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काव्य

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा ?

April 29, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सितम अपने अन्धड़ का अजमाइएगा,

वादा  खिलाफी  सिल-सिला  पाइएगा।

वो अरमाँ, वो वादे, रुठाए जो तुमने,

हर जगह बस वही सिसकियाँ पाइयेगा।

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।1।

अब खुशियों के वन में धुआँ पाइएगा,

निशाँ जिन्दा होने का,  ना  पाइएगा।

समय के वो हिस्से जिए थे जो हमने,

चन्द वादों में गुम हिचकियाँ पाइयेगा।

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।2।

बहारों  का जंगल न हरा पाइएगा,

वहाँ केवल बस वीरानियाँ पाइएगा।

जहाँ चन्द खुशियाँ टहलती थीं उनमें,

निशाँ अपने कदमों के देख आइएगा,

 अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।3।

इक – दूजे के दाने तो मत खाइएगा,

रौंद कर सब तमन्ना न मुस्काइएगा।

रुदन सिसकियाँ जो प्रगट की हैं तुमने,

उनमें न कभी कोई कमी पाइयेगा।

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।4।

कसम है तुम्हें न कफ़न लाइएगा,

करनी का फल बस देख आइएगा।

फसल स्वार्थ की जो उपजाई मन में,

उपजे तीक्ष्ण कण्टक सहम जाइएगा।   

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।5।

चन्द हसरत जरूरत कुचल जाइएगा,

दुआ है हमारी, बस दुआ पाइएगा।

थोड़ी श्वासें औ सपने चुराए जो तुमने,

सजा उनकी तुम न कभी पाइयेगा।    

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।6।

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दर्शन

VEDANT PHILOSOPHY

April 23, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

वेदान्त दर्शन

वेदान्त दर्शन का नाम लेते ही बोध हो जाता है कि इसमें वेद का अन्तिम भाग सामाहित है वेद के दो भाग हैं जिन्हे हम ब्राह्मण और मन्त्र नाम से जानते हैं यज्ञ अनुष्ठान आदि का वर्णन करने वाला भाग ब्राह्मण नाम से जाना जाता है और देवता की स्तुति में प्रयुक्त स्मारक वाक्य मन्त्र का बोध कराता है।इन मन्त्रों के समुदाय को संहिता नाम से जाना जाता है ऋक ,यजुः ,साम व अथर्व ये संहिता हैं अर्थात सभी मन्त्र ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद,और अथर्व वेद नामक संहिताओं में संकलित हैं ब्राह्मण भाग में कर्म काण्ड की और इस भाग में ज्ञान काण्ड की प्रमुखता है वेदों का अन्तिम भाग उपनिषद कहलाता है इसे वेदान्त भी कहते हैं।

बादरायण व्यास (चतुर्थ शताब्दी) द्वारा लिखे गए ‘ब्रह्म सूत्र ‘को वेदान्त का आदि ग्रन्थ माना जाता है इसके पश्चात इसपर विविध भाष्य ग्रन्थ लिखे गए और वेदांत की विविध शाखाओं उप शाखाओं का अभ्युदय हुआ जिसमें शंकर नवीं शताब्दी का अद्वैत, रामानुजाचार्य तेरहवीं शताब्दी का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य व निम्बार्क तेरहवीं  शताब्दी का द्वैत, श्री कण्ठ तेरहवीं शताब्दी का शैव विशिष्टाद्वैत, श्री पति चौदहवीं शताब्दी का वीर शैव विशिष्टाद्वैत और बल्लभाचार्य सोलहवीं शताब्दी का शुद्धाद्वैत प्रमुख है। इनमें शंकर और रामानुजाचार्य शिक्षा के दृष्टिकोण से प्रमुख स्वीकारे जाते हैं।

            किसी भी दार्शनिक विचारधारा को समझने के लिए उस दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics०), ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic), तथा मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को जानना आवश्यक है अतः पहले यही समझने का प्रयास करेंगे।

वेदान्त दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics of Vedant Philosophy)

शंकर के अनुसार ब्रह्म ही अन्तिम सत्य (Ultimate Reality) है जो ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण होने के साथ अनादि, अनन्त और निराकार है जगत नाशवान व असत्य है मानव ज्ञान का स्रोत व अनन्त शक्ति को धारण करने के साथ आत्मघाती है और आत्मा सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान है। शंकर के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है कि तुम (आत्मा) ब्रह्म हो। रामानुजाचार्य के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है ब्रह्म तथा ईश्वर एक है शंकर ने ब्रह्म को मूल तत्त्व व रामानुजाचार्य ने इसके तीन मूल तत्त्व स्वीकारे हैं -चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) और ब्रह्म (ईश्वर) । सृष्टि के विनाश होने पर चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और ईश्वर विशिष्ट ही शेष रह जाता है इसीलिये इसे विशिष्टाद्वैत दर्शन  कहते हैं। शंकर के दर्शन में ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण में भेद न होने के कारण इसे अद्वैत दर्शन कहते हैं।

वेदान्त दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of Vedant Philosophy)

शंकर का दर्शन ज्ञान को दो भागों में विभाजित करता है –

1 – परा (आध्यात्मिक) – इनके अनुसार पराविद्या ही मुक्ति का साधन बन सकती है वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, गीता आदि के ज्ञान को ये इस श्रेणी में स्थान देते हैं।

2 – अपरा (लौकिकव व्यावहारिक) – वस्तु जगत और मानव जीवन के विभिन्न पक्षों व ज्ञान को इन्होने अपरा की श्रेणी में रखा है जो मुक्ति का साधन कभी नहीं बन सकते।

रामानुजाचार्य महोदय ने भी ज्ञान को दो भागों में विभाजित किया है –

1 – धर्मी भूत ज्ञान – इनका इस ज्ञान से आशय कर्त्ता रूप ज्ञान से है।

2 – धर्म भूत ज्ञान – इस ज्ञान में ये कर्म में विद्यमान ज्ञान को समाहित करते हैं। ये आत्मोन्नति हेतु इस ज्ञान का समर्थन करते हैं।

वेदान्त दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics of Vedant Philosophy)

शंकर के अद्वैत दर्शन के अनुसार वर्णक्रम के प्रति निष्ठां से उद्देश्य प्राप्ति सुगम होती है अंतिम उद्देश्य मुक्ति को मानते हुए ये इसके दो विभाग करते हैं एक जीवन मुक्ति और दूसरे विदेह मुक्ति जीवन मुक्ति से आशय है कि जीवन जीते हुए कर्म फल से अनासक्त होना। विदेह मुक्ति से आशय आवागमन के चक्कर से मुक्ति से है अर्थात जीवन के अन्त में ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति।

रामानुजाचार्य महोदय भी शंकर की भाँति जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति ही मानते हैं लेकिन ये जीवन मुक्ति को मुक्ति स्वीकार नहीं करते उनकी दृष्टि में ब्रह्म (ईश्वर) की प्राप्ति ही मुक्ति है जो भक्ति से मिलती है।

वेदान्त दर्शन की परिभाषा / Definition of of Vedanta philosophy –

वेदान्त दर्शन को प्रो ० रमन बिहारी लाल ने बहुत सरल शब्दों में यूँ संजोया है –

“वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर (ब्रह्म) द्वारा निर्मित मानती है और उसे इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण  मानती है यह आत्मा को ब्रह्म का अंश मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है जिसे ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग और भक्ति योग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।” 

“Vedanta philosophyis that school of Indian philosophy which considers this universe to be created by God (Brahm) and considers it to be the cause of the condition, origin, and rhythm of this universe. It considers the soul as a part of Brahma and it renders that man The ultimate aim of life is salvation which can be achieved through Jnana Yoga, Karma Yoga, Raja Yoga, and Bhakti Yoga.”

वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्त / Basic principles of Vedanta philosophy –

वेदान्त दर्शन के मूल तत्वों व सिद्धान्तों को इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –

1 – ब्रह्माण्ड ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित /Universe created by Brahma (God)

2 – ब्रह्म और जगत में ब्रह्म विशिष्ट /Brahma special in Brahma and the world

3 – आत्मा के ब्रह्म अंश सम्बन्धी विचार /Thoughts on the Soul as the Part of Brahma

4 – मनुष्य अनन्त ज्ञान और शक्ति का स्रोत / Man is the source of eternal knowledge and power

5 – मनुष्य का विकास उसके कर्मों पर निर्भर / Development of man depends on his deeds

6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति / Salvation is the ultimate aim of human life

7 – ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग के साथ साधन चतुष्टय आवश्यक /

      Along with Gyan Yoga, Bhakti Yoga, Karma Yoga, Sadhana Chatushtaya is essential. 

8 – ज्ञान हेतु श्रवण, मनन, निदिध्यासन आवश्यक / Listening, meditation, Nididhyasan is necessary for knowledge

9 – उत्तम श्रवण, मनन, निदिध्यासन हेतु साधन चतुष्टय आवश्यक / Sadhana Chatushtaya is necessary       for good hearing, meditation and Nididhyasan.

            i – नित्य अनित्य विवेक 

ii – भोग विरक्ति

iii – शम दम संयम

iv – मुमुक्षत्व

वेदान्त दर्शन और शिक्षा / Vedanta philosophy and Education

आज विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भारत शिक्षा पर खुल कर विचार करता है और नए नए आयामों के शिखर को छूने का प्रयास कर रहा है लेकिन हम भारतीय आज भी जड़ों से नहीं कटे हैं। और जीवन की समग्रता पर विचार करने वाले शंकराचार्यजी और रामानुज सरीखे विद्वानों के कथनों का विश्लेषणात्मक अध्ययन कर वेदान्त दर्शन के गूढ़ तत्वों का मनन करते हैं। यद्यपि इन्होने शिक्षा पर स्वतंत्र रूप से विचार से नहीं किया है लेकिन इनका मीमांसात्मक विवेचन आज के मानव को सार्थक शिक्षात्मक दिशा देने में सक्षम है।

शिक्षा का सम्प्रत्यय / Concept of Education  –

शंकर का स्पष्ट रूपेण मानना है की शिक्षा का परम उद्देश्य मुक्ति प्रदान करना है जब मानव में नित्य अनित्य विवेक जागृत हो जाता है और वह समझ जाता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत नश्वर है वह सबमें स्वयं को और स्वयं में सबको देखने लगता है। शिक्षा अपने उद्देश्य की और अग्रसारित हो जाती है अर्थात वे  छान्दोग्य उपनिषद का सा विद्याया विमुक्तए का समर्थन करते हैं और शिक्षा को मुक्ति का साधन मानते हैं।

शिक्षा के अंगों पर प्रभाव / Impact on education
शिक्षा के उद्देश्य / Aims of Education

ये जीवन के दो पक्ष परा (आध्यात्मिक) और अपरा (व्यावहारिक) स्वीकारते हैं और जीवन के उद्देश्यों को इसी आधार पर गठित करते हैं जिसे इस प्रकार दर्शा सकते हैं –

परा (आध्यात्मिक) उद्देश्य –

1 – मुक्ति का उद्देश्य

अपरा (व्यावहारिक उद्देश्य) –

1 – शारीरिक विकास

2 – मानसिक विकास

3 – नैतिक विकास

4 – वर्ण के अनुसार शिक्षा

5 – साधन चतुष्टय प्राशिक्षण

6 – सर्वाङ्गीण व्यक्तित्व विकास

7 – ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति

पाठ्यक्रम

शंकर के अनुसार परा एवं अपरा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विविध विषयों का समर्थन करते हैं यथा आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु साहित्य, धर्म, दर्शन जैसे परमार्थिक विषयों को शामिल करना चाहते हैं और परमार्थिक क्रियाओं अर्थात अष्टांग योग का समर्थन करते हैं।

परा (व्यावहारिक) उत्थान हेतु भाषा, चिकित्सा शास्त्र, वर्ण क्रम, गणित के साथ व्यायाम, आसन, ब्रह्मचर्य को भी शामिल करना चाहते हैं।

रामानुजाचार्य के विचार आधुनिक विचार धारा का समावेशन करते प्रतीत होते हैं इनके अनुसार सभी जीव ईश्वर की अनुपम रचनाएँ हैं इनमें वर्ण के अनुसार भेद न करना चाहिए कर्म के अनुसार भेद स्वाभाविक रूप से दृष्टिगत होगा ही। अतः स्वकर्म के कुशलता पूर्वक सम्पादन हेतु कर्मानुसार समान शिक्षा का विधान होना चाहिए।

शिक्षण विधियाँ / Teaching Methods

इन्होने अपने शिक्षण उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों का चयन किया जिन्हे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –

i – प्रश्नोत्तर विधि

ii – प्रवचन विधि

iii – व्याख्या विधि

iv – स्वाध्ययन विधि

v – प्रत्यक्ष विधि

vi – श्रवण, मनन,निदिध्यासन विधि 

vii – अध्यारोप – अपवाद विधि

viii – विश्लेषण विधि

अनुशासन / Discipline –

ये आत्म अनुशासन को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार एकाग्रता ही सच्चा अनुशासन लाती है। जब मन, बुद्धि,अहंकार, पर आत्म नियन्त्रण स्थापित हो तो अनुशासन होगा। जब बिना किसी बाहरी दवाब के अपने आत्म तत्त्व से प्रेरित होकर सदमार्ग का अनुसरण किया जाए तब सच्चा अनुशासन स्थापित होगा। शंकर की दृष्टि से सच्चा अनुशासन तभी स्थापित होगा जब अष्टांग के योग  मार्ग का अनुसरण होगा।

शिक्षक और शिक्षार्थी / Teacher and Learner

वेदान्त दर्शन की उपादेयता इस सम्बन्ध में विशिष्ट है शङ्कर का स्पष्ट मानना है की गुरु अपने विद्यार्थी को व्यावहारिक जीवन की शिक्षा दे और साथ ही यह बोध कराये कि वह ब्रह्म है। ‘तत्त्व मसि’ अर्थात तू ही ब्रह्म है अन्ततः शिक्षार्थी यह महसूस करेगा कि ‘अहम् ब्रहास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ।

रामानुजाचार्य के विचार इस सम्बन्ध में पृथक हैं ये मानते हैं की कोइ पूर्ण नहीं हो सकता ,शिक्षक भी। शिक्षक को फिर भी ज्ञान व आचरण हेतु उत्कृष्ट प्रयास निरन्तर करते रहने चाहिए।

वेदान्त के अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी अनन्त ज्ञान और ऊर्जा का स्रोत है और उनमें भिन्नता कर्म की भिन्नता के कारण ही दृष्टिगत होती है।शंकर के अनुसार ब्रह्म की प्राप्ति हेतु इच्छुक छात्रों को साधन चतुष्टय का अनुपालन करने के साथ गुरु में श्रद्धा, भोग से विरक्ति, इन्द्रिय निग्रह, मन की एकाग्रता के गुणों में उत्तरोत्तर प्रगति के प्रयास अवश्य करने चाहिए।

शिक्षालय / School

नगर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक सुरम्य वातावरण से युक्त गुरु गृह ही उस काल के विद्यालय थे। व्यावहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा समुदायों और गुरुकुलों में दी जाती थी। यहाँ जीवन मुक्ति और साधन चतुष्टय पुष्पित पल्लवित करने के सार्थक प्रयास होते थे।

वेदान्त दर्शन का मूल्याङ्कन / Evaluation of Vedanta Philosophy

किसी भी दर्शन का मूल्याङ्कन उसके गुण दोषों के आधार पर किया जाता है और सामान्यतः उस काल विशेष के विशिष्ट कालखण्ड की जगह आज के अनुसार समीक्षा की जाती है आइए इस दर्शन के गन दोषों पर विचार करते हैं।

A – वेदान्त दर्शन के गुण

1 – व्यावहारिकता

2 – इहलोक और अध्यात्म का समन्वय

3 – गुरु शिष्य आदर्श सम्बन्ध

4 – उच्च आदर्श अनुपालन

5 – शिक्षण विधियां

6 – मूल्य बोध 

B – वेदान्त दर्शन की सीमायें

1 – जन शिक्षा का अभाव                                2 – अध्यात्म पर अधिक बल

उपसंहार / Epilogue

भारत में शङ्कर के बाद जो भी दार्शनिक विचार धारा फलीफूली उस पर वेदान्त का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अद्यतन काल तक की विकास यात्रा के प्रमुख चिन्तक दयानन्द सरस्वती, मोहन दास करम चन्द्र गाँधी, विवेकानन्द, रबीन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द घोष सभी कहीं न कहीं वेदान्त से प्रभावित रहे हैं।  किसी को योग क्रिया अच्छी लगती है ,कोई  व्यावहारिकता तो कोई इसके मूल्यों पर नत मस्तक है।

वास्तव में वेदान्त समग्र दृष्टिकोण है समस्त धर्म व दर्शन इसकी प्रस्फुटित शाखाएं हैं  इसे सार्वभौम व सार्वकालिक दर्शन कहना न्याय सांगत होगा। आज हम जिस धर्म निरपेक्ष, समाजवादी और वर्गहीन व्यवस्था की बात करते हैं उसके बीज इसमें संरक्षित हैं। आज की शिक्षा यदि वेदान्त पर आधारित हो तो मन्तव्य प्राप्ति अपेक्षाकृत सुगम हो जाएगी।

  
 
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दर्शन

YOGA AND EDUCATION

April 10, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


योग और शिक्षा

योग एक भारतीय दर्शन है यह प्रतिनिधि दर्शन की श्रेणी में आता है योग दर्शन तीन मार्गों का प्रमुखतः निर्देशन प्रदान करता है ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। व्यक्ति को अपनी क्षमता, अभिरुचि, योग्यता के आधार पर स्व हेतु मार्ग का चयन करना चाहिए। इसके अष्टांग मार्ग का विवेचन पहले ही educationaacharya.com  किया जा चुका है।

योग दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतञ्जलि के नाम पर इसे पातञ्जल दर्शन भी कहा जाता है। भारत में योग दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ  पातञ्जलयोग सूत्र(महर्षि पतञ्जलि),

तत्व वैशारदी (वाचस्पति मिस्र), व्यास भाष्य (महर्षि व्यास), भोज वृत्ति( महाराजा भोज -धारा नरेश), योग वार्तिक (विज्ञान भिक्षु ), छाया (नागेश भट्ट ), योग सार संग्रह (विज्ञान भिक्षु )हैं।

योग दर्शन से आशय (Meaning of yoga philosophy) –

भारतीय आस्तिक षडदर्शनों में से एक है योग दर्शन,महर्षि पातञ्जलि इसके प्रमुख प्रणेता हैं यह दर्शन सांख्य दर्शन के पूरक के रूप में भी जाना जाता है। इस दर्शन का मुख्य लख्य मानव को मोक्ष या परमआनन्द से जोड़ना है। प्रो।  रमन बिहारी लाल जी ने योग दर्शन को पारिभाषित करते हुए बताया –

“योग दर्शन भारतीय दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर द्वारा प्रकृति एवं पुरुष के योग से निर्मित मानती है और यह मानती है कि  प्रकृति, पुरुष व ईश्वर तीनों अनादि और अनन्त हैं। यह  ईश्वर को कर्मफल के भोग से मुक्त और आत्मा को कर्म फल का भोक्ता मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन काअन्तिम उद्देश्य परमानन्द अनुभूति है जिसे अष्टांग योग साधन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”

आँग्ल भाषा में इसे इस प्रकार अनुवादित कर सकते हैं –

“Yoga Darshan is that ideology of Indian philosophy which believes that this universe is created by God from the combination of Prakriti and Purusha and believes that Prakriti, Purush and God all three are eternal and infinite. It regards God as free from the enjoyment of the fruits of action and the soul as the enjoyer of the fruits of action and renders that the ultimate aim of human life is the feeling of ecstasy which can be achieved by means of Ashtanga Yoga.”

 योग दर्शन को अधिगमित करने हेतु यह परमावश्यक होगा की इसकी विविध मीमांसाओं को जान लिया जाए यहां क्रमशः समझने का प्रयास है –

(A)-योग दर्शन की तत्व मीमांसा (Metaphysics of yoga philosophy) –

सांख्य दर्शन की भाँति ही योग दर्शन प्रकृति और पुरुष की सत्ता को स्वीकार करता है अर्थात इस दर्शन ने सांख्य की तत्व मीमांसा को स्वीकार कर लिया है। योग दर्शन सृष्टि का निमित्त कारण (कर्त्ता) ईश्वर को मानता है तथा उसके उपादान कारण (आधारभूत साधन) प्रकृति व पुरुष को स्वीकार करता है, पुरुष चेतनतत्व अर्थात जीवात्मा है ईश्वर अनादि है अनन्त है और भोग से रहित है आत्मा भोक्ता है।

(B) – योग दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of yoga philosophy)

योग दर्शन चित्त की अवधारणा का प्रयोग करता है जिसमें मन, बुद्धि,अहंकार शामिल हैं जैसा कि सांख्यदर्शन में भी देखने को मिलता है योग दर्शनयह मानता है  कि मानव को पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों व चित्त के माध्यम से प्राप्त होता है और आत्मा को इसका साक्षात्कार होता है। वस्तुतः शरीर ,चित्त,और पुरुष भिन्न भिन्न होते हुए भी इस प्रकार समेकित रहते हैं कि पृथक्करण सम्भव नहीं लगता।योग दर्शन के अनुसार योगी अंततः समाधि को प्राप्त कर लेता है इस स्थिति में उसका यानि आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है और वह सर्वज्ञ हो जाता है।

  (C) – योग दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Values ​​and Ethics of yoga philosophy) –

           योग दर्शन में योग हेति चित्तवृत्तियों के निषेध हेतु अष्टांग मार्ग बताया है इसमें यम, नियम, आसन.              प्राणायाम मुख्य रूप से शरीर से सम्बंधित हैं और इसीलिये इन्हें अन्तरङ्ग साधन कहते है जबकि प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, व समाधि आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित हैं व इन्हें बहिरंग साधन कहा जाता है। अन्तिम मूल्य की प्राप्ति अष्टांग मार्ग के आचरण से सम्भव है।

योग दर्शन के मूल सिद्धान्त

Basic principles of yoga philosophy

01 – प्रकृति, पुरुष के योग से ईश्वर द्वारा सृष्टि प्रक्रिया (Creation process by God with the combination of Prakriti, Purusha)

02 – मूल तत्व – प्रकृति, पुरुष, ईश्वर (Basic elements – Prakriti, Purusha, God) 

03 – आत्मा कर्मफल भोक्ता ईश्वर नहीं (The soul is the enjoyer of the fruits of action, not God.)

04 – प्रकृति, पुरुष, ईश्वर का मेल मानव (Prakriti, Purusha, God’s Combination – Human)

05 – प्रकृति, पुरुष व ईश्वर द्वारा मानव विकास सम्भव (Human development possible by nature, man and God)

06 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष (Salvation is the ultimate goal of human life)

07 – चित्तवृत्ति निरोध मोक्ष हेतु आवश्यक (Control of mind is essential for salvation)

08 – चित्तवृत्ति निरोध हेतु आवश्यक अष्टांग मार्ग(Eightfold path necessary for control of mind)

योग दर्शन व  शिक्षा

Yoga philosophy and education

योग एक मानस शास्त्र है जिसमें मानव मात्र को मन संयत करना और पाशविक वृत्तियों से बचाव हेतु दिशा प्राप्त होती है। इस छोटे से जीवन में सफलता किसी भी क्षेत्र में संयत मन पर निर्भर करती है संयत मन से आशय एक कालखण्ड में एक ही वास्तु पर चित्त की एकाग्रता। वैसे योग दर्शन ने शिक्षा को कोई निश्चित विचार पृथकतः नहीं दिया लेकिन इसकी विभिन्न मीमांसाओं का विश्लेषण कर सार ग्रहण किया जा सकता है यहाँ मुख्यतः यही प्राप्त करने का प्रयास रहेगा।

शिक्षा के उद्देश्य/Aims of education

योग शिक्षा अपने उद्देश्य कालानुरूप तय करती है। श्रीमद्भगवद्गीता में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण ने 18 योग के माध्यम से अर्जुन को शिक्षा प्रदान की यद्यपि इनमें से कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग पर अधिक चर्चा की जाती है और इस में से ही  प्राप्त ज्ञान के आधार पर आज की योग गठित करती है शिक्षा अपने मुख्य उद्देश्य गठित करती है जिन्हे अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –

A – साध्य उद्देश्य (Achievable objective)

1 – मुक्ति का उद्देश्य /The purpose of salvation

B – साधन उद्देश्य (Instrument purpose)

1 – शारीरिक विकास / Physical development

2 – मानसिक विकास / Mental development

3 – बौद्धिक विकास / Intellectual development

4 – भावात्मक विकास / Emotional development

5 – आध्यात्मिक विकास / Spiritual development

 6 – नैतिक विकास /Moral development

पाठ्यक्रम / Syllabus

योग दर्शन का सम्यक विश्लेषण यह इंगित  करता कि आत्म ज्ञान के विषयों को अधिक और पदार्थगत विषयों की और अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है योग दर्शन की पाठ्य चर्या में मनोविज्ञान, नीति शास्त्र, धर्म शास्त्र, दर्शन, योगाभ्यास,  वेद,  पुराण,  भाषा,  तर्क शास्त्र,  आयुर्विज्ञान,  शरीर विज्ञान आदि को स्थान दिया जा सकता है।

शिक्षण विधियाँ।/ Teaching methods

योग दर्शन चूंकि साँख्य दर्शन की ज्ञान मीमांसा का अनुमोदन करता है इस लिए ज्ञान का विकास अन्तः कारन की बुनियाद पर होने का इसे सहज समर्थन प्राप्त हो जाता है। जिसे योग दर्शन चित्त स्वीकार करता है वही सांख्य दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार के रूप में वर्णित है। दोनों की एकरूपता के कारण जो साधन ज्ञान प्राप्ति के सांख्य दर्शन द्वारा सुझाये गए वही योग हेतु स्वीकार किये जा सकते हैं जिन्हे इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है

प्रत्यक्ष विधि – भ्रमण विधि, इन्द्रिय प्रत्यक्षीकरण।

अनुमान विधि – शोध विधि, परिकल्पना, आगमन -निगमन, विश्लेषण -संश्लेषण , खोज विधि आदि।    

शब्द विधि -प्रश्नोत्तर, व्याख्या, प्रवचन, तर्क विधि, स्वाध्याय आदि।

योग विधि – ज्ञाता और ज्ञेय का भेद ख़तम लम्बी योगिक साधना द्वारा ,योगी द्वारा ही सम्भव सामान्य शिक्षार्थी द्वारा नहीं।

अनुशासन / Discipline

अनुशासन के सम्बन्ध में इस दर्शन को विशिष्ट स्थान प्राप्त है चित्त वृत्तियों के निरोध को अनुशासन की परिणति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और स हेतु अष्टाङ्ग मार्ग भी सुझाया गया है इसके विविध अंग गहन उपादेयता रखते हैं यदि सचमुच अनुकरण का प्रयास  उच्च कोटि का अनुशासन स्वतः स्थापित हो जाएगा। इस दर्शन ने चित्त की स्थितियाँ और उनके आरोहण की स्थिति द्वारा भी क्रमशः उच्च अनुशासन स्थापन की स्थिति को बताया है जिसे समझने हेतु इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –

चित्त की स्थितियाँ —– प्रधान गुण ———————–     प्रवृत्ति

मूढ़                                  तमोगुण                                              अकरणीय कार्यों की ओर

                                                                                    विवेक शून्य

क्षिप्त                              रजोगुण                                     अति चञ्चल

विक्षिप्त                          सतोगुण                                     सुख के साधनों की ओर

एकाग्र                           अधिक सतोगुण                           एक विषय पर केन्द्रित

निरुद्ध                           अपेक्षाकृत अधिक सतोगुण                        स्थिर

योग दर्शन के अनुसार मनुष्य इनमें से जितनी अधिक स्थितियां पार कर लेता है वह उतना ही अधिक अनुशासित हो जाता है।

शिक्षक व शिक्षार्थी / Teacher and student

योग दर्शन क्रिया आधारित दर्शन है यह गुरु से अष्टांग योग में महारत की आशा करता है और विद्यार्थी द्वारा उसके सम्यक अनुकरण की। चित्त को साध अंतिम लक्ष्य की ओर निरन्तर प्रगति की अन्तः प्रेरणा जगाने वाला शिक्षक ही उत्तम शिक्षक है तथा अष्टांग योग से समाधि की और तीव्र प्रवृत्त विद्यार्थी उत्तम विद्यार्थी है।

विद्यालय / School

यह सुरम्य वातावरण में योग के अष्टांग मार्ग के अनुसरण हेतु अध्ययन स्थली को प्रशिक्षण स्थली के रूप में विकसित करने पर बल देते हैं। विद्यालय ऐसे हों जो अन्तिम उद्देश्य  की प्राप्ति के साधन के रूप में कार्य कर सकें।

शिक्षा के अन्य पक्ष –

  1. जन स्वास्थय

      2 – आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

मूल्याँकन / Evaluation

भारतीय पुरातन गौरवशाली इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्तम्भों में से एक है योग दर्शन। इस दर्शन के सम्यक आकलन में, संरक्षण व विकास में लम्बे समय तक तत्सम्बन्धी शोध का अभाव रहा है। लेकिन यह दर्शन मानसिक और शारीरिक विकास में अद्भुत योग प्रदान करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी महत्ता को सम्पूर्ण विश्व स्वीकार कर रहा है इसके शिक्षा के अंगों पर प्रभाव गहन गरिमा से युक्त हैं जो मानवता का पोषण करने में समर्थ है। शोध के अभाव में इसके विविध आयाम आज भी अछूते हैं। सम्यक विश्लेषण व सार संकलन से इससे सम्पूर्ण मानवता को शिक्षा परिक्षेत्र में विकास हेतु शारीरिक क्षमताओं की वृद्धि का वरदान प्राप्त हो सकता है। 

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काव्य

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ?

April 4, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ?

निरन्तर उम्र बढ़ते जाना

नवअनुभव से मिलवाता है।

और नए क्रन्दन का आना

शिशु जन्म बोध कराता है।

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 1

मदमस्त हो खेलते जाना

जीवन आनन्द दिलाता है।

समस्या का ना पता ठिकाना

नव रस सा बढ़ता जाता है

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 2 

पूर्व बाल्यावस्था का आना

नवसंस्था से जुड़वाता है।

नए परिवेश से यूँ जुड़जाना

सखाओं संग मिलवाता है।

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 3 

हर वस्तु खिलौना बन जाना

इस उम्र का दौर सिखाता है।

इस वय में सम्बन्ध बनजाना

कोई जीवन भर निभाता है।  

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 4

उत्तर बाल्यावस्था का आना

नव ऊर्जा का बोध कराता है।

सम्बन्धों का यह तानाबाना

संसार में उलझा जाता है। 

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 5 

नाना विधि ज्ञान  जुड़ जाना

नव चमत्कार दिखलाता है।

प्रश्नों का उत्तर बन जाना

फिर से नव प्रश्न जगाता है।  

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 6

कैशौर्य में मस्ती का आना

पुर जोश से होश हटाता है।

जोश में होश का यूँ खो जाना

किशोरवय का बोध करता है  

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 7  

संघर्ष सहित तूफ़ान का आना

इस जटिल उम्र में भाता है।                    

 गिरते पड़ते रस्ते कटजाना

नवपथ का दर्श कराता है। 

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 8

प्रौढ़ा वस्था की वय पाना

समस्या का बोध कराता है।

जीवन यथार्थ से जुड़जाना

कण्टक पथ मर्म सिखाता है।

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 9   

जीवन में भूल भुलैया आना

इस उम्र से जुड़ता जाता है।

बचपन का वह बोध भुलाना

मजबूरी सा बनता जाता है।   

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 10

धीरे से जीवन सन्ध्या आना

वृद्धा वस्था ही कहलाता है।

ऊर्जा ह्रास का हो जाना

मानव तन को नहीं भाता है। 

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 11    

सर्वाधिक यादों का आना

इस उम्र को ख़ास बनाता है

बचपन के साथी याद आना

जड़ से जुड़ जाना कहता है।    

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 12

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काव्य

आधुनिकता की कमाई है ।

March 22, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

अरे ये क्या है ?

ये कैसी रुलाई है।

ये कैसी है मार

पकी फसलों ने खाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।1।

प्रकृति की सहज तन्द्रा

मानव ने भगाई है।

छीना है जो प्रकृति का

विपदा उससे ही आई है। 

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।2।

जब भी चाहा विस्फोट किया

जब चाहा खाई बनाई है।

पृथ्वी के अन्तस्तल में

खलबली सी मचाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।3।

बेहिसाब जल स्रोतों का

दोहन कर करी कमाई है।

असंख्य घाव करे छाती पर

पर दी न कोई दवाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।4।

लगता है प्रकृति निधि पर

विपदा ये नई सी आई है।

बरसात से प्राप्त जलनिधि भी

ना वापस लौटाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।5।

जल निधि में जहर की

अजब मात्रा बढ़ाई है।

कहते हो अम्लीय वर्षा

ये हमने ही कराई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।6।

मौसम में परिवर्तन की

भारी कीमत चुकाई है।

लगता है इन्ही वजहों से

बे मौसम बारिश आई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है।7।

ग्लोबल वार्मिंग ने

दी हमको यही दुहाई है।

जो बोओगे सो काटोगे

यह नीति सदा चल आई है।  

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।8।

पूर्व योजना की शक्ति

क्यूँ कर हमने गँवाई है।

जड़ प्राकृतिक विपदा की

क्यूँ समझ हमें न आई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।9।

आवश्यक है आधुनिकता भी

पर लगाम क्यों गँवाई है।

कहीं कौमा, कहीं अल्प विराम

की रीति क्यों भुलाई है। 

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है।10।

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शिक्षा

CONCEPT AND CHARACTERISTICS OF CULTURE

March 18, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

संस्कृति की अवधारणा व विशेषताएं

संस्कृति शब्द का उच्चारण होते ही हमारा अन्तर्मन मर्यादा का बोध करने लगता है साधारणतः संस्कृति में वह सब कुछ संयुक्त होता है जो मानव द्वारा समाज में रहकर जाना जाता है कलाएं, कानून, नैतिकता, धार्मिक परम्पराएँ, शिष्टाचार मर्यादाएं, रीति रिवाज, व्यवहार, सङ्गीत, भाषा, साहित्य आदि सभी कुछ इसमें शामिल है।

CONCEPT OF CULTURE (संस्कृति की अवधारणा)

संस्कृति की अवधारणा को समझने हेतु कुछ विज्ञजनों की संस्कृति के आशय को इंगित करने वाली परिभाषाओं के आलोक में समझने का प्रयास करते हैं। प्रसिद्द समाजशास्त्री मैकाइवर एण्ड पेज के शब्दों में –

“Culture is the expression of our nature in our modes of living and of thinking, in our everyday intercourse in art, in literature, in religion, in recreation and in enjoyment.”- Meciver and page

“हमारे रहने, विचार करने प्रतिदिन के कार्यों, कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में संस्कृति हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

लुण्डवर्ग महोदय संस्कृति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –

“Culture may be defined as a system of socially acquired and transferred standard to judgement, belief and conduct, as well as the symbolic and material products of the resulting conventional patterns of behavior.” –Lundberg

“संस्कृति को उस व्यवस्था के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को सञ्चरित कर दिए जाने वाले निर्णयों,विश्वासों, आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते हैं।”

टायलर महोदय ने संस्कृति की अवधारणा को सुन्दर शब्दों में यूँ संजोया है –

“Culture is that complex whole which includes knowledge, beliefs, art, morals, law, customs and any other capabilities and habits acquired by man as a member of society.” – Tylor

“संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिसमें ज्ञान,विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा इसी प्रकार की ऐसी सभी क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है जिन्हे मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। ”

यदि हम उक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो एम०  एल० मित्तल के तत्सम्बन्धी ये विचार सत्य प्रतीत होते हैं। –

“किसी समुदाय या समाज के रहने सहने के समग्र तरीकों या जीवन विधि को संस्कृति कहते हैं। इसमें धर्म, कला, दर्शन, विज्ञान, आचार विचार, रीति रिवाज, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा, खानपान, मशीनें, उपकरण, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था आदि सभी तत्व सम्मिलित होते हैं। ”

“The overall way of life or way of life of a community or society is called culture. It includes religion, art, philosophy, science, ethics, customs, living, language, costumes, food, machines, equipment, political and economic All the elements of system etc. are included.’’

CHARACTERISTICS OF CULTURE

संस्कृति की विशेषताएं

1 – संस्कृति अनुभव आधारित (Culture based on experience)

लुण्डवर्ग महोदय के अनुसार

“Culture is not related to a person’s innate tendencies or biological heritage, but it is based on social learning and experiences.”

 -Lundberg

“संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा जैवकीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक सीख व अनुभवों पर आधारित होती है।”

2 – संस्कृति में स्थानान्तरण की शक्ति (The power of transference in culture)

3 – हर समाज में सांस्कृतिक विविधता (Cultural diversity in every society)

4 – संस्कृति में सामाजिकता का गुण (Sociability in culture)

ए ० डब्ल्यू० ग्रीन महोदय के अनुसार –

“Culture is the socially transmitted system of idealized ways in knowledge, practice and belief along with the artifacts that knowledge and practice maintain as they change in type.” – Green A.W.

“संस्कृति ज्ञान, व्यवहार, विकास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान और व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को कहते हैं, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती हैं।”

5 – संस्कृति में अनुकूलन निहित (Adaptation inherent in culture)

6 – समाज का आदर्श संस्कृति है (Culture is the ideal of society)

इसीलिये व्हाइट महोदय को कहना पड़ा –

“Culture is a symbolic, continuous, cumulative and progressive process.”

“संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचई और प्रगतिशील प्रक्रिया है।”

7 – संस्कृति, आवश्यकता पूर्ति में सक्षम (Culture, capable of meeting the need)

8 – मानवीय समाज की धरोहर (Heritage of human society)

रेडफील्ड महोदय के अनुसार –

“संस्कृति कला और उपकरणों से अभिव्यक्त परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है, जो परम्परा द्वारा संगठित होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है। ”

“Culture is the organised body of conventional understanding, manifest in art and artifact, which persisting through traditions, characterizes human group. – Redfield

उक्त अवधारणाओं व विशेषताओं के अध्ययन से यह पूर्णतः स्पष्ट भान होता है कि संस्कृति जन्मजात न होकर स्वीकार्य गुणों,  विचारों व व्यवहारों का समूह है जैसा वेरको व अन्य के इन विचारों से भी स्पष्ट  होता है – 

“Although the investigations of Social Scientists have shown that culture is not innate but learned, nevertheless the pressure to acquire this learning is so strong that is inescapable.” –Verco and others

“यद्यपि समाज शास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात न होकर सीखी जाती है, फिर भी इनके सीखने को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि इनकी अवहेलना नहीं की जा सकती।”

                                                        

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यह सब रस्ते के पत्थर हैं.

January 29, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

यह सब रस्ते के पत्थर हैं,

अक्सर हट जाया करते हैं। 

ये दिल पर रखा बोझ नहीं,

जिससे मर जाया करते हैं।

जीवन के रास्ते दूभर हैं

समतल हो जाया करते हैं।

चलने की हिम्मत की ही नहीं

यूँ, क्यूँ डर जाया करते हैं।

दिखने को काले बादल हैं,

ये भ्रम फैलाया करते हैं।

गर्जन तर्जन सब किया यहीं

फिर, ये उड़ जाया करते हैं।

इस जग के किस्से नश्वर हैं

किसी समय डराया करते हैं।

मन की हलचल बोझ नहीं

प्रश्न हल हो जाया करते हैं।

जो मार्ग के काँकड़ पाथर हैं,

सब राज बताया करते हैं।

जिनकी किस्मत में गति नहीं,

वो ‘नाथ’ दब जाया करते हैं।

यह सब रस्ते के पत्थर हैं,

अक्सर हट जाया करते हैं ।।


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शिक्षा

FUNCTIONS OF EDUCATION शिक्षा के कार्य

January 8, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


शिक्षा वह उपागम है जो इसे धारण करने वाले व्यक्तित्व हेतु प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है। इसके माध्यम से हमें वह दिशा मिलती है जो हमारे जीवन के उद्देश्य तय करने और उन्हें प्राप्त करने में हमारा सहयोग प्रदान करती है। विविध विद्वानों ने शिक्षा के कार्य सम्बन्धी अपने विचारों की शब्द माला का गुम्फन इस प्रकार किया है।

जॉन ड्यूवी महोदय कहते हैं –

“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाना है, जिससे वह सुखी, नैतिक व कुशल मानव बन सके।”

“The work of education is to help in the development of a helpless creature so that it can become a happy, moral and efficient human being.”

डॉ जाकिर हुसैन महोदय का कहना है –

“शिक्षा का कार्य बालक के  मस्तिष्क को शुद्ध, नैतिक और बौद्धिक मूल्यों का अनुभव करने में इस प्रकार सहायता प्रदान करना है कि वह मूल्यों से प्रेरित होकर उनको सर्वोत्तम प्रकार से अपने कार्य और अपने जीवन में प्राप्त करें।”

“The function of education is to help the child to perceive pure, moral and intellectual values ​​in his mind in such a way that he is inspired by these values ​​to achieve them in the best possible way in his work and his life.”

रमन बिहारी लाल महोदय कहते हैं –

“सच बात तो यह है कि शिक्षा के अपने में कोई कार्य नहीं होते। कोई व्यक्ति, समाज अथवा राज्य शिक्षा के द्वारा जो प्राप्त करना चाहता है वे ही शिक्षा के उद्देश्य होते हैं और इन उद्देश्यों की पूर्ति करना ही शिक्षा के कार्य होते हैं।”

“The truth is that education does not have any functions in itself. What a person, society, or state wants to achieve through education are the objectives of education, and fulfilling these objectives is the function of education.”

शिक्षा के प्रमुख कार्यों का वर्गीकरण / Classification of major functions of education –

विविध परिभाषाओं का अध्ययन और विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा को तत्कालीन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कुछ कार्य करने ही होते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –

A – व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास / Individual and Social Development

       (a) व्यक्तिगत विकास

(1) -उत्तम चरित्र की प्राप्ति

जर्मन विचारक हर्बर्ट महोदय कहते हैं –

“शिक्षा अच्छे नैतिक चरित्र का विकास है।”

“Education is the development of good moral character.”

(2) – व्यावसायिक कुशलता

स्पेन्सर महोदय कहते हैं कि –

“किसी भी व्यवसाय के लिए तैयार करना हमारी शिक्षा का मुख्य अंग है। ”

“Preparation for any vocation is a core part of our education.”

 (3) – व्यक्तित्व विकास

फ्रेडरिक ट्रेसी के अनुसार –

“सम्पूर्ण शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है।  यह आदर्श संतुलित एवम समग्र व्यक्तित्व है। ”

“The real aim of all education is the complete attainment of the ideal of personality. This ideal is a balanced and holistic personality.”

 (4) – वातावरण से समायोजन

टॉमसन महोदय के अनुसार –

“वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना जिससे कि वह जीवित रह सके और अपनी मूल प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए अधिक से अधिक संभव अवसर प्राप्त कर सके।”

“Environment is the teacher and the function of education is to adapt the student to that environment so he may live and get the maximum possible opportunities to satisfy his basic instincts.”

 (5) – आत्म निर्भरता

डॉ ० राधा कृष्णन महोदय कहते हैं –

“छात्रों को जीविका उपार्जन करने में सहायता देना शिक्षा का एक कार्य है।”

“To help the students to earn a living is one of the functions of Education.”

 (6) – मानसिक विकास

रमन बिहारी लाल महोदय के अनुसार  –

“मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है। शिक्षा के द्वारा उसका शारीरिक और मानसिक विकास होना ही चाहिए। ”

“Man is a psycho-physical being. He must have physical and mental development through education.”

 (7) – आध्यात्मिक चेतना का विकास

डॉ ० राधा कृष्णन महोदय के अनुसार –

“शिक्षा का उद्देश्य न तो राष्ट्रीय कुशलता है, न सांसारिक एकता अपितु व्यक्ति को यह अनुभूति कराना है कि उसके पास बुद्धि से भी परे एक तत्त्व है जिसे तुम चाहो तो आत्मा कह सकते हो।”

“The aim of Education is neither national efficiency nor world solidarity, but making the individual feel that he has something deeper than intellect, call it spirit if you like.’’

 (8) – जन्मजात शक्तियों का विकास

जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालोजी के अनुसार –

“शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है।”

“Education is a natural, harmonious, and progressive development of man’s innate powers.”

 (9) – समृद्धता –

ड्यूबी महोदय का विचार है –

“जीवन का मुख्य कार्य है प्रत्येक पग पर अपने अनुभवों द्वारा जीवन को समृद्ध करना।”

   “The main task of life is to enrich life with your experiences at every step.”

(b) सामाजिक विकास

1 – सामाजिक नियन्त्रण

2 – सामाजिक परिवर्तन–

रमन बिहारी लाल महोदय के अनुसार –

“शिक्षा मनुष्यों में अपनी भाषा, रहन सहन, खानपान एवं व्यवहार की विधियों और रीतिरिवाजों में अपने अनुभवों के आधार पर आवश्यक परिवर्तन एवं विकास की क्षमता पैदा करती हैं और वे इन सबमें निरन्तर परिवर्तन एवं विकास करते हैं। इसे समाजशास्त्रीय भाषा में सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”

“Education inculcates in human beings the capacity for necessary change and development in their language, living conditions, food and behavior methods, and customs on the basis of their experiences, and they continuously change and develop in all these. This is called the social change in sociological language.”

3 – सामाजिक सुधार

4 – संस्कृति का संरक्षण, हस्तान्तरण व विकास 

5 – राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्ति

6 – सामाजिक सकारात्मक भावना

एच ० गार्डन महोदय के अनुसार –

“शिक्षक को यह जानना आवश्यक है की उसे सामाजिक प्रक्रिया को उन व्यक्तियों को समझाना चाहिए, जो इसे समझने में असमर्थ हैं।”

“It is necessary for the teacher to know that he should explain the social process to those persons who are unable to understand it.”

B – सांस्कृतिक विरासत का सम्प्रेषण / Transmission of cultural heritage

शिक्षा वह साधन है जिसके माध्यम से यह महत्त्व पूर्ण कार्य सम्पादित होता है इस हेतु वह इन कार्यों को करती है –

1 – संरक्षण / Protection

2 – विकास / Development

3 – हस्तान्तरण /Transfer

4 – सांस्कृतिक विलम्बन में कमी /Reduction of cultural lag

5 – गतिशीलता / Mobility

6 – विविध संस्कृतियों से समायोजन / Adjusting to Diverse Cultures

C – कौशलों का अर्जन / Acquisition of skills – आज प्रतिस्पर्धा का युग है और इसमें ठीके रहने के लिए यह परम आवश्यक है कि स्वप्रगति के सुनिश्चयीकरण हेतु कौशलों का निरंतर अर्जन किया जाए। शिक्षा इन कौशलों का सुदृढ़ीकरण हेतु इन कौशलों को अर्जित कराने का कार्य करती है –

1 – भाषाई कुशलता / Linguistic Proficiency

2 – सृजनात्मक कुशलता / Creative skills

3 – व्यावसायिक कुशलता / Professional skills

स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार –

“केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके।”

“Mere bookish knowledge will not do. We need that education by which a person can stand on his own feet.”

4 – सामाजिक कुशलता / Social skills

5 – प्रतिस्पर्धात्मक कुशलता / Competitive Proficiency

D – मानव मूल्यों का अर्जन व उत्पादन / Acquisition and generation of human values

आज विविध परिक्षेत्र में मानवीय मूल्यों का अवनमन दीख पड़ता है अतः शिक्षा को निम्न कार्य अवश्यमेव सम्पादित करने होंगे। –

→ सामाजिक मूल्य / Social values

→ आर्थिक मूल्य / Economic values

→ राजनैतिक मूल्य / Political values

→ सांस्कृतिक मूल्य / Cultural values

E – अवकाश हेतु शिक्षा /Education for leisure

→ स्वास्थ्य व्यवस्थापन / Health Management

→ भविष्य व्यवस्थापन / Future Management

→ सशक्त सम्बन्ध स्थापन / Strong Relationship Establishment

→ मनः रञ्जन / Entertainment

→ आत्मनिरीक्षण / Introspection

F – सामाजिक एकजुटता / Social Cohesion

→ सहिष्णुता विकास / Tolerance development

→ सह अस्तित्व बोध / Coexistence sense

→ प्रगति उन्मुखता / Progress orientation

→ सामाजिक निष्ठा बोध / Social loyalty

→ लोचशीलता / Flexibility

G – राष्ट्रीय एकता हेतु शिक्षा / Education for National Integration

1 – पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा / Through co-curricular activities

2 – आध्यात्मिक चेतना विकास / Spiritual consciousness development

3 – अधिकार व कर्त्तव्य ज्ञान / Rights and  duty knowledge

4 – राष्ट्रीय लक्ष्य बोध / National vision

5 -सामाजिक कर्त्तव्य बोध / Sense of social duty

6 – परिवर्तन ग्राह्यता / Change susceptibility

7 – धार्मिक सहिष्णुता / Religious tolerance

8 – भावात्मक एकता विकास / Emotional integration development

       जवाहर लाल नेहरू ने कहा –

 ” भावात्मक एकता से अभिप्राय, अलगाव की भावना का दमन तथा मस्तिष्क एवं ह्रदय की एकता से है।”

“By Emotional integration, I mean the integration of our minds and hearts, the suppression of the feelings of separation.”

H – अन्तर्राष्ट्रीय समझ हेतु शिक्षा / Education for Inter-National understanding

अन्तर्राष्ट्रीय परिक्षेत्र में शिक्षार्थियों की समझ में अभिवृद्धि हेतु शिक्षा को निम्न कार्यों को यथायोग्य गुणवत्ता पूर्ण ढंग से करना होगा जिसके प्रभावी परिणाम देखने को मिलेंगे।

1 – अन्तर्राष्ट्रीय पहचान रखने वाले व्यक्तित्वों से परिचयी करण / Introduction to personalities having international identity – जन्मदिन, निर्वाण दिवस, विशिष्ट कार्य सम्पादन दिवस मनाकर / By celebrating Birthday, Nirvana Day, Special Work Achievement Day

2 – विशिष्ट अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्वों के ऑडियो वीडिओ क्लिप द्वारा / By Audio video clips of eminent international personalities.

3 – अन्तर्राष्ट्रीय क्रीड़ा प्रतिस्पर्धा का आयोजन / Organization of international sports competition

4 – अन्तर्राष्ट्रीय साझा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजन / Organizing International Shared Cultural Program

5 – भ्रमण द्वारा / by excursion

6 – शैक्षिक आदान प्रदान / – Academic Exchange

7 – शिक्षण विधि में सम्यक परिवर्तन / Due change in teaching method

8 – विविध भाषा में शोध परिणाम अनुवाद / Translation of research results in various languages

I – मानव संसाधन हेतु शिक्षा / Education for Human Resource Development –

आज भारत व चीन अधिक जनसँख्या वाले देशों की श्रेणी में आते हैं लेकिन जब अधिसंख्य जनसँख्या उत्पादक कार्यो से जुड़ जाती है तो यही जनसंख्या मानव संसाधन के रूप में देश को विकसित करने में योग देती है और शिक्षा मानव संसाधन के विकास में योग की दर को बढ़ाने का श्रेष्ठतम साधन है इसके द्वारा ही विविध कार्यों हेतु कौशल सिखाए जाते हैं। आज के तमाम प्रशिक्षण कॉलेज इस पावन कर्म में लगे हैं। मानव संसाधन का जितना अच्छा प्रयोग जो देश करेगा वह उतनी तीव्रता से प्रगति करेगा। प्राइवेट और सरकारी दोनों परिक्षेत्रों को इस दिशा में तीव्र प्रयास करने होंगे।

उक्त परिक्षेत्रों के अतिरिक्त आज और बहुत से कार्य शिक्षा के गिनाये जा सकते हैं और इनमे बदलते सामाजिक उद्देश्यों के साथ परिवर्तन होता रहेगा।

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शिक्षा

Globalization / वैश्वीकरण)

December 29, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


वैश्वीकरण का अर्थ (Meaning of Globalization) –

वैश्वीकरण विचारों का वह प्रवाह है जिससे सम्पूर्ण विश्व लाभान्वित होता है, वैश्वीकरण आंग्ल भाषा के शब्द Globalization का हिन्दी रूपान्तरण है विकिपीडिया के अनुसार – वैश्वीकरण का शाब्दिक अर्थ स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं के विश्व स्तर पर रूपान्तरण की प्रक्रिया है इसे एक ऐसी प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है जिसके द्वारा पूरे विश्व के लोग मिलकर एक समाज बनाते हैं तथा एक साथ कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक ताक़तों का एक संयोजन है।

यद्यपि इसकी परिभाषा को लेकर विविध मत दिखाई पड़ते हैं ऐसा लगता है की वैश्वीकरण का चोला ओढ़कर भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा ही अपना प्रभाव दिखा रही है।

विकिपीडिया की इस परिभाषा को विविध विद्वानों द्वारा विशेष महत्त्व प्रदान किया गया –

“Globalization, or globalisation, is the process of interaction and integration among people, companies, and governments worldwide.” 

 “वैश्वीकरण, या वैश्वीकरण, दुनिया भर में लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच बातचीत और एकीकरण की प्रक्रिया है।”

टर्बर्टसन के अनुसार –

“Globalization is a concept that is related to the shrinking of the world and the consciousness and closeness of the whole world.”

“वैश्वीकरण एक ऐसी अवधारणा है जिसका सम्बन्ध विश्व के सिकुड़ने तथा पूरे विश्व की चेतना और घनिष्ठता से है।”

वैश्वीकरण को अधिगमित करने हेतु कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सम्पूर्ण जगत का एकीकरण एक परिवार के रूप में होता है और लोग अपनी आर्थिक, भौगोलिक, राजनीतिक, और सामाजिक दूरियों को मिटाकर एकीकृत होते हैं। इससे भौगोलिक दूरियाँ सिमट जाती हैं।

वैश्वीकरण और शिक्षा (Globalization and Education)  –

वैश्वीकरण और शिक्षा आज एक दूसरे की आवश्यकता बन गए हैं जहाँ वैश्वीकरण हेतु शिक्षा की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता वहीं यह कहने में भी कोइ अतिशयोक्ति नहीं कि शिक्षा पर वैश्वीकरण का प्रभाव स्पष्ट पारिलक्षित होता है। ये दोनों आपस में एक दूसरे से इतने गुत्थमगुत्था हैं कि दोनों की एक दूसरे पर अन्योन्याश्रिता स्पष्ट महसूस की जा सकती है। इन सम्बन्धों को इन बिंदुओं द्वारा और स्पष्ट किया जा सकता है –

01 – उद्देश्य निर्धारण/Objective setting

02 – विविधता / Diversity

03 – व्यक्तिगत और सामाजिक विकास / Personal and Social Development

04 – श्रेष्ठ नागरिक निर्माण/ best citizen building

05 – संचार माध्यम का कुशल प्रयोग/Efficient use of media

06 – सांस्कृतिक उन्नयन/ Cultural upgrade

07 – जनतन्त्र अभ्युत्थान/ Democracy Resurgence

08 – स्वस्थ प्रतिस्पर्धा/ Healthy Competition

09 – समरसता वृद्धि/ Harmony Growth 

वैश्वीकरण का शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रभाव (Impact of Globalization on the Objectives of Education) –

 वर्तमान समय यह माँग कर रहा है कि वैश्वीकरण की जरूरतों को समझा जाए और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन आज की आवश्यकता है .बदलते वैश्विक परिदृश्य में जहाँ स्व के मूल्यों, मौलिकताओं, संस्कृति व रीति रिवाजों का संरक्षण आवश्यक है वहीं वक़्त के साथ कदमताल भी आवश्यक है अतः वैश्वीकरण का शिक्षा के उद्देश्यों पर पड़ने वाले प्रभावों को सतर्कता के साथ अंगीकार करना होगा या नियन्त्रित रखना होगा . वर्तमान हेतु आवश्यक उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –

1 – सहअस्तित्व की स्वीकार्यता / Acceptance of coexistence

2 – वैश्विक एकता को बढ़ावा / Promoting global unity

3 – व्यापक दृष्टिकोण का विकास / Development of Broad Perspective

4 – स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक भावना का विकास / Development of healthy competitive spirit

5 – आधुनिकता का समावेशन / Absorption of modernity

6 – व्यावसायिक कुशलता को महत्त्व / Importance of professional skills

उक्त उद्देश्य आज के वैश्वीकरण की आवश्यकता भी हैं और मानव के संरक्षण हेतु आवश्यक भी अतः इन्हें शिक्षा को अंगीकार करना ही होगा .

वैश्वीकरण का मूल्याँकन / Evaluation of globalization –

 वर्तमान ने मानव को उस स्थल पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ प्राचीन भारतीय सह अस्तित्व व सह विकास के भाव का पोषण वैश्वीकरण के रूप में पारिलक्षित हुआ है .वैश्वीकरण के मूल्यांकन हेतु उसके लाभ व सीमांकन का विश्लेषण करना समीचीन होगा .जिसे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं .

वैश्वीकरण से लाभ / Benefits from globalization –

1 – विश्व व्यापार को बढ़ावा / boost world trade

2 – वैश्विक समस्या का समाधान / global problem solving

3 – विश्व बन्धुत्व को बढ़ावा / promotion of universal brotherhood

4 – तकनीकी सुविधाओं का विकास / development of technical facilities

5 – वैश्विक ज्ञान प्राप्ति / global knowledge acquisition

6 – राष्ट्रीय सशक्तीकरण / national empowerment

वैश्वीकरण की सीमाएं / Limitations of Globalization –

1 – अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा / unhealthy competition

2 – नैतिक मूल्य अवनमन / moral degradation

3 – राष्ट्रीय आय दुष्प्रभावित / national income affected

4 – प्रतिभा पलायन / brain drain

5 – नव शिक्षण प्रतिभा विकास में बाधक / Barriers to new teaching talent development

6 – विकासशील राष्ट्रों को क्षति / damage to developing nations

उक्त लाभों व सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि वैश्वीकरण आज की आवश्यकता है लेकिन प्रत्येक राष्ट्र को इसे राष्ट्रोन्नयन के आलोक में देखना होगा. बिना सहअस्तित्व व परस्पर सहयोग की भावना विकसित हुए वैश्वीकरण के सात्विक लक्ष्यों की प्राप्ति दूर की कौड़ी ही सिद्ध होगी. यद्यपि इसके सकारात्मक प्रभाव अधिक पारिलक्षित होते हैं और यह उचित ही होगा कि समस्त राष्ट्र सकारात्मकता के आलोक में सामान आचार संहिता बना तत्सम्बन्धी नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करें .

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शिक्षा

प्रत्यक्षीकरण / PERCEPTION

November 2, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रत्यक्षीकरण से आशय / Meaning of perception-

ज्ञानात्मक मानसिक क्रिया को प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है इसके द्वारा ज्ञान चक्षुओं द्वारा किसी की भी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है कुछ विचारक संवेदी उत्तेजना व परिणामी संवेदना के बीच प्रयुक्त चर को प्रत्यक्षीकरण स्वीकार करते हैं।

चैपलिन (19750) महोदय कहते हैं –

“Perception is an interviewing variable inferred from the organism’s ability to discriminate among stimuli.”  

“प्रत्यक्षीकरण एक मध्यवर्ती चर है जिसका अनुमान उत्तेजनाओं के बीच प्राणी द्वारा भेदीकरण की योग्यता से होता है।”

वास्तव में प्रत्यक्षीकरण वह है जिसका इन्द्रियों द्वारा बोध होता है इसी से एक विशेष दृष्टिकोण का निर्माण या विकास होता है और हम कोई राय को बनाते हैं।

यह स्वीकार करना भी तर्क संगत होगा कि –

प्रत्यक्षीकरण =  संवेदना + अर्थ + सोच + स्मृति 

यह परिस्तिथि का अपरोक्ष बोध कराने वाली मानसिक प्रक्रिया है इसक अर्थ संवेदनाओं के व्याख्या करने से भी लिया जा सकता है।

सामाजिक प्रत्यक्षीकरण / SOCIAL PERCEPTION –

सामाजिक प्रत्यक्षीकरण के प्रत्यय का विकास समय 1940 स्वीकारा जाता है कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसे भी हुए जिन्होंने व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण को ही सामाजिक प्रत्यक्षीकरण स्वीकार किया। हीडर (1958) महोदय ने कहा कि –

“We shall speak of thing perception as non social perception when we mean the perception of inanimate objects,  and of person perception when we mean the perception of another person.” 

“निर्जीव वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण को गैर सामाजिक प्रत्यक्षीकरण व व्यक्तियों के प्रत्यक्षीकरण को सामाजिक प्रत्यक्षीकरण कहते हैं।”

बैरोन व बिर्ने (1969) महोदय के अनुसार –

“Social perception is the process through which we seek to know and under land other persons.”

“सामाजिक प्रत्यक्षीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूसरे व्यक्ति को जानने समझने का प्रयास करते हैं।” 

 उक्त परिभाषाएं यह कहने में सक्षम हैं कि

 (A) – सामाजिक प्रत्यक्षीकरण से समाज व व्यक्ति दूसरे समाज व व्यक्ति को समझने का प्रयास करता है।

 (B) – इससे एक दूसरे के प्रति धारणा बनाने में मदद मिलती है।

 (C) – व्यक्ति स्वयं को भी उस सामाजिक परिवेश में समझने का प्रयास करता है।

प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक / Determinants of perception –

प्रत्यक्षीकरण के अन्तर्गत व्यक्ति  प्रत्यक्षीकरण, स्व प्रत्यक्षीकरण, सामाजिक प्रत्यक्षीकरण की विवेचना की जाती है। वर्तमान के विविध विद्वानों के विचार विश्लेषण के आधार पर प्रत्यक्षीकरण निर्धारकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है :-

1 – उत्तेजना कारक (Stimulus Factors) – उत्तेजना कारक से आशय उन व्यक्ति सम्बन्धी कारकों से है जिनके आधार पर एक दूसरे का विश्लेषण कर राय का निर्धारण किया जाता है। उदाहरणार्थ – एक दूसरे से होने वाला प्यार बहुत कुछ उत्तेजना कारकों पर निर्भर करता है। यह विविध निर्णयों का आधार बनाता है। उत्तेजना कारकों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है –

अशाब्दिक संकेत / Nonverbal cues – जब हम किसी को प्रत्यक्षतः देखते हैं तो इस प्रत्यक्षीकरण में सामने वाले की शरीर रचना व शील गुणों का प्रभाव प्रथम दृष्टिवा पड़ता है इसीलिये विभिन्न विद्वतजन शरीर रचना व व्यक्तित्व संगठन के बीच गहन सम्बन्धों की स्वीकारोक्ति देते हैं। देखने को मिलता है कि इस आधार पर लोग राय बना लेते हैं और निर्णय तक पहुंचते हैं लेकिन इस धारणा निर्माण की प्रक्रिया में बहुत से मध्यवर्ती चर भी सक्रिय  हो जाते हैं। क्रेशमर (Kretchmer,1925) कहते हैं –

“मोटे तथा नाटे शरीर वाले लोग सुस्त,खुशमिजाज,मिलनसार,तथा आरामतलब होते हैं। दुबले, पतले तथा  लम्बे शरीर वाले लोग सक्रिय, चिड़चिड़े, तथा क्रोधी होते हैं। सुगठित शरीर वाले लोग सामाजिक, सन्तुलित तथा फुर्तीले होते हैं।”

a – शारीरिक हावभाव व मुद्रा (Body gesture and posture) – अलग अलग संस्कृतियों के लोगों के शरीर विविध हाव भाव व मुद्रा प्रदर्शित करते हैं। जिनमें अन्तर दीख पड़ता है। यथा चुम्बन लेना, आलिङ्गन करना, हाथ मिलाना, स्पर्श करना आदि।

शरीर मुद्रा से वैर भाव, तनाव, व विभिन्न संवेगों का परिचय मिलता है विविध अध्ययनों ने भी शारीरिक मुद्राओं और उसके विभिन्न शील गुणों के बीच सम्बन्धों के प्रमाण दिए हैं।

b – मुखाकृति / Facial Expressions –

यह भी एक अशाब्दिक संकेत स्वीकार किया जाता है तथा विभिन्न विद्वानों ने इसके आधार पर भी अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। सेकर्ड 1945 के अनुसार – काले मोटे चमड़े वाले लोगों को वैरपूर्ण, घमण्डी, बेईमान,आदि समझा जाता है।

एक अन्य अध्ययन में सेकर्ड तथा मुथार्ड 1955 के अनुसार –

मोटी त्वचा वाले व्यक्तियों को प्रायः घटिया, गँवार व असंवेदनशील समझा जाता है। ऊँची पेशानी को तीव्र बुद्धि का संकेत माना जाता है।

उक्त अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है की मुखाकृति प्रत्यक्षीकरण का एक प्रमुख कारक है।    

 c – आवाज – इसे उत्तेजना कारकों में गिना जाता है। व्यक्ति की बोल चाल व प्रभावशीलता के आधार पर बहुत से निर्णय लिए जाते हैं। बोलने की गति, लहजा, उच्चारण, तथ्य प्रस्तुतीकरण से विविध तथ्यों यथा उसका समुदाय, परिवार, संस्कार आदि का पता चलता है।

d – पहनावा व रहन सहन – अशाब्दिक प्रत्यक्षीकरण का महत्त्वपूर्ण उपागम पहनावा व रहन सहन है इसके आधार पर महिला, पुरुष, हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि को पहचाना जा सकता है। वर्दी देखकर अलग अलग सुरक्षा संवर्ग के लोगों को पहचाना जा सकता है। रहन सहन के अंदाज भी प्रत्यक्षीकरण में सहयोग करते हैं।

2 – प्रत्यक्षीकरणकर्त्ता निर्धारक / Perceiver Determinants –

यह अक्षरशः सत्य है कि प्रत्यक्षीकरण करने वाले का दृष्टिकोण तत्सम्बन्धी धारणा के गठन में महत्त्वपूर्ण है एक ही व्यक्ति किसी का भाई, किसी का पिता, किसी का बेटा, किसी का प्रेमी और किसी का पति, रूप में देखा जाता है। प्रत्यक्षीकरण की इस विभिन्नता का कारण वह व्यक्ति नहीं बल्कि प्रत्यक्षीकरण करने वाले लोग हैं। प्रत्यक्षीकरणकर्त्ता निर्धारकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।

a - संज्ञानात्मक योग्यता /Cognitive ability – 

प्रत्यक्षीकरण करने वाले की संज्ञानात्मक योग्यता का सीधा असर प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है यह सर्व विदित है की अधिक बुद्धिमान व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण स्तर कम बुद्धिमान व्यक्ति से अच्छा व सटीक होगा। अपनी योग्यता के कारण वह तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ धारणा निर्माण में सक्षम होगा।

b - संज्ञानात्मक प्रणाली/Cognitive system - 

व्यक्ति के व्यवहार में सैद्धान्तिक व व्यावहारिक आधार पर अंतर देखने को मिलता है एक व्यावहारिक परिक्षेत्र में रहने वाला सैद्धांतिक की तुलना में अच्छा प्रत्यक्षीकरण कर सकेगा। ऐसा बहुधा देखने को  मिलता है। व्यावहारिक क्षमता वाले व्यक्ति की संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ जाती है इस लिए वह प्रत्यक्षीकरण व निर्णयन में अधिक सक्षम हो जाता है।

C-संज्ञानात्मक जटिलता/cognitive complexity - संज्ञानात्मक जटिलता अधिक होने पर बारीकी से और विशेष ध्यान पूर्वक प्रत्यक्षीकरण की क्रिया को अंजाम दिया जाता है। बीरी (1955) के अनुसार - 

निरीक्षक की संज्ञानात्मकता जटिलता का निश्चित प्रभाव व्यक्ति के प्रति उसके प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है।

d - उदारवाद व रूढ़िवाद/Liberalism and conservatism- 
यह दोनों ही प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं। ये दोनों ही हठधर्मिता को प्रश्रय देते हैं इससे सही प्रत्यक्षीकरण मुश्किल हो जाता है,
चैपलिन (1975) के अनुसार -

उदारवादी व्यक्ति की अपेक्षा रूढ़िवादी व्यक्ति के निर्णय पर पुराने मूल्यों तथा परम्परावादी उन्मुखता का प्रभाव अधिक देखा जाता है।

मैक क्लोस्की(1958)  ने अपने अध्ययन के परिणाम स्वरुप पाया कि –

रूढ़िवादी लोग अपने प्रत्यक्षीकरण व निर्णय में दृढ़, असहनशील, अटल, तथा जिद्दी होते हैं।

e – पूर्व धारणा / Prejudice–

कोई भी पूर्व धारणा प्रत्यक्षीकरण पर अनुकूल प्रभाव नहीं डालती। प्रजातीय, धार्मिक, जातिगत, यौन, सम्प्रदायगत पूर्व धारणाएं निष्पक्ष प्रत्यक्षीकरण की बाधा बनती हैं। यह  बाधा प्रत्यक्ष भी हो सकती है और अपत्यक्ष भी। हम अपने समुदाय, वर्ग, धर्म, जाति का जो प्रत्यक्षीकरण करते हैं वैसा दूसरे समुदाय,वर्ग, धर्म, जाति  का नहीं अर्थात पूर्व धारणा का प्रभाव प्रत्यक्षीकरण पर स्पष्ट रूप से पड़ता है।

f – यौन भिन्नता / Sex difference –

दैनिक जीवन के विविध अनुभवों व विविध अध्ययन ये स्पष्ट करते हैं कि प्रत्यक्षीकरण पर यौन भिन्नता का प्रभाव दृष्टिगत होता है। कभी इस आधार पर निर्णय में देरी होती है मैं 28 अक्टूबर 2022 को दैनिक जागरण, मुरादाबाद  की एक खबर की और आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जिसमें कहा गया कि –

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने एक ऐतिहासिक कदम  उठाते हुए महिला और पुरुष क्रिकेटरों को सामान मैच फीस देने का फैसला किया है। बीसीसीआइ सचिव जय शाह ने यह घोषणा की।

g – आयु /Age – विविध अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि आयु का प्रभाव प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है अधिक आयु के व्यक्ति की मनोवृत्ति, आवश्यकता, आकांक्षा, सपने और युवा आयु की सोच और प्रत्यक्षीकरण में अंतर स्वाभाविक है। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता, अनुभव जो आयु बढ़ने के साथ मिलते हैं प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव डालते हैं। कई अध्ययन इस बात को प्रमाणित करते हैं कि कम उम्र की अपेक्षा अधिक उम्र के लोग मानवजातीय पूर्वधारणाओं पक्षपातों से अधिक पीड़ित होते हैं।

इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे कारक हैं जो प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं इस पर स्थान, समय, सत्ता सभी का प्रभाव पारिलक्षित होता है। यह संस्कृति, संस्कार, परिवेश, चिन्तन आदि कारकों से भी प्रभावित होता है। यह व्यक्ति व्यक्ति व सामाजिक भिन्नताओं में भी अलग अलग होता है।

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