जीवन परिचय (Life Sketch)
स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ता के बंगाली कायस्थ परिवार में 12 जनवरी 1863 को हुआ ये कलकत्ता के उच्चन्यायालय में वकील पिता श्री विश्वनाथ दत्त व माता श्रीमति भुवनेश्वर देवी की सन्तान थे। इनके बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था धार्मिक प्रवृत्ति इन्हें विरासत में मिली थी। इनके प्रधानाचार्य मिस्टर हैस्टी ने इनके बारे में कहा –
”नरेन्द्र नाथ दत्त वस्तुतः प्रतिभाशाली है। मैंने विश्व के अनेक देशों की यात्राएं की हैं, किन्तु किशोरावस्था में ही इसके सामान योग्य एवम् महान क्षमताओं वाला युवक मुझे जर्मन विश्व विद्यालयों में भी नहीं मिला।”
इस बालक ने 7 वर्ष की आयु में पूरा व्याकरण रट डाला, 16 वर्ष की आयु में इन्होने मेट्रोपोलिटन कॉलेज से मेट्रिकुलेशन (हाई स्कूल ) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की अपने भाई भूपेन्द्र नाथ दत्त की तुलना में इन्होंने पाठ्य सहगामी क्रियाओं खेलकूद,व्यायाम, संगीत, नाटक आदि में बढ़ चढ़ कर भाग लिया बाद में ये प्रेसीडेन्सी कॉलेज व जनरल असेम्बली कॉलेज में पढ़े। कॉलेज के विषयों के साथ धर्म, दर्शन, साहित्य का भी अध्ययन किया 1884 में स्नातक होने से पहले स्वामी राम कृष्ण परमहंस से मुलाकात हुई और इनका जीवन बदल गया। दिव्य शक्तियों की अनुभूति इन्हें गुरुकृपा से हुई। गुरु परमहँस जी के दिवंगत होने पर इन्होंने उनकी शिक्षाओं का प्रसार किया।
31 मई 1893 को वे विश्व धर्म सम्मलेन में भाग लेने अमेरिका गए। जाने से पूर्व ही आप विवेकानन्द नाम से पहचाने जाने लगे थे। अमेरिका में हुए इनके अत्यन्त प्रभावशाली सारगर्भित वक्तव्य का सम्पूर्ण विश्व के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वेदान्त के प्रसार हेतु इन्होने इंग्लैण्ड की यात्रा की भारत आने पर सम्पूर्ण जीवन भारत को जाग्रत करने, संगठन व प्रचार कार्य में लगा दिया। 39 वर्ष की अलप आयु में 4 जुलाई 1902 को वेल्लूर मठ में मेधा के धनी इस विलक्षण व्यक्तित्व ने अन्तिम श्वांस ली।
जीवन दर्शन [Philosophy of Life]-
स्वामी विवेका नन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के ज्ञान दिव्यालोक से स्वयं को संयुक्त कर किसी भी सङ्कीर्णता को वरण नहीं किया उनका जीवन दर्शन वेदान्त से अनुप्राणित है वे ईश्वर से मानव को युक्त समझते थे उन्होंने एक व्याख्यान में कहा –
”जब हम दर्शन का अध्ययन हैं, तब हमें यह ज्ञात होता है की सम्पूर्ण विश्व एक है आध्यात्मिक, भौतिक, मानसिक तथा प्राणजगत ये भिन्न भिन्न नहीं है। समस्त यहां से वहां तक एक है, इतनी ही है की अलग अलग दृष्टिकोण से देखे जाने के कारण वह विभिन्न प्रतीत होता है।”
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इनका जीवन दर्शन दुरूह पथ पर चलने व समसामयिक झंझावातों से निवृत्त होने के लिए गौरवपूर्ण व प्रेरणास्पद मार्ग है इनके जीवन दर्शन को संक्षेप में इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है। –
01 – वे सृष्टि का कर्त्ता ब्रह्मा को मानते थे और विश्व को परमात्मा का व्यक्त रूप स्वीकारते थे।
02 – उनहोंने माया और जगत को भी सत्य माना और कहा कि भला सत्य से असत्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।
03 – विवेकानन्द जी सबसे बड़ा धर्म मानव मात्र की सेवा को मानते थे।
04 – योग,भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग को आत्मसात करते हुए उनकी स्वीकारोक्ति रही योग ज्ञान हेतु सर्वोपरि है।
05 – ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म इन चारों से आत्मानुभूति होती है जो मुक्ति हेतु परमावश्यक है।
06 – इन्द्रिय निग्रह तथा संयम, नैतिक विकास व ध्यान हेतु आवश्यक कारक हैं।
07 – वे ज्ञान के दो रूप, वस्तु जगत व आत्म तत्व को स्वीकारते हैं मानव को दोनों प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
08 – वे मानव मात्र को वीर व निर्भय बनाना चाहते हैं उन्होंने कहा –
”वीर बनो, हमेशा कहो, मैं निर्भय हूँ, सबसे कहो – डरो मत, भय मृत्यु है, भय पाप है, भय नर्क है, भय अधार्मिकता है, तथा भय का जीवन में कोइ स्थान नहीं है।”
”Be a hero, always say ‘I have no fear.’ Tell this to everybody -‘have no fear.’ To him fear is death, fear is sin, fear is hell, fear is unrighteousness and fear is wrong life.”
09 – इन्होंने प्रगति हेतु निरंतर संघर्ष का आवाहन किया ।
10 – इनके अनुसार इस जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति अथवा मुक्ति है।
शिक्षा दर्शन [Educational Philosophy]-
[1]- शिक्षा मात्र सूचना नहीं – ये मात्र सूचनाओं के संग्रहण को शिक्षा नहीं स्वीकारते, रटने की शक्ति को अनुचित ज्ञान स्वीकारते हुए ये कहते हैं –
”यदि तुम केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो। यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी होता, तब तो पुस्तकालय संसार के सबसे बड़े सन्त हो जाते और विश्वकोष महान ऋषि बन जाते।”
[2] – तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था से असहमति-
ये तत्कालीन मैकाले शिक्षा पद्धति के विरोधी थे जिसका उद्देश्य मात्र बाबुओं की संख्या वृद्धि था।
[3] – जीवन संघर्ष व चारित्रिक शिक्षा पर बल –
इन्होंने इन तत्वों की महत्ता स्वीकारते हुए और शिक्षा पर प्रश्न चिन्ह टाँगते हुए कहा –
”………..It prepares a man for social service, develops his character and finally imbues him with the spirit and courage of a lion. Any other education is worse than useless.”
” …… जो शिक्षा जन साधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती, जो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ है।”
[4] –आत्म निर्भरता –
ये चाहते थे की पढ़लिखकर अन्य गुण सीखने के साथ लोग आत्म निर्भर बनें, इसीलिये इन्होने कहा –
” हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।”
[5]- व्यावहारिकता पर बल –
विवेकानन्द जी सैद्धांतिक की जगह व्यावहारिक बनाने को शिक्षा का दायित्व मानते थे उन्होंने कहा –
” तुमको कार्य के हर क्षेत्र में व्यावहारिक बनाना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है ।”
”You will have to be practical in all spheres of work. The whole country has been ruined by maas of theories.”
[6] – ज्ञान बालक में निहित –
ये कहते हैं की बालक के मार्ग की बाधाओं के हटाने से ज्ञान का सामान्यतः प्रगटीकरण हो जाएगा वे कहते हैं –
”हमें बालकों के लिए इतना ही करना है की वे अपने हाथ, पैर, कान और आँखों के उचित उपयोग के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करना सीखें।”
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Principles of Educational Philosophy)-
माँ भारती का अमर पुत्र अपने पूर्वजों की थाती सँभाल, अतीत के ज्ञान का ज्योति कलश ले साधना के दुरूह पथ पर बढ़ा तो अनायास ही शिक्षा जगत को महान शिक्षा शास्त्री विवेकानन्द मिल गया उनके शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्तों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
[1]- शिक्षा को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास का महत्त्वपूर्ण कारक बनना चाहिए। [2] – शिक्षा से मन का बल और चरित्र का सौम्य सुगठन होना चाहिए। [3] – शिक्षा द्वारा बौद्धिक विकास और आत्मनिर्भर बनाने में योग दिया जाना चाहिए। [4] – व्यवहार, आचरण व संस्कारों से धार्मिक शिक्षा दी जाए पुस्तकों से नहीं। [5] – बिना भेदभाव के सामान शिक्षा बालक व बालिकाओं को दी जाए। [6] – लौकिक व आध्यात्मिक विषयों के सम्मिलन से पाठ्यक्रम सृजित किया जाए। [7] – मन, वचन, कर्म की शुद्धि से आत्म नियन्त्रण शिक्षा द्वारा सिखाया जाना चाहिए। [8] – शिक्षक व शिक्षार्थी में गरिमायुक्त श्रद्धा आधारित सम्बन्ध होने चाहिए। [9] – नारी शिक्षा धर्म केन्द्रित हो। [10] – तकनीकी व औद्योगिक शिक्षा के आधार से देश का समुचित विकास किया जाए।[11] – जन साधारण की शिक्षा व्यवस्था का सार्थक प्रयास होना चाहिए।
[12] – पुस्तक अध्ययन मात्र, शिक्षा नहीं कहा जा सकता।
[13] – ज्ञान अन्तर में निहित है शिक्षा द्वारा वातावरण सृजित होना चाहिए।
[14] – शिक्षक द्वारा बालक के मस्तिष्क में स्थित ज्ञान का पथ प्रदर्शन, मित्र व दार्शनिक के रूप में किया जाना चाहिए।
[15] – परिवार द्वारा राष्ट्रीय व मानवीय शिक्षा दी जानी चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द का शैक्षिक चिन्तन (Educational Thought of Swami Vivekanand )-
शिक्षा से आशय –
भारतवर्ष का मेरुदण्ड धर्म है इस आधार पर मानवजाति का प्रासाद खड़ा है इसके उत्तरोत्तर उन्नयन हेतु मनुष्य में निहित शक्तियों के पूर्ण विकास की आवश्यकता है जिसे शिक्षा पूर्ण कर सकती है इसी लिए इन्होंने कहा –
”शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है। “
”Education is the manifestation of the perfection, already present in man.”
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education) –
स्वामीजी भौतिक एवम् आध्यात्मिक सत्ता पर विश्वास करते थे ये भारत में ऐसा धर्म चाहते थे जो कमजोरी न पैदा करे उनका मानना था की इस विश्व में ‘नायमात्मा बलहीनेन लक्ष्यः’ ( The weak does not get anything in this world) अर्थात कमजोर को कुछ प्राप्त नहीं होता। उन्होंने शिक्षा के जिन उद्देश्यों पर बल दिया उसे इस प्रकार क्रमबद्ध कर सकते हैं –
(1) – शारीरिक विकास [Physical Development]
(2) – पूर्णत्व प्राप्ति [Reaching Perfection]
(3) – मानसिक व बौद्धिक विकास [Mental and Intellectual Development]
(4) – नैतिक व चारित्रिक विकास [Moral and Character Development]
(5) – व्यावसायिक विकास [Vocational Development]
(6) – धार्मिक विकास [Religious Development]
(7) – विभिन्नता में एकता [Unity with in Diversity]
(8) – आत्म विश्वास की भावना का विकास [Development of feeling Self Confidence]
”उठो जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तककि चरम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाए। ”
”Arise, awake and stop not till the goal is achieved”
(9) – राष्ट्रीयता का विकास [Development of Nationalism]
”जो शिक्षा देशभक्ति की प्रेरणा नहीं देती वह राष्ट्रीय शिक्षा नहीं कही जा सकती।”
”No education can be called national unless it inspires love for the country.”
पाठ्यक्रम(Curriculum)-
स्वामी विवेकानन्द ने सांसारिक समृद्धि हेतु विज्ञान, मनोविज्ञान,गृहविज्ञान, भाषा, प्राविधिक विषय, व्यावसायिक विषय, इतिहास, भूगोल, कला, गणित, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, खेलकूद, व्यायाम, समाज सेवा, राष्ट्रसेवा और आध्यात्मिक प्रगति हेतु दर्शन, पुराण, धर्म, उपदेश, भजन, कीर्तन, श्रवण तथा साधू सङ्गति को शामिल किया। उनके शब्दों में –
”हमें अपने ज्ञान के विभिन्न अंगों के साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमें प्राविधिक शिक्षा और उन सब विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है, जिनसे हमारे देश के उद्योगों का विकास हो और मनुष्य नौकरियां खोजने के बजाय अपने स्वयं के लिए पर्याप्त धन का अर्जन कर सकें और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सकें।”
शिक्षण विधि (Methods of Teaching) –
उनकी शिक्षण विधियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1-आध्यात्मिक उन्नयन हेतु
⧫स्वाध्याय विधि
⧫ध्यान विधि
⧫योग विधि
⧫मनन विधि
2-भौतिक प्रगति हेतु
⧫व्याख्यान विधि
⧫अनुकरण विधि
⧫निर्देशन व परामर्श विधि
⧫तर्क व विचार विमर्श विधि
⧫प्रदर्शन व प्रयोग विधि
शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में प्रो 0 लक्ष्मीनारायण गुप्त कहते हैं –
”शिक्षा की विधि में स्वामी विवेकानन्द का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उनकी शिक्षा विधि एक मात्र आध्यात्मिक कही जा सकती है, जिसका आधार धर्म है। इस विचार से उन्होंने धर्म की विशेष पद्धति को अपनाकर शिक्षा देने के लिए कहा।”
अनुशासन (Discipline)-
स्वामीजी के विचार अनुशासन के सम्बन्ध में प्रकृतिवादियों से मेल खाते हैं ये भी बालक को आत्म अनुशासन सिखाना चाहते हैं और उन्हें दिए जाने वाले किसी भी शारीरिक दण्ड का विरोध करते हैं। ये चाहते हैं कि बालक को पर्याप्त स्वतन्त्रता देने के साथ स्व अनुशासन की शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें सीखने हेतु सहानुभूति पूर्वक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अध्यापक (Teacher)-
स्वामीजी प्रेरक के रूप में अध्यापक को स्थान देते हैं उन्होंने कहा –
”वास्तव में, किसी को, किसी के द्वारा कभी शिक्षा नहीं दी गई है। हममें से प्रत्येक को अपने-आपको शिक्षा देनी पड़ती है। वाह्य शिक्षक केवल ऐसे सुझाव देता है जिससे आत्मा कार्य करने और समझने के लिए चैतन्य हो जाती है।”
वे अध्यापक से अपेक्षा करते हैं कि –
1 – अध्यापक परिश्रमी, संयमी, आत्मज्ञानी तथा आदर्श चारित्रिक गुणों से युक्त होना चाहिए जिससे बालक अनुकरण द्वारा आदर्श व्यक्ति बन सकें।
2 – ये बालक को आध्यात्मिक व लौकिक जीवन हेतु तैयार करना चाहते हैं इसी लिए अध्यापक को दोनों ज्ञान से युक्त होना चाहिए।
3 – ज्ञान प्राप्ति को अवरुद्ध करने वाली हर बाधा को दूर कर पाने में समर्थ ही अध्यापक बनना चाहिए।
4 – अध्यापक को संसार के प्रति सम्यक दृष्टिकोण स्थापित करने में समर्थ होना चाहिए।
5 – अधिगम कराने में व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
6 – अधिगम प्रभावशीलता में वृद्धि हेतु बालक से घनिष्ठ, व्यक्तिगत, स्नेह युक्त सम्बन्ध बनाना चाहिए।
7 – अध्यापक बालक को इस प्रकार के अवसर प्रदान करे जिससे अधिगम हेतु अधिक से अधिक इन्द्रिय का प्रयोग करना पड़े।
8 – बालक को ज्ञान युक्त करने की क्रिया में अध्यापक अपने को साधन समझे और दायित्व निर्वहन करे।
शिक्षार्थी (Student) –
शिक्षक और शिक्षार्थी का सम्बन्ध केवल लौकिक नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें एक दूसरे के दिव्य स्वरुप को देखना चाहिए।सीखने की प्रबल इच्छा व जिज्ञासा हेतु ब्रह्मचर्य एक विशिष्ट कारक है बालकों को ब्रह्मचर्य व ऐसी श्रद्धा से युक्त होना चाहिए अतीत और वर्तमान के संयोजन से सुफल प्राप्ति संयोग बन सके।इस गुण का सफल प्रतिनिधि मानते हुए जवाहर लाल नेहरू ने स्वामीजी के लिए कहा –
”Rooted in the past and full of pride in India’s prestige, Vivekanand was yet modern in his approach to life’s problems and was a kind of bridge between the past of India and her present.”
”मानव के अतीत में अडिग आस्था रखते हुए और भारत की विरासत पर गर्व करते हुए भी, विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक थे।”
इसीलिए वे बालक को आधुनिक दृष्टिकोण वाला संस्कृति का वाहक बनाना चाहते थे।
शिक्षालय (School)
स्वामीजी विद्यालय हेतु सर्वथा उपयुक्त स्थल गुरु गृह को मानते थे वे इस तथ्य को स्वीकार करते वर्तमान परिस्थिति में प्रकृति की गोद या कोलाहल से दूर का वातावरण मिलना दूभर है इसीलिए विद्यालय में अध्ययन, अध्यापन, व्यायाम, खेलकूद, भजन, कीर्तन, ध्यान आदि की सुविधा होनी चाहिए।
जन शिक्षा (Mass Education)
वे जनसाधारण की शिक्षा परमावश्यक मानते थे उनके भाव उनके इस विचार में दृष्टिगत होते हैं –
”मेरे विचार से जनसाधारण की अवहेलना करना महान राष्ट्रीय पाप और हमारे पतन का कारण है। जबतक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर अच्छी शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जाएगी, तब तक अधिक से अधिक राजनीति भी व्यर्थ होगी। वे हमारी शिक्षा के लिए धन देते हैं, वे हमारे मन्दिरों का निर्माण करते हैं, पर इनके बदले में उन्हें मिलता क्या है मात्र ठोकरें। वे हमारे दासों के समान हैं। यदि हम भारत का पुनरुत्थान करना चाहते हैं, तो हमें उनको शिक्षित करना होगा।”
महिला शिक्षा (Women’s Education)
वे समाज में स्त्रियों की दीन हीन दशा से बहुत खिन्न थे वे उन्हें परम आदर का पात्र बनाना चाहते थे और मानते थे कि नारी की प्रगति उचित शिक्षा के बिना सम्भव नहीं और देश की प्रगति नारी उत्थान के बिना सम्भव नहीं। इसीलिये उन्होंने कहा –
”पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब वे आपको बताएंगी की उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं ? उनके मामलों में बोलने वाले तुम कौन हो ?”
शिक्षा दर्शन का मूल्याङ्कन (Estimate of Educational Philosophy)-
स्वामी विवेकानन्द के अद्भुत विलक्षण व्यक्तित्व की क्रान्तिकारी उदात्त प्रवृत्ति में प्राचीन और आधुनिक भारतीयता के समन्वय का प्रगटन है दूसरी और ज्ञान, कर्म,भक्ति का अद्भुत समन्वय है इनके शिक्षा दर्शन में हमें अद्भुत सामन्जस्य दृष्टिगत होता है कर्म की श्रेष्ठता व संयम के आधार युक्त स्पष्टीकरण उन्हें सहज भारतीय उत्कृष्ट चिन्तक के रूप में स्थापित करता है उन्होंने कहा –
”आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शान्ति और निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का, तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शान्ति एवम् निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है -अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं।”