साधन है, वह साध्य नहीं है,

बोध कहीं क्यों, खो जाता है।

बड़े बड़ों का साम्य न रहता,

बुद्धि विवेक सब सो जाता है।

क्यों धन सर्वोपरि हो जाता है?

धन कृत्रिम, ध्रुव सत्य नहीं है,

भाव कहीं क्यों, खो जाता है।

नैतिकता का ध्यान न रहता,

काला स्याह मन हो जाता है।

क्यों धन सर्वोपरि हो जाता है ?

वह मृग तृष्णा है, सत्य नहीं है,

यह चिन्तन, क्यों खो जाता है।

माया का भ्रम जाल बस रहता,

सच धूमिल पर्दे में हो जाता है।

क्यों धन सर्वोपरि हो जाता है ?

स्वास्थय की सुधबुध ही नहीं है,

दौलत हित तन दौड़ा जाता है?

निज तनहित का ज्ञान न रहता,

मनुष्य मशीन सा, हो जाता है ? 

क्यों धन सर्वोपरि हो जाता है ?

धारित पद, गरिमा ही नहीं है ,

गलत सलत सब कर जाता है,

कोई ईष्ट फिर ध्यान न रहता,

भौतिकता में फँस खो जाता है।

क्यों धन सर्वोपरि हो जाता है ?

चैतन्य तो हैं, मर्यादित नहीं है,

दोहरा सा मानक हो जाता है।

सत्य का कोई संज्ञान न रहता ,

खुद का आत्मबल खो जाता है, 

क्यों धन सर्वोपरि हो जाता है ?

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