भवित दर्शनों में गिना जाता है। यहां केवल यह बताने का प्रयास है कि एम एड का विद्यार्थी विभिन्न दर्शनों की तत्त्व मीमांसा(Meta Physics), ज्ञान व तर्क मीमांसा(Epistemology and Logic), मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) कैसे करे। परीक्षा में पूछे गए प्रश्न में प्रदत्त दर्शन की उक्त मीमांसाएं कैसे लिखकर आए।
तत्त्व मीमांसा, ज्ञान व तर्क मीमांसा, मूल्य व आचार मीमांसा
(Meta Physics, Epistemology and Logic, Axiology and Ethics)
भारतीय दार्शनिक मुख्यतः उक्त मीमांसाओं के माध्यम से किसी भी दर्शन का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने की आशा उच्च शिक्षा के विद्यार्थी से करते हैं अतः यह जानना तर्क संगत होगा कि उक्त के तहत विविध दर्शनों की व्याख्या करते समय किन बातों का विशेषतः ध्यान रखा जाए। यहां हम एक एक करके इनके बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
1 – तत्त्व मीमांसा (Meta Physics) –
जब किसी भी दर्शन की तत्त्व मीमांसा करनी होती है है तो मुख्यतः ब्रह्माण्ड के वास्तविक स्वरुप व मानवीय जीवन की तात्त्विक विवेचना की जाती है मानव जीवन के मूल उद्देश्य व उनकी प्राप्ति के साधनों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है कोई भी शिक्षा दर्शन इसमें क्या भूमिका निर्वाहित कर सकता है, तय किया जाता है वास्तव में तत्त्व मीमांसा का क्षेत्र अत्याधिक व्यापक है इसमें सृष्टि के सम्बन्ध में तत्त्व ज्ञान अर्थात सृष्टि शास्त्र (Cosmogony), सृष्टि विज्ञान (Cosmology) और सत्ता विज्ञान (Ontology) का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत सृष्टि – सृष्टा, आत्मा -परमात्मा और जैविक जगत के साथ मानवीय जीवन की विवेचना की जाती है साथ ही अब तक जो भी सोचा विचारा और शोधा जा चुका है सभी की तात्त्विक विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की तात्विक विवेचना करते समय निम्न तथ्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए। –
01 – ब्रह्माण्ड का स्वरुप ?
02 – ब्रह्माण्ड का निर्माण व निर्माता ?
03 – ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व
04 – ब्रह्माण्ड का अन्तिम सत्य
05 – ब्रह्माण्ड के अस्तित्व की प्रकृति
06 – सृष्टि स्वरुप ?
07 – सृष्टि का निर्माण व निर्माता ?
08 – आत्मा – परमात्मा ?
09 – मानव का वास्तविक स्वरुप ?
10 – अन्तिम उद्देश्य व उद्देश्य की प्राप्ति ?
2 – ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic) –
जब किसी भी दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा की बात की जाती है तो उससे आशय उसमें निहित ज्ञान के वास्तविक स्वरुप तथा ज्ञान प्रदान करने वाले साधनों व विधियों से है वस्तुतः ज्ञान मीमांसा के परिक्षेत्र में मानवीय बुद्धि, उसके ज्ञान के स्वरुप ज्ञान की प्रमाणिकता, ज्ञान की सीमाएं, इसे प्राप्त करने की विधियाँ, ज्ञान प्राप्ति के साधन ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सम्बन्ध आदि की विवेचना की जाती है जब कि तर्क मीमांसा के परिक्षेत्र में विविध प्रमाणों, सत्य असत्य प्रमाण,तार्किक विधियों, सत्यता व भ्रम आदि की व्याख्या की जाती है तर्क व आज तक प्राप्त ज्ञान के आधार पर तार्किक विवेचना करते हुए सत्य को शोधा जाता है। सभी की ज्ञान व तर्क मीमांसा सम्बन्धी विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा करते समय निम्न तथ्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए। –
01 – ज्ञान का स्वरुप ?
02 – ज्ञान प्राप्ति के साधन ?
03 – ज्ञान प्राप्ति के स्रोत ?
04 – ज्ञान प्राप्ति की विधियाँ ?
05 – ज्ञेय और ज्ञाता सम्बन्ध ?
06 – स्मरण ?
07 – विस्मरण ?
08 – सत्य व असत्य ज्ञान का अन्तर ?
09 – ज्ञान की सत्य सिद्धि हेतु तर्क प्रमाणिकता के आधार ?
10 – विविध तर्क विधियाँ ?
3 – मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) –
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि किसी भी दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा उसकी तत्व मीमांसा पर ही आधारित होती है किसी भी समाज के शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्य क्रम, शिक्षण विधियां, अनुशासन, शिक्षक व शिक्षार्थी सम्बन्धी विविध विचार मूल्य व आचार मीमांसा से ही अनुप्रेरित होते हैं कोई भी समाज अपनी नैतिकता की पराकाष्ठा हेतु विविध सामयिक मूल्यों की स्थापना पर पूरा ध्यान केंद्रित करता है और उनको स्थापित करना चाहता है। मूल्य व आचार मीमांसा के अन्तर्गत मानव समाज के जीवन हेतु आदर्श मूल्यों को विवेचित किया जाता है मूल्य विचारों और व्यवहारों को निर्देशित करते हैं नियन्त्रित करते हैं हमारा आचरण इन्ही मूल्यों को परिलक्षित करता है जीवन में कौन से कार्य किये जाने योग्य हैं और कौन से कार्य त्याज्य हैं इनका निर्धारण नीति शाश्त्र के अन्तर्गत आता है।सभी की मूल्य व आचार मीमांसा सम्बन्धी विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा करते समय निम्न तथ्यों का चिन्तन किया जाना चाहिए। –
01 – मानवीय जीवन उद्देश्य
02 – मूल उद्देश्य प्राप्ति साधन
03 – साध्य साधन सम्बन्ध
04 – उद्देश्य प्राप्ति उपाय
05 – मूल्य वरण
06 – शाश्वत मूल्य समझ
07 – नैतिकता
08 – उच्च नैतिक मानदण्ड स्थापन हेतु आवश्यक मूल्य
09 – करने योग्य कर्म
10 – त्याज्य कर्म
उक्त तत्त्व मीमांसा, ज्ञान व तर्क मीमांसा, मूल्य व आचार मीमांसा को बार बार पढ़कर हृदयंगम करना है लेकिन यह याद रहे की सम्यक मीमांसा करने हेतु उस दर्शन का गहन अध्ययन परमावश्यक है जब तक दर्शन को भली भाँति अधिगमित नहीं किया जाएगा तब तक सम्यक मीमांसा करना सम्भव नहीं होगा।
कभी कभी हम किसी को देखकर अनायास ही कह उठते आज आप बहुत तरोताज़ा दिख रहे हैं जवाब मिलता है आज वास्तव में पूरी गहरी नींद लेने को मिली है। सचमुच नींद किसी वरदान से कम नहीं कही जा सकती। एक अच्छी नींद शरीर के सभी अंगों हेतु टॉनिक का काम करती है जब हम सोते हैं तो हमारे शरीर के कई अंग विषाक्त पदार्थों को साफ़ करते हैं नींद शरीर के अन्दर के भागों के साथ त्वचा हेतु भी बहुत आवश्यक है। हमारे आँख बन्द करने से शरीर के दूसरे अंग आम करना बन्द नहीं करते। नाइट शिफ्ट में काम करने वाले मेहनतकश विविध स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते रहते हैं।
नींदसेआशय / Meaning of sleep –
विकिपीडियाकेअनुसार –
“निद्राएक उन्नत निर्माण क्रिया विषयक (एनाबोलिक) स्थिति है, जो विकास पर जोर देती है और रोगक्षम तन्त्र (इम्यून), तंत्रिका तंत्र, कंकालीय और मांसपेशी प्रणाली में नई जान दाल देती है सभी स्तनपायियों में, सभी पक्षियों और अनेक सरीसृपों, उभयचरों और मछलियों में इसका अनुपालन होता है।”
एक अन्य परिभाषा के अनुसार –
“निद्राअपेक्षाकृत निलंबित संवेदी और संचालक गतिविधि की चेतना की एक प्राकृतिक बार बार आने वाली रूपांतरित स्थिति है जो लगभग सभी स्वैछिक मांसपेशियों की निष्क्रियता की विशेषता लिए होता है।“
इतिहास वेत्ता डॉ ० निर्मल कुमार के अनुसार –
“निद्रा प्राकृतिक रूप से शरीर को तरोताज़ा रखने का उपाय है।”
जबकि डॉ ० कविता का मानना है -“निद्रा एक ऊर्जावान शक्ति के रूप में नई सुबह का आभास कराती है व अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु दृढ़ बनाती है।”
इसी क्रम में डॉ० शालिनी ने बताया -“शारीरिक व मानसिक टूटफूट को व्यवस्थित कर निद्राअग्रिम कार्यों हेतु स्वस्थ उपादान है।”
उक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से यह तो स्पष्ट है कि पूरी नींद शरीर हेतु आवश्यक है।
अनिद्राकेकारण –
अनिद्रा के बहुत से कारण हैं उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं –
01 – भूख से अधिक भोजन
02 – मानसिक तनाव
03 – परिश्रम की कमी
04 – प्रमाद
05 – गृह क्लेश
06 – अनियमित श्रम
07 – अंग्रेजी औषधि व कैफीन युक्त पदार्थों का अधिक सेवन
08 – चिन्ता
09 – उच्च आकांक्षा स्तर
10 – डर
11 – सन्तोष का अभाव
इस सम्बन्ध में एक कवि ने तो यहां तक कहा कि –
सरस्वती भूखी कविता है, लक्ष्मी को सन्तोष नहीं है।
और और की चाह और है मरघट आया होश नहीं है।
नींदपूरीनहोनेकेनुकसान –
01 – व्यवहार दुष्प्रभावित
02 – शारीरिक स्वास्थ्य ह्रास
03 – मानसिक स्वास्थय दुष्प्रभावित
गम्भीर चिन्तक डॉ ० जे ० पी ० गौतम का विचार है –
निद्रा वह दशा है जो व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक थकान को दूर कर नवऊर्जा के संचरण का कारण बनती है। “
04 – कार्य क्षमता ह्रास
05 – क्रोध वृद्धि
06 – अवसाद
07 – मानसिक तनाव
08 – निर्णयन दुष्प्रभावित
09 – स्मृति ह्रास
10 – दुर्घटना वृद्धि
11 – मोटापा
12 – व्याधि निमन्त्रण
13 – रोग प्रतिरोधी क्षमता में ह्रास
14 – सृजनात्मक चिन्तन ह्रास
भूगोल वेत्ता डॉ ० टी ० पी ० सिंह का विचार है –
“निद्रा मानव जीवन हेतु ऊर्जा का वह प्राकृतिक स्रोत है जो किसी भी जीव या मानव में पुनः ऊर्जा व्यवस्थापन करता है। “
15 – जैविक घड़ी दुष्प्रभावित
16 – थकान व निराशा
अच्छी नींद हेतु उपाय –
01 – शारीरिक श्रम
एक प्रमुख शिक्षाविद डॉ ० राज कुमार गोयल ने कहा –
“चेतन मन की क्रियाओं को निरन्तर सुव्यवस्थित रूप से करने हेतु महत्त्वपूर्ण साधन है निद्रा।”
02 – नियमित व्यायाम व भ्रमण
आँग्ल भाषा के विद्वान् डॉ ० एस ० डी ० शर्मा का विचार है –
“नींद शरीर की ऊर्जा को पुनर्जीवित करने का प्रमुख नैसर्गिक साधन है।”
03 – प्राणायाम व ध्यान
04 – तेल मालिश
05 – अँगुलियों के अग्र भाग पर दवाब
06 – गर्दन के पीछे अँगूठे से दबाना
07 – आराम दायक बिस्तर
08 – सोने जागने का समय निर्धारण
मेरे अनुसार –
जल्दी सोऊँगा जल्दी उठ जाऊँगा,
तेल मालिश करूँ, जोर अजमाऊँगा
है अखाड़े की मिट्टी बुलाती मुझे,
मैं वहाँ जाऊँगा हाँ वहाँ जाऊँगा।
09 – नशे से परहेज
10 – अंग्रेजी दवा व कैफीन का न्यूनतम प्रयोग
बचपन की याद मेरे शब्दों में –
बिन कहानी के दादी सुलाती न थीं
बिना पौ फटे वो जगाती न थीं
रात भर नींद तुमको क्यों आती नहीं
नींद की गोलियाँ तो जरूरी न थीं।
11 – स्वस्थ व सकारात्मक चिन्तन
12 – गरिष्ठ भोजन से बचाव
13 – सन्तुलित आहार
14 – स्वस्थ आदत निर्माण
मेरे विचार में –
रात भर जागने से क्या फ़ायदा, भोर का वक़्त निद्रा में खो जाएगा,
रात में नींद लेने का है क़ायदा, गर भूलोगे इसे भाग्य सो जाएगा।
15 – स्वास्थ्य मूल्य निर्धारण
कुछ आदतें ऐसी होती हैं जो जीवन बदलने की क्षमता रखती हैं और यदि आप इसे सम्पूर्ण देखते व पढ़ते हैं तो निश्चित रूप से आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन होगा। पूर्ण नींद न लेने के क्या नुकसान हैं। नींद न आने के क्या कारण हैं ?अच्छी नींद लाने के क्या उपाय हैं यह सब जानकर अपने जीवन में सार्थक परिवर्तन किया जा सकता है।