मुस्कुराता रहा हँस दिखाता रहा,
डगर गाँव की याद आती रही।
नौकरी की खातिर शहर जा रहा,
गाँव की मलिकी याद आती रही।
बन्द कमरे में ही मैं नहाता रहा,
गाँव की बारिशें याद आती रहीं।
बारिश में यहाँ तो छिपता रहा,
गाँव की छत मुझको बुलाती रही।
रौशनी में नहा खिलखिलाता रहा,
खोखली सी हँसी मनपे छाती रही।
तन नकली, खुशियाँ दिखाता रहा,
पर उदासी गहन मनपे आती रही।
खजूर बाजार से घरपे लाता रहा,
पर भुसौली सदा याद आती रही।
चार आमों से यहाँ मन भरता रहा,
आम बगिया मुझको बुलाती रही।
टी० वी० पे किस्से मैं लखता रहा,
गाँव की मण्डली याद आती रही।
अकेले ही ज्वर में, मैं तपता रहा,
गाँव की दादियाँ याद आती रहीं।
होटलों पे यहाँ मैं तो छकता रहा,
रोटियाँ वो, जेहन पे छाती रहीं।
रोटियों के लिए, चिल्लाता रहा,
मन ही मन, माँ याद आती रहीं ।
‘बेटा’सुनने को मैं छटपटाता रहा,
घर की दर कह बेटा बुलाती रही।
इस शहर की तपन में तपता रहा,
अमराइयाँ सहज ही बुलाती रहीं।
शहर में, मैं धन तो कमाता रहा,
उमर खर्च करने, की जाती रही।
अँधेरा.. उजाले को, डसता रहा,
कालिमा तन में डेरे लगाती रही।
मुस्कुराता रहा हँस दिखाता रहा,
डगर गाँव की याद आती रही।